बड़े बांध नहीं : स्थायी विकास चाहिए

30 Mar 2012
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भागीरथी गंगा पर जिस लोहारी-नागपाला बांध को रोका गया था वहां पर बन चुकी सुरंग को ऐसे ही छोड़ दिया है। मकानों में आई दरारों, सूखे जलस्रोतों के लिये कोई उपाय नहीं किये गये हैं। मनेरी-भाली चरण दो में बांध चालू होने के बाद भी जलाशय पूरा नहीं भरा जा सका चूंकि जलाशय से नई डूब आई। डूब का क्षेत्र पहले मालूम ही नहीं था। इसी बांध की सुरंग से कितने ही गांवों के जल स्रोत सूख गये। बांध बनने के बाद इसका विद्युतगृह टिहरी बांध की झील में आ रहा है।

उत्तराखंड राज्य में बड़े बांधों की नहीं वरन् पहाड़ के लिये स्थायी विकास हेतु प्राकृतिक संसाधनों के जनआधारित उपयोग की जरुरत है। राज्य में नयी सरकार के नये मुख्यमंत्री ने राज्य में उर्जा उत्पादन को बढ़ाने की बात की है। यह बयान अपने में एक भय दिखाता है। इसका अर्थ जाता है कि बांधो पर नयी दौड़ शुरू होगी। हाल ही में 14 मार्च से 22 मार्च तक वैश्विक बड़े बांध विरोधी सप्ताह पर माटू जनसंगठन ने उत्तराखंड में विभिन्न स्थानों पर बड़े बांधों के विरोध में प्रदर्शन किया। अलकनंदा गंगा पर निर्माणाधीन विष्णुगाड़ पीपलकोटी बांध (444 मेगावाट) प्रभावितों ने पीपलकोटी शहर में जुलूस निकाला और अलकनंदा गंगा को स्वतंत्र रखने के लिये संघर्ष को तेज करने का संकल्प लिया। हाल ही में इस परियोजना को विश्व बैंक से कर्जा मंजूर हुआ है। 24 दिसंबर को विश्व बैंक के मिशन का भी लोगों ने 3 घंटे घेराव करके अपना विरोध प्रकट किया। टौंस घाटी में जखोल-सांकरी बांध (51 मेगावाट) प्रभावित क्षेत्र में भी बड़ा जुलूस प्रर्दशन हुआ यह क्षेत्र गोविंद पशु विहार में आता है। यहां लोगों के पारम्परिक हक-हकूको पर पाबंदी है। किन्तु बांध की तैयारी है। जखोल गांव 2,200 मीटर की उंचाई पर है और भूस्खलन से प्रभावित है। बांध की सुरंग इसके नीचे से ही प्रस्तावित है। यहां लोगों ने मई 2011 से टेस्टिंग सुरंग को बंद कर रखा है।

मुख्यमंत्री जी के बयान पर माटू जनसंगठन ने उत्तराखंड के बांधों की स्थिति पर गहरी चिंता प्रकट करते हुए बड़े बांधो पर सरकारी दौड़ पर प्रश्न उठाया है। जिस तरह बिजली उत्पादन के लिये पर्यावरण नियमों और नदी घाटी के निवासियों के हक-हकूकों को एक तरफ करके नये बांधों को जल्दी-जल्दी बनाने की कोशिश हो रही है। वह किसी भी तरह से उत्तराखंड के भविष्य के लिये सही नहीं है। पुराने बांधो की कमियों और उनके नुकसानों पर कोई चर्चा तक नहीं है। पर्यावरण एंव वन मंत्रालय द्वारा किसी भी नदी में मक डालने पर पाबंदी है। मक को कहीं पर भी रखे जाने के लिये भी नियम मंत्रालय द्वारा दिये गये है। किन्तु राज्य में कही भी इसका पालन नहीं हो रहा है। टिहरी बांध परियोजना जिसमें टिहरी बांध, पंप स्टोरेज प्लांट व कोटेश्वर बांध आते हैं। इनकी पर्यावरण स्वीकृति 19 जुलाई 1990 को हुई थी जिसमें शर्त संख्या 3.7 में भागीरथी प्रबंध प्राधिकरण बनाने के लिये थी। इस प्राधिकरण का काम पूरी घाटी के प्रबंधन का होना चाहिये। किन्तु नदी को जिस तरह कचरा फेंकने की जगह बना दिया गया है वह शर्मनाक है।

केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और प्राधिकरण की भी पूरी तरह जिम्मेदारी है। दोनों की ओर से कोई निगरानी नहीं हो रही है। इसके लिये बांध कंपनी टिहरी जलविद्युत निगम (टीएचडीसी) व बांध ठेकेदारों पर कार्यवाही होनी चाहिये। किन्तु टीएचडीसी को नये बांधों का ठेका दिया जा रहा है। विश्व बैंक ने टीएचडीसी को अलकनंदा गंगा पर विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध के लिये पैसा दिया है। वहां भी यही हाल है। भागीरथी गंगा पर जिस लोहारी-नागपाला बांध को रोका गया था वहां पर बन चुकी सुरंग को ऐसे ही छोड़ दिया है। मकानों में आई दरारों, सूखे जलस्रोतों के लिये कोई उपाय नहीं किये गये हैं। मनेरी-भाली चरण दो में बांध चालू होने के बाद भी जलाशय पूरा नहीं भरा जा सका चूंकि जलाशय से नई डूब आई। डूब का क्षेत्र पहले मालूम ही नहीं था। इसी बांध की सुरंग से कितने ही गांवों के जल स्रोत सूख गये। बांध बनने के बाद इसका विद्युतगृह टिहरी बांध की झील में आ रहा है। यह बताता है कि अभियांत्रिकी व सर्वे कितने गलत है।

