बगावत पर मजबूर मिथिला की कमला नदी (The Kamla River and People On Collision Course)


1. कमला नदी


कमला बिहार तथा मिथिला की एक प्रसिद्ध नदी है। बिहार की सबसे चंचल नदी कोसी के सन्दर्भ में जो भयावहता जुड़ी हुई है वैसी बातें जरूर कमला के साथ नहीं कही जाती हैं। कोसी का पानी कृषि के लिये उतना उपजाऊ या उपयोगी नहीं जाना जाता पर कहते हैं कि कमला का पानी जहाँ पड़ जाय वहाँ की मिट्टी से सोना पैदा होता है। दो मन कट्ठा की उपज के बारे में इस क्षेत्र के बारे में किसी से सुन लीजिये-बस कमला माई की कृपा होनी चाहिये। इतनी जीवनदायिनी नदी होने के बावजूद कमला के बारे में प्राचीन संस्कृत साहित्य में कोई विशेष वर्णन नहीं मिलता। आदि ग्रंथ रामायण तथा महाभारत में भी कोई ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिससे कि यह निर्विवाद संकेत मिले कि कमला को रेखांकित किया गया है। जैन और बौद्ध साहित्य में भी लगभग यही स्थिति है। लोक कथाओं तथा किंवदन्तियों में कमला जरूर कोसी के मुकाबले में ठहरती है। कमला को स्थानीय लोग एक अविवाहित ब्राह्मण कन्या मानते हैं।

कहते हैं कि कमला जब इन्द्र लोक में रहती थी तब एक बार स्वर्ग में सभी देवी-देवताओं की पूजा के लिये मृत्यु लोक में पुजारी नियुक्त किये जा रहे थे। सबके पुजारियों की व्यवस्था तो हो गई मगर कमला छूट गई और कोई ब्राह्मण ऐसा बचा नहीं जो कि कमला की नियमित रूप से पूजा कर सके। तब कमला ने ब्रह्मा से इस बात की शिकायत की कि जब ब्राह्मण ही नहीं बचे तो उसकी पूजा कौन करेगा? ब्रह्मा ने कमला को बताया कि वह तो पानी की देवी है अतः उसकी पूजा मल्लाह जाति के लोग करेंगे। उन्होंने कमला से कहा कि मृत्यु लोक में विश्वम्भर सरदार और उसकी पत्नी रानी गजवन्ती से जो पुत्र उत्पन्न होगा वही उसकी पूजा शुरू करवायेगा। प्रचलित मान्यता के अनुसार विश्वम्भर सरदार बिहार में दरभंगा जिले के उत्तर पश्चिम में सिंहवारा के पास भरोरा गाँव का रहने वाला था। ब्रह्मा ने जब यह बात कमला को बताई तब यह बालक रानी के गर्भ में था और वहीं से कमला की उत्सुकता इस बच्चे में बढ़ी। गर्भीदयाल सिंह नाम के इस बालक की गर्भ से लेकर उसके विवाह तथा शिक्षा दीक्षा तक की कहानी लोक-कथाओं में वर्णित है जिसे गाने/कहने वाले इसे कई दिन में पूरी कर पाते हैं। गर्भीदयाल सिंह का विवाह बेगूसराय जिले में बखरी के पास दुःखहरन सरदार और उसकी पत्नी बहुरा से पैदा हुई कन्या धानी से हुआ। बहुरा जादूगरनी थी और उसने विश्वम्भर सरदार और गर्भीदयाल सिंह तथा उनके परिवार वालों को बहुत त्रास दिया मगर कमला की कृपा से सब ठीक हो गया। विवाह के बाद गर्भीदयाल सिंह ने तिलयुगा के किनारे कमला की पहली पूजा अर्चना की और तभी से इलाके के मल्लाह जाति के लोग कमला की पूजा करते आ रहे हैं। कुछ ऐसी ही कहानी मल्लाहों के आराध्य देवता जयसिंह और कमला के साथ से जुड़ी हुई है।

एक दूसरी कथा के अनुसार कमला का एक शुभचिन्तक मल्लाह है जिसका नाम कोइलाबीर है। उसकी कुदाल का बेंट चौरासी मन का और फाल (खन्त) अस्सी मन का है। वह मिट्टी काट-काट कर कमला के लिये रास्ता तैयार करता है और कमला उसका अनुसरण करती है। कोइलाबीर किसी भी विपत्ति से कमला की रक्षा करता है। कहते हैं कि एक बार चमड़े और हड्डी का कारोबार करने वाले एक धनी मानी और ताकतवर आदमी उगला की दृष्टि कमला पर पड़ी और उसे इस बात से ईर्ष्या हुई कि कमला की सब लोग पूजा करते हैं मगर उसको कोई नहीं पूछता। उगला ने तय किया कि वह कमला को बाँध देगा और जैसे ही कमला ऊपर की ओर उठेगी, वह उसे खींच कर अपने घर ले जाएगा, उसकी मांग में सिन्दूर भरेगा और उससे शादी करेगा। कमला उगला के इस संकल्प से डर गई और उसने कोइलाबीर को अपनी व्यथा और उगला की नीयत के बारे में बताया। कोइलबीर ने उगला के मिट्टी के बाँध को जा कर काट दिया और कमला फिर आजाद हो कर बहने लगी।

उगला भी हार मानने वाला नहीं था। उसने अगली बार कमला को हड्डी का बाँध बना कर घेर लिया। कमला फिर कोइलाबीर के पास गई और अपनी तकलीफ सुनाई। कोइलाबीर बाँध तक तो आया मगर यह देख कर कि बाँध हड्डी का बना हुआ था, उसे छूने या तोड़ने से मना कर दिया क्योंकि उसके हिसाब से यह काम अपवित्र था। उसने कमला से कहा कि तुम दिल्ली चली जाओ जहाँ तुम्हें महाराज अमर सिंह नाम का एक राजा मिलेगा जो कि शायद यह हड्डी का बना हुआ बाँध तोड़ दे। राजा ब्रह्मचारी हैं और उसका सात महल का गढ़ है जिसके दक्षिण में चन्दन का एक पेड़ है और वहीं उसका सात कोस का अखाड़ा है जिसे देख कर तुम पहचान जाओगी। कमला दिल्ली आई और अखाड़ा पार कर के चन्दन के पेड़ पर बैठ गई। वहाँ जब व्रती राजा अमर सिंह पहुँचे तो उन्हें कुछ दाल में काला लगा कि उनकी ताकत घट गई है और वह सोचने लगे कि निश्चित ही इस अखाड़े को किसी स्त्री ने काट दिया है और अखाड़ा अब पहले जैसा नहीं रहा। राजा गुस्से में बड़बड़ाया कि अगर यह स्त्री उसे मिल जाय तो वह उसे एक जोरदार मुक्का मार कर जमीन में अस्सी फुट नीचे दबा देगा। पेड़ पर छिप कर बैठी कमला को विश्वास हो गया कि यही आदमी अमर सिंह है और वह मोरांग जाकर उगला से उसकी रक्षा अवश्य करेगा। कमला प्रत्यक्ष हो गई और सारी बातें उसने अमर सिंह को कह सुनाई कि कैसे-कैसे उगला ने उसे बाँध रखा है और सिन्दूर लेकर उसे जबर्दस्ती शादी करने के लिये खोज रहा है। अमर सिंह ने धैर्यपूर्वक कमला की सारी बातें सुनी और उससे वायदा किया कि वह उसकी रक्षा करेगा और ऐसा न कर पाने पर अस्सी कोस के नर्क में गिरेगा।

नौ गज लम्बा और छः गज चौड़ा शरीर था अमर सिंह का और वह अपनी माता की आज्ञा ले कर कमला के साथ चल पड़ा उगला के साथ युद्ध करने। उगला को तो अमर सिंह ने मार गिराया मगर जब बाँध की ओर बढ़ा तो देखा कि यह तो हड्डी का बना हुआ था और हड्डी अमर सिंह भी नहीं छूएँगे। अमर सिंह ने कमला से कहा कि वह तो यह हड्डी का बाँध नहीं तोड़ पायेंगे मगर पश्चिम में अरब देश में एक मीरन फकीर रहते हैं वह इसे जरूर तोड़ देंगे, उनको बुला लाओ। अब कमला चली मीरन फकीर के पास जिसने आकर हड्डी का बाँध तोड़ दिया और कमला हमेशा के लिये मुक्त हो गई। तब से कमला के साथ-साथ मीरन या मीरा फकीर की पूजा भी होने लगी।

इन लोक-कथाओं में कल्पना की कितनी उड़ान है यह तो जाहिर है मगर इतना जरूर है कि यह नदियाँ हमारे परिवेश, सभ्यता और संस्कृति का अभिन्न अंग है और इनकी हैसियत केवल इनकी जल-निकासी की क्षमता से आंकना एक बड़ी भूल होगी। मधुबनी जिले में झंझारपुर के पास कमला के बायें तटबन्ध पर परतापुर में कमला का एक मन्दिर निर्माणधीन है जहाँ अब हर साल मेला लगने लगा है।

2. कमला नदी का भौगोलिक स्वरूप


कमला नदी का उद्गम नेपाल में हिमालय पर्वतमाला की महाभारत शृंखला में है जहाँ यह सिंधुलिया गढ़ी के पास 1200 मीटर की ऊँचाई से निकलती है। इन पहाड़ों में अन्य बहुत सी नदियाँ जैसे जिरना खोला, चन्दाहा, ठकुआ खोला, तावा खोला, बैजनाथ खोला और काली खोला कमला के साथ मिलती है। यह सारी सम्मिलित धाराएँ मिल कर नेपाल में तेतरिया के पास पहाड़ों से निकल कर तराई में शीसापानी के पास प्रवेश करती है। शीसापानी के पास तेतरिया में, जहाँ इस नदी पर शीसापानी बाँध के नाम से एक बाँध प्रस्तावित है, इस नदी का जलग्रहण क्षेत्र मात्र 1409 वर्ग किलोमीटर है। यहाँ से नदी सीधे दक्षिण दिशा में जाती है और इसमें जीवा (बेती), घुरमी, लोहजरा तथा मैंनावती नदियाँ बायें तट पर आकर मिलती हैं। दाहिनी तरफ से इस नदी में कोई सहायक धारा आकर नहीं मिलती अलबत्ता बछराजा नाम की एक धारा फूट कर अलग जरूर होती है। यह बछराजा धार पिछले वक्तों में कमला की मुख्य धारा हुआ करती थी।

कमला के विभिन्न क्षेत्रमैदानी इलाकों में यह नदी भारत में जयनगर (जिला-मधुबनी) से प्रायः साढ़े तीन किलोमीटर उत्तर में प्रवेश करती है। भारतीय क्षेत्र में इस नदी से धौरी, सोनी, बलान, गोबरजई, त्रिशूला तथा सुगरवे नाम की नदियाँ बायें किनारे से आकर मिलती हैं। इन नदियों में से बलान हिमालय से आती हैं और लदनियां थाने से पूरब होकर बहती है। दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर बहती हुई यह नदी एक अन्य नदी सोनी से संगम करके अब मधुबनी जिले के बाबूबरही प्रखण्ड में पिपराघाट के पास कमला नदी से मिल जाती है। यहाँ से इस संयुक्त धारा का नाम कमला-बलान हो जाता है। सन 1954 में बिहार में एक भयंकर बाढ़ आई थी और तब कमला नदी ने पूरब की ओर बढ़ कर पिपराघाट के पास बलान वाली धारा का रास्ता अख्तियार कर लिया था, तभी से इस संयुक्त धारा को कमला-बलान कहते हैं। यही संयुक्त धारा दक्षिण की ओर बहते हुये बदला घाट के पास करेह से संगम करती है। बलान नदी (जिसे झंझारपुर बलान भी कहते हैं) का प्रवाह पथ ही आजकल कमला-बलान का प्रवाह पथ है। यहाँ से यह धारा भतगावां, बिठौनी, चपाही, गंगद्वार, इमादपट्टी कंदर्पीघाट, गंधराईन, भभाम, बनौर, महरैल, ओझौल, बलनी, मेहथ और महिनाथपुर होती हुई झंझारपुर आती है और दरभंगा-निर्मली रेल लाइन को पार करती है। इस रेल लाइन के दक्षिण यह नदी बलभद्रपुर, बेलही, खैरी, फैटकी, परसाद, भीठ-भगवानपुर, बौराम, झमटा, जमालपुर होते हुये फुहिया में जाकर करेह से संगम करती है। पहले बलान की यह धारा रसियारी के पास तिलयुगा से संगम कर लेती थी परन्तु नदियों की बदलती धाराओं और उनके धारा परिवर्तन को रोकने के लिये बनाये गये तटबन्धों के कारण नदियों के प्रवाह मार्गों में जहाँ बहुत से परिवर्तन आये हैं वहाँ बहुत सी नदियों का अस्तित्व ही अब समाप्त हो गया है। उदाहरण के लिये तिलयुगा और बैंती जैसी नदियाँ अब कोसी तटबन्धों की भेंट चढ़ गई हैं।

कोसी की ही तरह कमला में भी प्रवाह के साथ अत्यधिक गाद आती है और इसके कारण कमला की धारा में भी समय-समय पर परिवर्तन होता रहा है। इसकी अधिकांश छाड़न धारायें बरसात के मौसम में सक्रिय रहती हैं और कमला-बलान की जो वर्तमान धारा है उसके पश्चिमी हिस्सों में देखी जा सकती हैं जो ऊपरी इलाकों में बेनीपट्टी से रामपट्टी तथा निचले इलाकों में दरभंगा से तीन किलोमीटर उत्तर से लेकर लगभग 35 किलोमीटर दूर झंझारपुर तक फैली हुई हैं। कमला बलान की पूरी लम्बाई लगभग 328 किलो मीटर है जिसमें 208 किलो मीटर लम्बाई नेपाल में पड़ती है तथा शेष 120 किलो मीटर भारत में है। शीसापानी, जहाँ नदी पहाड़ों से मैदानों में उतरती हैं, जयनगर से 48 किलो मीटर उत्तर में अवस्थित है।

कमला-बलान का कुल जलग्रहण क्षेत्र 7232 वर्ग किलोमीटर है जिसमें से 4488 वर्ग किलो मीटर बिहार में तथा बाकी 2744 वर्ग किलो मीटर नेपाल में है। भारतीय भाग के जल ग्रहण क्षेत्र का 63 प्रतिशत मधुबनी में, 31 प्रतिशत दरभंगा में, 3-3 प्रतिशत सहरसा और समस्तीपुर में तथा केवल एक प्रतिशत खगड़िया में पड़ता है। बरसात के मौसम में नदी का प्रवाह सर्वाधिक होता है जबकि बाकी के दिनों में नदी पैदल पार करने लायक हो जाती है।

भारतीय क्षेत्र में कमला-बलान घाटी में सबसे कम वर्षापात कुशेश्वर स्थान में 1000 मि.मी. तथा सर्वाधिक खुटौना में 1450 मि. मी. होता है। यह एक विडम्बना ही है कि घाटी में सबसे कम वर्षा के बावजूद कुशेश्वर स्थान वर्ष के अधिकांश भाग में पानी से घिरा रहता है। इसके कारणों के बारे में हम आगे चर्चा करेंगे।

कमला बलान घाटी पूरब में कोसी, पश्चिमी में अधवारा समूह की नदियों, उत्तर में हिमालय पर्वतमाला तथा दक्षिण में करेह नदी से बंधी हुई है। 1991 की जनगणना के अनुसार कमला घाटी की जनसंख्या 38.72 लाख थी जो 2001 तक बढ़ कर 44.64 लाख तक पहुँच जाने वाली थी।

3. कमला की छाड़न धाराएँ


कमला यद्यपि कोसी की तरह उच्छृंखल नदी तो नहीं है पर जब से इसकी धाराओं का लेखा-जोखा रखा जाने लगा है तब से इसकी चार मुख्य छाड़न धाराओं का जिक्र आता है। कमला नदी पर प्रस्तावित तटबन्धों की 1956 की परियोजना रिपोर्ट में इन धाराओं का जिक्र हुआ है और इसी रिपोर्ट के आधार पर यहाँ हम इन धाराओं पर एक नजर डालेंगे।

3.1 बछराजा धार - रेनेल (1779) के सर्वेक्षण के समय कमला जयनगर के ठीक पश्चिम से हो कर बहा करती थी। मधुबनी नगर के भी यह पश्चिम से हो कर ही बहती थी। पर उस समय इसकी धारा दरभंगा शहर के तीन किलोमीटर पूरब से हो कर गुजरती थी जो कि गौसाघाट और त्रिमुहानी घाट होती हुई फुहिया के पास करेह नदी से संगम कर लेती थी। इस धारा की कुल लम्बाई 240 किलोमीटर थी। रेनेल के सर्वेक्षण के बाद कमला की धारा राथोस गाँव तक तो अपने पुराने रूप में रही किन्तु रघौली गाँव के पास और कमतौल स्टेशन के पूरब में दरभंगा बागमती से जा कर मिल गई और उसी के जरिये हायाघाट रेलवे स्टेशन से थोड़ा ऊपर करेह नदी में जा कर मिल गई। कमला का यह मार्ग नेपाल में पहाड़ियों से लेकर करेह से उसके संगम स्थल तक मात्र 158 कि.मी. लम्बा था और यह धारा कमला के विस्थापन की एक तरह से पश्चिमी सीमा थी।

3.2 पैट घाट कमला - कमला ने क्रमशः अपना पुराना प्रवाह पथ छोड़ दिया और जयनगर के पूरब और सकरी जयनगर रेल लाइन के साथ-साथ राजनगर स्टेशन तक बही और फिर दक्षिण दिशा में मुड़ कर सकरी-निर्मली रेल लाइन को लोहना रोड के पश्चिम में पार किया और अन्ततः बलथरवा के पास जा कर तिलयुगा नदी में मिल गई। कमला की इस धारा को पैट घाट कमला कहते हैं जिसकी कुल लम्बाई 189 किलोमीटर थी।

3.3 सकरी कमला - पैट घाट कमला की धारा भी स्थिर नहीं रह सकी और 1922 में जयनगर से राजनगर तक कमला के बहते प्रवाह ने राजनगर में ही सकरी जयनगर रेल लाइन को पुल संख्या 16ए से पार कर लिया। इसके बाद नदी की धारा पुल संख्या 15 से होकर मुड़ी और एक बार फिर पुल संख्या 7 को पार करके वापस अपनी पुरानी दिशा में आ गई और इस बार दरभंगा-निर्मली रेल लाइन को सकरी से पश्चिम पुल संख्या 54 से होकर पार किया। अब कमला ने सकरी-बेहरा-सुपौल मार्ग के समान्तर पूरब से बहना शुरू किया और झमटा के दक्षिण में जीवछ से जाकर मिल गई। आगे बढ़ कर सहरवा गाँव के पास यह नया प्रवाह पथ पैट घाट कमला से मिल गया जो कि एक बार फिर बलथरवा के पास जाकर तिलयुगा से मिलता था। इस पूरे प्रवाह मार्ग की लम्बाई तराई और मैदानों में मिलाकर 211 कि.मी. थी।

3.4 जीवछ कमला - 1930 में सकरी-कमला ने मोहनपुर गाँव के पास अपना रास्ता बदल लिया। इस नये प्रवाह ने सकरी-जयनगर रेल लाइन को पुल संख्या 9 से होकर पार किया और छुतरही धारा वाला रास्ता अख्तियार किया जो बद्रीबन और ककना होकर बहता था और दक्षिण में नीमा के पास जाकर जीवछ की धार से मिल कर उसी की धारा को पकड़ लेता था। जीवछ की यह धारा तारसराय के पश्चिम में दरभंगा-निर्मली रेल लाइन को पुल संख्या 43 से होकर पार करती है और झमटा के पास सकरी कमला में मिल जाती है और अन्ततः बलथरवा के पास तिलयुगा में गिर जाती है। यह पूरा प्रवाह मार्ग 234 कि.मी. लम्बा है। सन 1939 और 1940 के बीच छुतहरी धार-जीवछ धार के मार्ग में एक और परिवर्तन आया कि ब्रदीवन और धनुकी गाँवों के बीच में नदी की धारा अब सहुरा, अकासपुर होकर बहने लगी थी पर धुनकी आकर पुनः पुराने रास्ते पर चल जाती थी। कमला का यही प्रवाह लगभग 1954 तक बना रहा जबकि भकुआ गाँव के पास नदी की धारा मुड़ गई और वह पिपराघाट के पास बलान से जुड़ गई।

निचले इलाकों में गुलमा गाँव के पास कमला-बलान दो हिस्सों में बट जाती है। पूर्व की ओर बहने वाली बड़ी धारा जिसे स्थानीय लोग कोसी की धार कहते हैं मानसी सुपौल रेल लाइन को घमारा घाट के पास पार करती है और करेह में मिल जाती है। दक्षिण की दिशा में बहने वाली कमला-बलान की दूसरी धारा का नाम बहवा धार है और वह फुहिया गाँव से दो किलोमीटर नीचे तिलकेश्वर के पास करेह में मिल जाती है।

4. कमला की बाढ़


अंग्रेजों के भारत पर कब्जे के कुछ वर्षों बाद सन 1770 में भयंकर अकाल पड़ा और उससे दरभंगा जिला (वर्तमान दरभंगा, समस्तीपुर तथा मधुबनी) काफी प्रभावित हुआ था। एक तो अकाल की मार और दूसरी तरफ जमींदारों का आतंक-दोनों के मेल से खेती प्रायः समाप्त हो गई। हालात यहाँ तक बिगड़े कि 1783 में दरभंगा के कलक्टर ने एक प्रस्ताव किया कि अवध के वजीर से कह कर उस इलाके के लोगों को लाकर यहाँ बसाया जाय और खेती-बारी एक बार फिर शुरू की जाय। अठाहरवीं शताब्दी के अन्त में दरभंगा का परगना पचही तथा आलापुर खूंखार जंगली जानवरों की आश्रयस्थली थे। हालात धीरे-धीरे बदले और 1828 में दरभंगा के कलेक्टर की लिखी एक रिपोर्ट के अनुसार दरभंगा में कुछ साल पहले खेती वाली जमीन से कहीं ज्यादा परती जमीन थी। नेपाल से लगी तराई वाली जमीन तथा तिलयुगा और धाउस के बीच में तो हालत यह थी कि अगर एक बीघा जमीन पर खेती हुई तो पचास बीघा जमीन परती पड़ी रह गई। उन्नसवीं शताब्दी के प्रारंभ से कुछ सुधार हुआ। तब तक की स्थिति यह थी कि करीबन पूरे जिले में आधी जमीन खाली पड़ी हुई थी और उत्तर वाले हिस्से में आधी से ज्यादा जमीन परती थी पर 1840 आते-आते लगभग तीन चौथाई जमीन पर खेती शुरू हो गई थी यद्यपि उत्तर वाले भाग में अभी भी खेती आधे-आध पर टिकी हुई थी और उसके बाद काफी समय के लिये खेती का फैलाव ठहर गया। सन 1875 में खेती 79 प्रतिशत क्षेत्र तक पहुँच गई थी और सन 1896-1903 के बीच के सर्वे-सेटलमेन्ट रिपोर्ट के अनुसार यह लगभग 80 प्रतिशत हो चली थी। “... हमें यह कहना उचित है कि पिछले सौ वर्षों के बीच कृषि क्षेत्र लगभग दोगुना हो गया है और इसमें से अधिकांश विस्तार पिछली शताब्दी (उन्नसवीं) के पूर्वार्द्ध में हुआ है।”

नदी, नालों और धारों से घिरे इस क्षेत्र में अकाल पड़ना निश्चित रूप से एक अप्रत्याशित घटना कही जायेगी क्योंकि पुराने दरभंगा जिले में जल-जमाव, दलदल तथा कांस, पटेर के जंगलों वाली जमीन भी काफी थी। “... सबसे ज्यादा गैर कृषि का इलाका सदर अनुमण्डल में है जहाँ अच्छे खासे क्षेत्र में दलदल या जल-जमाव है जहाँ कि साल के ज्यादातर हिस्से में पानी भरा रहता है। लगभग इसी तरह की हालत मधुबनी अनुमण्डल में भी है जहाँ नदियों के किनारे तथा नेपाल की सीमा से लगे हुए क्षेत्रों में कृषि योग्य जंगलों का फैलाव है। मधुबनी थाने में लगभग 23 प्रतिशत इलाका ऐसा है जिस पर आम के बहुत से बगीचे लगे हुए हैं।”

ओमैली (1907) का यह मानना था कि अब इस जिले में कृषि क्षेत्र का और अधिक विस्तार नहीं किया जा सकता था और यह विश्वास करने के निश्चित प्रमाण थे कि जल्दी ही इस इलाके की जमीन से होने वाली पैदावार यहाँ की बढ़ती जनसंख्या का बोझ नहीं उठा पायेगी। तब या तो लोगों का जीवन स्तर घटेगा या फिर जमीन की उत्पादकता बढ़ानी पड़ेगी। उस समय (1901) दरभंगा की आबादी कुल 29,12,611 थी जो कि अब (2001) लगभग 1,02,69,537 है। इसमें मधुबनी तथा समस्तीपुर के क्षेत्र शामिल हैं।

इस तरह दरभंगा के विकास के लिये दो शर्तें बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में ही रख दी गई थीं। एक तो यह कि आबादी बढ़ेगी तो जीवन स्तर घटेगा और दूसरा यह कि उत्पादकता बढ़ाये बिना कृषि स्थानीय जरूरतों को पूरा नहीं कर सकेगी। कृषि का उत्पादन बढ़े इसके लिये जरूरी था कि जहाँ तक संभव हो सके कृषि क्षेत्र की सीमा बढ़े पर यह काम एक हद तक जाकर ठहर जायेगा और दूसरा यह कि कृषि उत्पादन सुनिश्चित करने के लिये इस क्षेत्र को बाढ़ और सूखे से मुक्ति दिलाई जाये और सिंचाई की समुचित व्यवस्था हो। बाढ़ की हालत यह थी कि पूरा इलाका नदियों से घिरा हुआ है। उत्तर से बह कर नीचे की ओर आती हुई नदियों जैसे तिलयुगा, बलान, भुतही बलान, पांची, धोकरा, बिहुल, धोरदह, खड़ग, सुगरवे, सुपैन, बैंती, सोनी, कमला आदि एक ओर थीं तो पश्चिम से दक्षिण की ओर बहती हुई अधवारा समूह की नदियाँ तथा बागमती दूसरी तरफ कहर बरपा करती थीं। दक्षिण की ओर बूढ़ी गण्डक तथा गंगा का अपना प्रभाव था तो कोसी की खिसकती-खिसकती धेमुरा धार तक आ कर दरभंगा के पूर्वी छोर पर अपनी दस्तक दे रही थी। इनमें से अधिकांश नदियों की धारा स्थिर नहीं थी। कमला की बदलती धाराओं की एक झलक हमने देखी है और कोसी तो अपने धारा परिवर्तन के लिये हमेशा से बदनाम रही है। बाकी नदियाँ भी कोई खास अलग नहीं थीं। फिर इनके साथ आने वाली सिल्ट/बालू की अपनी तरह की समस्या थी। पहाड़ों से मैदानों में उतरती हुई नदी का वेग तराई में पहुँच कर एकाक कम हो जाता है और उसमें मौजूद सिल्ट/बालू को विस्तीर्ण क्षेत्र पर फैलने का मौका मिलता है। आने वाले वर्ष में नदी इसी सिल्ट/बालू को काट कर अपनी सुविधानुसार नया रास्ता बना लेती है और उसका यह धारा परिवर्तन चलता रहता है। नदियों का छिछला होना और जमीन के सपाट तल के कारण कुल मिलाकर स्थिति यह थी कि एक दिन अगर अच्छी बरसात हो जाये तो सारी नदियाँ अपने किनारे तोड़ कर बह निकलें और जैसे-जैसे दक्षिण पूर्व की ओर बढ़ते जायें वैसे-वैसे ही बाढ़ के पानी का फैलाव भी बढ़ने लगता था क्योंकि सारी नदियाँ उसी दिशा में इकट्ठी होती थीं।

