बचे रहें जंगल

चीड़ के जंगलों में आग लगने की बढ़ती घटनाओं का असर पर्यावरण और जल स्रोतों पर भी पड़ा। इससे सिंचाई और पीने के पानी की कमी हुई। इस समस्या से निपटने के लिए उत्तराखंड के लोगों में चीड़ के पेड़ों के उन्मूलन को लेकर विचार-विमर्श शुरू हुआ।

उत्तराखंड के तीस फीसद पर्वतीय भू-भाग में फैले चीड़ के पेड़ों के जंगल में गर्मियों में आग लगने की घटनाएं कोई नहीं बात नहीं है। जाहिर है कि इससे वन संपदा का ही नहीं पर्यावरण का भी नुकसान होता है। लेकिन चीड़ के ये जंगल अब धीरे-धीरे वहां के स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के नजरिये से कारामद साबित हो रहे हैं। लोगों ने रोजगार का जरिया चीड़ के इन पेड़ों से ही खोज निकाला। अच्छी बात यह हुई कि लोगों ने ऐसा करते हुए पर्यावरण से छेड़छाड़ भी नहीं की और एक स्वभाविक प्राकृतिक प्रक्रिया के रूप में हासिल कच्चा माल जैसे पिरूल और बगट की हासिल करने की जुगत भी भिड़ा ली। चीड़ के पत्तों को उत्तराखंड की जन बोली में पिरूल, पत्तों के बीच खिलने वाले फूल को दो नामों स्योत और ठीटा और फूल के सूख जाने पर अंदर से निकलने वाले बीज को ‘दाम’ कहा जाता है। इसे छीलने पर अंदर से एक और लचीला पदार्थ निकलता है जिसे खाया जाता है। पेड़ के छालों को बगट कहा जाता है।

प्राकृतिक स्वाभाविक प्रक्रिया के तहत उत्तराखंड की पहाड़ियों पर पिरूल व ठीटा सूख कर जमीन पर गिरता है। गिरने के बाद यह खतरनाक हो जाता है। यह ज्वलनशील तो होता ही है, इसमें फिसलन भी होती है। जंगलों में काफी मात्रा में गिरने की वजह से इसके नीचे प्रकृति की वजह से उगने वाली दूसरी बहुमूल्य जड़ी-बूटियां, वनस्पतियां और दूसरे पेड़-पौधे का विकास रुक जाता है। इससे न सिर्फ यह कि पर्वतीय भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती है बल्कि आग लगने की आशंका भी बढ़ जाती है।

चीड़ के जंगलों में आग लगने की बढ़ती घटनाओं का असर पर्यावरण और जल स्रोतों पर भी पड़ा इससे सिंचाई और पीने के पानी की कमी हुई। इस समस्या से निपटने के लिए उत्तराखंड के लोगों में चीड़ के पेड़ों के उन्मूलन को लेकर विचार-विमर्श शुरू हुआ। उत्तराखंड विकास मंच ने बहादुर राम टम्टा के नेतृत्व में इस मुद्दे पर आवाज उठाई और 1997 में भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के सचिव जेसी पंत ने चीड़ वनों के उन्मूलन के निर्देश देकर बांज, बुरांश भीमल, इतीम जैसे उपयोगी पेड़ों को लगाने की पहल की। उत्तराखंड के सत्तर विकास खंडों में चीड़ उन्मूलन परियोजना चलाने के निर्देश दिए और ‘चीड़ उन्मूलन वर्किंग प्लान’ के तहत वन विभाग को निर्देश दिया कि वह ग्रामीणों को उनके हक-हकूक की लकड़ी में चीड़ के पेड़ों को ही आवंटित करें। उम्मीद की जा रही थी कि तब करीब आठ हजार वर्ग किमी क्षेत्र फैले इन चीड़ वनों का उत्तराखंड से सफाया हो जाएगा, लेकिन समय-समय पर कानूनों में हुए बदलाव और दिशानिर्देश के कारण ऐसा नहीं हो पाया उत्तराखंड के बिगड़ते पर्यावरण और कीमती वन्य जीव और संपदा को निगलने वाली आग से बचाने के लिए फिर स्थानीय लोगों ने ही तरीका खोजा। लोगों ने चीड़ के पेड़ से निकलने वाले छिलके जिसे स्थानीय बोली में बगट कहा जाता है का इस्तेमाल हस्तशिल्प में किया। यह नया प्रयोग था लेकिन इस स्थानीय लोगों ने बड़े पैमाने पर अपनाया। इससे रोजगार के नए अवसर भी मिले।

