बिगड़ते पर्यावरण से प्रभावित होता बिहार

4 Jun 2013
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दरभंगा नगर निगम ने शहरवासियों को मकान में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने पर होल्डिंग टैक्स में 5 फीसदी की छुट देने की घोषणा की है। ये कुछ सरकारी प्रयास हैं पर्यावरण के बिगड़ते मिज़ाज़ को काबू में करने और धरती को बचाने की। परंतु, यह प्रयास उस वक्त तक सफल नहीं होगा जबतक आमजन इसके प्रति जागरूक नहीं होते हैं। जरूरत है कि हम भी इको फ्रेंडली बनें। केवल कांफ्रेंस हॉल में ही इस पर विचारने से सफलता पाने की उम्मीद बेमानी होगा, बल्कि खेत-खलिहानों में भी धरती बचाने के लिए चौपाल लगानी होगी।बिहार में शीशम के पेड़ अब बहुत कम दिखाई देते हैं। मृत जानवरों को खाकर वातावरण को शुद्ध करनेवाले गिद्ध भी आकाश में मंडराते नहीं दिखते। वैशाली के बरैला झील, दरभंगा के कुशेश्वरस्थान झील व बेगूसराय के कांवर झील में प्रवासी प्रक्षियों का आना भी कम हो गया है। कठखोदी, बगेरी, लुक्खी की प्रजाति भी विलुप्त होने के कगार पर है। कोयल की कूक व घरों के मुंडेर पर कौओं की कर्कश आवाज भी मद्धिम पड़ गयी है। फसल में पटवन के समय जमीन से निकलने वाला घुरघुरा और उसे अपना निवाला बनाने वाला बगुला भी नजर से ओझल होता जा रहा है। भेंगरिया, तेतारी जैसे उपयोगी घास खोजने से नहीं मिलते हैं। पेड़ों पर पहले जैसे घोंसले नहीं देख बच्चे उदास हो जाते हैं। यह भयावह तस्वीर है, उस बिहार प्रांत की जिसकी लाइफ लाइन है खेती व पशुपालन। कहने का अर्थ है कि पारिस्थितिकी तंत्र व फसल चक्र को नियंत्रित व संरक्षित करने वाले ये सारे कारक नष्ट क्यों हो रहे हैं? इसपर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

दुनिया की आबादी जिस रफ़्तार से बढ़ रही है, उससे दोगुना गति से प्राकृतिक संसाधनों, यथा-जल, जंगल, जमीन, ऊर्जा आदि का दोहन हो रहा है। जंगल की अंधाधुंध कटाई, पानी की बर्बादी, भूगर्भ जल का सिंचाई व कल-कारखानों के लिए दोहन और हरित क्रांति के लिए रसायन के प्रयोग ने हमारे सामने कई पर्यावरणीय संकट पैदा किया है। पंजाब व हरियाणा का हश्र हमने देख लिया है। रसायन के प्रयोग से सिर्फ मिट्टी की उर्वरा शक्ति ही नष्ट नहीं होती, बल्कि जलीय जीव-जंतु, मृदा में रहने वाले सूक्ष्म जीव, कीट-पतंग, पशु-पक्षी के जीवन भी संकट में आ जाता है। मौसम वैज्ञानिकों का कहना है कि पूरी दुनिया में हो रहे जलवायु परिवर्तन के चलते पृथ्वी गर्म हो रही है। इससे आनेवाले दिनों में कृषि क्षेत्र को भारी संकट का सामना करना पड़ेगा। पैदावार में गिरावट आयेगी। धान, मक्का व गेहूं जैसी फसलों में दाने नहीं आएंगे परिणामस्वरूप खाद्य संकट बढ़ेगा। तब सरकार द्वारा खाद्य सुरक्षा के लिए उठाए गये कदम नाकाफी होंगे। समय पर मानसूनी वर्षा नहीं होगी, जिससे वन क्षेत्र भी सिकुड़ेगा। पेयजल व सिंचाई के लिए जल संकट उत्पन्न होगा। पर्यावरणविद् अनिल प्रकाश कहते हैं कि पॉलिथीन से धरती पट रही है। जो इसके अस्तित्व को नुकसान पहुंचा रहे हैं। पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान रसायन आधारित कृषि से हो रहा है। अधिक मात्रा में रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के प्रयोग से परागमन की प्रक्रिया भी प्रभावित हो रही है। मधुमक्खियां, तितलियां मर रही हैं। मेढ़क, बगुले, कौए आदि प्राणी विलुप्त हो रहे हैं। मेढ़क का जितना वजन होता है, उतना फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीट-पतंगों को वे खा जाते हैं। इससे मिट्टी के सूक्ष्म पोषक तत्व, जीवाणु, ह्यूमस, पीएच नियंत्रित रहते हैं। जहां मधुमक्खी के बक्से रखे जाते हैं, उसके आसपास के खेतों में लगी फसलों में परागमन की क्रिया से 20 फीसदी पैदावार बढ़ जाती है, जबकि रासायनिक खेती से ग्रीन हाऊस गैस बनती है, जो वायुमंडल को गर्म करने में सहायक होती हैं।