इसके साथ बहुत सी नदियों के किनारे गाँव वालों ने या जमींदारों ने बाढ़ से बचाव के लिये तटबंध या घेराबन्ध बना डाले थे जोकि पानी की निकासी में बाधा डालते थे और बाढ़ समाप्त हो जाने के बाद भी जल-जमाव को बरकरार रखते थे। “... परिस्थतियों के इस संयोग से इस जिले में हमेशा से जल प्लावन बहुत गंभीर और टिकाऊ हुआ करता है जिसकी वजह से कुछ समय के लिये लोगों को तकलीफ उठानी पड़ती है। लेकिन, नियमतः दुश्वारियाँ जल्दी ही खत्म हो जाती हैं। जो घर गिर जाते हैं उन्हें जल्दी ही बना लिया जाता है क्योंकि मिट्टी की दीवारों के घर बनाने में उतना खर्च नहीं होता और एक हद तक किसानों के नुकसान की भरपाई उतरती बाढ़ के पानी वाली ताजी मिट्टी से हो जाती है जो कि बहुत उपजाऊ होती है। इससे उत्पादकता बढ़ जाती है और अच्छी फसल सुनिश्चित रहती है।”

जिले की बाढ़ के बहुत से विवरण पुराने दस्तावेजों, गजेटियर, सेटिलमेन्ट रिपोर्ट तथा सिंचाई विभाग की रिपोर्टों में मिलते हैं। उदाहरण के लिये 1893 की बाढ़ में जुलाई, अगस्त और सितंबर के महीने में अलग-अलग बाढ़ आई। एक ओर बागमती और बूढ़ी गण्डक के पानी की मुजफ्फरपुर, बरौनी, कटिहार वाली रेल लाइन से निकासी नहीं हो पा रही थी ऊपर से कमला का पानी बार-बार दरभंगा पर हमला करता था। इसकी वजह से जिले के उत्तर-पश्चिम भाग से लेकर दक्षिण पूर्व तक लगभग एक मीटर गहरा पानी गुजरा जिसकी वजह से फसलों, घरों, सड़कों और रेल लाइनों को बहुत नुकसान पहुँचा। जिले का तकरीबन आधा हिस्सा टापू जैसा बन गया और लोगों ने ऊँची सड़कों पर, रेलवे लाइनों पर तथा गाँवों में डीहों पर शरण ली। “... सौभाग्यवश, पानी धीरे-धीरे चढ़ा और जहाँ तक सूचना मिल पाई कोई मरा नहीं और लोगों को आने अन्न के संचित भण्डार को हटाने का मौका मिल गया तथा उन्होंने अपने जानवरों को भी सुरक्षित बचा लिया। लोग जिस तरह नुकसानों से पस्त होने के बावजूद सम्भल गये वह आश्चर्यजनक रहा।” इसी तरह 1898 की बाढ़ भी कमला, दरभंगा-बागमती, करेह और बूढ़ी गण्डक की वजह से आई। बेनीपट्टी, दरभंगा, लहेरियासराय दलसिंहसराय तथा वारिसनगर थानों पर बाढ़ का बुरा असर पड़ा था। बरैला चौर का पानी फैल जाने से दलसिंहसराय में बाढ़ की स्थिति पैदा हुई। इस बाढ़ में जानवर तो नहीं मरे पर 164 लोगों की जल समाधि हुई और करीब 88,000 घर गिरे। दूसरी तरफ नई मिट्टी पड़ने से उस साल जबर्दस्त रबी की फसल हुई। किसी को अगर काम की जरूरत पड़ी तो वह कटिहार जाने वाली रेल लाइन की मरम्मत में लग गया और सरकारी ऋण के लिये एक भी अर्जी नहीं दी गई। “चीजों के दाम नहीं बढ़े और कलेक्टर का कहना था कि यदि पूरे जिले को देख कर बात की जाय तो बाढ़ से फायदा ही हुआ।”

बाढ़ 1902 में भी आई पर तत्कालीन दरभंगा जिले की 1906 वाली बाढ़ एक इतिहास रच गई। आम तौर पर मान्यता यह रहती है कि बाढ़ के बाद अकाल नहीं पड़ता पर 1906 की बाढ़ ने बहुत से पुलों, सड़कों और बाँधों के साथ-साथ इस मान्यता को भी ध्वस्त कर दिया। इस साल पहली बार जुलाई में बाढ़ आई फिर उसके बाद 6 अगस्त से जो पानी बरसना और बढ़ना शुरू हुआ वह सिलसिला 24 अगस्त तक चलता रहा और जिले के अधिकांश भाग में पानी फैल गया जिससे यह जगहें कोई 16 दिन तक पानी में डूबी रहीं। लहेरियासराय में कचहरी वाला हिस्सा तथा दरभंगा में बड़ा बाजार वाला हिस्सा छोड़कर लगभग पूरे इलाके में पानी था और शहर में तो पानी एकाएक और बड़ी तेजी से घुसा था कि लोगों को संभलने का मौका ही नहीं मिला और हजारों लोग देखते-देखते बेघर हो गये और उन्हें कचहरी के पास शरण लेनी पड़ी थी। एक हफ्ते के बाद शहर से पानी घटना शुरू हुआ पर गाँव के इलाकों से पानी निकलने में तो प्रायः दो महीने का समय लग गया था। फसल की काफी बर्बादी हुई और क्योंकि वर्ष 1905-06 में भी फसल ठीक नहीं हुई थी तो इस बाढ़ ने और महँगाई ने लोगों की कमर ही तोड़ दी। रोसड़ा और बेहरा में तो अकाल की घोषणा करनी पड़ गई और अक्टूबर, नवम्बर तथा दिसम्बर महीनों में क्रमशः 45,000, 19,000 और 15,800 लोगों को मुफ्त राशन बाँटना पड़ा था। अगर स्थानीय अफसरों और निलहे गोरों ने मुफ्त भोजन न बाँटा होता तो इस बार करीब-करीब भुखमरी की स्थिति पैदा हो गई होती। बाढ़ के बावजूद इस बार टेस्ट रिलीफ का काम खोलना पड़ा जिसमें एक समय तो पूरे जिले में 32,000 से ऊपर लोगों ने काम किया था। अब तक आई सबसे बड़ी इस बाढ़ में दरभंगा अनुमण्डल में 2,714 वर्ग किलोमीटर, मधुबनी अनुमण्डल में 1,510 वर्ग किलोमीटर और समस्तीपुर में 1,075 वर्ग किलोमीटर (कुल 5299 वर्ग किलोमीटर) क्षेत्र पर बाढ़ का आतंक अनुभव किया गया।

इसके बाद 1910, 1912,1913,1915, 1916,1919, 1920, 1921, 1922, 1924, 1926 से 1943, 1946, 1953 से 1958, 1960, 1962 और 1963, 1965, 1968, 1971, 1975, 1978, 1980, 1984, 1986 से 1988, 1990, 1993, 1995 से 2000, 2002 तथा 2004 में भी इस क्षेत्र में भयंकर बाढ़ें आती रहीं। इनमें से 1954 तथा 1987 की बाढ़ें पिछली शताब्दी की सबसे भयंकर बाढ़ें मानी जाती हैं। इन दोनों बाढ़ों का महत्व इसलिये ज्यादा और अलग है कि 1954 तक इस प्रान्त में बाढ़ नियंत्रण के लिये प्रायः कुछ नहीं किया गया था क्योंकि जो कुछ भी इस मुद्दे पर किया गया है वह 1954 की पहली राष्ट्रीय बाढ़ नीति के लागू होने के बाद किया गया है। उसके पहले बाढ़ नियंत्रण का सारा काम किसानों, ग्रामवासियों या जमींदारों द्वारा किया जाता था और तकनीकी क्षेत्रों में ऐसी मान्यता है कि यह सारा काम तात्कालिक लाभ के लिये और घोर अवैज्ञानिक ढंग से किया जाता था।

इस परिप्रेक्ष्य में हम एक बार कमला घाटी में 1954 की बाढ़ की जानकारी हासिल कर लें जिसकी बुनियाद पर भविष्य में बाढ़ नियंत्रण पर किये जाने वाले कामों की बुनियाद रखी गई थी।

1954 में बरसात के शुरू होने तक कमला ने कुम्हार टोला गाँव के पास से (रैयाम से थोड़ा ऊपर) जीवछ वाली धारा पकड़ रखी थी। इस प्रवाह मार्ग से यह नदी लगभग 1930 से बह रही थी। पिछली बरसातों में नदी इस रास्ते से थोड़ा बहुत कहीं-कहीं बहक जाया करती थी पर कोई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन इसके रास्ते में नहीं आया। नदी का बहकना भले ही कम रहा हो पर उसके किनारे तोड़ कर छलकने में कोई कमी नहीं थी। प्रवाह में अत्यधिक गाद होने के कारण कमला ने जीवछ और लालबेगा की तलहटियों को भी बालू से पाट कर छिछलाकर दिया था। लालबेगा एक छोटी सी धारा थी जो कि जीवछ से कुम्हारटोला गाँव से प्रायः डेढ़ किलोमीटर नीचे मिलती थी। एक ओर तो जीवछ और लालबेगा के पानी को बहाने के लिये रास्ता काफी नहीं था उस पर से कमला का अतिरिक्त पानी मिलने से मधुबनी शहर के पश्चिमी क्षेत्रों में तबाही बढ़ना शुरू हो गई। यह सारा पानी निचले इलाकों से बहता था और ऐसा लगता था कि नदी रैयाम के आस-पास डेल्टा का निर्माण करने में लगी है। इन तीनों धाराओं को देखकर यह तय करना मुश्किल था कि आखिरकार कौन सी धारा नदी की मुख्य धारा बनेगी। किसी धारा में कभी बहुत ज्यादा पानी दिखाई पड़े तो कुछ समय बाद उसमें बालू पड़ा हुआ दिखाई पड़ता था। एक बार तो ऐसा लगा कि कमला अब अपनी सबसे पुरानी धारा में गौसा घाट होकर बहने लगेगी मगर अक्टूबर में अन्नतः कमला उत्तर में भकुआ के पास बलान से जा मिली और गौसा घाट वाले मार्ग में बालू पड़ गया।

इस वर्ष बाढ़ दो बार जुलाई और अगस्त के आखिरी हफ्ते में आई। बाढ़ की शुरुआत में ही कमला ने जयनगर के पास बन रहे कमला नहर प्रणाली के तटबन्धों को ध्वस्त कर दिया था और पश्चिम दिशा में बढ़ रहे इस पानी ने जयनगर-जनकपुर रेलवे लाइन को भी नहीं बख्शा। उधर नदी बायें किनारे पर बजराहा गाँव के पास किनारे तोड़ कर बह निकली तो एक बार लगा कि अब इसने यहीं नई धारा बना ली है। करीब-करीब ऐसी ही घटना खैरामठ गाँव के पास हुई जहाँ नदी बहुत तेजी से कटाव कर रही थी। इस गाँव के ज्यादातर घर नदी की धारा में पड़ कर ध्वस्त हो गये। दक्षिण की ओर बहते हुये कमला के पानी ने सलरा, तेहरा तथा हनुमान नगर आदि गाँवों को तबाह किया। बेलही में भी तबाही कम नहीं हुई। यह सारा पानी बढ़ता हुआ चतरा गाँव के पास धौरी नदी में जा मिला। भकुआ के पास बाये किनारे पर कटाव भी चल रहा था और नदी का पानी पूर्व की ओर फैल रहा था। अगस्त वाली दूसरी बाढ़ में यहाँ बलुआटोल नाम के गाँव का करीबन सफाया हो गया और तब कमला सोनी नदी की ओर पेंग बढ़ा रही थी। अक्टूबर आते-आते कमला पिपराघाट के पास बलान में जा मिली।

धौरी, सोनी और कमला के प्रवाह को समेटने की हैसियत बलान में नहीं थी। नतीजा यह हुआ कि अब बलान की पूरी लम्बाई में नदी के दोनों तरफ पानी फैलने लगा। पश्चिम में यह विस्तार कमला की पैटघाट शाखा तक था तो पूर्व में 3 से 6 किलोमीटर में तमरिया तक था। भदुआर घाट से लेकर सकरी-निर्मली रेल-लाइन तक पूरा क्षेत्र एक समुद्र की तरह दिखाई पड़ने लगा। उधर मधुबनी के पश्चिम मंगरौनी चौर में पहली ही बाढ़ में दो-सवा दो मीटर गहरा पानी भर गया था और रैयाम में फसलों और घरों की खासी बरबादी हुई। अगस्त वाली बाढ़ में जीवछ/लालबेगा में, बालू पड़ जाने के कारण मंगरौनी चौर से पानी की निकासी में बाधा आई और इसमें डेढ़ से दो मीटर ऊँचाई में बालू जमा हो गया। मनीगाछी में आस-पास रेलवे लाइन पर से कई जगह पानी बह निकला तो मधुबनी के उत्तर भी यही कुछ दोहराया गया। लगभग नौ दिन तक रेलगाड़ी नहीं चल पाई।

दरभंगा जिले में आई तब तक की सबसे बड़ी इस भयंकर बाढ़ में जिले का 65 प्रतिशत कुल क्षेत्र और फसल क्षेत्र प्रभावित हुआ था। जिले के कुल 3,438 गाँवों में से 2,501 गाँवों पर बाढ़ का असर पड़ा और 37,67,798 की कुल आबादी में से 19,76,771 आबादी बाढ़ से प्रभावित हुई। 32,950 घर बाढ़ में बरबाद हुए और 13 लोगों की कुर्बानी हुई। लगभग 500 जानवर इस बाढ़ में मारे गये।

1955 में भी करीब-करीब यही घटनायें दोहराई गईं। कमला और बलान का सम्मिलित पानी इस बार तुमरिया से पश्चिम दीप गाँव तक पहुँच गया था और दाहिने किनारे पर इसका विस्तार एक बार फिर पैटघाट तक हुआ। जयनगर और खजौली के बीच रेल लाइन पर से इस साल भी पानी गुजरा और यहाँ रेल सेवा बन्द करनी पड़ी थी। पानी तमुरिया रेल स्टेशन के पास भी रेल लाइन के ऊपर से गुजर गया था और घोघरडीहा के उत्तर रेल सेवाएं ठप हो गई थीं। इस बार की बाढ़ में 2341 गाँवों पर बाढ़ का असर पड़ा और 25.02 लाख लोग बाढ़ की चपेट में आये। 17 लोगों की जानें गईं और 4.16 लाख हेक्टेयर क्षेत्र पर फसलों का नुकसान हुआ।

5. कमला घाटी में सिंचाई की समस्या


भारतीय भू-भाग में कमला की अधिकांश लम्बाई मधुबनी जिले में पड़ती है जो कि पहले दरभंगा का एक अनुमण्डल हुआ करता था। पुराने ब्रिटिश दस्तावेजों से पता लगता है कि आज के दरभंगा और समस्तीपुर जिलों में सिंचाई की न तो कोई खास व्यवस्था थी और न उसकी जरूरत ही पड़ती थी क्योंकि इस इलाके में नेपाल से चलने वाली छोटी-बड़ी सभी धारायें अच्छी खासी नदी की शक्ल अख्तियार कर लेती थीं और साधारण ग्राम-वासियों और उनके जमींदारों को यह जरूरी नहीं लगता था कि वह इन बड़ी नदियों के साथ छेड़-छाड़ करें। इसके अलावा बाढ़ के पानी का फैलाव इतना ज्यादा था कि उससे धान की जरूरतें पूरी हो जाती थीं और रबी के लिये नमी बची रह जाती थी। बाढ़ के पानी की गहराई का अनुमान प्रायः हर क्षेत्र में लोगों को रहता था और इसी गहराई के हिसाब से उन्होंने धान की किस्में तय कर रखीं थीं जो कि वह अपने यहाँ उगाते थे। मगर मधुबनी की स्थिति थोड़ा भिन्न थी, वहाँ रबी के मौसम में सिंचाई की जरूरत पड़ती थी और शायद इसलिये वहाँ प्राकृतिक संसाधनों से सिंचाई की एक बड़ी ही सुविचारित और मजबूत व्यवस्था मौजूद थी जिसकी फिलहाल तो कहानियाँ बताने वाले लोग मौजूद हैं मगर कुछ दिनों में यह ज्ञान हमेशा के लिये लुप्त हो जायेगा। यहाँ यह बता देना जरूरी है कि तब खाद बीज समेत खेती की सारी व्यवस्था पारम्परिक थी और उसमें पानी की उतनी खपत नहीं होती थी जो कि आज की आधुनिक उन्नत खेती की मांग है।

यह पूरा इलाका कितनी ही छोटी-बड़ी नदियों-नालों धारों से भरा पड़ा था। इसके साथ छोटे-छोटे नालों की तो कोई कमी नहीं थी और इनसे होकर थोड़ा बहुत पानी लगभग पूरे साल चलता था। इन स्रोतों का छोटा और सदाबहार होना ही किसानों की ताकत बनता था और वह थोड़ी बहुत मिट्टी डाल कर छोटी-छोटी नालियों की मदद से इन धारों का मुँह खेती की ओर मोड़ देते थे। ऐसे नाले-नालियों को स्थानीय भाषा में ‘पैन’ कहते हैं। इस काम में अगर जमींदारों की हल्की सी मदद भी मिल जाय तो यह काम और आसान हो जाता था।

दरभंगा राज में आर.एस. किंग नाम के एक अंग्रेज इंजीनियर सब-मैनेजर हुआ करते थे जो कि अपने अनुभव से इस तरह की पैन की सिंचाई के माहिर बन गये थे। भारत सरकार के पिछले सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1903) में किंग के प्रयासों से मधुबनी में किये गये सिंचाई के प्रयोगों की बड़ी तारीफ की गई है। हुआ यह कि 1877 में सरकार ने कमला नदी से 19 किलोमीटर लम्बी नहर निकाल कर 21,300 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई करने की एक योजना बनाई जिस पर 10,41,000 रुपयों की लागत आने वाली थी। सरकार इस योजना को हाथ में लेने के प्रश्न पर असमंजस की स्थिति में थी क्योंकि तब सरकारें कोई भी योजना हाथ में तभी लेती थीं जब कि उन्हें इस बात का पूरा यकीन हो जाये कि योजना अपना खर्च खुद उठा लेगी, पूँजी पर ब्याज की रकम अदा कर सकेगी और कुछ न कुछ मुनाफा कमा सकने की स्थिति में होगी। इसके अलावा ब्रिटिश सरकार को भारत नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों में कोई भी सिंचाई की योजना बनाने में यह डर भी लगता था कि अगर नेपाल ने उस नदी पर अपने यहाँ बाँध बना लिया तो नीचे की योजना धरी की धरी रह जायेगी। इन कारणों से 1877 में बनी कमला योजना पर काम टलता रहा।

पहले सिंचाई आयोग के सदस्य जब दरभंगा पहुँचे (1902) तब उनकी मुलाकात किंग से हुई और किंग ने उन्हें बताया कि जितना क्षेत्र सरकार सींचना चाहती है उसकी संभावना वहाँ जरूर है मगर साधारण वर्षा के साल में किसान नहर से पानी नहीं लेंगे क्योंकि इसकी उन्हें जरूरत नहीं पड़ती है और सूखे के वर्षों में नहरों में इतना पानी ही नहीं होगा जिससे सिंचाई हो सके। दोनों ही परिस्थितियों में सरकार को कोई आमदनी होने वाली नहीं थी और इस वजह से सिंचाई परियोजना का हाथ में लेना घाटे का सौदा हो सकता था। यद्यपि सरकार यह मानती थी कि कमला नदी में प्रवाह की मात्रा कितनी भी कम क्यों न हो जाय वह इतना नीचे नहीं गिरेगी कि उससे 1888-89, 1891-92, 1896-97 या 1901-1902 जैसे सूखे के वर्षों में सिंचाई न हो सके। परियोजना की कम लागत और कम जोखिम की बुनियादी पर सिंचाई आयोग ने इसके विषद अध्ययन पर बल दिया।

आयोग के सदस्यों को यह जान कर हैरानी हुई की दरभंगा महाराजा की पहल पर उनके सब-मैनेजर किंग ने 1896-97 के अभूतपूर्व सूखे के समय कमला के पानी का बड़ी चतुराई और सफलता से उपयोग करके मई 1897 में लगभग 9,000 हेक्टेयर धान की फसल को नष्ट होने से बचा लिया था। किंग ने बस इतना भर किया कि कमला की धारा पर एक अस्थाई बाँध बनाया और पानी को कमला के पूरब की ओर की एक छाड़न धारा में गिरा दिया जहाँ से वह पैन और ग्रामीण नालियों की मदद से खेतों तक पहुँचा दिया गया। इस पूरी योजना पर मात्र दस हजार रुपये खर्च हुये थे। इसी तरह मई 1901 में केवल 3 किलोमीटर की अतिरिक्त नहर खोद कर के किंग ने 42 गाँवों के 14,250 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर धान की फसल सींच ली थी। उसी साल नवम्बर महीने में कमला की धार पर अस्थाई बाँध बना-बना कर किंग ने कमला का सारा पानी जीवछ में उलीच दिया और जबर्दस्त रब्बी की फसल काट ली और खर्च किया सिर्फ 4000 रुपये।

आर.एस. किंग से साक्षात्कार

 

आयोग - इस तरीके से, आपको क्या लगता है, कितने बीघे या कितने एकड़ जमीन आपने सींच ली होगी?

 

किंग - यह नक्शे में दिखाया गया है। कोई 40,000 एकड़, जो कि पीले रंग में दिखाया गया-यह तो वह क्षेत्र है जिस पर फसल को बचा लिया गया है। इसके अलावा 5,000 (एकड़ ) का रबी क्षेत्र है जिसे लगाने के बाद सिंचाई की व्यवस्था की गई और यह इन गाँवों की 15,000 (एकड़ जमीन) है जिनके तालाबों को पानी दिया गया ताकि उनके जानवरों के काम में आये और पौध तैयार हो सके।

 

आयोग - तो क्या आपने 45,000 एकड़ जमीन सचमुच सींच ली?

 

किंग- जी हाँ।

 

आयोग - तो इस तरह सिंचाई मिल जाने से आपका फसल का उत्पादन दोगुना हो गया होगा?

 

किंग - उससे ज्यादा। यह करीब चौगुना हुआ है।

 

आयोग - और आपका कुल खर्च कितना हुआ होगा?

 

किंग - 1897 में जो नहर बनाई गई थी उसकी लागत मिलाकर कोई 13,000 से 14,00 रुपयों के बीच खर्च हुआ होगा।

 

आयोग - क्या आपने पहले पहल 1897 में यह नहरें बनाई थीं?

 

किंग - जी हाँ। मैंने 1897 में पहले यह नहर (नक्शे पर नरकटिया की ओर इशारा करके) बनाई थी और उसके बाद फिर यह नहर (नक्शे पर अरेड़ की ओर इशारा करके) बनाई। मैंने 1897 में 10,000 और पिछले साल 4,000 रुपये खर्च किये।

 

आयोग - हम समझते हैं कि आपका यह प्रयोग सफल रहा?

 

किंग - यह सब ग्रामवासियों की मदद से वास्तविक अनुभव के आधार पर धीरे-धीरे हुआ क्योंकि यह जानना जरूरी था कि वर्षों से पानी के बहाव की दिशा क्या थी।

प्रथम सिंचाई आयोग (1903) की रिपोर्ट- अपेन्डिक्स (पृष्ठ 216) में 30 अक्टूबर 1902 को लिये गये आर.एस. किंग के साक्षात्कार का अनुवाद।

 

मजा यह था कि सरकार ने 1901-02 में सूखे के अन्देशे से 71,000 रुपये राहत कार्य चलाने के लिये रखे हुए थे मगर हालात आम वर्षों की तरह रहने की वजह से राहत कार्य नहीं चलाने पड़े। सिंचाई आयोग (1903) लिखता है कि, जिस तरह के उदाहरण हमने दिये हैं और जिनकी सिफारिशें की हैं, अगर इस तरह से पैसा खर्च किया जाय और अगर वैसे ही काम किये जायें जैसा कि श्री किंग ने सफलतापूर्वक किया है तो (इतने पैसे में) अगहनी धान की कम से कम 61,000 हेक्टेयर से लेकर 80,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर फसल हो सकती है। किंग के इन प्रयासों में उसके सहयोगी सीली का भी बड़ा हाथ था।

प्रथम सिंचाई आयोग ने किंग की कोशिशों की तारीफ करते हुये कहा कि इस तरह के काम लोक निर्माण विभाग (उस समय सिंचाई का जिम्मा लोक निर्माण विभाग का हुआ करता था-ले.) के जरिये नहीं हो सकते। एक निजी जमीन्दारी के मैनेजर के पास अपने रैयत के लिये कोई भी काम करने की ज्यादा सहलूयित और आजादी रहती है जो कि एक लोक निर्माण विभाग के अधिकारी को नहीं दी जा सकती। अगर सरकार कोई नहर बनायेगी तो उसे हर तरह की अधिगृहीत जमीन का मुआवजा देना पड़ेगा, जहाँ भी नहर सड़कों को काटेगी वहाँ पुल बनाना पड़ेगा और उसके अलावा भी हर तरह की सारी जिम्मेवारियाँ लेनी पड़ेगी जिनकी लागत इस तरह के अल्पकालीन कार्यों में संभाल से बाहर होगी। इसके अलावा जब सरकार लोगों को इतनी सुविधाएँ मुहैया करवायेगी तो उसके लिये वह शुल्क भी लगायेगी जिसकी वसूली के लिये उसे सख्त कदम उठाने पड़ेंगे। यह काम न सिर्फ महँगा होगा वरन अलोकप्रिय भी होगा।

किंग ने एक सच्चे इंजीनियर का फर्ज अदा किया मगर कोई अजूबा खड़ा किया, ऐसा नहीं था। मधुबनी के पूरे इलाके में फैले हुये धारों के जाल से सिंचाई की एक समृद्ध परम्परा रही है और किंग ने किसानों के अनुभव का लाभ अपनी लगन और दरभंगा राज के संसाधनों के साथ जोड़कर यह करिश्मा कर दिखाया। अभी हाल के वर्षों तक बेनीपट्टी के पास देपुरा गाँव में लोग बछराजा धार को बाँध करके उससे पानी को हजमा नाले से देपुरा, नदौत और मुहम्मदपुर होते हुये बेनीपट्टी के चौर में पहुँचा दिया करते थे। यहाँ से इस पानी का उपयोग देपुरा, नदौत, मुहम्मदपुर, भटहीसेर, बेनीपट्टी, पौआम, बिरौली, अधवारी और सलहा गाँवों के किसान रब्बी के लिये कर लेते थे। यह इन गाँवों का परम्परागत स्रोत और साधन था। बेनीपट्टी में ही चम्पा टोल के उत्तर बछराजा धार के पूर्वी किनारे से एक नाला निकलता है जो नवकी पोखरा (बेनीपट्टी) में गिरता है और धोबघट पुलिया से फिर बाहर निकलता है। इस नाले से बरहा, कटैया, बनकट्टा, दामोदरपुर और बलिया तक सिंचाई होती है। बछराजा के पश्चिम से जो नाला निकलता है वह संसार पोखरा में गिरता है और यहाँ से उत्तर में एक नाला निकल कर सरिसब, बेनीपट्टी, बेहटा, जगत और जगत एराजी को पानी देता हुआ सोइली धार में जा मिलता है।

झंझारपुर के पास परतापुर गाँव में किसानों ने बलान नदी से दोस्ती कर ली थी। इस गाँव के बारे में अन्यत्र विवरण मिलता है। इस पूरे क्षेत्र में हर गाँव और हर नदी-नाले की अपनी कहानी है जिसको जानने और समझने की किंग के अलावा किसी भी इंजीनियर ने कभी भी कोशिश नहीं की।

प्रथम सिंचाई आयोग की सिफारिश पर कमला नदी पर सिंचाई योजना का एक प्रस्ताव 1906 में सिबोल्ड नाम के एक इंजीनियर ने तैयार किया था। इस योजना के अनुसार उन्हीं नहरों का पुनरुद्धार किया गया जिन्हें किंग ने 1901 में बनवाया था। यह प्रयोग असफल रहा। दरभंगा गजैटियर (1964) के अनुसार किंग की सलाह पर 1901 में 50,000 रुपये की लागत से 12,000 हेक्टेयर जमीन सींचने के लिये कमला से नहर निकालने की एक योजना बनाई गई थी और यह योजना असफल रही थी। यहाँ तथ्यों में कुछ मतभेद है क्योंकि प्रथम सिंचाई आयोग ने किंग के 1901 के प्रयोग की बड़ी प्रशंसा की थी। स्वयं किंग ने भी आयोग को दिये गये एक साक्षात्कार में 18,210 हेक्टेयर जमीन सींचने की बात कही थी तो सिबोल्ड ने फिर वही काम किया तो वह असफल कैसे हो गया?

