बिजली की चाहत में राख होती जिंदगी

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छत्तीसगढ़ में कोयला खदानों की अधिकता के चलते 28 बिजली संयंत्र हैं। बिजली घरों से हर साल दो करोड़ मीट्रिक टन राख निकलती है। इसका 30 फीसदी भी इस्तेमाल नहीं होता। इसीलिये ऊर्जाधानी कहलाने वाला शहर कोरबा में टी.बी., अस्थमा, दमा जैसी गम्भीर बीमारियों से जिन्दगियाँ राख हो रही हैं। वहीं रायगढ़ में 31 लाख हेक्टेयर जमीन पर अब खेती नहीं होती है। पावर हब के चलते जिन्दगी अब ‘राख हब’ के ढेर में बदल गई है।

काला सोना छत्तीसगढ़ राज्य का गहना है। देश में कुल कोयला उत्पादन में 22.03 फीसदी का योगदान देकर यह राज्य पहले नम्बर पर है। कोयला उत्पादन के चलते राज्य में 28 बिजली संयंत्र हैं। इसमें से कोरबा में 15 और रायगढ़ में 13 बिजली संयंत्र हैं। कोरबा जिला बिजली संयंत्र अधिक होने की वजह से ऊर्जाधानी के नाम से भी जाना जाता है। यह सब पढ़-सुनकर अच्छा लगता होगा। लेकिन इस बिजली की चमक के पीछे जीवन का घना अंधेरा छिपा हुआ है। सच यह है कि ऊर्जाधानी नामक शहर राख की दीवारों के बीच कैद है। उस कोयले की राख से जिससे बिजली बनकर राज्य और देश की कई बस्तियों को रौशन करती है। इसके बदले में कोरबा की बस्तियाँ, गाँव और खेत के आस-पास राख के पहाड़ खड़े हो गए हैं। राज्य में कोरबा और रायगढ़ सबसे अधिक प्रदूषित शहर हैं। प्रदूषण रोकने के लिये जो मापदंड तय किए गए हैं उन पर अमल नहीं किया जाता है। कोरबा, जांजगीर, रायगढ़ में इस राख की वजह से राख हो रही है जिन्दगी। राख के ढेर से होने वाले प्रदूषण के चलते लोग ठीक से साँस तक नहीं ले पा रहे हैं। साँस के रोगों के आँकड़े जब लोगों को डराने लगे तो 2012 में राज्य के उद्योग व पर्यावरण मंत्री राजेश मूणत ने विधानसभा में कहा, “प्रदेश में उद्योगों से निकलने वाले फ्लाई ऐश के उपयोग के लिये सरकार कार्य योजना बना रही है।” लेकिन उनकी यह घोषणा राख की तरह ही हवा में उड़ती रही। जमीनी तौर पर कोई काम नहीं हुआ।

बिजली के उत्पादन और उससे मिलने वाले राजस्व के चलते राज्य सरकार लोगों की जान से खेल रही है। जल और वायु प्रदूषण पर नियंत्रण के लिये जरूरी उपाय तक नहीं कर रही है। इसके खिलाफ राज्य उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर हुई। न्यायालय ने जहर उगलने वाले उद्योगों पर कोई कार्रवाई न करने पर कड़ी फटकार लगाई। पर्यावरण विभाग के सचिव को नोटिस जारी कर शपथ पत्र के साथ जवाब पेश करने का आदेश दिया। पर सवाल है कि यह मामला अदालत तक ले जाने की जरूरत ही क्यों पड़ी? क्या राज्य सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह स्वतः संज्ञान लेकर जनता को रहने लायक वातावरण प्रदान करे।

प्रदेश में औद्योगिकीकरण के चलते बढ़ते प्रदूषण को रोकने के उपाय न किए जाने के खिलाफ यह याचिका सामाजिक संगठन हमर संगवारी दाखिल की है। इसमें कहा गया है कि प्रदेश में पावर प्लांट, लोहा उद्योग समेत अन्य उद्योग स्थापित हो रहे हैं। इन उद्योगों से निकलने वाले राख और धुएँ के प्रदूषण को रोकने ईएसपी (इलेक्ट्रो स्टेटिक प्रैसिपिटेटर) लगाना अनिवार्य है। इसके अलावा केमिकल उद्योग का पानी नदी, नालों में नहीं बहाया जा सकता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से उद्योग स्थापित करने की अनुमति लिये जाने के दौरान प्रदूषण न करने की शर्त लगाई जाती है। इसका पालन नहीं किया जा रहा है। याचिका में बताया गया है कि प्रदेश में 188 ऐसे उद्योग हैं जहाँ से खतरनाक कचरा निकलता है। इन उद्योगों से प्रतिदिन लगभग 54,900 टन कचरा निकलता है जिसमें लगभग 16 हजार टन कचरे को दूसरे काम में उपयोग या नष्ट किया जा रहा है। लगभग 38 हजार टन कचरा डंप हो रहा है।