बिहार में 60 के दशक में फर्टिलाइजर की प्रति हेक्टेयर खपत 4 किलोग्राम थी, जो बढ़कर 1975-76 में प्रति हेक्टेयर 19 किलोग्राम हो गयी। 2010-11 में हो यह आंकड़ा 200 किलोग्राम तक पहुंच गया है। इस कारण मिट्टी में सूक्ष्म पोशक तत्व, अर्थात जिंक, बोरोन, सल्फर आदि की कमी हो गयी। स्वाभाविक है कि इसका प्रभाव एक ओर जहां फसलों की पैदावार पर पड़ेगा वहीं दूसरी ओर इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचेगा। जलवायु परिवर्तन से सबसे पहले खेती ही चैपट होती है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम में हो रहे बदलाव, बाढ़, सुखा, बेमौसम बारिश, प्राकृतिक आपदा बीच-बीच में हमें चेतावनी दे रहा है। बिहार में पिछले माह मई में ही दो दिन अचानक ऐसी बारिश हुई, जैसे मानसून ने दस्तक दे दी हो। जबकि पिछले दो तीन साल में सूखे की स्थिति पैदा हो गयी थी। 2007-08 में बाढ़ एवं 2009-10 की सूखे से हजारों किसानों की खेती चौपट हो गयी थी। 2009 में आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में आई बाढ़ की विभीषिका देख कर रेडक्रॉस रेड क्रिसेंट क्लाइमेट सेंटर के प्रमुख मेडेलिन हेल्मर ने कहा था कि यह आपदा जलवायु परिवर्तन का परिणाम है। ग्रीन हाऊस गैस के बढ़ते स्तर का असर इस वर्ष तापमान पर साफ दिखा। भीषण गर्मी ने पुराने सारे रिकार्ड ध्वस्त कर पारा 48 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच गया। आग उगलती गर्मी ने दिल्ली समेत देश के कई छोटे-बड़े शहरों एवं गांवों के लोगों व अन्य प्राणियों के लिए एक-एक क्षण गुजरना मुश्किल हो गया। पंखे, कूलर, एसी, फ्रीज सब बेकार साबित हुए। यह एक डरावनी संकट की ओर इशारा कर रहा है।

हालांकि, देश इस संकट के प्रति सचेत हो रहा है। पंजाब-हरियाणा से सबक लेकर अन्य प्रदेश भी रसायन का इस्तेमाल बंद कर, जैविक खेती की ओर अपना कदम बढ़ा रहे हैं। मिट्टी के बिगड़ते सेहत से चिंतित आंध्र प्रदेश के एक गांव पुन्नूकुला के किसानों ने पेस्टिसाइड्स व केमिकल फर्टिलाइजर्स का इस्तेमाल करना बंद कर दिया है। आंध्र प्रदेश अकेला ऐसा राज्य है, जहां कीटनाशकों की खपत में 60 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी है। बिहार के कई जिलों में किसान जैविक खेती कर पर्यावरण का संरक्षण कर रहे हैं। मुजफ्फरपुर जिले का गोविंदपुर गांव जैविक ग्राम के रूप में चर्चित होता जा रहा है। इसी जिले के सरैया, पारू, साहेबगंज, मुशहरी जैसे कई प्रखंडों के दर्जनों किसान बिना सरकारी सहयोग के बड़े पैमाने पर जैविक खाद का उत्पादन कर अपने खेतों में पटा रहे हैं। साथ ही, उसकी बिक्री कर अच्छी कमाई भी कर रहे हैं।

बहरहाल, पर्यावरणजनित हालातों से निबटने के लिए क्योटो प्रोटोकॉल, कोपनहेगन, अर्थ सम्मिट जैसे अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन ही काफी नहीं हैं। किसानों को भी पर्यावरण प्रेमी बनना होगा। गांव-गांव में, स्कूल-स्कूल में, घर-घर में पर्यावरण पर चर्चा व चिंता होनी चाहिए। सरकार भी कार्बन उत्सर्जन का स्तर कम करने के उपायों पर कदम उठा रही है। करीब पांच साल पूर्व यूपी व एमपी की सरकारों ने राज्य के सरकारी कार्यालयों में सीएफएल लगाने की पहल शुरू की थी। कुछ राज्यों में पॉलिथीन के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया गया है। बिहार में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के जरिये पौधरोपण कार्यक्रम चलाया जा रहा है। राज्य सरकार का संबंधित विभाग वर्मी वेड लगाने के लिए एवं पंचायतों में तालाब खुदवाने के लिए अनुदान दे रहा है। दरभंगा नगर निगम ने शहरवासियों को मकान में वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने पर होल्डिंग टैक्स में 5 फीसदी की छुट देने की घोषणा की है। ये कुछ सरकारी प्रयास हैं पर्यावरण के बिगड़ते मिज़ाज़ को काबू में करने और धरती को बचाने की। परंतु, यह प्रयास उस वक्त तक सफल नहीं होगा जबतक आमजन इसके प्रति जागरूक नहीं होते हैं। जरूरत है कि हम भी इको फ्रेंडली बनें। केवल कांफ्रेंस हॉल में ही इस पर विचारने से सफलता पाने की उम्मीद बेमानी होगा, बल्कि खेत-खलिहानों में भी धरती बचाने के लिए चौपाल लगानी होगी।

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