बहरहाल! सरकार द्वारा कमला से सिंचाई के मुद्दे पर 1950 तक खामोशी रही। इस साल किंग कैनाल को फिर नये सिरे से 3 मीटर की चौड़ाई में काट कर पानी ले जाने की कोशिश की गई मगर नहर सिल्ट बालू से पट गई। बछराजा धार का कोई स्थायी जलस्रोत न होने के कारण बरसात के बाद धार के साथ-साथ नहर भी सूख गई। 1951 में सूखा राहत कार्य के अधीन बछराजा धार की एक बार फिर खुदाई की गई जिसका शिलान्यास नरकटिया गाँव के पास जवाहरलाल नेहरू ने किया था। नरकटिया गाँव के लोगों को अभी भी 1951 में जवाहर लाल नेहरू तथा इन्दिरा गांधी के आने की घटना याद है। इस बार खरीफ के मौसम में तो अच्छे खासे इलाके पर सिंचाई हो सकी मगर रबी में सिर्फ 900 हेक्टेयर के आस पास ही सिंचाई हो सकी। 1954 में एक बार फिर कमला नहर के लिये योजना बनी कि इससे 15,150 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई की व्यवस्था की जाय। समस्या यह थी कि जयनगर के पास जहाँ से इस नदी से नहर निकालने का प्रस्ताव था वहाँ नदी की धारा स्थिर नहीं थी। पहाड़ों के लगभग ठीक नीचे अवस्थित होने के कारण यहाँ भारी मात्रा में सिल्ट-बालू जमा हो जाती थी और नदी की धारा बदलती रहती थी। नदी की धारा बदलते रहने के कारण नहर का मुहाना स्थिर करने में मुश्किल होती थी क्योंकि हर साल नदी से नहर के मुहाने तक एक पाइलट चैनेल खोदनी पड़ती थी। कभी-कभी नेपाल से दक्षिण की ओर बहता हुआ बारिश का पानी नहरों को चौपट कर देता था। तब नहरों को बचाने की व्यवस्था करनी पड़ी और नहरों के संचालन के लिये हेडवर्क बनाना पड़ा मगर फिर भी सिंचाई में कोई सुधार नहीं हुआ। जहाँ 15,150 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई की उम्मीद की गयी थी वहीं 1959-60, 1960-61 तथा 1961-62 में क्रमशः 460 हेक्टेयर, 600 हेक्टेयर और 875 हेक्टेयर ही सिंचाई हो सकी। तब कमला के धारा परिवर्तन से नहरों के संचालन को मुक्त रखने के लिये कमला पर एक वीयर का निर्माण करना पड़ा। इस वीयर का निर्माण कार्य सन 1959 में शुरू हुआ और यह आशा की गई थी कि इसके निर्माण के बाद नहर के संचालन में कोई दिक्कत नहीं आयेगी।1964 से इस परियोजना से सिंचाई शुरू हुई।

6. कमला सिंचाई परियोजना


चित्र-3 कमला सिंचाई स्कीमकमला परियोजना में नहरों के माध्यम से सिंचाई का प्रावधान किया गया था और बाद में किंग्स कैनाल को भी इसी योजना में मिला दिया गया। उसके बाद जो कमला सिंचाई परियोजना का समग्र रूप उभरता है वह चित्र में दिखाया गया है। कमला नदी पर जयनगर के पास वीयर बनाकर उनसे नहरों में पानी लेने का प्रयास किया गया तब इस बात की आशा व्यक्त की गई थी कि अब यहाँ की सिंचाई समस्या का समाधान हो जायेगा मगर ऐसा हुआ नहीं।

इस इलाके के साथ दिक्कत यह है कि खरीफ के मौसम में यहाँ आम तौर पर पानी की जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि बारिश का पानी काफी रहता है। कुछ दिक्कत हथिया नक्षत्र में पानी न बरसने के कारण जरूर होती है और नहरे उसी हालत में काम आ सकती हैं। हथिया का पानी न बरसने पर नदी में भी पानी कम रहता है और तब उसे नहरों में ठेलना मुश्किल हो जाता है और इसके अलावा ऊपरी क्षेत्र के लोग अपने खेतों की पूरी सिंचाई कर लेने के बाद ही नीचे वालों के लिये पानी छोड़ते हैं। सिंचाई विभाग या प्रशासन इस परिस्थिति में कुछ भी नहीं कर पाता। वैसे भी बालू जम जाने के कारण नहरों की क्षमता काफी घट गई है और उनमें पानी की मात्रा कम हो गई है। किंग्स नहर का पानी जैसे-तैसे बलाट गाँव तक पहुँचता है मगर उसके नीचे के क्षेत्रों में पानी नहीं मिल पाता। यही स्थिति उमगाँव के नीचे पकड़ी और सुघरौल वितरणियों की है। यहाँ के गाँव वाले ऊपर वालों की दया पर निर्भर करते हैं या कभी-कभार रात-बिरात में नहर में रोके गये पानी को काट कर अपने ही हिस्से के पानी की चोरी कर लेते हैं। इसमें मारपीट का हमेशा अन्देशा बना रहता है।

नहर में पानी की कमी की रही-सही कसर पूरी हो गई जयनगर से ऊपर नेपाल में लगभग 20 साल पहले बन्दीग्राम पर बनी गोडार बराज के निर्माण से जिसकी वजह से जरूरत के समय इस नदी और उसके फलस्वरूप नहर में पानी नहीं आ पाता।

भोगेन्द्र झा, भूत-पूर्व सांसद, (1985) ने अपनी एक पुस्तिका में इस समस्या पर प्रकाश डाला है। उन्होंने कहा कि, “.... बाढ़ नियंत्रण के अपने जोश में थोड़ी सी सिंचाई के लिये हमने कमला के दोनों किनारों पर जयनगर में सीमा तक तटबन्ध बना डाले और यहाँ वीयर बना कर दोनों किनारों से नहरे निकाल दीं। भारत-नेपाल समझौते के अनुसार (नेपाल में) मिरचइया तक तटबन्धों का विस्तार करना था। मगर हमलोगों ने ऐसा नहीं किया। इसकी वजह से नेपाल के बहुत से गाँवों में पहले से ज्यादा बाढ़े आने लगीं और वे डूबने लगे। दक्षिण की ओर बढ़ता हुआ पानी निश्चित रूप से तटबन्धों के बाहर फैल जाता है। जिससे कमला नहर प्रणाली में दरारें पड़ती हैं। मिरचइया तक तटबन्धों के विस्तार तथा शीसा पानी में बहूद्देशीय बाँध की हमारी अनिच्छा से तंग आकर नेपाल ने बन्दीग्राम के पास गोडार में महेन्द्र राजमार्ग के उत्तर में वर्तमान भारतीय कमला वीयर से लगभग 30 कि.मी. दूर एक बराज का निर्माण कर लिया है जिसके दोनों तरफ से नहरें निकाली गई हैं। इन दोनों नहरों का प्रवाह मात्र 1,000 घनसेक (लगभग 30 घनमेक) है और इससे नेपाल के मुख्य अंश की सिंचाई संभव नहीं हो पाती मगर इनकी वजह से जरूरत के दिनों में (भारत की - ले.) कमला नहर प्रणाली को पूरी तरह से लकवा मार जाता है। जिस प्रकार हमारा कमला वीयर मैदानी इलाकों में बना है और बाड़ के वेग को बर्दाश्त नहीं कर पाता है उसी प्रकार बन्दीग्राम बराज भी मैदान में बना है और बाढ़ के झटकों को बर्दाश्त नहीं कर पाता है। इस प्रकार सीमा के दोनों तरफ कहीं भी बाढ़ में कमी नहीं आई है।”

इन नहरों के आधुनिकीकरण का एक प्रस्ताव लम्बे समय से सरकार के विभिन्न विभागों में उलझा हुआ है और नहरें दिन-ब-दिन बेकार होती चली जा रही है। पिछले दो-तीन वर्षों में कहीं-कहीं कमला नहर की खुदाई हुई है। कमला नहर प्रणाली की पूर्वी नहर से खरीफ में 3,691 हेक्टेयर तथा रबी में 1,053 हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई करने का प्रस्ताव किया गया था तथा इसकी पश्चिमी नहर से, जिसमें किंग्स कैनाल शामिल है, 24,253 हेक्टेयर पर खरीफ और 6,930 हेक्टेयर में रबी की फसल सींचने की बात थी। इस तरह इस नहर से खरीफ में 27,944 हेक्टेयर और रबी में 7,983 हेक्टेयर पर लगी फसल को सिंचने का लक्ष्य है। इस नहर से होने वाली वास्तविक सिंचाई को तालिका-1 में दिखाया गया है।

 

तालिका-1

कमला परियोजना द्वारा सिंचाई (हेक्टेयर)

वर्ष

खरीफ

रबी

कुल योग

लक्ष्य का प्रतिशत

1964-65

2,044

-

2,044

5.69

1965-66

2,819

-

2,819

7.85

1966-67

16,558

-

16,558

40.09

1967-68

14,136

-

14,136

39.35

1968-69

24,453

129

24,582

68.42

1969-70

30,381

276

30,657

85.33

1970-71

26,665

751

27,416

76.31

1971-72

11,012

-

11,012

30.65

1972-73

29,272

194

29,466

82.02

1973-74

29,107

329

29,436

81.93

1974-75

11,238

507

11,745

32.69

1975-76

25,725

1,515

27,240

75.82

1976-77

23,102

1,651

24,753

68.90

1977-78

19,187

137

19,324

53.79

1978-79

20,871

1,543

22,414

62.39

1979-80

20,454

1,335

21,789

60.55

1980-81

18,612

1,792

20,404

56.79

1981-82

18,506

754

19,260

53.61

1982-83

16,096

818

16,914

47.08

1983-84

20,267

816

21,083

58.68

1984-85

10,543

1,041

11,584

32.24

1985-86

20,069

972

21,041

58.57

1986-87

उ.न.

उ.न.

उ.न.

उ.न.

1987-88

600

710

1,310

3.67

1988-89

25,000

400

25,400

70.70

1989-90

20,000

1,000

21,000

58.45

1990-91

20,000

570

20,570

57.25

1991-92

8,600

1,100

9,700

27.00

1992-93

7,170

1,100

8,270

23.02

1993-94

11,350

1,660

13,010

36.21

1994-95

9,990

540

10,530

29.31

1995-96

11,032

1,115

12,147

33.77

1996-97

13,254

370

13,624

37.87

1997-98

10,485

369

10,854

30.17

1998-99

11,023

381

11,404

31.78

1999-2के

12,005

568

12,573

34.95

2000-01

10,466

781

11,247

31.31

2001-02

11,020

133

11,153

31.04

2002-03

13,622

130

13,752

38.28

2003-04

22,045

545

22,590

62.88

2004-05

20,050

731

20,781

57.84

2005-06

20,100

350

20,450

56.92

स्रोत: जल संसाधन विभाग, बिहार सरकार

 

इन आंकड़ों को देखने से इतना जरूर लगता है कि कमला परियोजना से सिंचाई की उपलब्धता में कोई तारतम्य नहीं है। कभी यह संतोषजनक कही जा सकती है तो कभी इसकी उपयोगिता पर प्रश्न चिन्ह लगता है। पिछले दो वर्षों में सिंचाई में कुछ सुधार हुआ है जो कि संभवतः नहरों की पुनर्स्थापना के कारण हुआ हो। सिंचाई के यह आंकड़े किसानों में बहुत ज्यादा विश्वास नहीं जगाते और नहरी पानी की उपलब्धता पर विश्वास कर के कमला कमाण्ड क्षेत्र में कोई भी किसान अपनी फसल नहीं लगाता है।

कमला नहरों की उपयोगिता पर कम्प्ट्रोलर जनरल ऑफ अकाउन्ट्स (सिविल)-1977-78 के प्रतिवदेन में एक टिप्पणी है जो कि प्रसंगवश जानने लायक है। रिपोर्ट कहती है कि, ... बाढ़ की अवधि में कमला नदी अधिक मात्रा में गाद ले आती है। फलस्वरूप कमला नहर की पहुँच शाखायें, गाद ले आती हैं और अधिक मांग वाले मौसम में कमान क्षेत्रों में सिंचाई अवरुद्ध हो जाती है। इस समस्या पर काबू पाने के लिये जयनगर में नहर उद्गम के स्थान के ऊपर नदी की धार पर 64.09 लाख रुपये क लागत पर मार्च 1964 में एक बाँध बनाया गया। जुलाई 1964 में सरकार ने एक दूसरी योजना, जिसका नाम था कमला सिंचाई योजना, 57.53 लाख रुपये की अनुमानित लागत पर (46.98 लाख रुपये पश्चिमी नहर प्रणाली के लिये और 10.55 लाख रुपये पूर्वी नहर प्रणाली के लिये) संस्वीकृत की जिसमें बाँध के निर्माण के बाद दिशान्तरित पानी का उपयोग किया जा सके। इस योजना का एस्टीमेट जुलाई 1970 में बढ़कर 147.79 लाख रुपये और सितम्बर 1976 में बढ़कर 335.22 लाख रुपये हो गया। ग्रामीण नहरों के निर्माण का कोई प्रावधान मूल बजट में नहीं था और अनिश्चित सिंचाई व्यवस्था के लिये किसान न तो यह नहरें बना सकते थे और न ही उनकी ऐसी तकनीकी क्षमता थी। जैसे-तैसे यह नहरें 1968-69 में पूरी कर ली गई मगर 1978 तक ग्रामीण नहरों के बजट ही बन रहे थे।

कमला नहरों से सिर्फ सिंचाई ही अनिश्चित नहीं रही है, इसे और भी नुकसान पहुँचाये हैं। पश्चिमी मुख्य नहर जयनगर से उमगाँव तक पूरब से पश्चिम दिशा की ओर जाती है और जमीन का ढलान उत्तर से दक्षिण की ओर है जिसकी वजह से यह नहर बरसात के मौसम में एक बाँध का काम करती है और इसके उत्तर में वर्षा का पानी खड़ा हो जाता है और वहाँ लगने वाली फसल को डुबाता है। उमगाँव के उत्तर में लहेरनियाँ महादेवपट्टी और कसेरा आदि गाँवों में 15-15 दिन तक पानी लगा रहता है। इन लोगों के लिये नहर का कोई इस्तेमाल नहीं है। बात केवल मुख्य नहर पर ही नहीं खत्म होती, वितरणियों ने भी उतना ही उत्पात मचाया है। ऐसी ही एक मिसाल हरलाखी प्रखण्ड के बिटुहर गाँव की मिलती है जहाँ जिरौल वितरणी के कारण जल-जमाव हो गया। इस गाँव के किसानों ने बाकी गाँवों की तरह गम नहीं कर लिया बल्कि मामले को विधान सभा की याचिका समिति तक ले गये।

हुआ यह कि कमला नहर की यह वितरणी बिटुहर गाँव के पूरब से जाने वाली थी मगर वहाँ पचहाड़ी के महंत की 100 एकड़ जमीन पड़ती थी और नहर उसी पर से होकर गुजरती। नहर के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर पर महंत का प्रभाव था और उन्होंने नहर का अलाइनमेन्ट बदलवा कर उसे गाँव के पश्चिम करवा दिया। गाँव के लोग आवेदन/प्रतिवाद करते थे तो इंजीनियर साहब उन्हें या तो रद्दी की टोकरी में फेंक देते थे या फिर गायब करवा दिया करते थे और आखिरकार नहर बन गई। फिर फैला जल-जमाव और इस गाँव के देवेन्द्र सिंह तथा अन्य 51 किसानों ने मिलकर विधान सभा का दरवाजा खटखटाया। विधान सभा ने मामले के अध्ययन के लिये एक याचिका समिति गठन की जिसकी रिपोर्ट 1981 में आई।

समिति ने लिखा कि, ....जल-जमाव के कारण गरीब किसानों की फसलें प्रत्येक वर्ष मारी जाती हैं। साथ ही गरीब हरिजनों के घर भी पानी जमाव के कारण प्रत्येक वर्ष गिरते रहे हैं ... सिंचाई विभाग द्वारा प्रभावित व्यक्तियों की क्षति-पूर्ति करनी चाहिये, उन्हें मुआवजा दिया जाना चाहिये इसके लिये समिति ने सहाय्य आयुक्त को सम्पर्क किया तो उन्होंने समिति को बताया कि अगर किसानों को सिंचाई विभाग से नुकसान हुआ है तो मुआवजा भी सिंचाई विभाग ही देगा। सहाय्य विभाग तो केवल उसी परिस्थिति में मदद करता है जहाँ लोग आकस्मिक विपत्ति में घिर गये हों। जल-जमाव से ग्रस्त लोगों की जमीन की लगान माफ की जा सकती है वह भी सिर्फ तभी तक जब तक जमीन पर पानी रहे। यह लगान भी तब माफ होगी जब कलेक्टर इसकी सिफारिश करे।

समिति ने आगे लिखा है कि, “... जिनकी जमीन नहर में तो ली जाय, उन्हें पानी न मिले, तकनीकी दोष के कारण जल-जमाव हो जाय, फसल बर्बाद हो, उनके घर गिर जाएं और सरकार इन दृश्यों को देखती रहे, यह कैसा न्याय है? मानवोचित न्याय देने की नीति विभाग को अपनानी चाहिये। सर्वविदित है कि दोषी दण्ड का अधिकारी होता है न कि निर्दोष। जल-जमाव का एक मात्र कारण नहर का निर्माण है।”

सच यह है कि कमला बेसिन में न जाने कितनी जमीन तटबन्ध और नहर के कारण जल-जमाव से ग्रस्त है। सरकार यह जमीन डुबा तो जरूर सकती है मगर मुआवजे की बात छोड़ दें तो लगान माफी की प्रक्रिया भी इतनी जटिल है कि कुछ होता नहीं है। मुआवजे के लिये यहाँ विधानसभा की सिफारिश थी मगर कहीं भी कुछ भी नहीं हुआ। बिटुहर एक मिसाल है मगर जयनगर से लेकर अरेड़ तक, जो कमला नहरों का दक्षिण किनारा है, कहीं नहर में बालू जमाव से, कहीं नहर के टूटने से, कहीं जल-जमाव से और कहीं पानी न मिलने से हर कोई परेशान है मगर किसे फुर्सत है कि लोगों की इन समस्याओं पर ध्यान दें।

7. कमला नहरें और पटवन वसूली की समस्या


नहरी पानी के साथ उसके टैक्स के भुगतान की समस्या बहुत ही विकट, अपमानजनक और धमकी भरी है। उत्तर बिहार की दूसरी बड़ी सिंचाई योजना पूर्वी कोसी या गंडक नहर की तरह ही कमला नहरों में भी किसानों की यह आम समस्या है। नहर में पानी आये न आये, खेत सींचे जायें या नहीं, परची जरूर कट जाती है। इस समस्या का आजतक कोई समाधान नहीं हुआ है। कमला नहरों से सिंचाई शुरू होने के बाद वसूली की व्यवस्था पर बैद्यनाथ यादव (1966) ने बिहार विधान सभा में बोलते हुए कहा था कि, “... 90 प्रतिशत किसानों ने नाजायज ढंग से टैक्स वसूली किया जाता है इस नाम पर कि अभी वसूलते हैं, बाद में लौटा दिया जायेगा। 5-6 साल से दरख्वास्त दी जा रही है, लेकिन सुना नहीं जाता है। .... नाजायज ढंग से कर्मचारियों को देना पड़ता है। जिसकी जमीन गाँव में नहीं भी है उससे टैक्स पटवन के नाम पर वसूल किया जाता है। .... बाढ़ के चलते नहर टूट कर फसल बर्बाद होती गई, फिर भी आप पटवन वसूलते हैं। ... वहाँ के जो कर्मचारी हैं ... वे बैठे-बैठे ही नक्शा खींच लेंगे चाहे वह किसी का घर हो या खलिहान हो और सबसे पटवन वसूल किया जाता है।”

वसूली से जुड़े लोगों पर इस तरह के इल्जाम शुरू से ही लग रहे हैं। कमला नहर से सिंचाई 1964-65 से शुरू हुई मगर जब पटवन टैक्स की बात आई तो उसकी वसूली का नोटिस बेनीपट्टी के किसानों तक को मिला जहाँ नहर का पानी पहुँचा ही नहीं था मगर किसानों के साथ बदसलूकी की गई और, उनके बैल खोल कर वसूली कर्मचारी ले गये और तरह-तरह से उन्हें डराया धमकाया गया। आज भी कमला सिंचाई योजना में कुछ भी नहीं बदला है।

8. कमला बाढ़ सुरक्षा परियोजना और बाढ़ सुरक्षा का सामान्य तरीका


कमला क्षेत्र में बाढ़ से सुरक्षा अट्ठारहवीं और उन्नसवीं शताब्दी में कोई खास मुद्दा नहीं था। कहीं-कहीं जमीन्दारी तटबन्ध बने हुये थे या फिर ग्रामीणों की अपनी व्यवस्था थी। ब्रिटिश हुकूमत सीमावर्ती क्षेत्र होने के नाते इस इलाके में बड़ा फूंक-फूंक कर कदम रखती थी। वैसे भी 1942 तक ब्रिटिश हुकूमत नदियों पर किसी भी प्रकार के तटबन्धों के खिलाफ रही और उनको नष्ट करने की वकालत करती थी। क्योंकि उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में दामोदर नदी पर तटबन्ध बना कर उसने नदियों से छेड़-छाड़ न करने का बड़ा मुश्किल सा सबक सीख लिया था। सैद्धान्तिक रूप से उसका ज्यादा ध्यान जल-निकासी के सुधार में था। भारत से जाते-जाते अंग्रेजों ने दामोदर घाटी से बड़े बाँधों की शुरुआत जरूर कर दी थी और तभी उत्तर बिहार के सन्दर्भ में कोसी पर नेपाल में बराह क्षेत्र बाँध भी चर्चा में आ चुका था मगर आजाद हिन्दुस्तान में गांगेय क्षेत्रों में बाढ़ नियंत्रण के लिये जो भी काम हुआ वह मुख्यतः तटबन्ध निर्माण का ही था।

बाढ़ नियंत्रण के लिये तटबन्धों के निर्माण और उनकी भूमका तथा इस मसले पर पक्ष और विपक्ष की बहस में पड़े बिना यहाँ इतना ही बता देना काफी है कि मुक्त रूप से बहती हुई नदी की बाढ़ के पानी में काफी मात्रा में गाद (सिल्ट/बालू/पत्थर) मौजूद रहती हैं। बाढ़ के पानी के साथ यह गाद बड़े इलाके पर फैलती है। नदियाँ इसी तरीके से भूमि का निर्माण करती हैं। तटबन्ध पानी का फैलाव रोकने के साथ-साथ गाद का फैलाव भी रोक देते हैं और नदियों के प्राकृतिक भूमि निर्माण में बाधा पहुँचाते हैं। अब यह गाद तटबन्धों के बीच ही जमा होने लगती है जिससे कि नदी का तल धीरे-धीरे ऊपर उठना शुरू हो जाता है और इसी के साथ तटबन्धों के बीच बाढ़ का लेवल भी ऊपर उठता है। नदी की पेटी लगातार ऊपर उठते रहने के कारण तटबन्धों को ऊँचा करते रहना इंजीनियरों की मजबूरी बन जाती है मगर इसकी भी एक व्यावहारिक सीमा है। तटबन्धों को जितना ज्यादा ऊँचा और मजबूत किया जायेगा, सुरक्षित क्षेत्रों पर बाढ़ और जल जमाव का खतरा उतना ही ज्यादा बढ़ता है।

तटबन्धों के बीच उठता हुआ नदी का तल और बाढ़ का लेवल तटबन्धों की टूटन का कारण बनते हैं। यह दरारें तटबन्धों के ऊपर से होकर नदी के पानी के बहाव, तटबन्धों से होने वाले रिसाव या तटबन्धों के ढलानों के कटाव के कारण पड़ती है। तटबन्धों के टूटने की स्थिति में बाढ़ से सुरक्षित क्षेत्रों में तबाही का अन्दाजा सहज ही लगाया जा सकता है कभी-कभी चूहे, लोमड़ी या छछूंदर जैसे जानवर तटबन्धों में अपने बिल बना लेते हैं। नदी का पानी जब इन बिलों में घुसता है तो पानी के दबाव के कारण तटबन्धों में छेद हो जाता है और वह टूट जाते हैं।

किसी भी नदी पर तटबन्धों के निर्माण के कारण उस नदी की सहायक धाराओं का पानी मुख्य नदी में न आकर बाहर ही अटक जाता है। बाहर अटका हुआ यह पानी या तो पीछे की ओर लौटने पर मजबूर होगा या तटबन्धों के बाहर नदी की दिशा में बहेगा। दोनों ही परिस्थितियों में यह नये-नये स्थानों को डुबायेगा जहाँ कि, मुमकिन है, अब तक बाढ़ न आती रही हो। इस समस्या का जो जाहिर सा समाधान है वह यह कि जहाँ सहायक धारा तटबन्ध पर पहुँचती है वहाँ एक स्लुइस गेट बना दिया जाय। लेकिन स्लुइस गेट बन जाने के बाद भी उसे बरसात के मौसम में खोलना समस्या होती है क्योंकि अगर कहीं मुख्य धारा में पानी का लेवल ज्यादा हुआ तो उसका पानी उलटे सहायक धारा में बहने लगेगा और अनियंत्रित स्थिति पैदा करेगा। अपने निर्माण के कुछ ही वर्षों के अन्दर अक्सर स्लुइस गेट जाम हो जाया करते हैं क्योंकि फाटकों के सामने नदी साइट में बालू जमा हो जाता है। इस तरह से स्लुइस गेट के होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता और सहायक धारा का पानी कन्ट्रीसाइड के सुरक्षित क्षेत्रों में फैलता ही है। इन स्लुइस गेट का संचालन बरसात समाप्त होने के बाद ही हो पाता है जब नदी में पानी का स्तर काफी नीचे चला जाय। इस समय तक जो नुकसान होना था वह हो चुकता है।

जब स्लुइस गेट काम नहीं कर पाते हैं तो अगला उपाय बचता है कि सहायक धाराओं पर भी तटबन्ध बना दिये जायें जिससे कि बाढ़ सुरक्षित क्षेत्रों में उनका पानी न फैले। ऐसा कर देने पर मुख्य नदी के तटबन्ध और सहायक धारा के तटबन्ध के बीच वर्षा का जो पानी जमा हो जाता है, उसकी निकासी का रास्ता ही नहीं बचता। यह पानी या तो भाप बनकर ऊपर उड़ सकता है या जमीन में रिस कर समाप्त हो सकता है। तीसरा रास्ता है कि इस अटके हुये पानी को पम्प कर के किसी एक नदी में डाल दिया जाय। अब अगर पम्प कर के ही बाढ़ की समस्या का समाधान करना था तो मुख्य नदी, सहायक नदी पर तटबन्ध और स्लुइस गेट बनाने की क्या जरूरत थी? और अगर कभी दुर्योग से इन दोनों तटबन्धों में से कोई एक टूट गया तो बीच के लोगों की जल-समाधि निश्चित है।

कभी-कभी तटबन्ध के कन्ट्री साइड में बसे लोग जल-जमाव से निजात पाने के लिये तटबन्धों को काट दिया करते हैं। इसके अलावा न तो आज तक कोई ऐसा तटबन्ध बना और न ही इस बात की उम्मीद है कि भविष्य में कभी बन भी पायेगा जो कभी टूटे नहीं। यह दरारें तटबन्ध तकनीक का अविभाज्य अंग हैं जिनके चलते कन्ट्री साइड के तथाकथित सुरक्षित इलाकों में बसे लोग अवर्णनीय कष्ट भोगते हैं और जान-माल का नुकसान उठाते हैं।

तटबन्धों के कारण बारिश का वह पानी जो कि अपने आप नदी में चला जाता वह तटबन्धों के बाहर अटक जाता है और जल-जमाव की स्थिति पैदा करता है। तटबन्धों से होकर होने वाला रिसाव जल-जमाव को बद से बदतर स्थिति में ले जाता है। इसके अलावा नदी की बाढ़ के पानी में जमीन के लिये उर्वरक तत्व मौजूद होते हैं। बाढ़ के पानी को फैलने से रोकने की वजह से यह उर्वरक तत्व भी तटबन्धों के बीच ही रह जाते हैं। इस तरह से जमीन की उर्वराशक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। उर्वराशक्ति में गिरावट की भरपाई रासायनिक खाद से की जाने लगी है। जिसका खेतों पर बुरा प्रभाव पड़ता है और इस तरह के खाद की कीमत अदा करनी पड़ती है।

कभी-कभी स्थानीय कारणों से नदी के एक ही किनारे पर तटबन्ध बनाने पड़ते हैं। ऐसे मामलों में बाढ़ का पानी नदी के दूसरे किनारे फैल कर तबाही मचाता है और साथ में उपर्युक्त सारी दिक्कतें तो मौजूद रहती ही हैं। तटबन्धों द्वारा बाढ़ का नियंत्रण करना अपने आप को एक ऐसे चक्रव्यूह में फँसाना है जहाँ से निकलना बहुत मुश्किल होता है।