 

राख के पहाड़


कोरबा से गेवरा, लक्ष्मणपुर, कुसमुंडा या फिर दीपिका जाने के रास्ते में राख के पहाड़ पड़ते हैं। यहाँ की राख बारिश के पानी में घुलकर नदी-नाले से होते हुए खेतों तक पहुँचती है। राख की अधिकता के चलते इन इलाकों के खेतों पर भी इसका असर पड़ा है। खेतों की उर्वरक क्षमता खत्म हो गई है। औद्योगिक अपशिष्ट नियम कहता है कि जहाँ भी कोयले की राख फेंकी जाए वहाँ वृक्षारोपण किया जाए। लेकिन ऐसा होता कहीं भी नहीं दिखा। केवल जगह-जगह बोर्ड लगाए गए हैं। कोई भी बिजली उत्पादन कम्पनी राख के निष्पादन की दिशा में पहल करती नहीं दिखती। कोरबा रेलवे स्टेशन से रेलवे फाटक तक आने के बाद दीपिका नगर पंचायत तक जाने के रास्ते में यानी दस किलोमीटर तक किनारे-किनारे राख के पहाड़ हैं। कोरबा के दूसरी तरफ यानी अंडर ग्राउंड खदानों की ओर भी जाएँ तो राख के पहाड़ खड़े हैं। कहीं कोई वृक्षारोपण नहीं किया गया है। कोरबा हो या फिर रायगढ़ दोनों जिलों में बिजली संयंत्रों के आस-पास राख के पहाड़ कई सवाल खड़े करते हैं। ये पहाड़ सबको दिखते हैं, लोगों की आँख-नाक-कान में राख भर जाती है। लेकिन पर्यावरण व प्रदूषण विभाग की आँख-कान-नाक पर इसका असर नहीं होता। उसके अधिकार एसी की बंद गाड़ियों में आते हैं और नोटों की गड्डी से आँख-नाक-कान ढँककर चले जाते हैं।

एसीबी इंडिया लिमिटेड का पावर प्लांट चाकाबुरा गाँव में स्थित है। इस बिजली संयंत्र से करीब तीन सौ मीटर की दूरी पर राख का ढेर है। आस-पास बस्तियाँ हैं। खेत हैं। राख के ढेर को दबाने के लिये मिट्टी का इस्तेमाल किया जाता है। ताकि गिरकर फैले नहीं। लेकिन हवा चलती है तो राख उड़ती है। घरों के अंदर और आँगन में राख की परतें बिछ जाती हैं। फूलझड़, रंजना, तिवरता और चैतमा गाँव तक राख का प्रतिकूल असर दिखाई देता है। इस मामले में जब कोरबा की एसीबी इंडिया लिमिटेड कम्पनी के जनरल मैनेजर बी.आर. पटेल से बात हुई तो उन्होंने कहा, “हमारे बिजली संयंत्र में कोयले के जलने पर प्रदूषण न फैले इसकी पूरी व्यवस्था है। चिमनी से काला धुआँ नहीं निकलता है। इलेक्ट्रो स्टेटिक प्रैसिपिटेटर की व्यवस्था है।” पर राख का निष्पादन- इस सवाल का उन्होंने सीधा जवाब नहीं दिया।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 5 फरवरी, 2014 को एक आदेश जारी किया था। इसके अनुसार 17 प्रकार के प्रदूषणकारी उद्योगों में प्रदूषण नियंत्रित एवं निगरानी के लिये 31 मार्च 2015 तक ऑनलाइन स्टैक इमिशन सिस्टम स्थापित किया जाना था। लेकिन कोरबा जिले में मात्र 46 और पूरे प्रदेश में 133 औद्योगिक संस्थानों ने ही यह सिस्टम लगाया है, 563 संस्थानों ने इसे नहीं लगाया। इस सिस्टम के जरिए उद्योगों में चिमनी से निकलने वाले धुएँ आदि को राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सर्वर से ऑनलाइन जोड़ा जाना था। ऑन लाइन स्टैक मॉनीटरिंग तथा एम्बीएंट एयर क्वालिटी मॉनीटरिंग सिस्टम लगने से इन उद्योगों की निगरानी की जा सकती है। लेकिन अधिकांश उद्योग कुछ ले-देकर इस सिस्टम को लगाने से बच रहे हैं।