चीड़ का पेड़चीड़ का पेड़चीड़ के पेड़ की छाल (बगट) वनों और पहाड़ी नदियों के इर्द-गिर्द बड़ी मात्रा में पड़ा रहता है। लोग इसे इकट्ठा कर इसका इस्तेमाल जलावन के रूप में करते रहे हैं। बगट को हस्तशिल्प में प्रयोग करने का गौरव की शुरुआत उत्तराखंड के भारतीय थल सेना से 1982 में अवकाश हासिल करने और भारतीय स्टेट बैंक, रानीखेत में प्रबंधक के पद पर कार्यरत भुवनचंद्र शाह ने की, जिन्होंने 1986 में पहली बार बगट पर हस्तशिल्प के रूप में कार्य करना आरंभ किया और सुंदर आकृतियों में मूर्तियां, खिलौने, घड़ियाँ, जेवर, मंदिर और काष्ठ कला में चीड़ के फूल का इस्तेमाल कर एक नया अध्याय जोड़ा। बनाई गई कलाकृतियों से उत्तराखंड की सांस्कृतिक पहचान उजागर हुई।

जेवरों की जो भी आकृतियां बगट को कुतर कर बनाई गई उनमें उत्तराखंड में प्रचलित वे जेवर हैं। जिनका चल अब धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है। जाहिर है कि बगट के इस इस्तेमाल ने संभावनाओं के नए और बुलंद द्वार खोले। बगट पर बनाई गई हस्तशिल्प की प्रदर्शनी अब तक उत्तराखंड के कई कस्बों और शहरों के अलावा दिल्ली, मुंबई और बंगलूरू में लगाई और सराही जा चुकी है। बगट विभिन्न रंगों में पाया जाता है इसलिए कलाकृतियों में कृत्रिम रंगों की प्रायः आवश्यकता नहीं होती। भार कम होने से गहने वगैरह बनाकर इसमें नग जड़ कर कलात्मक जेवर बनाए जा सकते हैं। बगट पर हस्तशिल्प के जरिए बागेश्वर में लोगों ने इसे रोजगार के रूप में अपनाने का प्रयास किया और सफल रहे।

प्रदेश सरकार अगर इस हस्तशिल्प पर ध्यान दे तो यह उत्तराखंड का प्रमुख हस्तशिल्प उद्योग बन सकता है। चीड़ के पेड़ से गिरने वाला पिरूल जो जंगलों में पड़ा रहता था। उससे कोयला बनाने का प्रयोग शुरू किया गया यह प्रयोग भी सफल रहा। लोगों को रोजगार का यह नायाब तरीका मिला। अब स्थानीय लोग वन विभाग से एक रुपया किलो की दर से इसे खरीद कर इससे निर्मित कोयला बाजार में पंद्रह से सतरह रुपए प्रति किलो के हिसाब से बेचेंगे। कोयला बनाने के लिए उत्तराखंड के कई इलाकों में, जहां चीड़ वनों की बहुलता है वन विभाग ने भट्टियां बनाई हैं और इनसे निर्मित कोयला पहली बार आने वाली सर्दी में उत्तराखंड के गांवों, कस्बों और शहरों में बेचा जाएगा। पिरूल से कोयला बनाने की विधि पर आधारित भट्टियों को स्थान-स्थान पर निर्मित कर कोयला उद्योग को आगे बढ़ाकर न सिर्फ उर्जा बल्कि इस पर आधारित उद्योग के माध्यम से रोजगार के नए साधन मुहैया कराए जा सकते हैं। इससे न सिर्फ पर्यावरण बेहतर होगा बल्कि लगने वाली आग की घटनाओं से भी निजात मिलेगी, लोगों को रोजगार मुहैया होगा सो अलग।

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