उधर इंजीनियरों के एक बड़े वर्ग का विश्वास है कि नदी पर जब तटबन्ध बना दिया जाता है तो उसकी पानी के निकासी का रास्ता कम होने से पानी का वेग बढ़ जाता है। धारा का वेग बढ़ जाने से नदी की कटाव करने की क्षमता बढ़ जाती है और वह अपने दोनों किनारों को काटना आरंभ कर देती है और अपनी तलहटी को भी खंगाल देती है जिससे उसकी चौड़ाई और गहराई दोनों बढ़ जाती है और उसका जलमार्ग पहले से कहीं ज्यादा हो जाता है। नतीजतन नदी में पहले से कहीं ज्यादा पानी प्रवाहित होने लगता है जो बाढ़ के प्रभाव को कम कर देता है। तकनीकी हलकों में आज तक इस बात पर सहमति नहीं हो पाई है कि नदी पर बना तटबन्ध बाढ़ को बढ़ाता है या कम करता है। अलग-अलग नदियों और उनमें आने वाली गाद का चरित्र अलग-अलग होता है-ऐसा कह कर इंजीनियर लोग किसी भी बहस से बच निकलते हैं अपनी सुविधा और अपने ऊपर पड़ने वाले सामाजिक और राजनैतिक दबाव के सन्दर्भ में इन तर्कों की व्याख्या किसी योजना को स्वीकार करने या उसे खारिज करने में करते हैं। तटबन्धों के पक्ष में और उनके खिलाफ दोनों तर्क इतने मजबूत हैं कि उन पर कोई भी अनजान आदमी उंगली नहीं उठा सकता। व्यावहारिक सच्चाई यह है कि बाढ़ नियंत्रण के लिये किसी नदी पर तटबन्ध बने या नहीं, यह फैसला अपनी समझ के अनुसार राजनीतिज्ञ लेते हैं और इन अनिर्णित तर्कों का सहारा लेकर इंजीनियर सिर्फ उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। इंजीनियरों का कद चाहे कितना बड़ा क्यों न हो, जैसी व्यवस्था है उसमें राजनीतिज्ञ उन पर अपना फैसला थोपने में कामयाब होते हैं और इंजीनियर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते।

इसलिये बाढ़ नियंत्रण के लिये जो कुछ भी काम इस इलाके में हुआ वह 1954 की बाढ़ के बाद ही शुरू हुआ और तभी इस नदी पर तटबन्ध बनाने की योजना बनाई गई। यह सारा काम कोसी नदी पर तटबन्धों के निर्माण की स्वीकृति के बाद ही संभव हो सका। मूल योजना में (1956) नेपाल में शीसापानी से लेकर मधुबनी के दरजिया तक तटबन्ध बनाने की योजना थी। शीसापानी से दरजिया तक की दूरी 149.6 किलोमीटर है जबकि भारतीय भूभाग में भारत-नेपाल सीमा से दरजिया तक की दूरी 101.6 किलोमीटर है। इस प्रस्तावित योजना से 4.04 करोड़ रुपयों की लागत से नदी के दोनों किनारों पर तटबन्ध बनाकर 1,92,000 हेक्टेयर क्षेत्र की बाढ़ से सुरक्षा देने की बात कही गई थी।

इन तटबन्धों के निर्माण का काम जयनगर से झंझारपुर के बीच में 1956 में शुरू हुआ और लगभग 1960 में इसे पूरा कर लिया गया तथा 1962 में इन्हें झंझारपुर से दरजिया तक बढ़ाया गया। दरजिया के बाद इन तटबन्धों को कोठराम तक बढ़ाने का काम 1980 के दशक में शुरू किया गया।

शुरुआती वर्षों में बाढ़ नियंत्रण के नाम पर कोसी नदी पर तटबन्ध बना कर क्या-क्या गुल खिले उसके बारे में अन्यत्र जानकारी उपलब्ध है। यहाँ हम उसके विस्तार में नहीं जायेंगे मगर इतना जरूर कहेंगे कि कोसी और कमला के तटबन्धों में लुहार और सुनार का रिश्ता है। कोसी का घन एक बार पड़ता है तो तबाही का जबर्दस्त झटका लगता है मगर कमला उस लिहाज से निहायत बारीक मगर थोक के भाव और बिना नागा किये हुए तटबन्धों की शक्ल में बनी हुई अपनी जंजीरों को तोड़कर आजाद रहने की कोशिश करती है। कोसी के मुकाबले काफी छोटी नदी होने के कारण पहले कभी-कभी और अब अक्सर नदी के किनारे बसे हुये लोग इस नदी के तटबन्ध को खुद काट दिया करते हैं। उनकी मुराद रहती है कि ऐसा करने से तटबन्धों के बाहर अटका हुआ पानी नदी में चला जायेगा या फिर वह चाहते हैं कि नदी का ताजा पानी और ताजी मिट्टी उनके खेतों तक पहुँच कर उन्हें नई जिन्दगी दे। नदी के दोनों किनारों पर तटबन्ध बन जाने के कारण नदी की तलहटी का स्तर अब काफी ऊँचा हो गया है और बाढ़ से तथाकथित रूप से सुरक्षित इलाके उसी अनुपात में नदी के मुकाबले नीचे चले गये हैं। इससे एक बड़े क्षेत्र में जल जमाव बढ़ा है। तटबन्धों के टूटने या तोड़ देने पर निचले क्षेत्रों में मिट्टी/रेत भर जाती है। जिससे जल जमाव स्थानीय तौर पर खत्म हो जाता है। स्थानीय लोगों द्वारा तटबन्धों को काट देना छोटी नदियों के साथ ही मुमकिन है क्योंकि कोसी या गंडक जैसी बड़ी नदियों के साथ इस तरह की कोई भी छेड़खानी बड़ी महँगी पड़ सकती है।

कमला नदी पर निर्मित तटबन्धों का सूचक मानचित्रइसका मतलब यह हरगिज नहीं लगाना चाहिये कि कमला की बाढ़ से होने वाली तबाही किसी भी मायने में कोसी से कम है। यह अन्तर वैसा ही है कि जैसे कभी राजधानी एक्सप्रेस दुर्घटना ग्रस्त हो तो उसकी अपेक्षा उसी समय हुई पैसेन्जर गाड़ी की दुर्घटना को वह तरजीह नहीं मिलेगी जो कि राजधानी एक्सप्रेस को मिलती है। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

तटबन्ध निर्माण के पहले फेज में कमला नदी पर जयनगर से झंझारपुर तक तटबन्ध 1960 में बनकर पूरे हुये। इस निर्माण के पूरा होने के पहले ही यह प्रस्ताव कर दिया गया था कि इन तटबन्धों को झंझारपुर रेल पुल के नीचे करीब 21 किलोमीटर दूर दरजिया तक ले जाया जायेगा। स्थानीय नेताओं और जनता का मानना था कि झंझारपुर से नीचे कमला पूरी तरह से आजाद थी और उसकी बाढ़ का पानी झंझारपुर, मधेपुर, घनश्यामपुर, बिरौल, कुशेश्वर स्थान और सिंधिया प्रखण्डों की लगभग डेढ़ लाख आबादी के लिये खतरे की घंटी दे रहा था। झंझारपुर रेल पुल के नीचे नदी का पानी चारों ओर उसी तरह अनियंत्रित रूप से फैलता था जैसा कि गाँव के स्कूलों में छुट्टी की घंटी बजने के बाद बच्चे भागते हैं। इस पानी से इन इलाकों में खेती को नुकसान पहुँच रहा था और बड़ी संख्या में घर गिरने लगे थे। राज्य सरकार भी इस बात को महसूस कर रही थी कि समस्या से निबटने के लिये जल्दी कुछ किया जाय। मगर इसके लिये गठित एक उच्चस्तीय टेकनिकल कमेटी की सिफारिशों का इन्तजार हो रहा था। इस कमेटी में अन्य लोगों के अलावा कोसी प्रोजेक्ट के चीफ इंजीनियर, बिहार सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर तथा केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग और पूर्वोत्तर रेलवे के चीफ इंजीनियर सदस्य थे। केन्द्रीय जल और शक्ति आयोग यह चाहता था कि निचले इलाकों के लिये कोसी तथा बागमती को भी ध्यान में रख कर एक समेकित योजना बने और इसकी वजह से अगर कुछ देर होती है तो हो।

कमला-बलान तटबन्धों के साथ समस्या थी कि यह धारा तो बलान की थी और इसमें कमला नदी 1954 में आकर मिल गई। बलान की धारा की क्षमता दो नदियों के प्रवाह संभालने भर को नहीं थी। इसके अलावा सकरी को झंझारपुर से जोड़ने वाली रेल लाइन पर झंझारपुर के पास जो रेल पुल था वह भी केवल बलान के प्रवाह को देख कर बनाया गया था, कमला बलान के संयुक्त प्रवाह के लिये नहीं और यह पुल केवल 37 मीटर चौड़ा हुआ करता था। जब जयनगर-झंझारपुर तटबन्ध बन गया तब लोगों को एहसास हुआ कि यह काम तो ठीक नहीं हुआ। इस पुल से होकर बहने वाला पानी तीर की तरह निकलता था और दक्षिण के गाँवों पर चोट करता था। बाद में इस पुल की क्षमता बढ़ाये बिना कमला-बलान का तटबन्ध दरजिया तक बढ़ा दिया गया था। बिहार सरकार ने अपने खर्च पर इस पुल की लम्बाई को 107 मीटर तक बढ़ा दिया लेकिन यह विस्तार अस्थाई था। रेल विभाग ने इस पुल को बाद में 146 मीटर लम्बा बनाने का प्रस्ताव किया और साथ ही लोहना रोड, झंझारपुर रेल लाइन को 1.5 मीटर ऊँचा किया। यह रेलवे लाइन कमला बलान के पूर्वी और पश्चिमी तटबन्धों को काटते हुये चलती थी। इस तरह से रेल पुल की लम्बाई और ऊँचाई दोनों ही पहले से ज्यादा हो जाने वाली थी। मगर यह स्थायी पुल 1965 तक नहीं बन पाया था जबकि झंझारपुर-दरजिया तटबन्ध का निर्माण 1962 में पूरा कर लिया गया था।

यह स्थिति तटबन्धों की सलामती के लिहाज से अच्छी नहीं थी और 1963 की बाढ़ में कमला-बलान का नव-निर्मित तटबन्ध रेल पुल के दक्षिण रामघाट गाँव के पास टूट गया। इस तरह झंझारपुर-दरजिया तटबन्ध पर अपने वजूद के पहले साल में ही बेवफाई की तोहमत लगी और नीचे के खरवाइर, गंगापुर, गुणाकरपुर और बेलही जैसे बहुत से गाँव इस बाढ़ की चपेट में आ गये। 1964 में नदी का तटबंध दइया खरवाइर समेत 4 जगहों पर टूट गया जिससे झंझारपुर, मधेपुर और मनीगाछी प्रखण्डों के बहुत से गाँव बाढ़ में फंस गये। इस तरह की मानव निर्मित बाढ़ झेलने का इन गाँवों का नया अनुभव था। इसी साल जयनगर के पास लक्ष्मीपुर गाँव का कुछ हिस्सा कटकर नदी में समा गया।

9. कमला तटबन्धों को पहला बड़ा झटका-1965


तटबन्धों के कारण 1965 के जुलाई महीने में जो तबाही हुई वह अभूतपूर्व थी। इस बार नदी के नेपाली जलग्रहण क्षेत्र में जुलाई के पहले सप्ताह में जमकर बारिश हुई। झंझारपुर के पास रेलवे लाइन का अधूरा पुल अपनी ऊँची की हुई एप्रोच रोड के साथ तटबन्धों के बीच इस पानी के सामने खड़ा था। 8 जुलाई को सिर्फ 10 घन्टे के अन्दर नदी का जल स्तर 2 मीटर चढ़ गया और 1964 में देखे गये उच्चतम बाढ़ लेवल को पार कर गया तथा रेलवे लाइन की एप्रोच रोड को तोड़ता हुआ नीचे की ओर बढ़ा जहाँ इसने नदी के दोनों ओर के तटबन्धों को तहस-नहस कर दिया। इस बार कुल मिलाकर 21 जगह कमला बलान का तटबन्ध टूटा। रेल और सड़क मार्ग बन्द हो जाने के कारण सूचना मिलने के बावजूद दरभंगा के कलक्टर जे.सी. जेटली झंझारपुर पहुँच नहीं पाये और उन्हें पिपरा में ही रुक जाना पड़ा।

यह बाढ़ कमला के तटबन्धों समेत अपने साथ पूरी रेल और सड़क संचार व्यवस्था को ले गई। राहत कार्यों के लिये रखा गया अनाज गोदामों में ही सड़ गया और जो कुछ राहत के नाम पर बंटा वह जानवरों के खाने लायक भी नहीं था। बड़ी मात्रा में फसल और घरों का नुकसान हुआ। “इस महीने की 7-8 तारीख को मिथिला में लगन की अंतिम तिथि थी लेकिन बाढ़ की वजह से नव-विवाहित वर-वधू रेलवे स्टेशन पर खड़े रह गये और अपने स्थान पर नहीं पहुँच सके। वहाँ पर एक अजीब संकट उत्पन्न हो गया था और यातायात बन्द हो गया था।” बहुत मुमकिन है कि बहुत सी बारातें बाढ़ में फँस गई हों और कई जोड़ों की शादी ही न हुई हो।

इस दुर्घटना के बाद दस्तूर के मुताबिक कीचड़ उछलने का काम शुरू हुआ और पहला विवाद उठा दरभंगा के कमिश्नर जे.एस. बाली के बयान से जिसमें उन्होंने बाढ़ की बात तो जरूर स्वीकार की मगर लोगों को हुई परेशानी के बारे में आई रिपोर्टों को अतिरंजित बताया। इंडियन नेशन में छपे एक लेख (19 जुलाई) में कमिश्नर के इस तरह के वक्तव्य पर कड़ी आपत्ति की गई। “... अगर बाली साहब कोई साधारण अफसर रहे होते और उन्होंने प्रत्यक्षदर्शियों की अखबारों में छपी रिपोर्ट को अतिरंजित बताया होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता था। अगर लोग बाढ़ पीड़ित नहीं होते तो वह चिल्लाते भी नहीं। लेकिन वह प्रमण्डल के कमिश्नर हैं जो कि प्रमण्डल का एक तरह से गवर्नर होता है और उन्हीं के द्वारा किये गये परिस्थिति के विश्लेषण पर राहत कार्यों का पूरा दारोमदार टिका हुआ है। उन्होंने जो कुछ भी कहा है अगर वह सच है तो इससे उन बाढ़ पीड़ितों को जरूर चोट लगेगी जोकि सड़कों, तटबन्धों और अन्य ऊँचे स्थानों पर खुले आसमान के नीचे अपने रात-दिन गुजार रहे हैं और भूखे रहकर अवर्णनीय दुःख झेल रहे हैं।”

इस दुर्घटना के बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर चलता ही रहा। यह तो करीब-करीब तय था कि तटबन्ध टूटने और उसके बाद आई बाढ़ का कारण तो झंझारपुर का रेल पुल था अतः पहला मोर्चा खुला बिहार के सिंचाई विभाग और रेलवे मंत्रालय के बीच जोकि केन्द्र सरकार के अधीन होता है। बिहार सरकार के सिंचाई मंत्री महेश प्रसाद सिन्हा ने रेलवे विभाग पर आरोप लगाया कि अगर वह चौकसी बरतता और समय से इस नये पुल को पूरा कर लेता तो यह दुर्घटना नहीं होती। उनका कहना था कि राज्य के सिंचाई विभाग के इंजीनियरों द्वारा बार-बार दी गई चेतावनी की ओर रेलवे विभाग ने कोई ध्यान नहीं दिया। उन्होंने 20 जुलाई 1965 को अपने आरोप को बिहार विधान सभा में दोहराया। बिहार सरकार की तरफ से सहदेव महतो ने 6 अगस्त 1965 को एक ध्यानाकर्षण प्रस्ताव का उत्तर देते हुये विधान सभा में अपनी स्थिति को साफ किया। रेलवे पर इसी तरह के आरोप हरिनाथ मिश्र (मंत्री) और प्रेम चन्द मिश्र, सदस्य बिहार विधानसभा ने भी लगाये आरोप-प्रत्यारोप का यह सिलसिला राजनैतिक स्तर पर भी एक दिलचस्प दौर से गुजरा क्योंकि केन्द्र में रेल मंत्री डाॅ. राम सुभग सिंह भी बिहार के ही रहने वाले थे और पटना तथा दिल्ली दोनों ही जगहों पर कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। डाॅ. सिंह ने महेश बाबू और हरिनाथ मिश्र के आरोपों का साफ तौर पर खण्डन करते हुये कहा कि रेल विभाग ने ऐसा कोई बाँध नदी के सामने नहीं बनाया जिससे नदी के प्रवाह में कोई बाधा पड़ी हो। उनका कहना था कि उत्तर-पूर्व रेलवे ने नदी के बहाव को सुचारु रूप से गुजरने के लिये नये बनाये जा रहे तीन 16 फुट × 40 फुट (लगभग 5 मीटर×12.2 मीटर) पुलों के लिये पहुँच मार्ग (Approach Roads) का निर्माण किया था और इसके बदले में एक 20 फुट (6 मीटर) और दूसरे 10 फुट (3 मीटर) चौड़े पुल का मुंह बन्द किया था। इसलिये राज्य सरकार का रेल विभाग पर लगाया गया आरोप बेबुनियाद था। उनका कहना था कि इस विनाशकारी बाढ़ का कारण नेपाल के तराई क्षेत्र में भारी वर्षा के साथ-साथ राज्य सरकार द्वारा नदी के दोनों किनारों पर तटबन्धों का निर्माण था। रेल विभाग के पुल वैसे भी केवल बलान के प्रवाह को ध्यान में रखकर बनाये गये थे। कमला-बलान के संयुक्त प्रवाह के लिये नहीं। इस तरह से एक पक्ष जो भी आरोप लगाता था उसकी काट सामने वाले के पास मौजूद रहती थी।

केन्द्रीय जल तथा शक्ति आयोग बाढ़ के चीफ इंजीनियर पी.एन. कुमरा ने 20-21 जुलाई को इलाके का दौरा किया और रेलवे को हिदायत दी कि वह रेल के एप्रोच बाँध की ऊँचाई 1.5 मीटर कम करे और शीघ्र ही इस पुल का काम पूरा करे। केन्द्रीय सिंचाई मंत्री डाॅ. के. एल.राव ने भी झंझारपुर का 2 अगस्त को दौरा किया और रेल विभाग से झंझारपुर में 16 की जगह 20 निकास देने का प्रस्ताव किया जिसे उसने स्वीकार कर लिया। गनीमत इतनी ही थी कि इन इंजीनियरों के नेताओं से अलग राह ली और बयानबाजी में संयम बरता।

बिहार सरकार ने तटबन्धों की मरम्मत के लिये सिंचाई विभाग के सभी अनुभवी इंजीनियरों को झोंक दिया। यद्यपि इसमें देर जरूर हुई क्योंकि मरम्मत के काम में सूखी मिट्टी लगती थी जो पूरे बरसात के मौसम में इस इलाके में उपलब्ध नहीं होती। इस वजह से सरकार पर अकर्मण्यता के आरोप भी लगे। भ्रष्टाचार का आरोप तो ऐसी परिस्थितियों में स्थाई भाव रहता है।

मधेपुर और झंझारपुर प्रखण्डों के बहुत से गाँव लम्बे समय तक पानी में घिरे रहे। कमला-बलान तटबन्धों के बीच भी बहुत से गाँव पानी में घिरे रहे जिनका तब तक पुनर्वास नहीं हो पाया था। तब इन गाँवों के पुनर्वास की मांग ने जोर पकड़ा मगर सरकार को उनकी कोई खास चिन्ता नहीं थी। उधर लोगों के पास इतने साधन नहीं थे कि वे सरकार से कानूनी लड़ाई लड़ सके। विधायक प्रेम चन्द्र मिश्र ने सरकार को झंझारपुर, मधेपुर, मनीगाछी और अंधरा ठाढ़ी प्रखण्डों में कमला-बलान तटबन्धों के बीच रह रहे लोगों की याद दिलाई और कहा कि दरजिया, बैजनाथपुर, रहिका, नवटोलिया, पिपराघाट, भेड़िया राही, परतापुर और हरिना आदि गाँवों की हालत बहुत ही बुरी थी। वह तुरन्त इन गाँवों का पुनर्वास चाहते थे। इतनी कोशिशों के बाद यह उम्मीद की जाने लगी थी कि अब भविष्य में कमला-बलान की बाढ़ लोगों को ज्यादा परेशान नहीं करेगी मगर यह सब मृग-तृष्णा थी।

10. निर्माण के तीन साल के अन्दर तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत करने की सिफारिश और तटबन्धों को तोड़ देने की माँग


1966 में यह तटबन्ध फिर 4 जगहों पर टूट गया। बिहार विधान सभा में 8 सितंबर 1966 को सूरज नारायण सिंह ने बताया कि 24 अगस्त को सुबह 5 बजे झंझारपुर से गाड़ी दरभंगा आने वाली थी। एकाएक रेलवे के एक अधिकारी ने कहा कि मालूम होता है कि बाँध में गड़बड़ी है और वे उसको ठीक करके आयेंगे तो सिग्नल देंगे। लेकिन 5 मिनट के बाद मालूम हुआ कि गाड़ी एक इंच भी आगे नहीं जा सकती है। देखने में आया कि गाँव बह रहे हैं। जो मालगुदाम था और जिसमें हजारों बोरे अनाज थे, दवा-दारू था-वे सब भी बह गये। आज वहाँ के लोग छप्पर पर रह रहे हैं और दाने-दाने को मुहताज हैं ... तीसरे दिन वहाँ पर दो बोरा चूड़ा और कुछ गुड़ बाँटा गया। ... मैं पूछता हूँ कि गत साल तो रेलवे की वजह से बाँध टूट गया, लेकिन इस साल भी उसी स्थान पर बाँध टूट गया। सिंचाई विभाग द्वारा कन्ट्रोल करने के बावजूद ऐसा क्यों हुआ? सरकार के पालतू चूहे इस राज्य को खा जायेंगे। आप क्षमा करें, यह पालतू चूहे ठेकेदार के रूप में, सरकारी इंजीनियर के रूप में हैं, जिनके चलते आज इस राज्य की यह स्थिति है। बिहार विधानसभा में इसी तरह की शिकायतें हरिश्चन्द्र झा ने भी की। उनका कहना था कि कमला तटबन्ध को तोड़ देना चाहिये और तटबन्धों के पहले की जो हालत थी उसी में इलाके को वापस छोड़ देना चाहिये। उन्होंने बताया कि जहाँ-जहाँ वे कमला बलान क्षेत्र में घूमने के लिये गये, वहाँ-वहाँ पर लोगों ने उनसे यही बात कही कि या तो बाँध को तोड़ दिया जाय या (उन्हें) बन्दूक से मार दिया जाए। हर साल बर्बाद होते-होते लोगों की रीढ़ टूट गई थी।

बैद्यनाथ मेहता ने विधान सभा को बताया कि, जब कुछ काम करते हैं और कुछ लोगों को उससे क्षति होती है तो क्या प्रजातन्त्र में आपका यह फर्ज नहीं है कि आप लोगों की क्षति-पूर्ति करें- मैं कमला-बलान में नदी के भीतर 24 किलोमीटर तक के गाँवों में गया था। पानी आया तो घरों के छप्पर चूने लगा। क्या आपने वहाँ के रहने वालों के लिये व्यवस्था की? ... उनके बाल बच्चों की सुरक्षा का प्रबंध कीजिये नहीं तो प्रजातंत्र असफल हो जायेगा और ब्यूरोक्रेसी की जो हालत है उससे सरकार बदनाम हो जायेगी।

कमला बलान पर तटबन्ध बन तो जरूर गये मगर अब यह सरकार के गले की फंसी हुई हड्डी बन कर रह गये। हार कर सरकार ने बदनामी से बचने और प्रजातन्त्र के अपने फर्ज की रक्षा करने के लिये केन्द्रीय जल और शक्ति आयोग के सामने गुहार लगाई। आयोग ने सरकार की मदद के लिये सिंचाई और शक्ति मंत्रालय के एक सलाहकार मोती राम को इस काम के लिये बिहार भेजा। मोती राम ने निम्नलिखित बातें सुझाईं-

1. नदी के दोनों किनारों के तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत किया जाय।
2. तटबन्धों पर उचित स्थानों पर आश्रय झोपड़ों का निर्माण करना जिसका प्रयोग संकटकालीन स्थिति में किया जा सके।
3. दोनों तटबन्धों पर सुरक्षा की दृष्टि से उचित स्थलों पर तार संचार सेवा की व्यवस्था।
4. झंझारपुर रेल पुल के दोनों ओर करीब 122 मीटर के दो स्पिल-ब्रिज का निर्माण।

राज्य सरकार ने इन सारे प्रस्तावित कामों के लिये हामी भरी मगर काम केवल तटबन्धों पर मिट्टी डालने का ही हुआ। रेल-पुल को आगे बढ़ाने का काम रेलवे को करना था, यह बिहार सरकार का काम नहीं था।

इस समय तक तटबन्धों के बीच बाढ़ का लेवल पहले के 1.2 मीटर से बढ़कर 3 मीटर को पार करने लगा और उनके अन्दर मिट्टी के जमाव का असर साफ दिखाई पड़ने लगा था। तटबन्धों के बाहर जल-जमाव भी दस्तक देने लगा था। तटबन्धों के बीच फँसे लोगों के पुनर्वास के लिये आवाजें उठ रही थीं और राहत कार्यों तथा नाव की व्यवस्था करने के लिये सरकार से पहले-पहले तो अपील की जाती थी मगर अब उसको लानत भेजना भी शुरू हो गया था। “...जो विशेषज्ञ हैं उनकी एक समिति बनाना चाहिये कि यह जो बीमारी बाँध की वजह से होती गई है, उसका निराकरण कैसे हो। सरकार को अनुसंधान करना चाहिये (कि) अगर तटबन्ध टूट जाय, तो बहुत से गाँव बह जायेंगे। ... पुनर्वास के लिये तुरन्त इन्तजाम करना चाहिये। सरकार ने पानी के बहाव को रोक दिया है और पानी जमा हो गया है। इसलिये सरकार का दायित्व होता है कि वह उनके प्राण बचाने का इन्तजाम करे और मवेशियों के प्राण भी बचाने का इंतजाम करे।” इस तरह से पाँच साल पहले तक जहाँ जीना मुश्किल था, तटबन्ध बन जाने के बाद मौत आसान लगने लगी थी।

11. तटबन्धों का टूटना आदत बन गई


इसके बाद से कमला-बलान तटबन्धों का टूटते रहना एक दस्तूर बन गया है। 1968, 1971, 1974, 1978, 1979, 1985, 1986, 1987, 1988, 1990, 1993, 1995, 2000, 2002 और 2004 में तटबन्ध या तो टूटे या बाढ़/जल जमाव पीड़ितों द्वारा काटे गये। 2005 में तो राज्य में सूखे की स्थिति थी मगर कमला के तटबन्ध कुछ जगहों पर बाढ़ के बिना ही टूट गये। इन सारे वर्षों में मधुबनी जिले के अंधराठाढ़ी, झंझारपुर, मधेपुर तथा लखनौर प्रखण्डों में बाढ़ें कमला-बलान के तटबन्धों के कारण और उनके बावजूद आईं। इन बाढ़ों ने दरभंगा जिले के मनीगाछी, अलीनगर, घनश्यामपुर, बिरौल, गौरा-बौराम, कीरतपुर, तारडीह तथा कुशेश्वर स्थान प्रखंडों को भी तबाह किया है।