 

राख का उपयोग


काले सोने के दम पर रोशनी से चमकने वाले छत्तीसगढ़ राज्य में बिजली घरों से दो करोड़ मीट्रिक टन राख निकलती है। नियमानुसार शत प्रतिशत राख का निष्पादन करने की शर्त पर ही बिजली कम्पनियों को ‘क्लियरेंस’ मिलता है। लेकिन छत्तीसगढ़ में अब तक इसका मात्र 30 फीसदी ही इस्तेमाल होना शुरू हुआ है। पश्चिम बंगाल में 80 फीसदी राख का उपयोग होता है। महाराष्ट्र में 60 फीसदी और उत्तर प्रदेश में 50 फीसदी राख का अन्य कामों में इस्तेमाल होता है। अन्य राज्यों की तुलना में छत्तीसगढ़ में राख का उपयोग कम हो रहा है। मतलब यहाँ राख की माँग कम है। बीते साल में 24 लाख 42 हजार मीट्रिक टन राख सीमेंट फैक्ट्रियों में इस्तेमाल हुई। तालाबों में 20 लाख 39 हजार टन, खदान में भराव के लिये 1 लाख 36 हजार मीट्रिक टन राख का इस्तेमाल हुआ। सड़क निर्माण में मात्र 42 हजार मीट्रिक टन राख का इस्तेमाल हुआ। जबकि 3 साल पहले 1 लाख 23 हजार मीट्रिक टन का राख का इस्तेमाल सड़क निर्माण में हुआ। राख से ईंट बनाने का काम भी शुरू हुआ है, लेकिन उसकी गति बहुत कम है। एक जानकारी के अनुसार पूरे भारत में 42 फीसदी राख सीमेंट बनाने के काम आती है।

राख को कोयले की खाली खदानों में भरने का प्रावधान है। रायगढ़ और कोरबा की खदानों में पहले रेत भरने का टेंडर हुआ करता था, अब बंद हो गया है। औद्योगिक संस्थानों से निकलने वाली राख यानि फ्लाई ऐश दो तरह की होती है। मोटी राखड़ से तालाब या फिर गड्ढे भरे जाते हैं। चिकनी राख ईंट बनाने और सड़क निर्माण के काम में लाई जाती है। कोयला उत्पादन कम्पनी एसईसीएल और बिजली उत्पादन कम्पनी एनटीपीसी पर फ्लाई ऐश के उपयोग और उसके निष्पादन की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) राज्य सरकार को राख के मामले में कई बार फटकार लगा चुका है। लेकिन राज्य सरकार पर न्यायालय और एनजीटी की फटकार का कोई असर होता नहीं दिखता।

 

नफा से ज्यादा नुकसान


राज्य सरकार की नजर बिजली और अन्य औद्योगिक उत्पादन से होने वाले लाभ पर ही टिकी है। इसके एवज में हो रहे नुकसान की तरफ उसकी नजर ही नहीं जाती। कृषि वैज्ञानिक डॉ. के.के. साहू कहते हैं कि राख की वजह से पौधे के स्टोमेटा ढँक जाते हैं। इससे उसका श्वसन तंत्र कमजोर हो जाता है और पौधे की वृद्धि रुक जाती है।

राख मिट्टी की पोरोसिटी को भी कम कर देती है। इससे क्षेत्र की कृषि भूमि में राख बहकर जाने से खेतों की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है। अंबेडकर अस्पताल के श्वसन विशेषज्ञ डॉ. रविन्द्र पंडा कहते हैं, फैक्ट्री से निकलने वाला गंदा पानी, धुआँ, राख और केमिकल सीधे जलस्रोत को प्रभावित कर रहे हैं। कई जगह भूमिगत संक्रमित जल में लेड की मात्रा भी पाई गई है। जल में मैग्नीशियम व सल्फेट की अधिकता से आँतों में जलन पैदा होती है। नाइट्रेट की अधिकता से बच्चों में मेटाहीमोग्लाबिनेमिया नामक बीमारी हो रही है। आँतों में पहुँचकर नाइट्रोसोएमीन में बदलकर यह पेट का कैंसर बना देता है। फ्लोरीन की अधिकता से फ्लोरोसिस नामक बीमारी हो जाती है।