भागीरथी गंगा के बांधों से कभी भी पानी छोड़ने के कारण दसियों लोग डूब चुके है। अभी 18 फरवरी 2012 को उत्तरकाशी में गंगा के बीच में दो बच्चे फंस गये थे। गंगा सर्दियों में सूखी नजर आती है। बांध कंपनियां शाम को बिजली पैदा करने के लिये ही पानी छोड़ती है। नदी किनारे रहने वाले नदियों से ही वचिंत हो गये हैं।माननीय उच्च न्यायालय द्वारा 3 नवम्बर 2011 को एन.डी. जुयाल व शेखर सिंह की याचिका पर टीएचडीसी को टिहरी बांध विस्थापितों के पुनर्वास कार्य पूरा करने के लिये 102.99 करोड़ रुपये देने का निर्देश दिया है। जबकी सरकारें 2005 में ही पूर्ण पुनर्वास की घोषणा कर चुकी थी। अभी भी अलंकनंदा गंगा पर बने पहले निजी बांध (जेपी कंपनी) की सुरंग से धंसे चाई गांव के लोगों का पुनर्वास नहीं हो पाया है। मंदाकिनी घाटी में निर्माणाधीन सिंगोली-भटवाड़ी व फाटा-ब्योंग बांधों की निमार्णाधीन सुरंगो से त्रस्त अपने जंगलों की रक्षा में खड़े लोगों को जेल भेजा जा रहा है और बांध कंपनियों की निगरानी तक नहीं है।

पिंडर घाटी में जहां लोगों ने बांध का विरोध किया दो बार जनसुनवाई नहीं होने दी वहां तीसरी बार बैरीकेट लगाकर जनसुनवाई की गई और तमाम उलंघनों के बाद भी स्थानीय प्रशासन और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने केंद्रीय मंत्रालय को गलत तथ्य पेश किये। 65 मीटर के बांध और 200 मेगावाट के लिये प्रस्तावित श्रीनगर परियोजना में 95 मीटर का बांध और 330 मेगावाट के लिये बन रही है। यह पर्यावरण मंत्रालय की बंद आंखों वाली स्वीकृति प्रक्रिया का प्रमाण है। रोजगार की कमी के कारण लोग बांधों को रोजगार के विकल्प के रूप में देखते हैं। लोगों के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क व पुलों जैसी मूलभूत सुविधायें सरकार द्वारा ना देकर बांध कंपनियों द्वारा दिये जाने के वादे दिये जा रहे है। दूसरी तरफ बांध विस्थापितों को ये ही सुविधायें देने से बांध कंपनी कतराती हैं। यह सरकारी योजनाकारों की विफलता और प्राकृतिक संसाधनों को लोगों से छीनने और उनके दुरुपयोग का खुला उदाहरण है।

बड़ी जलविद्युत परियोजनायें ही रोजगार का एक मात्र साधन नहीं हैं। उत्तराखंड राज्य की परिस्थिति देखते हुए लोगों का जीवन स्तर ऊंचा उठाने के लिये व रोजगार के स्थायी साधन बनाने, पलायन रोकने के लिये उत्तराखंड राज्य सरकार व केन्द्र सरकार को हमारे कुछ सुझाव है।

• शिक्षा का स्तर प्राथमिक स्तर से ही उच्चस्तरीय बनाया जाये। कॉलेज तक के छात्रों के लिये मुफ्त रहने व भोजन की व्यवस्था हो।
• व्यवसायिक प्रशिक्षण संस्थानों का भी प्रसार हो।
• कार्यरत जलविद्युत परियोजनाओ की सही निगरानी और नियम-कानूनों-वादों के उलंघन पर दंड की व्यवस्था हो।
• बंद पड़ी छोटी जलविद्युत परियोजनाओं को चालू किया जाये और उनसे उत्पादित बिजली का उपयोग स्थानीय स्तर पर पहले हो।
• स्थायी रोजगार के लिए स्थानीय घराटों को उच्चीकृत किया जाये जिनसे ग्रामीणों को स्थायी रोजगार, खेतों को पानी, गांव को बिजली भी मिल सके।
• छोटी परियोजनायें जिनको स्थानीय लोगों की सहकारी समिति या पंचायतों को आबंटित किया जाय।
• सेवा क्षेत्र, सूचना तकनीक, शिक्षा-स्वास्थ्य, अनुसंधान केंद्र, बागवानी, फलखेती, औषधि उत्पादन जैसी स्थायी रोजगार की योजनायें बनायी जायें।
• नदियों के जल को ऊपर पहाड़ों से ही नहरों के द्वारा निकाला जाये जिससे खेतों को वर्ष भर पानी मिल सके। अनाज की जरूरतें पूरी हो सके। राज्य के पहाड़ी क्षेत्र में मात्र 7 प्रतिशत ही खेती की भूमि शेष है।

हमारी नयी सरकार से मांग है कि :-
• बड़े बांधों की समस्याओं पर विचार करे।
• आज तक बने चुके और निर्माणाधीन बांधो पर श्वेत पत्र जारी करे।
• ऊपर लिखे सुझावों पर गंभीरता से विचार करे ताकि उत्तराखण्ड का स्थायी विकास संभव हो।
 

बांध कथा

 

पिंडर नदी के लिए जनसुनवाई

 

 

 

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