अब तक की सबसे बड़ी बाढ़, जो कि इस इलाके में 1987 में आई थी, में कमला बलान तटबन्धों की धज्जियाँ उड़ गई थीं और वह कुल मिलाकर 24 जगहों पर टूटे थे जिसमें से 13 जगहें पूर्वी तटबन्ध पर और बाकी 11 पश्चिमी तटबन्ध पर थीं। इस दुर्घटना ने तो तटबन्धों की उपयोगिता पर ही सवालिया निशान लगा दिया क्योंकि जब तटबन्धों की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, उसी समय यह दगा दे जाते हैं। 11 से 19 अगस्त के बीच की लगातार और जबरदस्त बारिश और उसके बाद भी कई चक्र में आई राज्यव्यापी बाढ़ का असर नवम्बर महीने तक बना रहा। इस बार की बाढ़ ने झंझारपुर कस्बे समेत कितने ही गाँवों को बालू से पाट दिया। तटबन्धों की दरारों से निकली रेत/मिट्टी ने बाहर जमा होकर जल निकासी की दिशा को बाधित किया और नये चौरों का निर्माण किया। झंझारपुर बाजार के पास परतापुर क चौर 1987 में इसी तरह निर्मित हुआ था और यह स्थिति अभी तक यथावत बनी हुई है। इस बाढ़ में करीब दो से तीन सप्ताह तक बाढ़ की स्थिति इतनी भयावह थी कि वहाँ हवाई जहाज से तैयार भोजन के पैकेट तक नहीं गिराये जा सके थे। यह केवल मनुष्य की जिजीविषा है जो कि उन्हें इन कठिन परिस्थितियों में भी मौत के मुँह से खींच कर ले आती है। इस राज्यव्यापी बाढ़ के बाद कमला घाटी में राम लखन झा के नेतृत्व में कुदाल सेना ने एक मुहिम शुरू की कि अगर सरकार बाढ़ से लोगों की रक्षा नहीं कर सकती और अपने तटबन्ध् को बचा कर नहीं रख सकती तो बेहतर होगा कि वह अपने तटबन्ध ले जाय। बाढ़ पीड़ितों को जैसे भी अपना बचाव करना होगा वह खुद कर लेंगे।

झंझारपुर के दूसरे किनारे पर कमला-बलान के दायें तट पर नरुआर गाँव में सिंचाई विभाग का एक निरीक्षण बंगला है। यहाँ तटबन्धों पर खड़ा होकर नदी के तल और सुरक्षित क्षेत्र की जमीन के बीच के अन्तर को साफ देखा जा सकता है। यहीं से होकर झंझारपुर-लोहना रोड स्टेशनों के बीच की रेल लाइन गुजरती है। कमला-बलान का दायां तटबन्ध जब इस रेल लाइन के उत्तर में टूटता है तो दरार से निकलता हुआ बाढ़ का पानी अपने साथ इस रेल लाइन को भी ले जाता है और यह घटना प्रायः हर साल होती है और रेल-पुल के ऊपर से भी नदी का पानी प्रायः हर साल बह जाता है। बरसात के मौसम में यहाँ कई बार रेल सेवा को बंद करना पड़ता है क्योंकि रेल-पुल के ऊपर से पानी बहने के साथ-साथ झंझारपुर स्टेशन पर भी प्लेटफार्म तक पानी आ जाता है। यह रेल पुल, जिसकी वजह से 1964-1967 के बीच में इतना झमेला हुआ, अपनी आधी लम्बाई में बालू से पूरा पट गया है और प्रायः हर साल इस पुल के ऊपर होकर नदी का पानी बहता है।

12. बाढ़ पीड़ितों ने काटे तटबन्ध


उधर तटबन्धों को काटने की प्रक्रिया प्रायः तभी से शुरू थी जब से उसका निर्माण हुआ। 1963 में पहली बार कमला-बलान तटबन्ध को झंझारपुर पुल के नीचे कुसौल गाँव में काटा गया जिसमें सरकार ने बाँध काटने वालों के खिलाफ मुकदमा दायर किया था। इनमें से हक्कल झा पहले मुद्दालह बने थे। नाम में कुछ गड़बड़ी होने के कारण हक्कल झा पर मुकदमा नहीं चलाया जा सका और वह बेदाग छूट गये। हक्कल झा के साथ-साथ मुद्दालह की सूची में रघुबीर झा वल्द बाबा जी झा, कुसो राय वल्द अनूप राय, टुनटुन सदाय वल्द जगन्नाथ सदाय, शोभा झा वल्द महंगू झा, देवकान्त झा वल्द फुसी झा और राम झा वल्द कुलकुल झा शामिल थे। मगर सिंचाई विभाग ने इन तटबन्धों से लोगों की नाराजगी की पहली स्वीकृति तब मानी जब 2 अगस्त 1985 को बघरस गाँव में तटबन्ध काटा गया। ग्रामवासी अपने गाँव में पानी की निकासी की समस्या को लेकर इतना गंभीर कदम उठाने पर मजबूर हुये थे। सरकार ने इस दरार को 7 अगस्त आते-आते पाट दिया था। जल जमाव की समस्या से खुद निपटने के लिये संगठित रूप से और योजनाबद्ध तरीके से, प्रशासन को बता कर के, कमला-बलान का बायां तटबन्ध मधुबनी जिले के लखनौर प्रखण्ड में भीठ भगवानपुर गाँव के पास 1993 के बरसात के मौसम में काटा गया। इस गाँव के पास गेहुमां नाम की एक छोटी सी नदी कमला-बलान से मिलती है। यह नदी जब तक कोसी का पश्चिमी तटबन्ध नहीं बना था तब तक कोसी में जा मिलती थी मगर तटबन्ध बन जाने के बाद इसे तटबन्ध के साथ-साथ बहने पर मजबूर होना पड़ा। फिर यह धारा कमला-बलान की ओर मुड़ी मगर वहाँ भी कमला-बलान का पूर्वी तटबन्ध मारनो बैल गली संकरी की तर्ज पर उसका रास्ता रोक कर खड़ा था। अब यह नदी पीछे मुड़ने और इधर उधर भागने पर मजबूर हो गई। इस तरह कोसी के पश्चिमी और कमला-बलान के पूर्वी तटबन्ध के बीच में बहने वाली बहुत सी छोटी-मोटी गेहुमां, सुपैन और भुतही बलान जैसी नदियों और धारों ने निकासी बंद हो जाने के करण बड़ी-बड़ी तबाहियाँ मचाना शुरू कर दिया। इन नदियों में से भुतही बलान के बारे में जानकारी अन्यत्र उपलब्ध है। गेहुमां के साथ राज्य सरकार अभी भी पिछले करीब 40 साल से बुझनी (पहेली) खेल रही है। उसे कभी कमला में ठेलने की कोशिश होती है तो कभी कोसी में घुसाने की योजना बनती है। इस छोटी-सी नदी ने इंजीनियरों को बहुतहिं नाच नचायो का भजन गाने पर मजबूर किया हुआ है। कोसी और कमला पर तटबन्ध बनने के बाद जो नदी नाले किसी गिनती में ही नहीं थे उन्होंने भी अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। जल-जमाव बढ़ने लगा और फसल मारी जाने लगी। कृषि के अलावा स्थानीय रोजगार का और कोई साधन नहीं है और जीवन दूभर होने लगा। तब एक दिन भीठ भगवानपुर गाँव के किसानों ने मिलकर तय किया कि अब समय आ गया है कि तटबन्ध काट दिया जाय। तटबन्ध काटा गया और इस कोशिश में दो लोगों की जान जाते-जाते बची।

 

जान बची तो लाखों पाये

 

-निर्भय कामत, ग्राम+पोस्ट-भीठ भगवानपुर, जिला-मधुबनी

 

जब से कमला और कोसी पर तटबन्ध बना तब से हमारे इलाके की गेहुमां नदी न घर की रही न घाट की। पहले यह कोसी में जा मिलती थी मगर वहाँ तटबन्ध बन जाने पर कमला की ओर मुड़ गई। तटबन्ध कमला पर भी बन गया, अब नदी कहाँ जायेगी? उसने हमारे गाँव के  पास कमला में घुसने की कोशिश की, मगर वहाँ भी रास्ता बन्द। अब पानी तो कहीं न कहीं जायेगा सो उसने सैंकड़ों गाँवों को डुबाना शुरू कर दिया और नदी के मुहाने पर हमारा गाँव था जो कि सबसे पहले और सबसे देर तक डूबता था। एक बार 1993 में, जब सारी आरजू-मिन्नत बेकार गई, गाँव वालों ने तय किया कि कमला के तटबन्ध को काट दिया जाय, तभी यह पानी निकल पायेगा। गेहुमां समेत बहुत से नदी-नाले हैं हमारे इलाके में और यह चारों ओर जल-मग्न रहता है।

 

तारीख तो अब याद नहीं है मगर पूरे गाँव के 12-13 सौ आदमी पेट्रोमैक्स, लालटेन, कुदाल और टोकरी लेकर रात को 8-8:30 बजे निकल पड़े तटबंध काटने। प्रशासन को सूचित कर दिया गया था मगर वहाँ से कोई आया नहीं और आता भी क्यों? घनी अंधेरी रात, बारिश और बाढ़ सभी कुछ था उस दिन हमारे यहाँ और उस दिन यह सारी चीजें हमारे हक में थी। जल संसाधन मंत्री बिहार और स्थानीय विधायक को भी हमारे गाँव के इस अनुष्ठान की खबर दे दी गई थी। इसी जल-जमाव को हटाने के प्रश्न पर हरिनारायण झा उसी वर्ष मधेपुर प्रखण्ड पर आमरण अनशन कर चुके थे जो कि झूठा आश्वासन देकर तुड़वा दिया गया था। इसलिये हमारी हालत और मंशा जब किसी से छिपी नहीं थी। तटबन्ध काटते-काटते सुबह का 3:30 बज गया जब उम्मीद हो गई कि अब तटबन्ध बह जायेगा। एकाएक तटबन्ध सब लिये दिये बैठ गया और भगदड़ मच गई। गेहुमां का पानी तेजी से कमला में जाने लगा। इसी आपा धापी में सत्तो राउत कीचड़ में फँस गया, सिर्फ सिर दिखाई पड़ता था उसका, वह जिन्दा था सो बाल पकड़ कर उसे खींच लिया। बच गया। तटबन्ध काटने के बाद हमलोग अपने गाँव की ओर चले कि हल्ला हुआ कि बेचन कामत कहाँ गया, वह भी तो सत्तो के साथ था। सभी ने बेचन-बेचन चिल्लाना शुरू किया। मगर कोई जवाब नहीं मिलता था। तब यह तय हो गया कि बेचन जरूर मिट्टी में दब गया या फिर बह गया। भीड़ फिर तटबन्ध की ओर लौटी और उसी जगह जहाँ से सत्तो राउत को खींच निकाला गया था जमीन खोदना शुरू किया गया। सत्तो राउत का तो सिर दिखाई पड़ता था जिससे उसको बचा पान आसान था मगर यहाँ तो सब काम अनुमान पर होना था। कुदाल भी इशारे से ही चलानी थी वरना वही मौत की वजह बन जाती। तारा माई की कृपा थी कि जल्दी ही बेचन के सिर पर खोदने वालों का हाथ लगा। आनन फानन में मिट्टी हटाई गई। उसकी नाक कान, मुंह सब में मिटी भरी हुई थी। निकाला तो बेहोश था, फिर कुछ हरकत में आया और बोलना शुरू किया। तब हम लोगों की जान में जान आई।

 

न जाने कितने लोगों ने इतनी ही देर में बेचन की जिंदगी के लिये मनौतियां मान ली होंगी। मैंने भी बाबा बैद्यनाथ का ध्यान करते हुये दण्ड-प्रणाम करते हुये देवघर जा कर जल चढ़ाने की मन्नत मांगी थी और अगले सावन में मैं इसी तरह से 450 किलोमीटर प्रणाम करता हुआ देवघर तक गया था। बस! जान बची तो लाखों पाये।

 

.गेहुमां से होने वाले जल-जमाव तथा अन्य समस्याओं के निदान के लिये 1963 में ही एक योजना (प्राकल्लित लागत 14,95,493 रुपये) मधुबनी लघुसिंचाई योजना द्वारा तैयार करके सरकार को भेजी गई थी जिस पर मधेपुर और फुलपरास के प्रखण्ड विकास अधिकारियों की सिफारिश साथ थी। राज्य सरकार ने इसके क्रियान्वयन के लिये विधान सभा में आश्वासन भी दिया था मगर कोई काम नहीं हुआ। इस योजना में गेहुमां के पानी को कोसी के पश्चिमी तटबन्ध को पार करके कोसी में गिराने की बात थी मगर नहर के इस मार्ग पर स्थानीय जनता को ऐतराज था क्योंकि नदी को रास्ता देने के लिये बनाये जाने वाले तटबन्ध से जल-जमाव बढ़ने का खतरा था और वहाँ लोगों की जोत का आकार छोटा है अतः जो कुछ भी जमीन बची है वह इन निर्माण कार्यों में खप जायेगी। यह योजना 1963 से ही अब तक अधर में लटकी हुई है।

भीठ भगवानपुर के निवासियों ने लम्बा इन्तजार किया और जब किसी चीज का असर नहीं हुआ तब मजबूरन उन्होंने 1993 में एक रात जा कर कमला-बलान का पूर्वी तटबन्ध अपने गाँव के पास काट दिया। गाँव के पन्द्रह लोग शान्ति-व्यवस्था भंग करने के आरोप में पकड़े गये मगर किसी पर मुकदमा नहीं चलाया गया। तटबन्ध कट जाने से नदी के पानी की आवाजाही शुरू हो गई। नई मिट्टी पड़ने से गाँव की खेती की जमीन ऊपर आ गई और वर्षों बाद एक बार फिर कृषि-कार्य शुरू हो गया। इस स्थान पर कई वर्षों तक गाँव वालों ने सरकार को तटबन्ध की मरम्मत नहीं करने दिया।

.इसी साल कमला का दायां तटबन्ध सकरी-झंझारपुर रेल लाइन के दक्षिण में सोहराय में टूटा जिससे सोहराय और पोखरभिण्डा-दो गाँवों में पूरा बालू भर गया; 25 पोखरें थे इन गाँवों में। एक भी काम लायक नहीं बचा। यहाँ बहुत से जानवर मारे गये और खेती चौपट हो गई। अब थोड़ी बहुत घास इन खेतों पर उगने लगी है। यहाँ कमला तटबन्ध से सीपेज शुरू हुआ था और गाँव वालों ने भाग कर इंजीनियरों को खबर की। वह आये जरूर मगर तटबन्ध टूटने के बाद। 1991 में बिहार के तत्कालीन जल संसाधन मंत्री ने दावा किया था कि वह अपने कार्यकाल में किसी भी तटबन्ध को टूटने नहीं देंगे और वह उन सारे छेदों को बन्द कर देंगे जिनसे बाढ़ नियंत्रण का पैसा बह जाया करता था। यदि तटबन्ध टूटता है तो वह अपने पद से इस्तीफा दे देंगे। 1991 में ही नेपाल में जोगिनियां में कोसी का पश्चिमी तटबन्ध कट गया और मंत्री जी को त्यागपत्र देना पड़ा। इस तटबन्ध के रख-रखाव की जिम्मेवारी बिहार सरकार की है। यह एक अलग बात है कि वह त्यागपत्र स्वीकार नहीं हुआ। इस पूरी घटना पर जानकारी अन्यत्र उपलब्ध है अतः हम उसके विस्तार में यहाँ नहीं जायेंगे। 1992 में राज्य में जबर्दस्त सूखा पड़ गया था, इसलिये उस वर्ष कोई दुर्घटना नहीं हुई थी। अब 1993 में यह समय वही था जब सिंचाई मंत्री के तटबन्ध न टूटने देने वाले दावे की परीक्षा होनी थी। सरकार यह मानने को ही तैयार नहीं थी कि तटबन्ध टूटा है क्योंकि मंत्रीजी की यही इच्छा थी और सोहराय में स्थानीय लोगों को सिद्ध करना पड़ा था कि तटबन्ध टूटा था जिससे उन्हें कुछ खैरात मिल सके। बाद में जब तटबन्ध की मरम्मत करने सरकारी लोग पहुँचे तो गाँव वालों ने कुछ छेंका-छांकी की कोशिश की और बदले में कुछ लोग हिरासत में लिये गये मगर सरकार गैप भर कर चली गई।

अगले वर्ष 1994 में कमला-बलान का पूर्वी तटबन्ध नवटोल और बलभद्रपुर में टूटा और पश्चिमी तट पर यह नरुआर और बौर में जवाब दे गया। भीठ भगवानपुर ने जल-निकासी का जो रास्ता दिखाया उसका अनुसरण दूसरे गाँवों ने करना शुरू किया। 1995-96 बाढ़ के मौसम में कमला का पूर्वी तटबन्ध बेलही, निर्मला (दो स्थानों पर), खैरी (बलिया), खैरी (परसाद) और फैटकी (परसाद), कुल मिलाकर 6 स्थानों पर एक साथ काटा गया। इन कटावों का परिणाम अगली फसल के मौसम में सामने आया। नई मिट्टी पड़ जाने के कारण अकेले निर्मला गाँव में इस साल मूंग की जबर्दस्त फसल हुई और एक लाख तीस हजार रुपये की मूंग बेची गई। पिछले दस वर्षों से यहाँ कृषि उत्पादन ठप्प था। इस वर्ष खैरी गाँव के दिगम्बर मंडल और सुनील मंडल समेत 16 लोगों पर तटबनध काटने का मुकदमा दर्ज किया गया था। इनके अतिरिक्त 300 अज्ञात व्यक्ति भी अभियुक्त बनाये गये थे मगर किसी के विरुद्ध कोई कार्यवाई नहीं हुई। सरकार ने स्थानीय लोगों की मर्जी के खिलाफ तटबन्धों की इन दरारों को भर दिया।

1996 में पूर्वी तटबन्ध नवटोल, बलभद्रपुर और फैटकी में अपने आप टूटा और निर्मला में फिर एक बार काटा गया। 1997 में पश्चिमी तटबन्ध गोपलखा और जयदेवपट्टी (घनश्यामपुर प्रखण्ड-दरभंगा) और बौर (गौरा-बौराम प्रखण्ड, दरभंगा) में टूटा। इतनी जगह टूटने के बाद पूरब में पानी का दबाव कम हो गया और वहाँ कोई दुर्घटना नहीं हुई। इन तीनों जगहों पर स्थानीय लोगों ने तटबन्ध को काटा था। गोपलखा में तटबन्ध काटने का काम बड़ा सोच समझकर किया गया था। गाँव वालों की इच्छा थी कि तटबन्ध ऐसी जगह काटी जाय कि उनके खेतों पर तो मिट्टी पड़ जाय मगर घरों को कोई नुकसान न हो वैसे भी गोपलखा और रामखेतारी के पास तटबन्ध इतनी खस्ता हालत में था कि किसी भी समय टूट सकता था और उस हालत में इन गाँवों को बहुत नुकसान पहुँचता। इसलिये यह तय किया गया कि टूटने से पहल ही इसे सुविधाजनक समय और स्थान पर काट दिया जाय। यह काम हुआ जरूर मगर जगह का चुनाव करने में कुछ गड़बड़ी रह गई जिससे खेतों पर मिट्टी तो पड़ी मगर ऊपर के गाँवों की जल-निकासी पर असर पड़ा और वहाँ जल-जमाव हो गया।

कुछ लोगों का मानना है कि गोपलखा में तटबन्ध गाँव वालों ने नहीं काटा बल्कि यह प्रशासन की शह पर काटा गया। झंझारपुर मधुबनी जिले के एक अनुमण्डल का मुख्यालय है जहाँ सारे सरकारी दफ्तर हैं। यह कस्बा कमला-बलान के पूरब में है। प्रशासन यह कभी नहीं चाहता है कि कमला-बलान का पूर्वी तटबन्ध रेल-पुल के उत्तर में टूटे क्योंकि वैसी स्थिति में झंझारपुर कस्बे में पानी घुसेगा। यह प्रशासन के अनुकूल पड़ता है कि तटबन्ध रेलवे लाइन के दक्षिण में किसी तरफ या फिर अगर परिस्थितियाँ झंझारपुर रेल पुल के ऊपर खतरनाक बनती है, तो फिर कमला का तटबन्ध पश्चिमी किनारे पर ही टूटे। 1987 वाली बाढ़ में इस कस्बे में लम्बे समय तक पानी बना रहा था और उसके बाद पूरे कस्बे में बालू की एक मोटी परत जमा हो गई थी जिसमें सरकारी दफ्तर भी शामिल थे। यहाँ के दर्जनों तालाब बालू से पट गये। इन्हीं भरे हुए तालाबों में से एक पर स्थानीय लोगों ने शिवशंकर पोद्दार विधि महाविद्यालय का भवन बना दिया है। इसके पास ही ललित नारायण जनता महाविद्यालय की निचली मंजिल बालू से भर गई है। इसमें से लगभग सवा मीटर बालू निकाल कर ही उनमें पुनः क्लासें चलाना संभव हो सका। इस दुर्घटना की यादें वहाँ अभी भी ताजा हैं और इस बाढ़ का असर वहाँ अभी भी देखा जा सकता है। झंझारपुर बाजार से लगे चमराही के पास जो तटबन्ध 1987 में टूटा था उसकी वजह से परतापुर की 1500 हेक्टेयर जमीन आज भी जल जमाव में फँसी है और यहाँ के बाशिन्दे दर-दर के भिखारी बन चुके हैं। इसमें से बहुत से लोग तो अपना घर-द्वार छोड़कर काम की तलाश में बाहर चले गये। जब तक परतापुर के उत्तर में सुविधाजनक स्थान पर कमला-बलान का तटबन्ध नहीं टूटेगा तब तक इस जल-जमाव वाली जमीन पर मिट्टी नहीं पड़ेगी और अपनी ताकत भर प्रशासन ऐसा होने नहीं देगा। इस इलाके में किसी क्षेत्र की बाढ़ से सुरक्षा अब तभी संभव है जब कोई दूसरा उसकी कीमत दे। प्रशासन की भूमिका के बारे में कोई प्रमाण मौजूद नहीं है और प्रमाण तो इस बात का भी नहीं है कि तटबन्ध गोपलखा वालों ने काटा लेकिन यहाँ तटबन्ध टूट गया यह एक हकीकत है।

बहरहाल, कमला तटबन्ध के टूटने की घटनायें बदस्तूर जारी हैं। 1998 में यह तटबन्ध जयदेव पट्टी (65 किलोमीटर) और बौर-इनायतपुर (73 कि.मी.) पर दरभंगा जिले में, 1999 में बेलही (58 कि.मी.) और फैटकी (62 कि.मी.) पर मधुबनी जिले में, 2000 में बेलही (62 कि.मी.) मधुबनी जिले में और कैथवार (दरभंगा में) तथा 2001 में दायां तटबन्ध देवना में 62 किलोमीटर पर दरभंगा में तथा 2002 में बायां तटबन्ध भदुआर, पिपरा घाट और झंझारपुर के पास नवटोल में मधुबनी जिले में तथा दायां तटबन्ध बनौर (मधुबनी) में 37 कि.मी. पर और ठेंगहा (64 कि.मी.) तथा झगरुआ और रसियारी के बीच 81 कि.मी. के बीच टूटा। 2004 में कमला नदी के तटबन्ध मुरहट्टी, बिठौनी, भदुआर, पिपराघाट, नवटोल, बलभद्रपुर, दैया खरवाइर, गंगापुर, राज खरवाइर, फैटकी, भगवानपुर, दलदल, परबलपुर, ठेंगहा, देवना, नरुआर, महिनाथपुर और ओलीपुर गाँवों में तकरीबन एक साथ 16 घन्टे के अन्दर 20 से अधिक जगहों पर 9 जुलाई को टूट गये। यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक यह तटबनध रहेंगे। जैसे-जैसे कमला के तटबन्ध झंझारपुर रेल पुल के दक्षिण आगे बढ़ते हैं वैसे-वैसे लोगों की मुसीबत बढ़ती है। किसी की भी इज्जत उतारने के लिये सिर्फ एक जगह कपड़ा खिसकना काफी होता है मगर जब कोई भी आदमी या संस्था इज्जत-बेइज्जत की हदों से ऊपर उठ जाय तो फिर क्या फर्क पड़ता है कि वह एक जगह बेइज्जत हुआ या 20 जगह। इस साल यह बताना मुश्किल था कि कारवां कहाँ-कहाँ नहीं लुटा। 2005 के सूखे जैसे वर्ष में भी कमला के तटबन्ध गौढ़ौल सहित छः (कुल 7) अन्य स्थानों पर टूट गये थे।

वास्तव में कोसी के पश्चिमी तटबन्ध, पश्चिमी कोसी नहर और कमला के पूर्वी तटबन्ध से घिर कर तबाही के एक काले त्रिकोण का निर्माण होता है। इसमें एक भुजा कोसी के पश्चिमी तटबन्ध की लगभग पूरी लम्बाई (125 किलो मीटर) की शक्ल में आती है। उत्तर में पश्चिमी कोसी नहर नेपाल में अपने हेडवर्क्स से लेकर कमला नदी तक लगभग 90 किलोमीटर की लम्बाई में दूसरी भुजा की शक्ल में शामिल है। त्रिकोण की तीसरी भुजा की शक्ल में कमला नदी का पूर्वी तटबन्ध लगभग 86 किलोमीटर लम्बाई में मौजूद है। इस क्षेत्र की जमीन का ढलान प्रायः उत्तर से दक्षिण दिशा में थोड़ा सा पूरब की ओर झुका हुआ है। पश्चिमी कोसी नहर की पूरी लम्बाई का 90 किलोमीटर का सारा पानी बहुत सी छोटी-मोटी नदियों की शक्ल में अनियंत्रित रूप से इसी कुप्पी में घुसता है और तबाही मचाता है।

पश्चिमी कोसी तटबन्ध से पैदा होने वाली परेशानियाँ अपने किस्म की हैं। तटबन्धों के बीच फँसी कोसी अपनी धारा बदलती रहती है और उसी के अनुसार वह तटबन्धों पर चोट करती है। कोसी का पश्चिमी तटबन्ध डलवा, जमालपुर, घोंघेपुर-समानी और जोगनियां में क्रमशः 1963, 1968, 1987 और 1991 में टूट चुका है और तटबन्ध के बाहर रहने वाले तथाकथित रूप से कोसी की बाढ़ से सुरक्षित लोग सारी बरसात इसी आतंक के साये में जीते हैं। इन सारी दुर्घटनाओं की जानकारी अन्यत्र उपलब्ध है और हम उनके विस्तार में यहाँ नहीं जायेंगे। कोसी का पश्चिमी तटबन्ध जब भी टूटा है या भविष्य में, भगवान न करे, जब भी कभी टूटेगा तब इसी तिकोन के लोगों को बर्बाद करके अपनी तसल्ली करेगा।

13. जल-निकासी न हो पाने के शिकार


विकास के इस काले तिकोन की तीसरी भुजा, कमला के पूर्वी तटबन्ध द्वारा पैदा की गई तबाहियों के बारे में हमने ऊपर पढ़ा है। बात यहीं खत्म नहीं होती। बरसात के मौसम में भेजा से नीचे कोसी और कमला तटबन्धों के बीच में पानी भरा रहता है। कोसी का पश्चिमी तटबन्ध घोंघेपुर में खुला हुआ है जहाँ से नदी का पानी घूम कर पीछे की ओर मुड़ता है और उत्तर के बहुत से गाँवों को डुबाता है। तटबन्ध कमला-बलान का भी मनसारा के नीचे खुला हुआ है और कोसी में बाढ़ रहने के कारण यह पानी निकल नहीं पाता है। जैसे इतना की काफी नहीं था नीचे चलकर बागमती नदी बहती है जिसके दायें किनारे पर तो तटबन्ध बना हुआ है मगर बांया और उत्तरी किनारा खुला हुआ है। इसका पानी भी कमला और कोसी के पानी के साथ मिल जाता है। अब पानी तीन तरफ से आता है और उसकी निकासी का रास्ता तो प्रेम गली अति सांकरी। ग्राम ठेंगहा, प्रखण्ड तारडीह, जिला-दरभंगा के इन्द्रकांत झा का कहना है कि “हमलोग इंजीनियर तो नहीं हैं मगर सामान्य बुद्धि जरूर रखते हैं। कोसी का पश्चिमी तटबन्ध और कमला के दोनों तटबन्ध, यानी तीन तटबन्ध अकेले रसियारी मौजे से गुजरते हैं जिस में 100 किलोमीटर से ज्यादा दूर का पानी आता है। कोसी और कमला तटबन्ध के बीच डेढ किलोमीटर से ज्यादा फासला नहीं होगा। सौ किलोमीटर चौड़े क्षेत्र से आने वाले पानी की निकासी को इतना कम रास्ता देने को अगर बेवकूफी कहा जाय तो आप लोग इसे हमारी विनम्रता कहेंगे। इन तटबन्धों को बनाने वालों के तो आधे मुँह में चूना और आधे मुँह में कालिख पोत कर दिल्ली के कनाट प्लेस में उनके गले में उनकी करतूतों की पट्टी टांग कर जुलूस निकालना चाहिये। यह सब उम्र कैद के हकदार हैं।”

नतीजा यह होता है कि मधुबनी के मधेपुर प्रखण्ड में भेजा गाँव के नीचे बरसात शुरू होने के साथ समुद्र जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है और इस पानी की मार सहरसा, दरभंगा, समस्तीपुर और खगड़िया जिलों के सैकड़ों गाँवों पर पड़ती है। सरकारी सूत्रों के अनुसार भेजा और लहेरियासराय को जोड़ती हुई 145 फुट (44.19 मीटर) की कन्टूर लाइन गुजरती है और इसके नीचे की कोई 90,450 हेक्टेयर जमीन स्थायी जल जमाव से ग्रस्त है जिस पर कुछ भी नहीं उपजता। अगर राज्य में 1992 जैसा सूखा पड़ जाये तभी यहाँ कुछ अन्न उत्पादन की बात सोची जा सकती है। इधर कुछ वर्षों से कुछ पुरुषार्थी किसानों ने गरमा धान को बोने के प्रयास किये हैं मगर कोसी और कमला के जल ग्रहण क्षेत्रों में कभी असमय बारिश हो गई तो इसके भी लाले पड़ जायेंगे। यह वही इलाका है जिस पर कभी पश्चिमी कोसी नहर से सिंचाई की बात सोची गई थी और अब भी इसमें इन नहरों को घुसाने की कोशिश भी हो रही है।

देवनाथ देवन (ग्राम सुन्दर बिराजित, प्रखण्ड मधेपुर, जिला-मधुबनी) का कहना है कि, “... आज अगर आप कमला के पूर्वी और कोसी के पश्चिमी तटबन्धों के बीच वाले इलाके में चले जायें और आप के साथ वह इंजीनियर हों जिन्होंने कोसी और कमला के तटबन्धों के निर्माण की योजना बनाई थी और उनका उसी रूप में परिचय कराया जाय तो स्थानीय लोग उनके साथ क्या व्यवहार करेंगे यह कह पाना मुश्किल है। ... इंजीनियर साहब! जब आप कमला और कोसी पर तटबन्ध बना रहे थे तो यह बीच वाला हिस्सा आपको दिखाई नहीं पड़ता था? इस क्षेत्र में क्या समस्यायें पैदा होंगी वह नेताओं को भी नहीं मालूम थीं? तब वह किस बात के इंजीनियर और यह किस बात के नेता? .... कोसी और कमला दोनों नदियों के तटबन्धों के बीच जिनलोगों को फँसाया गया उनका तो मनुष्य होने का दरजा ही खत्म हो गया क्योंकि उनको तो आदमी समझा ही नहीं गया मगर जो दोनों नदियों की बाढ़ से सुरक्षित थे उनकी क्या गत बनी? हमारी खरीफ की फसल तो अब नहीं ही होती है, रबी की फसल के समय इलाके से पानी निकले तब तो गेहूँ, मूंग या मसूर की फसल हो। यह सुरक्षित लोग ही भिखमंगे हो गये।” अब बेरोजगारी नहीं फैलेगी तो इसके अलावा और क्या होगा? शायद यही कारण है कि मधेपुर जैसी छोटी जगह से सरकारी बस सेवा सीधे उत्तर प्रदेश की कालीन पट्टी के गढ़ भदोही तक चलती है। इस इलाके के बड़े तो बड़े, बच्चों को भी अपनी रोजी-रोटी का इन्तजाम खुद करना पड़ता है।

देवनाथ देवन की यह कड़वाहट बेमानी नहीं है। मधेपुर से भेजा जाते समय एक छोटा सा बाजार लक्ष्मीपुर चौक पड़ता है जहाँ दाहिनी तरफ जानकी नन्दन सिंह के नाम का एक तोरण है। जानकी नन्दन सिंह एक स्वतंत्रता सेनानी, विधायक और बड़े नेता थे। उन्हीं के नाम पर यह द्वार बनाया गया है। बरसात के मौसम में यहाँ खड़े होने पर द्वार से दक्षिण पानी ही पानी दिखाई पड़ता है मानों यह तोरण जानकी नन्दन सिंह की याद दिलाते हुये बाढ़ का भी प्रवेश द्वार का काम करता हो। यहाँ से कमला और कोसी, दोनों तटबन्ध कुछ ही फासले पर हैं और तकनीकी दृष्टि से यह क्षेत्र बाढ़ से सुरक्षित है। हकीकतन यह इलाका डुब्बा इलाका है और बाढ़ से सुरक्षित इन इलाकों से बरसात में नाव से यहाँ से यात्रा शुरू करके गंगा नदी तक बड़े आराम से पहुँचा जा सकता है और अगर फरक्का बराज छेंका-छांकी न करे तो सीधे कपिल मुनि के आश्रम गंगा सागर। नेपाल के जल ग्रहण क्षेत्रों में बारिश या गर्मी में बर्फ पिघलने के साथ ही इस इलाके में पानी की आमद शुरू हो जाती है और पानी निकलते-निकलते दिसम्बर-जनवरी तक का समय बीत जाता है जिसके बाद रबी का मौसम ही निकल जाता है। मानव निर्मित बाढ़, जल-जमाव और तटबन्ध टूटने की घटनाओं से खेती जो चौपट हुई उसके बारे में बताते हैं सुखेत के सूर्य नारायण ठाकुर।

 

हमारी सारी मौज-मस्ती बलान की सिल्ट की वजह से थी…


- सूर्य नारायण ठाकुर, ग्राम+पोस्ट- सुखेत, जिला-मधुबनी


हमलोगों के बचपन में कमला यहाँ नहीं थी, बलान का पानी आता था और कभी भी 3-4 दिन से ज्यादा नहीं रहता था। धान की अच्छी फसल होती थी और हर किस्म के पानी की गहराई के लिये अलग-अलग धान होता था। सिंगरा 3 से 4 फीट पानी में, पलिया 5 फीट पानी में दुम्मा खेरहा 3 से 4 फीट पानी में और परवा पंख तथा हरिनकेर 2 से 2 ⅟2 फीट पानी में होता था। इसके अलावा नन्हियां 1 ⅟2 फीट से 2 फीट पानी में, कलम काठी 2 ⅟2 से 3 फीट और बकौल जल-जमाव में होता था। जैसा खेत-पानी वैसा धान बो लीजिये। परवा पंख के एक मंजर में 5-5 दाने गुच्छे की शक्ल में होते थे और यह बहुत ज्यादा होता था जिसे लोग डर के मारे बोते नहीं थे। मान्यता यह थी कि बहुत ज्यादा धान होने पर परिवार का कोई न कोई सदस्य मर जायेगा।


रबी में जौ, चना, खेसारी और तीसी होती थी। गेहूँ का तब उतना  प्रचलन नहीं था। मडुआ होता था, पाट और ईख बहुतायत के साथ होती थी। अब जूट और ईख तो लोग कारखाना न होने की वजह से नहीं करते। पहले सकरी, लोहट और रैयाम में चीनी मिल हुआ करती थी जो कि अब बन्द हैं। यहाँ से गन्ना सकरी जाता था। जौ का स्थान गेहूँ ने ले लिया है। तटबन्ध नहीं था तो नदी का पानी कभी 2.5 -3 फीट से ज्यादा नहीं चढ़ता था। वह भी आया और गया। हमारी सारी मौज मस्ती बलान की सिल्ट की वजह से थी। आपने वह कहावत तो यहाँ बहुतों से सुनी होगी कि, आयल बलान त बन्हलौं दलान, गेल बलान त टुटले दलान। बलान की बाढ़ का तो किसान बेसब्री से इंतजार करता था। तटबन्ध बन जाने से नदी के प्रवाह में आने वाली पांक (सिल्ट) से खेत वंचित हो गये जिसके चलते खेसारी एकदम साफ हो गई-यह फसल रासायनिक खाद बर्दाश्त नहीं कर सकती। तीसी थोड़ी बहुत हो जाती है मगर सरसों के लिये अक्टूबर में खेत सूखा होना चाहिये सो अब कहाँ।


पांक (नदी की गाद) का आना बन्द होने से पैदावार 70 प्रतिशत घट गई है। चना करीब-करीब पूरे जिले से साफ हो गया। सतुआनी में अब हम सत्तू बाजार से खरीद कर लाते हैं, हमारा यह हाल हो गया है अब।


तटबन्ध टूटने से हमारा बहुत नुकसान होता है, घर-द्वार, रास्ता-घाट और रहन-सहन सब पर बन आती है मगर मजा यह है कि हम चाहते हैं कि तटबन्ध टूटे और जहाँ तक हमारे गाँव का सवाल है, हमें फायदा तब है जब कमला बलान का बायां तटबन्ध झंझारपुर रेल पुल के ऊपर तथा पिपरा घाट पुल के नीचे टूटे। झंझारपुर पुल के नीचे अगर तटबन्ध टूटता है तो हमलोगों को कोई फायदा नहीं होता। 2002 में कमला बलान का पूर्वी तटबन्ध कई जगहों के साथ पिपराघाट तथा भदुआर के पास टूटा था जिसका हमलोगों को फायदा हुआ-20 से 30 किलोग्राम प्रति कट्ठा मसूर हुई बिना खाद पानी के और बिना जोते-कोड़े  उसी अनुपात में तीसी हुई और जो धान डूबने से बच गया वह भी 40-60 किलोग्राम प्रति कट्ठा हुआ। केवल कमला-बलान की पांक के दम पर। 2004 में भी कई जगह कमला का तटबन्ध टूटने से परेशानी तो जरूर हुई मगर फायदा भी कम नहीं हुआ।


तटबन्ध टूट कर पानी आने पर मछलियों का जरूर नुकसान होता है, उन्हें निकल भागने का मौका मिल जाता है। पैसों की कमी से लोगों के रिश्ते ठीक नहीं मिल पाते हैं। कृषि उत्पादन ठप है तो इलाके में शादी ब्याह का बाजार ठण्डा है। हमारे यहाँ अपनी लड़की देने में लोग आनाकानी करते हैं और हम बाहर वाले लड़कों की कीमत नहीं दे सकते। हमारा जल जमाव खत्म कर दीजिये तो यहीं मडुआ के भाव दामाद मिलने लगेगा।

 

बात केवल तटबन्धों के टूटने और जल-निकासी की कुव्यवस्था तक टिकी रहती तो भी गनीमत थी। पश्चिमी कोसी नहर को तोड़कर या कलरी पट्टी के पास बने उसके एस्केप चैनेल से आने वाला पानी रबी के मौसम में सुगरबे नदी में आता है और वहाँ से आकर झंझारपुर-निर्मली रेल लाइन के दक्षिण के क्षेत्र को डुबाता है जिससे जो कुछ भी फसल की संभावना रहती है वह भी समाप्त हो जाती है।

 

समाधान के नाम पर किसी के पास कुछ नहीं है…


- रामचन्द्र सिंह, ग्राम-रमचन्द्रा, प्रखण्ड-मधेपुर, जिला-मधुबनी


किसनीपट्टी के नीचे पश्चिमी कोसी तटबन्ध के निर्माण के समय 1950 के दशक में अलाइनमेन्ट को लेकर बहुत बवाल हुआ था। पौनी से मधेपुर तक का पहला अलाइनमेंट बन कर तैयार हुआ तब उसे फिर बदला गया और वह तरडीहा के पूरब होता हुआ भेजा की ओर गया। इस तरह उधर दो तटबन्ध बने हुये हैं। गेहुमां पहले पौनी के पास होती हुई तिलयुगा में जाकर मिलती थी। कोसी का पश्चिमी तटबन्ध जब बना तब तिलयुगा बाँध के अन्दर चली गई और गेहुमां तटबन्ध के बाहर रह गई। इसका पानी तिलयुगा में न जाकर अब बगहा चीर की ओर मुड़ गया। यह चौर मनमोहन के पूरब और बाथ के पश्चिम में है। एक और छोटी से नदी थी झोंकी मरकाइन जो बलान में मिलती थी। कमला-बलान पर जब तटबन्ध बना तब मरकाइन के पानी की निकासी के लिये तटबन्ध में रखवारी के पास स्लुइस गेट बनाया गया। इस स्लुइस गेट को जल्दी ही कमला बलान ने पाट दिया और यह बे-असर हो गया। मरकाइन का पानी अब कमला बलान के पूर्वी तटबन्ध के साथ-साथ बहने लगा। और भदुआर के पास बलान की एक उपधारा सुपैन में आकर मिल गया। यह सुपैन की सम्मिलित धारा तुमरिया के पूरब सोनरे गाँव में रेल लाइन को पार कर के फोकचाहा के उत्तर में गेहुमां में आकर मिल गई। फोकचाहा के पश्चिम में इस नदी से एक धारा और फूटी जो बगहा चौर में ही आकर मिल जाती है। बाढ़ के समय इस पूरे इलाके का पानी इसी बगहा चौर में इकट्ठा हो जाता है।


बगहा चौर में इकट्ठा होने के बाद यह पानी तीन अलग-अलग रास्तों से कमला-बलान की ओर बढ़ता है। (1) एक धारा रमचन्द्रा और मधेपुर के पश्चिम होते हुये इसराइन और तहरवा चौर के जरिये बांकी गाँव को पार करके बीरपुर आती है। (2) दूसरी धारा मधेपुर, नवादा पछवरिया टोल, खजुरा और बांकी गाँव के पूरब होती हुई बीरपुर आती है। (3) तीसरी धारा बाथ गाँव के दक्षिण से और सिकरिया के बगल से होती हुई अगरगढ़ा और भलुआही के बीच से बहती है। भखराइन के पास यह दो टुकड़ों में बट जाती है-एक धारा उत्तर होते हुये बीरपुर चली जाती है और दूसरी धारा भखराइन और रहुआ के बीच से बहती हुई बेहरा और दलदल को पार करते हुये रसियारी के उत्तर असमा गाँव में कमला-बलान से मिल जाती है। बाकी तीनों धारायें बीरपुर से आगे खोर, भीठ भगवानपुर, मदनपुर के पश्चिम बैजनाथपुर के पास कमला-बलान में मिलती हैं।


कमला बलान के तटबन्ध और उसके तल के ऊँचा होने तथा गेहुमां का मुहाना जाम होने की वजह से झंझारपुर-किसनीपट्टी रेल लाइन के नीचे बेतरह-जल-जमाव रहता है। इस जल-जमाव से मुक्ति पाने के लिये पहली योजना लघु-सिंचाई विभाग मधुबनी ने 1963 में तैयार थी। इसमें बगहा चौर के पानी को बाथ, सिकरिया, बेलवा-कपरफोड़ा, अगरगढ़ा होते हुये अगरगढ़ा के पश्चिम में जो धार है, उससे निकालने की योजना थी। तकनीकी कारणों से इस प्रस्ताव को रद्द किया गया। दूसरा प्रस्ताव 1978 में निर्मली दरभंगा रेल लाइन के दक्षिण से गेहुमां पर तटबन्ध बनाने का किया गया। यह तटबन्ध अगरगढ़ा तक प्रस्तावित था और पश्चिमी कोसी तटबन्ध में एक स्लुइस गेट लगा कर पानी को कोसी में डालने का प्रस्ताव था। इस प्रस्ताव का स्थानीय जनता ने जबर्दस्त विरोध किया क्योंकि इलाके में किसानों की जोतें बहुत छोटी हैं और तटबन्ध बनने की स्थिति में भूमिहीनों की फौज खड़ी हो जाती यद्यपि लोगों ने कहा यही कि गेहुंमा पर तटबन्ध बनने से जल जमाव बढ़ेगा जो वैसे भी सच है। इस काम को जगन्नाथ मिश्र, तत्कालीन मुख्यमंत्री, ने खुद आकर रुकवाया था।


तीसरा प्रस्ताव 1981 में किया गया जिसमें गेहुमां पर सोनरे, फोकचाहा, मनमोहन, रमचन्द्रा, मधेपुर, नवादा, खजुरा, चन्द्रदीप, भीठ भगवानपुर होते हुये बैजनाथपुर तक तटबन्ध की योजना थी और पानी कमला-बलान में गिराया जाना था। इस योजना का भी विरोध जमीन के अधिग्रहण और संभावित जल-जमाव को देखते हुये हुआ। इसके बाद से प्रभावित लोग जल-जमाव से मुक्ति की बात तो करते हैं मगर समाधान के नाम पर किसी के पास कुछ नहीं है। पानी की निकासी के तो सारे रास्ते बन्द है, वह जायेगा कहाँ?


बात यहीं तक नहीं रुकी। खुटौना के पूरब में कलरीपट्टी के पास पश्चिमी कोसी नहर की एक एस्केप चैनेल बनी हुई है। नहर चालू रहने पर इसका जो भी फालतू पानी है वह एस्केप चैनेल से सुगरवे नदी में आता है और वहाँ से सीधे बगहा चौर में। खरीफ में तो हमलोगों को बुरा नहीं लगता है क्योंकि उस समय तो चारों तरफ पानी रहता है और कोई फसल भी नहीं होती मगर जब हमारा गेहूँ तथा रबी की दूसरी फसलें इस इलाके में लगी रहती हैं तब नहर का यह पानी मैबी, मनमोहन, बाथ, बेलौंचा, पूरे, रमचन्द्रा, मधेपुर, सोनबरसा और अमारूपी समेत बहुत से गाँवों की फसल को बरबाद करता है। इस लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना हरकत का कोई जिम्मेवार नहीं है। यहाँ के विधायक ने नहर के अधिकारियों पर क्षति-पूर्ति के लिये मुकदमा तक किया है पर कहाँ कोई सुनवाई है? वह तो 1999 में भुतही बलान का पछवरिया तटबन्ध टूट गया और उसकी वजह से पश्चिमी कोसी नहर भी टूटी और बालू से पट गई। तब से नहर बन्द है और यहाँ पानी नहीं आ रहा है। जब नहर चालू होगी तो हम लोग फिर बर्बाद होंगे।

 

.इस लापरवाही और अकड़ के बावजूद इसी क्षेत्र में पश्चिमी कोसी नहर से पानी पहुँचाने की योजना है। स्थानीय किसान इसका विरोध कर रहे हैं मगर सरकार नहर बना डालने पर आमादा है। बहुत से किसानों ने नहर में फँसने वाली जमीन का मुआवजा लेने से इंकार कर दिया हुआ है और जिन्होंने यह रकम ले ली हुई है वह भी उसे वापस करना चाहते हैं। यह प्रयास कहाँ तक सफल हो पायेंगे, इसके बारे में अभी कुछ कह पाना मुश्किल है। जनवरी 2004 में पश्चिमी कोसी नहर के निर्माण में बाधा पहुँचाने और शान्ति भंग करने के आरोप में लौफा बाजार में कुछ लोगों पर मुकदमें दायर किये गये थे। लोगों को इस बात से कोई परेशानी नहीं है कि सरकार नहर का निर्माण करवा रही है। तनाव तब बढ़ता है जब छोटी जोत वाले लोगों की जमीन नहर में चली जाती है।

परेशानियाँ कमला तटबन्ध के पश्चिम में भी कम नहीं है। उत्तर में बेनीपट्टी से लेकर नीचे मनीगाछी, बिरौल, घनश्यामपुर, कीरतपुर, सिंधिया, तारडीह और अलीनगर आदि प्रखण्ड कमला या उसकी छाड़न धाराओं की मार झेलते हैं। कमला का पश्चिम में अधवारा समूह की नदियों और बागमती की अपनी तबाहियाँ हैं। इस क्षेत्र की समस्याओं पर अलग से विचार करने की आवश्यकता है अतः उसके विस्तार में हम यहाँ नहीं जायेंगे।

14. तटबन्धों की सुरक्षा


.1968 में बिहार विधानसभा में एक बार कोसी तटबन्धों के बीच बसे लोगों की दुर्गति पर बहस चल रही थी। विनायक प्रसाद यादव ने सवाल किया था कि बेला धार के रुख परिवर्तन के कारण बेला, सिंगार मोती और धोबियाही गाँव की हालत खराब हो गई है और यह गाँव कट जाने वाले हैं। वह जानना चाहते थे कि सरकार इन गाँवों की सुरक्षा के लिये क्या कर रही है। जवाब में सरकार की तरफ से रामेश्वर प्रसाद सिंह ने उत्तर दिया कि, “यह गाँव दोनों कोसी नदी के तटबन्ध के भीतर हैं और बेला धार कोसी नदी की प्रशाखा है। जब पानी आता है तो गाँव को खतरा हो जाता है और कटाव होता है और इस कटाव के चलते सरकार का काम नहीं है कि गाँव को बचाये। गाँव वालों को पैसा मिल चुका है कि वह हट जाएँ। जमीन वह केवल खेती के लिये है, रहने के लिये नहीं!... गाँव बचाने के लिये सरकार पैसा खर्च नहीं करती है।” यह सरकार का एक नीति वाक्य था जो कि अभी तक कायम है। इसका सीधा मतलब है कि किसी भी नदी के तटबन्धों के बीच रह रहे लोगों के प्रति सरकार अपने आप को पूरी तरह दायित्व मुक्त मानती है। अगर तटबन्ध सुरक्षित रहते हैं तो उनके बीच रहने वाले लोगों का जीवन असुरक्षित होता है। लेकिन जल-संसाधन विभाग का काम है तटबन्धों को सुरक्षित रखना और इस फर्ज को भी कहाँ तक अंजाम दिया जाता है वह अब हम जानते हैं।

कमला-बलान तटबन्धों की सुरक्षा से सम्बन्ध इंजीनियरों का भी मानना है कि उनका काम केवल तटबन्धों को टूटने से बचाना और तटबन्ध के कन्ट्री साइड में नदी के पानी को जाने से रोकना है। इस तरह से तटबन्धों के बाहर के सुरक्षित क्षेत्र में रहने वाले लोगों की जान-माल की रक्षा करना उनका कर्तव्य है भले ही उनके इस जुनून में तटबन्धों के अन्दर रहने वाले लोगों की जान चली जाये। इसके लिये फ्लड फाइटिंग होती है जिसके लिये वह किसी हद तक जा सकते हैं। तटबन्धों के बीच नदी के रास्ता बदलते रहने के कारण नदी का दायें-बायें दोनों ही तटबन्धों पर आक्रमण होता रहता है। हर साल 31 मई तक ऐसे बिन्दुओं की सूची को अन्तिम रूप दे दिया जाता है जहाँ तटबन्धों पर खतरे की आशंका रहती है। यह जिम्मा समस्तीपुर में बैठे बाढ़ नियंत्रण के चीफ इंजीनियर का होता है जो कि हर साल बाढ़ नियंत्रण का मैनुअल तैयार करता है। इस मैनुअल में बाढ़ सुरक्षा संबंधी दिशा-निर्देश होते हैं। पैट्रोलिंग की नियमावली और हिदायतें होती हैं, जूनियर इंजीनियर से लेकर एक्जीक्यूटिव इंजीनियर तक के बारे में सारी सूचनायें उपलब्ध की जाती हैं जिससे काम में मदद मिल सके। इतनी मेहन-मशक्कत और तैयारी के बावजूद तटबन्धों का जो हाल है, वह किसी से छिपा नहीं है।

14.1 तटबन्ध टूटने का ठीकरा स्वयं-सेवी संस्थाओं के सिर


एक बड़ी दिलचस्प बात जो नाम न बताने की शर्त पर सरकारी इंजीनियर बताते हैं वह यह कि झंझारपुर के दक्षिण में कमला बलान तटबन्धों के कन्ट्री साइड में बड़े पैमाने पर एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं। झंझारपुर रेल पुल के उत्तर में इनकी संख्या कम है। उनके मुताबिक तटबन्ध तोड़ने में इन संस्थाओं की अग्रणी भूमिका है और तटबन्ध टूट जाने के बाद यह संस्थायें सरकार से या अन्य विदेशी संस्थाओं के माध्यम से राहत और पुनर्वास के नाम पर काफी मात्रा में धन ले आती हैं। क्योंकि यह एन.जी.ओ. झंझारपुर-सकरी रेल लाइन के दक्षिण में उत्तर के मुकाबले ज्यादा हैं, अतः तटबन्ध वहाँ ज्यादा टूटते हैं। झंझारपुर रेल लाइन के दक्षिण लखनौर प्रखण्ड के गुणाकरपुर गाँव के रामेश्वर साह (55) इस आरोप पर अपना आक्रोश छिपा नहीं पाते, कहते हैं, “... सूप बोले तो बोले अब छलनी भी बोलने लगी जिसमें सत्तर छेद हैं। पहले एक रावण था जिसके दस मुँह थे अब हमारे इर्द-गिर्द सब रावण हैं और उनका एक मुँह है। जिससे फरियाद कीजियेगा वही रावण मिलेगा। कितना करोड़ डॉलर कर्ज है देश पर और आपने किसी नेता को परेशान देखा है? सबके चेहरे पर मुस्कुराहट है। विकास कहाँ से होगा? सब कुछ तो क्रिमिनल्स के हाथ में चला गया। एक राजा ने एक धीवर की लड़की से ज्यादती की तो बड़े-बड़े पोथे बन गये। वह यहाँ रोज होता है और कोई चूँ तक नहीं करता।” वह आगे कहते हैं, “बाँध टूटे या कटे तो दस हाथ मिट्टी पड़ जाती है। 1987 में भी ऐसा ही हुआ था। कितनी मिट्टी आई-इसका टेण्डर होता तो कितना दाम बैठता? सारी गढ्ढे वाली जमीन उस साल भर गई थी। कमला के बालू को पांक बनते देर नहीं लगती। यह तो हमारी स्वर्ण रेखा थी। इस बालू से आप लोगों को क्या परेशानी थी? भरने देते जमीन को। यह काम नदी मुफ्त में करती है और यही नदी का धर्म भी है। फिर तीन महीना तटबन्ध टूटने के डर से लोग सोते ही नहीं हैं। तब लोग क्यों नहीं तटबन्ध काटेंगे और चैन से सोयेंगे? जहाँ टूटा नहीं है वहाँ भी जल जमाव है। मगर प्लान, एस्टीमेट होता है कुछ और काम होता है कुछ। सिर्फ पैसा खर्च कर देना ही मकसद है। काम से कोई खास वास्ता नहीं है। 1993 में जब निर्मला के पास बाँध कटा और टूटा और उससे जो मिट्टी कन्ट्री साइड में पड़ी, अगर उतनी मिट्टी डालने का टेण्डर किया गया होता तो करोड़ों रुपये खर्च हुये होते। सरकार इसका हिसाब क्यों नहीं रखती? अगर हम जल-जमाव में फँसे रहे और कुछ न बोलें तो इसका मतलब है कि हमारा विकास हो रहा है।”

रही इंजीनियरों के एन.जी.ओ. पर आक्षेप की बात तो उसका उत्तर देते हैं ग्राम सिमरा, प्रखण्ड झंझारपुर, जिला-मधुबनी के कामेश्वर कामति। उनका मानना है कि, “ ... एन.जी.ओ. और स्वयंसेवी संस्थाओं में एक बारीक सा अन्तर है, वैसा ही जैसा इण्डिया और भारत में है। इण्डियावादी एन.जी.ओ. का जीवन दर्शन चार्वाकीय है, खाओ पीओ और मौज करो। इनका सिक्का चलता है। इनको जनता से कोई मतलब नहीं होता है और इनके पदाधिकारी पटना या दिल्ली में रहते हैं। गरीबों के नाम पर यह वहीं संसाधन जुगाड़ करते हैं और वहीं यह संसाधन खर्च भी कर दिये जाते हैं। वहीं उनका ऑडिट होता है, चमचमाती प्रगति की रिपोर्टें छपती हैं, संस्था की ओर से विज्ञापन दिये जाते हैं, उनकी खबरें छपती हैं और टी.वी. तथा रेडियो पर उनके इण्टरव्यू आते हैं और वह सुर्खियों में रहते हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है, कथित रेल-लाइन के दक्षिण में केवल दो संस्थायें ऐसी हैं जिन्हें भारत के अन्दर या विदेशों से कोई अनुदान मिलता हो। ... सरकार के मुलाजिम तमाम साधनों और क्षमता के बावजूद अपने तटबन्धों की रक्षा नहीं कर पाते तो उसका दायित्व एन.जी.ओ. पर मढ़ते हैं। यह स्थानीय जनता का अपमान है कि वह एन.जी.ओ. के उकसाने पर यह काम कर देगी। उसकी अपनी समझ या परेशानी कुछ भी नहीं है? अभी कुछ साल पहले भीठ भगवानपुर में लोगों ने चिल्ला-चिल्लाकर कहा था कि तटबन्ध हमने काटा है और हम पर मुकदमा चलाइये। जो बातें आप सुनने से कतराते हैं वह हम खुलेआम और भरी अदालत में कहेंगे। तब सारे इंजीनियर लोग दुबक गये थे और प्रशासन यह कहने लगा था कि तटबन्ध काटा नहीं गया, टूट गया था। बाढ़ से परेशान हर लोगों ने तटबन्ध जरूर काटा है मगर यह काम एन.जी.ओ. के बस का नहीं है। इण्डिया वाले एन.जी.ओ. अपनी ख्वाबगाह में आराम से सोते हैं और भारत के लोग अपनी रक्षा की व्यवस्था खुद करते हैं। यह सारी कवायद बहस को मोड़ देने और अपनी जिम्मेवारी से बच निकलने के लिये हैं।”

वैसे भी तटबन्ध तो आज से नहीं, जब से बने तब से टूट रहे हैं और जिन एन.जी.ओ. की तरफ इंजीनियर लोग इशारा करते हैं उनकी तो पैदाइश ही जुम्मा जुम्मा आठ रोज की है। 1965 में जब कमला-बलान का तटबन्ध 21 जगहों पर टूटा था या 1987 में जब तटबन्धों में 24 चिप्पियाँ लगी थीं तब इस इलाके में कितने एन.जी.ओ. काम कर रहे थे।

14.2 अब तटबन्धों पर बुल-डोजर


इंजीनियरों का यह भी कहना है कि तटबन्धों पर लोग बसे हुये हैं और बरसात तथा बाढ़ के मौसम में लोग आस-पास के इलाकों से आकर भी बस जाते हैं। ऐसे समय में तटबन्धों के रख-रखाव के लिये गाड़ियों की आवाजाही में बाधा पड़ती है और रख-रखाव ठीक से नहीं हो पाता है जिसके कारण तटबन्ध टूट जाते हैं। तटबन्ध टूटने के बाद मरम्मत के कामों में भी तटबन्धों पर लोगों के रहने के कारण बाधा पहुँचती है। सरकार ने इन लोगों को हटाने के लिये नोटिस दिया हुआ है मगर यह लोग हटते नहीं हैं। उनका यह भी कहना है कि इसके पीछे राजनैतिक इच्छा शक्ति का अभाव है। तटबन्धों पर रहने वाले अधिकांश लोग समाज के कमजोर वर्गों के गरीब लोग हैं और राजनैतिक दृष्टि से बहुत उपयोगी हैं। सरकार और राजनैतिक पार्टियाँ इनसे झगड़ा मोल नहीं ले सकतीं। तटबन्धों पर रहने वाले लोग केवल विस्थापित ही नहीं हैं, मतदाता भी हैं। यह बात सभी जानते हैं। एक पार्टी की सरकार अगर उन्हें उजाड़ेगी तो दूसरी पार्टी उसका फायदा उठायेगी। ऐसा खतरा ज्ञान प्राप्ति के पहले के कालिदास ही उठा सकते हैं। इसी तरह सिविल एस.डी.ओ. से लेकर कमिश्नर तक हर अधिकारी के पास ऐसे लोगों की सूची है जो तटबन्ध पर गैर कानूनी दखल जमाये हुये हैं मगर कोई भी कुछ कर सकने की स्थिति में नहीं है। इन लोगों को हटाने के लिये दिसम्बर 2002 तक की समय सीमा थी मगर कहाँ कुछ हुआ? इंजीनियर लोग भी नहीं चाहते है कि इन लोगों के साथ कोई जोर जबर्दस्ती हो या कोई केस-मुकदमा हो क्योंकि तटबन्ध पर जूनियर से लेकर चीफ इंजीनियर तक, हरेक को गुजरना पड़ता है और इन सबके लिये कोई सुरक्षा व्यवस्था भी नहीं होती। तटबन्धों से हटाये जाने वाले लोगों का गुस्सा तो इंजीनियरों पर ही निकलना है।

दरअसल 1997-98 में मधुबनी जिले में कमला और कोसी पर बने तटबन्धों पर से तथा-कथित अवैध दखल को हटाने की एक मुहिम जिला प्रशासन की ओर से चलाई गई। डंडे के जोर पर इन लोगों को खदेड़ तो दिया गया मगर यह लोग उजड़ने के बाद कहाँ जायेंगे इसके बारे में न तो उजड़ने वालों को पता था और न उजाड़ने वालों को इसकी परवाह थी। उजाड़ने वालों को तो राज्यादेश मिला हुआ था ऐसा करने के लिये। उजड़ने वाले तो पहले ही से कहीं न कहीं उजड़ कर ही आये थे। अगर वह तटबन्धों के अन्दर रहने वाले हों तो बहुत मुमकिन है उनके गाँव कट गये हों, घर बचे रहने का ऐसी हालत में सवाल ही नहीं उठता, इसलिये चले आये हों तटबन्ध पर रहने के लिये। दूसरा यह कि सरकार और कोसी या कमला प्रोजेक्ट की कृपा से उनके गाँव-घर, खेत-पथार पर पानी लग गया हो और वह हटने को मजबूर हुये हों। यह भी मुमकिन है कि उनका गाँव-घर किसी टूटते तटबन्ध के मुहाने पर पड़ गया हो, वह इसलिये वहाँ तटबंध पर थे। तटबन्ध पर जो भी लोग तब रह रहे थे या आज भी हैं उनमें से एक भी परिवार वहाँ अपने शौक से या पिकनिक मनाने के लिये नहीं है। उनमें शायद ही कोई शख्स ऐसा होगा जिसका उसके चारों तरफ पानी से घिरा होने पर दिल बहलता हो। जहाँ जो भी है वह अपने घर द्वार से बेदखल होने के दर्द और मजबूरी के साथ रह रहा है। कमला और कोसी नदियों के बीच रहने वालों पर तो यह बात खास तौर पर लागू होती है। इन सारे कारणों को बला-ए-ताक पर रख कर सत्ता के दम्भ पर सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। दबे हुये को और ज्यादा दबाने का काम उसी सरकार ने किया जिसे कभी वोट देकर खुद इन लोगों ने ही सर-आँखों पर बिठाया होगा।

यह सच है कि तटबन्धों की मरम्मत और रख-रखाव के लिये यह जरूरी है कि वहाँ किसी तरह की रुकावट या अड़चन न पड़े मगर इसके साथ यह भी उतना ही जरूरी है कि सरकार उन लोगों को यह बताये कि उन्हें कहाँ रहना चाहिये। इनमें से अधिकांश के तटबन्धों पर रहने की जिम्मेवार सरकार खुद है और वह अपनी इस जिम्मेवारी से आँखें नहीं मूंद सकती। मधुबनी जिले में जब लोग तटबन्धों से उजाड़े गये तब उनके पास रहने सहने के लिये कोई जगह ही नहीं बची। रातों रात तटबन्धों के आस-पास की ऊँची जमीनों के भाव आसमान चढ़ गये और लम्बे अरसे तक बहुत से परिवारों को खेतों की मेंड़ पर रहना पड़ा क्योंकि पानी के बाहर पास में वही एक सार्वजनिक जगह उपलब्ध थी।

15. तटबन्धों की सुरक्षा के लिये भ्रामक प्रचार और उन्हें ऊँचा और मजबूत बनाने की मुहिम


कमला-बलान पर जब से तटबन्ध बने, तब से उनका टूटना जारी है। इनको ऊँचा तथा पहले से ज्यादा मजबूत बनाने की बात 1965 से तटबन्ध बनने के दो साल के अन्दर, शुरू हो गई। यह बात डाॅ. के.एल.राव, पी.एन. कुमरा से लेकर मोती राम तक, सबने कही। राजनीतिज्ञों की बात अगर छोड़ दें तो यह सारे लोग केन्द्र सरकार से सम्बन्ध इंजीनियर थे। तटबन्ध बनने के साथ अगर वह अगली बरसात में ही टूट जाते हैं तो क्यों बने जरूरत से कम ऊँचे और जरूरत से कम मजबूत तटबन्ध? तब राव साहब, कुमरा और मोतीराम का जवाब होगा कि यह काम राज्य सरकार का है हमारा नहीं और हम इस विषय में कुछ नहीं जानते। राज्य सरकार के इंजीनियरों से पूछिये तो उनका उत्तर होगा कि सरकार के पास पैसा ही नहीं है तो इंजीनियर क्या कर लेंगे, सीमित साधनों में हम से जो बन पड़ा वह हमने बनाया? जब पैसा नहीं है तो क्यों ऐसा गलीज काम किया गया जो हर साल दरक जाये और उसमें पैबन्द लगाना पड़े? सैंकड़ों लोगों की जान जाये, लाखों हेक्टेयर जमीन की फसल मारी जाये और बड़ी तादाद में घर गिरें, महामारी फैले और बेरोजगारी बढ़े और मुफ्त में गरीब लोग मारे जायें। और अगर तटबन्धों का यही अंजाम होना है तो राज्य के जल संसाधन विभाग, योजना आयोग या गंगा बाढ़ नियंत्रण अयोग की भी कुछ जिम्मेवारी बनती है या नहीं? योजना पास करने में तो यह सब शामिल रहते हैं। इसका जवाब है कि व्यवस्था इसी तरह चलती है। गरीब को जिन्दा रखना उसका एक हिस्सा हो सकता है मगर एक मात्र उद्देश्य नहीं है। जो राजनीति करता है उसके चुनाव क्षेत्र में केवल गरीब ही नहीं रहते, वह सब का प्रतिनिधि होता है और उसे सब के हितों का ध्यान रखना होता है और गरीब यहीं मार खा जाते हैं।

                                                                                                                                                       

तालिका - 2

कमला तटबन्धों के बीच फँसे गाँवों का प्रखण्डवार विवरण

जिला

प्रखण्ड

गाँवों की संख्या

कुल आबादी

पुरूष

महिला

अनुसूचित जाति की आबादी        

पुरूष

महिला

कुल शिक्षित आबादी

शिक्षित पुरूष

शिक्षित महिला

कुल साक्षरता प्रतिशत

पुरूष साक्षारता        

महिला साक्षरता

 

मधुबनी

जयनगर

7

64204

34018

30188

7304

3843

3461

22196

16339

5857

34.57

48.03

19.07

 

राजनगर

1

9729

5030

4699

2028

1043

985

3376

2301

1075

34.7

45.75

22.88

 

खैजौली

6

43406

22891

20515

7692

4024

3668

15847

11468

4379

36.05

50.09

21.34

 

बाबूबरही

13

43237

22230

21007

5089

2636

2453

13236

9800

3436

30.61

44.08

16.35

 

अंधराठाढ़ी

12

38452

19612

18840

5794

2979

2815

13367

9398

3969

34.76

47.91

21.06

 

झंझारपुर

16

41361

20773

20588

6338

3265

3073

15582

10247

5335

37.67

49.32

25.91

 

लखनौर

7

37686

19347

18339

6291

3206

3085

14681

9760

4921

38.95

50.44

26.83

 

मधेपुर

7

28953

14971

13982

3747

1886

1861

9357

6582

2775

32.31

43.96

19.84

दरभंगा

गौरा बौराम

8

23271

12161

11110

4244

2213

2031

5900

4487

1413

23.35

36.89

12.71

 

घनश्यामपुर

11

29009

14883

14126

5436

2807

2629

10465

6860

3605

36.07

46.09

25.52

 

तारडीह

12

37858

19374

18484

4622

2417

2205

12682

8698

3984

33.49

44.89

21.55

 

कीरतपुर

2

33096

17014

16082

7993

4099

3894

9823

6944

2879

29.68

40.81

17.90

 

योग

102

430262

222304

207958

66578

34418

320160

146512

102884

43628

34.05

46.28

20.97

 

 

 

बिहार

47.53

60.32

33.57

   

भारत

65.38

75.85

54.16

 

स्रोत: जनगणना (2001)

                                                                                                                                                                           

 
तटबन्ध को ऊँचा और मजबूत कर देने मात्र से बाढ़ की समस्या का हल हो जाएगा क्या? क्या तटबन्ध को ऊँचा या मजबूत कर देने से उनके बीच आने वाले पानी या बालू में कोई कमी आयेगी? क्या तटबन्धों को ऊँचा और मजबूत किये जाने के बाद नदी की पेटी का ऊपर उठना रुक जायेगा? क्या तटबन्धों से होकर होने वाले सीपेज या तटबन्धों के बाहर होने वाले जल-जमाव में कोई कमी आयेगी? जिसे आज हम ऊँचा और मजबूत तटबन्ध कह कर खुश हो रहे हैं, कल वह नहीं टूटेगा इसकी गारन्टी कोई इंजीनियर दे सकता है? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है- नहीं। तटबन्ध जितना ऊँचा और जितना मजबूत होगा, सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वालों पर उनके टूटने पर खतरा उतना ही ज्यादा बड़ा होगा। यह बात हाकिमों की समझ में क्यों नहीं आती? तो फिर इस काम से फायदा? इसका फायदा है कि लोगों को आने-जाने में सहूलियत होंगी। इसके साथ सरकारी जीपों और मशीनों को भी आने जाने में मदद मिलेगी। इसके लिये लोगों का तटबन्धों पर से हटाया जायेगा और कहा यह जायेगा कि यह सब बाढ़ की रोकथाम के लिये किया जा रहा है। वह इसलिये कि बाढ़ नियंत्रण बिकने वाली चीज है और इसी में नेताओं, प्रशासकों, इंजीनियरों और ठेकेदारों सबके स्वार्थ निहित है। पहले कि दिनों में इनकी जूठन के तौर पर मजदूरों को कुछ रोजगार मिट्टी के कामों में मिल जाया करता था सो आजकल वह भी बन्द है क्योंकि अब यह काम दूसरे प्रान्तों से मंगाये गये ट्रैक्टरों के माध्यम से होता है।

16. कमला परियोजना और पुनर्वास


कमला परियोजना में तटबन्धों का निर्माण प्रथम फेज के रूप में 1950 के दशक में जयनगर से झंझारपुर रेल पुल तक किया गया। निर्माण के दूसरे क्रम में इन्हें झंझारपुर रेल पुल से दरजिया तक 1960-62 के बीच बढ़ाया गया। 1980 के दशक में दरजिया से फुहिया तक के विस्तार की योजना बनी जो अभी भी समाप्त नहीं हुई है। फिलहाल इनका निर्माण दरभंगा जिले के मनसारा गाँव तक जाकर रुका पड़ा है। नदी पर तटबन्धों के निर्माण के फलस्वरूप बहुत से गाँव दोनों तटबन्धों के बीच में फँस गये जिनका पुनर्वास करना जरूरी हो गया। तमाम कोशिशों के बावजूद कमला तटबन्धों का कोई विस्तृत नक्शा और विस्थापित/पुनर्वासित गाँवों की सूची हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है। अनुमण्डल स्तर पर चुनाव कार्यालयों में प्रखण्डों के नक्शे जरूर उपलब्ध हैं जिसमें गाँवों और चुनाव बूथों के साथ-साथ नदी और तटबन्ध का विवरण मिलता है। इन नक्शों के आधार पर कमला तटबन्धों के बीच फँसे गाँवों की प्रखण्डवार सूची तैयार करना संभव हो सका है जिसका विवरण नीचे तालिका-2 में दिया जा रहा है।

इस तरह से कमला बलान तटबन्धों के बीच दो जिलों और बारह प्रखण्डों के कुल 102 गाँव पड़ते हैं जिनकी आबादी (2001) लगभग 4.30 लाख है। इन गाँवों की जमीन तो तटबन्धों के बीच फँसी ही साथ ही उन्हीं की जमीन पर से तटबन्ध गुजरा, ज्यादातर उन्हीं की जमीन पर पुनर्वास के लिये जमीन का अधिग्रहण हुआ और वहीं जल-जमाव भी है। इस तरह से नदी के किनारे तटबन्ध बनाने के एक फैसले की चौतरफा मार इन गाँवों के बाशिन्दों पर पड़ी।

.तालिका-2 में दिये गये आंकड़ों के अनुसार कमला तटबन्धों और परियोजना से प्रभावित इस इलाके में साक्षरता का प्रतिशत मात्र 34.05 है जिसमें पुरुष साक्षरता 46.28 प्रतिशत और महिला साक्षरता 20.97 प्रतिशत है। जयनगर, बाबू बरही, मधेपुर और गौरा-बौराम/कीरतपुर प्रखण्डों में तो महिला साक्षरता 20 प्रतिशत से भी कम है। बिहार साक्षरता की दृष्टि से देश के सबसे निचली पायदान पर खड़ा है और यह देश का अकेला राज्य है जहाँ साक्षरता प्रतिशत 50 से नीचे है। उसमें भी कमला क्षेत्र की साक्षरता दर 34.05 प्रतिशत है। भारत के स्तर पर कुल साक्षरता की इतनी दर 1971 के आस-पास थी। कमला क्षेत्र की पुरुष साक्षरता की 46.28 प्रतिशत की दर राष्ट्रीय स्तर पर 1980 के आस-पास और महिला साक्षरता की 20.97 प्रतिशत की दर 1969 में रही होगी। अगर हम पूरे देश की चिन्ता छोड़ भी दें तो भी बिहार के स्तर पर 34.05 प्रतिशत की कुल साक्षरता दर 1987 में रही होगी। कमला तटबन्धों के क्षेत्र जैसी पुरुष साक्षरता बिहार के स्तर पर 1986-87 तथा महिला साक्षारता दर 1988 के आस-पास रही होगी। अतः साक्षरता अगर विकास का कोई पैमाना है तो कमला तटबन्धों वाला यह क्षेत्र भारत से लगभग तीस साल और देश के सबसे अशिक्षित प्रान्त बिहार से भी कम से कम 15 साल पीछे जरूर है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर ही हम यहाँ तटबन्ध पीड़ितों के पुनर्वास पर एक नजर डालेंगे। इन गाँवों की परेशानियाँ किसी भी मायने में कोसी तटबन्धों के बीच पड़ने वाले गाँवों से कम नहीं है। इन गाँवों के बाशिन्दों का पुनर्वास कभी सुनियोजित तरीके से नहीं हुआ और इनमें से अधिकांश विस्थापित यह भी नहीं जानते कि पुनर्वास दफ्तर किस जगह है। सरकारी विभागों में भी कमला तटबन्धों के पुनर्वासितों के बारे में कहीं भी कोई जानकारी अब उपलब्ध नहीं है।

.जाहिर है कि कमला परियोजना में पुनर्वास की स्थिति किसी भी मायने में कमला परियोजना की खुद की स्थिति से बेहतर नहीं है। ऐसा ही एक विस्थापित गाँव है हरना जो कि कमला के बाये तटबन्ध के बाहर बसा हुआ है। इस गाँव की अधिकांश जमीन अब तटबन्धों के अन्दर है। अब्दुल जब्बार (53) अपने गाँव के बारे में बताते हुये कहते हैं, “.... हमारा क्षेत्र कमला का क्षेत्र नहीं था। यह तो बलान का इलाका था जिसमें 1954 में कमला आ कर मिल गई। जब तक यहाँ बलान थी तब तक तो कोई समस्या थी ही नहीं। जब कमला आकर बलान में मिली तब नदी छोटी पड़ गई और पानी ज्यादा हो गया। उसके बाद आये इंजीनियर, जिनका दावा था कि चीन की नदियों पर काबू पाया जा सकता है तो कमला की क्या औकात है? उन्होंने 1950 के दशक के आखिर में कमला-बलान की धारा के दोनों तरफ तटबन्ध बना दिये। हमारे यहाँ सिंचाई पहले तालाबों के जरिये हुआ करती थी और बिना किसी मेहनत-मशक्कत के हमलोग धान, दलहन और तेलहन पैदा कर लिया करते थे। मगर धीरे-धीरे हमारे पेड़ पौधे और वनस्पतियाँ समाप्त हो गईं क्योंकि वह नदी के पानी के साथ आने वाले बालू और तटबन्धों के बाहर के जल-जमाव की मार को बर्दाश्त नहीं कर पाये। यहीं बीजू झा का 52 बीघे का आम का बगीचा हुआ करता था। कोई चाहे तो भी हर पेड़ के आम का एक बार में स्वाद नहीं ले सकता था। बीजू से लेकर कलमी तक की सारी किस्से मौजूद थी उस बगीचे में। जामुन के पेड़ इतने बड़े थे कि दो आदमी अगर उनके तने को घेर कर खड़ा होना चाहें तो तीसरे की जरूरत पड़ जाती थी। वह सब चला गया। हमारे सारे तालाब मर गये। हमारी सारी शान-शौकत मिट्टी में मिल गई। हमलोगों को न तो कोई मुआवजा मिला और न कोई पुनर्वास। यह हालत तब जब कि यह जगन्नाथ मिश्र का चुनाव क्षेत्र है-तीन-तीन बार वह सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। अब यह पूरा इलाका बंजर है-बिल्कुल अफगानिस्तान की तरह। ऐसी हालत अगर कहीं और हो जाये, फर्ज कीजिये-पंजाब में, तो बगावत हो जायेगी। मगर हमलोग फिर भी तसल्ली से हैं।”

इसी गाँव के अतीकुर्रहमान (64) बात को आगे बढ़ाते हुये कहते हैं, “.... हमारी तबाही इस तटबन्ध की तामीर से शुरू हुई। जल्दी ही तटबन्धों के बाहर जल-जमाव और उनके अन्दर रेत-मिट्टी का भरना शुरू हुआ। उसके बाद सिलसिला शुरू हुआ तटबन्धों के टूटने का। एक बड़ी बद-अमनी की हालत पैदा हो गई जिसके खिलाफ लोगों ने आवाजें बुलन्द कीं और नदी के पानी के साथ आने वाली उपजाऊ मिट्टी की तलाश में खुद तटबन्धों को काटना शुरू किया। हमारे आस-पास के इलाके में तटबन्धों के बीच कई गाँव फँसे जिनके नाम से हरना, भदुआर, बिठौनी, तिरहुत्ता, परतापुर, बकसाही और रजनपूरा वगैरह। पुनर्वास के लिये कुछ जमीन 1967 में बिठौनी, भदुआर और हरना में सरकार ने ली। जोलोग इस जमीन पर बसने के लिये आये वह जल्दी ही अपने डीह पर वापस चले गये क्योंकि जमीन उन्हें कम लगी। अब अगर आपके पास चार बच्चे हैं तो उनके बालिग होने पर आपको चार घर चाहिये लेकिन जो जमीन थी उस पर तो एक ही खानदान रह सकता था। इसलिये लोगों को वापस जाना पड़ा। हरना और भदुआर की 95 फीसदी जमीन तटबन्ध के अन्दर है और खेती ने एक लॉटरी की शक्ल अख्तियार कर ली है। लग गई तो किस्मत खुल गई वरना रकम डूब गई। और लॉटरी कितने लोगों की लग पाती है? इन जगहों पर फसल या मिट्टी नहीं बहती, जमीन बह जाया करती है। मुझे याद है कि बिनोदानन्द झा, जो कि बाद में मुख्यमंत्री भी बने थे, यहाँ आया करते थे हमलोगों को समझाने के लिये कि वह हमारे सारे नुकसान की भरपाई कर देंगे। पेड़ में केला लगा हुआ होगा तो उसकी भी भरपाई करेंगे। हमलोगों को थोक के भाव बेवकूफ बनाया गया। अब हमलोग पूरी तरह मायूस हो चुक हैं और यह अच्छी तरह जानते हैं कि सरकार कुछ करेगी नहीं। वह बस अपना तटबन्ध ले जाये बाकी नदी का और अपना इन्तजाम हम खुद कर लेंगे।”

जो लोग कमला के तटबन्धों के बीच वापस जाकर बस गये या वहाँ से निकले ही नहीं उनके अपने तर्क है। ग्राम-भेड़िया राही, प्रखण्ड-तारडीह, पोस्ट-ठेंगहा, जिला दरभंगा के लक्ष्मी नारायण यादव (50) बताते हैं कि, “... हमारे यहाँ से दरजिया 5-6 किलोमीटर दक्षिण में है और यह तटबन्ध 1961-62 के बीच बना होगा जब हमलोग बच्चे थे। पुनर्वास हमलोगों को मिला भी हो तो इसकी जानकारी हमें नहीं है। 1979 में ठेंगहा के इन्द्रकान्त झा मुखिया बने और उन्होंने हमलोगों को बताया कि झांकी पोखर पर कुछ गैर-मजरुआ जमीन है वहाँ जाकर बस जाइये। यह बात भी इन्द्रकान्त बाबू कह रहे थे, सरकार तो अभी भी चुप थी। हमें सरकार मधुबनी में पुनर्वास दे दे तो वहाँ चले जायेंगे मगर तटबन्ध के बाहर पुनर्वास लेकर क्या करेंगे। इस तटबन्ध को तो हर साल टूटना ही है फिर पुनर्वास में जाकर कौन बर्बादी सहेगा। हमलोग तो तटबन्धों के बीच में हैं। तटबन्ध टूटता है तो बाहर वाले तबाह होते हैं हर तरह से। परेशान हम भी होते हैं मगर हमारी फसल तो बच जाती है। हमारी जमीन अब तटबन्धों के बीच मिट्टी जमा होते-होते ऊँची हो गई है। सामने जो बैल खड़ा है उसके अगर खुर तक पानी चढ़ आये तो वह तटबन्ध के ऊपर से बह निकलेगा और 1987 के बाद से यह हर साल हो रहा है। 1987 में खैरी, निर्मला, बेलही और गुणाकरपुर वाले लोग बाढ़ के समय हमारे गाँव में आकर रहे थे। 80 मन मडुआ हमलोगों का उस साल बाढ़ ग्रस्त लोगों को खिलाने-पिलाने में खर्च हुआ था। हमें खुशी है कि हमारी इतनी क्षमता थी कि लोगों के काम आ सके। कोई भी सरकार, चाहे वह केन्द्र की रही हो या राज्य की, उस विपत्ति में भी यहाँ तक नहीं पहुँची। हमारे नाम पर रिलीफ की मंजूरी होती है मगर रिलीफ यहाँ तक पहुँचती नहीं है। ... तटबन्धों के बीच का फासला एक किलोमीटर है। सरकार अगर तटबन्ध को हर साल 1.5 मीटर ऊँचा करे तो भी यहाँ नदी की तलहटी 60 सेन्टीमीटर सालाना की दर से ऊपर चढ़ेगी। कहाँ तक ऊँचा कीजियेगा तटबन्ध? पानी को बहने ही नहीं देंगे तो वह भी तो कुछ अपने बचाव में करेगा न?”

बाबू बरही प्रखण्ड, जिला मधुनबी के बकसाही गाँव में परिस्थितियाँ थोड़ी सी अलग हैं। तटबन्ध निर्माण के समय की घटनाओं को याद करते हुये इस गाँव के बौए लाल मुखिया (62) बताते हैं कि, “... जब तटबन्ध बनने का काम शुरू हुआ तो यहाँ श्यामसिधप और बकसाही गाँव के बारे में तय हो गया कि यह दोनों गाँव तटबन्ध में फँसेंगे। इनके पनुर्वास के लिये घंघौर में जमीन का अधिग्रहण होने वाला था मगर एक तो वहाँ जमीन कम थी दूसरे यहाँ के कुछ प्रभावशाली लोगों ने जमीन के दखल में ही अड़ंगा डालना शुरू कर दिया। कुल मिलाकर हमें अपने मूल गाँव में ही रहना पड़ा। उसके बाद बात उठी कि हमारे गाँव के चारों ओर एक रिंग बाँध बनेगा जिसका हमलोगों ने विरोध किया क्योंकि हम जानते थे कि रिंग के बाहर तो नदी का पानी रहेगा ही और रिंग के अंदर के पानी की निकासी नहीं हो पायेगी। ... श्यामसिधप ब्राह्मणों का गाँव है और वह लोग घंघौर में पुनर्वासित नहीं होना चाहते थे। वह हम जैसे बेसहारा और गरीब के और गरीब लोगों के साथ पुनर्वास में रहने के लिये भी तैयार नहीं थे। हमलोगों को उस जमीन का मुआवजा जरूर मिला जिस पर होकर तटबन्ध गुजरा मगर पुनर्वास हमें नहीं मिला। हमें अपने पुराने गाँव में रहना पड़ा। हमलोगों में से कुछ ने अब नदी के दाहिने किनारे के तटबन्ध से बाहर सटी हुई 20 फुट्टा जमीन पर घर बना लिया हुआ है और अब यहीं रहते हैं। हम जानते हैं कि न तो यह जमीन हमारी है और न यह तटबन्ध ही हमारा है। यह जमीन तो श्यामसिधप के जमीन्दारों की है और हम हैं भूमिहीन। मगर अब यहाँ रहते हुये हमारी एक पीढ़ी गुजर चुकी है, हमने यहाँ अशोक, आम, जामुन और पीपल के पेड़ लगा रखे हैं और अब इस जमीन को अपनी जमीन मानने लगे हैं। अभी तक हमको कभी जमीन खाली करने का कोई नोटिस नहीं मिला है मगर कभी सरकार ने हमको यहाँ से हटाया तो हम कहीं और चले जायेंगे। हमारी हैसियत किसी से लड़ने की नहीं है और हम जैसे मजबूर लोग इसके अलावा कर भी क्या सकते हैं? यह तो भला हो कोलकात्ता, आसनसोल, पंजाब और भदोही जैसी जगहों का कि हमलोग किसी तरह जी खा रहे हैं।”

कमोवेश यही कहानी हर जगह की है। या तो लोगों को पुनर्वास मिला ही नहीं और अगर मिला तो लोग वापस अपने गाँव को आने को मजबूर हुये। अगर पुनर्वास स्थल किसी काम लायक बचे रहे तो उस पर स्थानीय दबंग लोगों का कब्जा हो गया या फिर उन पर जल जमाव हो गया और वह जमीन बेकार हो गई।

17. सब कुछ ठीक नहीं है कमला घाटी में


1954 से लेकर अब तक इस इलाके में सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण के लिये सरकारी स्तर पर बहुत कुछ किया गया मगर किसान के लिये न तो सिंचाई भरोसेमन्द रही और न बाढ़ नियंत्रण। नीचे तालिका 3 में हम पुराने दरभंगा जिले की पिछले 50 वर्षों की कुछ बाढ़ों में हुई क्षति का विवरण दे रहे हैं जो स्वयं स्पष्ट है। यह आंकड़े इस बात के निश्चित तौर पर गवाह हैं कि पुराने दरभंगा जिले में बाढ़ से अब तक सर्वाधिक नुकसान 1987 में हुआ था। इन सभी वर्षों में दरभंगा का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र 1906 के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र से ज्यादा था। सरकार की तरफ से 2004 की बाढ़ को अब तक की सब से भयंकर सिद्ध करने की जी-तोड़ कोश्शि हुई ताकि केन्द्र सरकार से रिलीफ के नाम पर मोटी रकम वसूल की जाय। हम 2004 की बाढ़ और उससे हुई लोगों की तकलीफों को कतई हलका करके नहीं देखना चाहते। मगर सच यह है कि 1987 की बाढ़ में पुराने दरभंगा (दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर) का 8.04 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाढ़ से प्रभावित हुआ था और इस बाढ़ की चपेट में 3307 गाँव आये थे। यहाँ की कुल आबादी 64.49 लाख में से 56.49 (87.59 प्रतिशत) लाख लोगों पर बाढ़ का असर पड़ा था, कुल 4,72,387 घर धराशायी हुये थे और 519 लोगों के साथ-साथ 1794 जानवर इस बाढ़ की भेंट चढ़ गये थे। 2004 का 17 करोड़ रुपयों का बाढ़ राहत घोटाला जरूर अपने-आप में एक बड़ी कहानी है और उसकी गुत्थी अभी तक सुलझी नहीं है। हमने यहाँ 1954 को इसलिये आधार माना है क्योंकि यह वर्ष उत्तर बिहार के लिये बाढ़ की दृष्टि से बहुत ही बुरा साल माना जाता है। इसके अलावा 1954 तक सरकार की तरफ से बाढ़ से बचाव के लिये तब तक कुछ भी नहीं किया गया था। 2004 तक कमला नदी घाटी में बाढ़ से बचाव के लिये 265 किलोमीटर लम्बे तटबन्ध बनाये जा चुके थे और उनसे 3.40 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से सुरक्षा देने का वायदा किया गया था। इन दावों की असलियत क्या है उसके बारे में कहने को अब कुछ भी नहीं बचता। 1906 की दरभंगा की जिस बाढ़ ने उस समय इतिहास रच दिया था, वह भी 1987 और 2004 की बाढ़ के सामने फीकी पड़ गई।

                                                 

तालिका-3

पुराने दरभंगा जिले में भयंकर बाढ़ वाले वर्षों में हुये नुकसान का विवरण

क्रम

वर्ष

कुल क्षेत्रफल लाख हेक्टेयर

बाढ़ प्रभावित क्षेत्रफल ला.हे.

प्रतिशत प्रभावित क्षेत्र

बाढ़ प्रभावित गाँवों की संख्या

बाढ़ से क्षतिग्रस्त कृषि क्षेत्र लाख हेक्टेयर में    

जिले की कुल आबादी (लाख)

बाढ़ से प्रभावित आबादी (लाख)    

प्रभावित आबादी का प्रतिशत

क्षतिग्रस्त घरों की संख्या

बाढ़ से मृत व्यक्ति

मृत पशु

1.

1954

8.637

5.611

64.96

2501

5.131

37.68

19.77

52.46

32950

13

500

2.

1955

8.637

उ.न.

उ.न.

2341

4.16

37.68

25.02

66.40

उ.न.

17

उ.न.

3.

1987

8.684

8.24

94.89

3307

6.08

64.49

56.49

87.59

472387

519

1794

4.

2002

8.684

5.47

62.98

2430

4.60

102.69

63.27

61.42

285293

195

796

5.

2004

8.684

6.70

77.15

2993

5.34

102.69

79.47

77.38

310406

505

1573

स्रोत: 1954 के आंकड़े-दरभंगा गजैटियर (1964) पृष्ठ 202-203


1955 के आंकड़े A Report on the Flood Situation in North Bihar, 1955, M.P. Matharani,

1987 के आंकड़े - वार्षिक प्रशासनिक प्रतिवेदन 1987-88, राहत एवं पुनर्वास विभाग, बिहार सरकार, पटना (1989)

2002 तथा 2004 के आंकड़े - आपदा प्रबन्धन विभाग, बिहार सरकार पटना


नोटः 1987, 2002 तथा 2004 के आंकड़े दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर के सम्मिलित आंकड़ें हैं। यह आंकड़ें क्रमशः 1951, 1981 तथा 2001 जनगणना से लिये गये हैं और इनमें जनसंख्या वृद्धि के लिये अपेक्षित सुधार नहीं किया गया है।

 

 
इसके अलावा 1959 में एक बार राधानन्दन झा के एक प्रश्न के उत्तर में केदार पाण्डेय ने बिहार विधान सभा को बताया था कि, “... कमला और कोसी नदियों के जल का अच्छी तरह से निष्कासन करने के विषय पर भारत सरकार ने एक समिति की स्थापना का प्रस्ताव रखा है जिसमें कुछ समय लग जायेगा। अतः इस साल के कार्यकाल में उक्त काम के आरंभ होने की कोई आशा नहीं है। ... इस कमिटी का फंक्शन केवल स्कीम को एक्जामिन करना ही नहीं है, बल्कि कमला और वेस्ट कोसी बेसिन में इन्टिग्रेटेड वे में फ्लड कन्ट्रोल मेजर्स (समेकित रूप से बाढ़ नियंत्रण की प्रक्रिया - ले.) पर भी विचार करना है और उसके बाद में फैसला देना है।” यह फैसला आज तक (फरवरी 2006) नहीं दिया गया। 1988 में एक विशेष टास्क फोर्स द्वारा कुछ जल-निकासी की योजनाएँ तैयार की गईं मगर उनके क्रियान्वयन के लिये कभी पैसा ही नहीं हुआ। उसके बाद से जल संसाधन विभाग शायद हर तीन-चार साल पर इन योजनाओं के एस्टीमेट को फिर से सुधारता रहता है और यह फाइलें केन्द्रीय जल आयोग, योजना आयोग, वित्त मंत्रालय और गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग में कहीं ठोकरें खाती रहती है। इधर कई वर्षों से इस सारे मसले पर एकदम चुप्पी है यद्यपि आश्वासनों की खैरात बाँटने में कभी कमी नहीं होती।

1998-99 के आस-पास नमूने के तौर पर राज्य के जल-संसाधन विभाग ने जल-निकासी की कुछ योजनाओं पर काम करना चाहा मगर जब इंजीनियर इन कार्यस्थलों पर पहुँचे तो उन्हें पता लगा कि इलाके की टोपोग्राफी पूरी तरह बदल गई है और उनके द्वारा बनाई गई योजनाओं का उसी रूप में क्रियान्वयन हो ही नहीं सकता। तब बुद्धू लौट कर घर आ गये। अब काम तो होगा बाद में, पहले सर्वेक्षण और डिजाइन नये सिरे से तैयार करनी पड़ेगी। इस दिशा में फिलहाल कोई प्रगति नहीं हो रही है।

सवाल इस बात की है कि किसी भी जल-निकासी की योजना में पानी को अंततः कमला या कोसी में ही ले जाना होगा। हमने पहले भी पढ़ा है कि बहुत से नदी-नाले इन नदियों के पास तक तो पहुँच जाते हैं मगर नदी में मिलने से पहले उनकी धारा मुड़ जाती है क्योंकि उनके सामने या तो तटबन्ध रुकावट बन कर खड़े हैं या मुख्य नदी की पेटी ऊपर उठी हुई है। जब तक नदियों और उनमें मिलने वाले नालों या धारों के तलों में फिर से संतुलन स्थापित नहीं होगा तब तक यह पानी नदी में जायेगा ही नहीं। यह संतुलन तभी स्थापित होेगा जब नदी स्वाभाविक रूप से बहेगी। और नदी स्वाभाविक रूप से तभी बहेगी जब तटबन्ध न रहें। यह बात राज्य का जल संसाधन विभाग नहीं जानता है, ऐसा सोचना भी बेवकूफी होगी। मगर उसका काम योजनाएँ बनाना और उनका क्रियान्वयन करना है। अपने इस निष्काम कर्म के परिणाम के प्रति उसकी कोई आसक्ति नहीं है। हमारी सांस्कृतिक विरासत भी यही है।

18. कमला पर प्रस्तावित शीसापानी बाँध


कोसी नदी पर बराहक्षेत्र बाँध की तर्ज पर कमला नदी पर भी नेपाल में शीसापानी में एक बाँध प्रस्तावित है जिससे उम्मीद की जाती है कि वह कमला नदी की बाढ़ को नियंत्रित करेगा। बिहार के दूसरे सिंचाई आयोग की रिपोर्ट (1994) के अनुसार इस बाँध की ऊँचाई 66.14 मीटर (217 फुट) होगी और यह 5377 घनमेक (1,89,270 घनसेक) प्रवाह को संभालने वाला बाँध होगा। इस बाँध से 17 मेगावाट बिजली पैदा हो सकेगी और इस बाँध में बाढ़ के पानी को रोक कर रखने के लिये अलग से कोई व्यवस्था नहीं की जायेगी। जो कुछ भी बाढ़ नियंत्रण हो सकेगा वह बाँध पर लगे फाटकों के संचालन से ही संभव हो सकेगा। पता नहीं उन नेताओं और इंजीनियरों को जो बड़े जोर शोर से यह ऐलान करते हैं कि शीसापानी बाँध बन जाने के बाद कमला घाटी में बाढ़ समस्या का समाधान हो जायेगा, यह बात मालूम भी है या नहीं। इस बाँध के निर्माण के लिये सबसे पहला प्रस्ताव 1956 में किया गया था और इसकी 1990 की दरों पर अनुमानित लागत 92.80 करोड़ रुपये थी। इस बाँध की विस्तृत रिपोर्ट तभी तैयार की जा सकेगी जब भारत सरकार और नेपाल सरकार के बीच इस बाँध को लेकर कोई समझौता हो जाय। दोनों देशों के बीच हुई महाकाली सन्धि (1996) का अभी तक कोई परिणाम नहीं निकला है और यह कहना मुश्किल है कि कमला के शीसापानी का बाँध का क्या हश्र होगा जिसके लिये अभी तक दोनों सरकारों के बीच कोई सहमति ही नहीं बनी है। वैसे भी नेताओं द्वारा दी गई सारी तसल्लियों के बावजूद यह बाँध तभी बनेगा जब नेपाल ऐसा चाहेगा। नेपाल की अपनी प्राथमिकता में यह बाँध कब आयेगा, यह किसी को भी मालूम नहीं है। इसके अलावा जहाँ यह बाँध बनेगा वहाँ नदी का जलग्रहण क्षेत्र मात्र 1409 वर्ग किलोमीटर है जबकि बाँध के नीचे नदी का जलग्रहण क्षेत्र 5,823 वर्ग किलोमीटर है। प्रस्तावित बाँध के नीचे कमला का अच्छा खासा जलग्रहण क्षेत्र पड़ने के कारण नदी की बाढ़ पर बाँध का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ेगा। उस हालत में बाढ़ नियंत्रण प्रभावित भी होगा या नहीं, उस पर अभी से सन्देह व्यक्त किया जाता है।

19. रास्ता क्या बचता है?


पहले सिंचाई की बात करें तो खेती का जो भी रूप उभरता है वह स्थानीय लोगों के अपने पुरुषार्थ पर आधारित है। इसमें कमला नहरों से मिलने वाली अनिश्चित सिंचाई का कोई खास योगदान नहीं है और नहर के मध्य और निचले क्षेत्रों में तो किसानों को इस नहर के पानी पर कोई भरोसा ही नहीं है। कमला नहरों का समायोजन पश्चिमी कोसी नहर में कर दिये जाने के बाद भी हालात बदलेंगे या नहीं यह कह पाना मुश्किल है। कोसी नहरें अगर इतनी ही मुस्तैदी से काम करतीं तो सुपौल, सहरसा, मधेपुरा, अररिया, पूर्णिया, और कटिहार के किसान दमकल (डीजल पम्प) के सहारे खेती नहीं करते। इसलिये सिंचाई की व्यवस्था को कारगर बनाने के लिये सरकार को उसकी जिम्मेवारी याद दिलाने की जरूरत है कि कम से कम जितनी क्षमता कमला परियोजना या भविष्य में पश्चिमी कोसी नहर की बताई जाती है उतनी सिंचाई की व्यवस्था तो वह करे। अभी जो हालत है उसके अनुसार अगर नहर से पानी मिल गया तो वाह-वाह वरना कोई बात नहीं।

जहाँ तक पश्चिमी कोसी नहर का सवाल है तो इस नहर का पहला शिलान्यास जगजीवन राम ने 1957 में किया था उसके बाद 1974 में योजना पर काम शुरू होने तक चार बार फिर शिलान्यास हुआ। 1962 में इस परियोजना की लागत 13.49 करोड़ रुपये बताई गई थी और इससे 2.63 लाख हेक्टेयर जमीन सींचे जाने का अनुमान था। 2005 मार्च तक इस योजना पर 621 करोड़ रुपये यानी पहले एस्टीमेट से 46 गुना ज्यादा पैसा खर्च कर लेने के बाद सिंचाई हुई मात्र 17,390 हेक्टेयर पर जो योजना के कथित उद्देश्य का मात्र 6.61 प्रतिशत है। राज्य का जल संसाधन विभाग कहता तो है कि इस योजना को 2008 तक पूरा कर लिया जायेगा मगर यह असंभव सा लगता है क्योंकि आने वाले दो वर्षों में योजना का काम पूरा कर लिये जाने की बात बिहार का जल संसाधन विभाग 1984 से कर रहा है। फिलहाल इस योजना का एस्टीमेट 1998 की दरों पर 904 करोड़ रुपये है। अभी भी 1998 की दर पर 183 करोड़ रुपया खर्च करना बाकी है और योजना में जो निवेश का हाल है उसके हिसाब से यह काम कभी भी 2008 में पूरा नहीं होगा। इस माहौल को बदलना होगा और विभाग पर दबाव बढ़ाना होगा। व्यापक जनसंगठन और उसके द्वारा सरकार पर लगातार दबाव बनाये रखने के अलावा इस लक्ष्य को हासिल करने का दूसरा कोई विकल्प नहीं है।

बाढ़ से बचाव के क्षेत्र में भी यही बात लागू होती है। बाढ़ से 3.40 लाख हेक्टेयर की वह सुरक्षा कहाँ है जिसका वायदा किया गया था और अगर शीसापानी का बाँध ही समस्या का समाधान है तो वह बनता क्यों नहीं है? इन सारे पहलुओं पर एक लोक मानस तैयार करने की जरूरत है। इसके अलावा शीसापानी बाँध बने यान बने जीविकोपार्जन, कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, यातायात, गृह निर्माण, जल प्रदाय और सैनिटेशन आदि के क्षेत्र में बहुत से ऐसे काम हैं जिनको लोग समाज के स्तर पर कर सकते हैं। यह जानकारी अन्यत्र उपलब्ध है। सरकार पर यह निश्चित रूप से दबाव डालना चाहिए कि वह कमला बाढ़ नियंत्रण योजना का जनता की भागीदारी से मूल्यांकन करवाये और इस नदी के तटबंध से बाढ़ की समस्या का समाधान होने के बदले अगर उसकी भयावहता बढ़ती है तब क्या कदम उठाये जाने चाहिये और उसका जनता की भागीदारी से एक सर्वसम्मत निर्णय लिया जाय। हम यहाँ फिर जोर देकर कहना चाहेंगे कि समस्या नदी के पानी की नहीं है, समस्या नदी के पानी के साथ आने वाली गाद की है, जिसका समाधान न तो नदी पर बने तटबन्ध करते हैं और न ही शीसापानी में प्रस्तावित बाँध कर पायेगा। इस इलाके में गाद के पथ-भ्रष्ट होने से पानी की निकासी की समस्या पैदा हुई है जिसको बढ़ाने में सड़कों, रेल लाइनों, तटबन्धों तथा नहरों के अवैज्ञानिक निर्माण ने अपनी-अपनी भूमिका अदा की है। हर किसान एक प्राकृतिक बाढ़ का बेसब्री से इन्तजार करता है लेकिन उसे वह बाढ़ हरगिज नहीं चाहिये जिसके मुकाबले में उसे आज खड़ा होना पड़ता है। बाढ़ों के इस आयाम की इंजीनियरों, प्रशासकों, राजनीतिज्ञों, यहाँ तक की स्वयं सेवी संस्थाओं ने भी अवहेलना की है। जब तक मूल समस्या पर चोट नहीं होगी तब तक बाढ़ को आपदा मान कर बाढ़ पूर्व तैयारी, बाढ़ के समय की व्यवस्था और बाढ़ बीत जाने पर पुनर्वास कार्यों का मंत्र-जाप चलता रहेगा। बाढ़ इस इलाके में जीवन पद्धति है जिसे निहित स्वार्थों ने विपत्ति बना कर अपना हित साधन किया है। अगर यह विपत्ति या आपदा है तो यह पूरी तरह मानव निर्मित है और थोड़ी सी कोशिश से ऐसे लोगों की पहचान की जा सकती है जिन्होंने इसे विपत्ति का रूप दिया और इसे विपत्ति ही बनाये रखना चाहते हैं। जब तक इस पर नये सिरे से काम नहीं होगा तब तक इस इलाके में राहत के नाम पर चूड़ा गूड़ चना और पॉलीथिन बँटता रहेगा और स्वार्थी तत्व उसका फायदा उठाते रहेंगे।

परम्परागत रूप से बाढ़ का पानी पूरे इलाके पर फैलता था और उसके साथ गाद भी सारी जगहों पर जाती थी। इससे एक तो जमीन की उत्पादकता बनी रहती थी दूसरे बाढ़ के पानी और बाद का फैलाव समान रूप से पूरे इलाके पर होता था। एक बड़े इलाके पर पानी फैलने के कारण बाढ़ का प्रकोप अपने आप कम हो जाता था। भारी होने के कारण बालू नदी की पेटी में ही रहता था। तटबन्धों के कारण नदी के पानी का लेवल बढ़ गया और उनमें दरारें पड़ते रहने के कारण पानी और गाद दोनों का फैलाव अनियंत्रित हो गया। लेवल बढ़ने के कारण मोटे बालू का फैलाव भी खेतों तक पहुँच गया। शीसापानी बाँध बनने के बाद भी यह बालू दूसरी शक्लों में परेशानी पैदा करेगा। इसके अलावा इस इलाके में बाढ़ों के प्रभाव को कम करने में यहाँ के तालाबों और चौरों की भूमिका को नजर अंदाज करना एक बड़ी भूल होगी। यहाँ के बुर्जुग बताते हैं कि बरसात के पहले रेले में धूल/मिट्टी को बैठने का मौका मिलता था, जमीन की गर्मी निकल जाती थी। अगली बार की बरसात में खेतों में पानी जमता था। खेत भर जाने के बाद तालाबों और चौरों की बारी आती थी। इतना सब हो जोने के बाद जब चौथी बार नदी का पानी छलकता था तब लोगों को लगता था कि बाढ़ जैसी कोई घटना हुई और इस बाढ़ का पारंपरिक तरीके से स्वगात होता था। तब ग्रामीण सामूहिक रूप से इन तालाबों और पोखरों का रख-रखाव करते थे। उस सारी स्थापित व्यवस्था को ध्वस्त करके बाढ़ नियंत्रण के अय्यारों ने एक ऐसी व्यवस्था थोपी जिसे न तो वह खुद अंजाम दे सके और न ही समाज को इस लायक छोड़ा कि वह अपनी देखभाल खुद कर सके। जरूरत इस बात की है कि आधुनिक विज्ञान का उपयोग एक जिद के तौर पर नहीं, सोची-समझी और परीक्षित परम्पराओं को ध्यान में रख कर किया जाये।

बीच-बीच में सुनने में आता है कि कमला पर तटबन्धों को जयनगर से लेकर नेपाल में मिरचइया तक बढ़ाने की योजना है। अगर इसका क्रियान्वयन हो जाता है तो नेपाल के उस हिस्से में भी वही सब होगा जो कमला तटबन्धों के साथ बिहार में हो रहा है। इतना सब जान लेने के बाद भी अगर वहाँ तटबन्ध स्वीकार कर लिये जाते हैं तब हमें कुछ नहीं कहना है। यह तटबन्ध अगर नेपाल में टूटते है या काटे जाते हैं तो इसका सीधा असर भारत की सीमा के निचले गाँवों में पड़ेगा और भारत/बिहार सरकार का नेपाल में राहत कार्यों का खर्च उठाने और क्षति-पूर्ति करते-करते नाक में दम हो जायेगा। यह एक हकीकत है क्योंकि जब 1991 में जोगिनियाँ में पश्चिमी कोसी तटबन्ध कट गया था तब इसकी मरम्मत में बिहार सरकार को 5.17 करोड़ रुपये नेपाल में खर्च करने पड़े थे। इसके अलावा उसे नेपाल सरकार को अस्थाई भूमि के अधिग्रहण, पेड़-पौधों, फसल के नुकसान और घरों को हटाये जाने के लिये मुआवजे के तौर पर 19.80 लाख रुपये देने पड़े थे। गनीमत बस इतनी भर थी कि जोगिनियाँ में तटबन्ध तोड़कर पानी बाहर नहीं आया वरना भारत सरकार को वहाँ राहत और पुनर्वास कार्यक्रम का खर्च भी उठाना पड़ता। तटबन्धों के कारण सीमावर्ती क्षेत्रों में जो तनाव की स्थिति पैदा होगी वह इन सब के ऊपर होगी।

एक बात और-अगर कभी भविष्य में शीसापानी बाँध के निर्माण की बात किसी गंभीर चर्चा का विषय बनती है तब यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि उसकी लागत में कमला तटबन्धों के बीच रह रहे लोगों के समुचित पुनर्वास के खर्च को भी जोड़ा जाये। साथ ही इस क्षेत्र के जल-जमाव की समस्या से निबटने के लिये जो 1958 से योजनाएं बन रही हैं और जिन पर अभी तक कोई अमल नहीं हुआ है, उसकी लागत भी इस बाँध की लागत में जोड़ी जाय। शीसापानी बाँध का निर्माण कमला तटबन्धों के बीच फँसे लोगों के पुनर्वास और तटबन्धों के बाहर फैले जल-जमाव के समाधान की शर्त पर होना चाहिये न कि इस घाटी के लोगों को फिर एक बार भ्रम में रख कर कि बाँध के निर्माण के बाद उनकी सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। आशंका इस बात की है कि जब भी कभी शीसापानी बाँध का निर्माण होगा तब सारी तवज्जो इस बाँध के डूब क्षेत्र में बसने वाले लोगों और उनके पुनर्वास की समस्या को मिलेगी। निचले क्षेत्रों में तटबन्धों द्वारा पैदा की गई समस्यायें और उनके बीच फँसे लोगों का योग-क्षेम शीसापानी बाँध के नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह जायेगा। खुद शीसापानी बाँध जो निचले क्षेत्रों की समस्याएँ पैदा करेगा, वह इन सब के ऊपर होंगी। सच यह है कि केवल बाँध निर्माण से ही इनकी किसी भी समस्या का समाधान नहीं होगा। यह इस क्षेत्र के प्रबुद्ध नागरिकों और तटबन्ध पीड़ितों पर निर्भर करेगा कि वह अपने आपको वाजिब हकों को पाने हेतु संघर्ष के लिये तैयार करते हैं या फिर एक बार और फरेब खाते हैं।

संदर्भ


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4. उपर्युक्त
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6. उपर्युक्त
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9. Mathrani, M.P.; पूर्व कथित, पृ. 113.
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40. सिंह, रामेश्वर प्रसाद; बिहार विधान सभा वाद वृत्त, 28 मार्च 1968।
41. बिहार सरकार, राहत और पुनर्वास विभाग, रिपोर्ट, 1987-88, पटना, पृ. 14-17।
42. पाण्डेय, केदार; बिहार विधान सभा वाद वृत्त, 24 फरवरी 1959, पृ. 7।
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44. Report, Western Kosi Canal Project, 2005, Office of the Chief Engineer, Western Kosi Canal, Darbhanga.
45. मिश्र, दिनेश कुमार; बोया पेड़ बबूल का, पूर्वकथित।
46. बिहार विधान सभा, विशेष समिति, पश्चिमी कोसी तटबन्ध (हनुमाननगर) का प्रतिवेदन, 1993 पृ. 88।
47. उपर्युक्त, पृ. 118।

 

परिशिष्ट-1


कमला नदी के तटबन्धों के बीच ऐसे गाँवों की प्रखंडवार सूची जो कि या तो पूरी तरह से तटबन्धों से घिरे हैं या जिनसे होकर तटबन्ध गुजरते हैं।

मधुबनी जिला

तिरहुत्ता

दरभंगा जिला

1. जयनगर प्रखंड (7)

बरही

1. तारडीह प्रखंड (12)

जयनगर

घंघौर

पोखरभिंडा

डोडवार

छौराही

कैथवार

बरमोतर

बरुआर

राजा खरवाइर

कौड़हिया

बिशुनपुर

बिशुनपुर

सिलरा

6. झंझारपुर प्रखंड (16)

कोकराहा

परवा

महिनाथपुर

देवना

बेलही

ओझौल

ठेंगहा

2. खजौली प्रखंड (6)

सर्वसीमा

कटहरा

सुक्की

काको

सोथरिया

कन्हौली

शंकरपुर

सिद्धीताजपुर

महाराजपुर

नरुआर

कुवारी

चन्दरडीह

बाली

महिया

चन्दर गौबड़ौरा

रामखेतारी

2. घनश्यामपुर प्रखंड (11)

भकुआ

मोतीपुर

जदुपट्टी

3. राजनगर प्रखंड (1)

वलीपुर

सुपौल

सुगौना

इमादपट्टी

पड़री

4. अंधरा ठाढ़ी प्रखंड (12)

समेया

तुमौल

बिठौनी

बलनी मेहथ

गोढ़ौल

चपाही

खैरा

बुढ़ेब

गंगद्वार

कोठिया भरौल

असमाँ

सिहोरिया

किशनपुर बरसम

भगवानपुर

रखवारी

7. लखनौर प्रखंड (7)

फैजुल्लापुर

घोघड़रिया

मदनपुर

सलाहपुर

राजनपूरा

बेहट

दोहथा

भदुआर

कैथिनियाँ

3. गौरा बौराम प्रखंड (8)

हरना

गंगापुर

मनसारा

महरैल

गुणाकरपुर

बाथ

तिलै

कसयाम

गौरामान

अज रबके चपाही (बेचिरागी)

बलिया

अखतवारा

5. बाबू बरही प्रखंड (13)

8. मधेपुर प्रखंड (7)

मनसारा

मुरहद्दी

परसाद

मलही

श्यामसिधप

अज रकबे सिद्धीताजपुर

कोठराम

भटगावाँ

भीठ भगवानपुर

रौता

मधवापुर

मदनपुर

4. कीरतपुर प्रखंड (2)

बैरिया

खोर

रसियारी

मठखुदर कलां

परसौनी

झगरुआ

बेला

परवलपुर

 

 


 

बगावत पर मजबूर मिथिला की कमला नदी, अगस्त 2006


(हिन्दी-अंग्रेजी में पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।)

1

बगावत पर मजबूर मिथिला की कमला नदी (The Kamla River and People On Collision Course)

2

The Kamla River and People On Collision Course

 

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