‘फ्लाई ऐश’ के कण पार्टीकुलेट मैटर के रूप में हवा तैरते हैं। इन अति सूक्ष्म कणों का व्यास 2.5 माइक्रोमीटर से भी कम होता है। इसलिये उन्हें पी.एम. 2.5 कहा जाता है। ये सूक्ष्म कण आसानी से साँस के जरिए फेफड़ों तक पहुँच जाते हैं और खून में ऑक्सीजन की मात्रा कम कर देते हैं। सर्दी के मौसम में ब्रोंकाइटिस की आशंका अधिक रहती है। दमा बाढ़ जाता है। कोरबा और रायगढ़ में इसके मरीज अधिक हैं। आँकड़ों के मुताबिक बीते 5 साल में राख से प्रभावित 10 ब्लॉकों के 14 हजार से ज्यादा लोगों में जाँच के दौरान टीबी के लक्षण पाए गए।

 

एक दर्द आदिवासियों का


कोरबा हो या फिर रायगढ़ जिले के आदिवासियों का एक दर्द और भी है। उद्योगपतियों ने नौकरी देने का सब्जबाग दिखाकर उनकी जमीनें ले लीं। पर बाद में नौकरियाँ नहीं दी। एसीबी इंडिया लिमिटेड को अपनी दस एकड़ जमीन देने वाले भारत यादव, रामेश्वर यादव का परिवार कहता है, “चपरासी अथवा साफ-सफाई करने की नौकरी देकर ठग लिया गया है।”

ऐसा यहाँ सभी पावर प्लांट के मालिकों ने किया है। कइयों का मामला कोर्ट में चल रहा है। मनोज कहते हैं, “कहीं जा नहीं सकते इसलिये पावर प्लांट के पास अपनी जमीन पर घर बना रखा। लेकिन कम्पनियाँ अपनी पावर प्लांट की राख को घर के पास डम्प करा रही हैं जिससे जीना मुहाल हो गया है।”

मनोज सिंह ठेकेदार के अंडर में काम करते हैं। इन्द्रजाल, विजय गोंड, फूलबाई और सविता गोंड को झाड़ू पोछा लगाने का काम मिला है। कुसमुंडा खदान के पास वाले पालविया गाँव के लोग विस्थापन के विरोध की लड़ाई अभी तक लड़ रहे हैं। यहाँ के लोगों ने बताया कि पिछले डेढ़ दशक में इन खदानों के लिये लोगों को 3-4 बार विस्थापित किया जा चुका है लेकिन उसका उचित मुआवजा अब तक नहीं मिला है।

 

महत्त्वपूर्ण बिंदु


1. एक अनुमान के अनुसार राज्य में 52 हजार मिलियन टन से भी अधिक कोयले का भंडार है। कोयला खनिज उत्पादन के लिहाज से 2003-04 में 615.05 लाख टन एवं भारत के कुल उत्पादन में छत्तीसगढ़ का 17.03 प्रतिशत योगदान के साथ छत्तीसगढ़ दूसरे स्थान पर था। 2014-15 में 1343.96 लाख टन उत्पादन हुआ और देश के कुल उत्पादन में 22.03 प्रतिशत के योगदान के साथ यह राज्य प्रथम स्थान आ गया। कोरबा में 10 भूमिगत खदान हैं और दो खुली खदान है। कुसमुंडा, गेवरा, दीपिका में एक-एक खुली खदान है। रायगढ़ में एक भूमिगत खदान है और 3 खुली खदान है। गेवरा क्षेत्र साउथ ईस्टर्न कोलफिल्ड्स का सर्वाधिक कोयला उत्पादन करने वाला क्षेत्र है। गेवरा परियोजना में विश्व की आधुनिक तकनीक का प्रयोग किया जाता है।

2. एनजीटी में राख निष्पादन के मुद्दे पर याचिका डालने वाले लक्ष्मी चौहान कहते हैं, कोल इंडिया देश की 20 फीसदी कोयले का उत्पादन छत्तीसगढ़ से करती है। इसलिये रेल मंत्रालय को चाहिए कि वह कोयले के साथ यहाँ के बाशिंदों का भी ध्यान रखे। कोयला परिवहन के लिये प्रस्तावित रेल कॉरिडोर के तहत कोरबा और रायगढ़ में उत्सर्जित राख के उपयोग को भी सुरक्षित किया जाए।

3. डब्ल्यूएचओ के आँकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में सूक्ष्म कणों पीएम 10 का वार्षिक उत्सर्जन 309 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है जो कि देश में ग्वालियर के बाद दूसरे क्रम पर है। रायपुर पीएम 10 से होने वाले प्रदूषण के मामले में दुनिया के टॉप 10 शहरों की सूची में शामिल है। जहाँ तक पीएम 2.5 से होने वाले प्रदूषण का सवाल है तो रायपुर देश में चौथे क्रम पर है। वहाँ यह मात्रा 134 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर है। प्रदूषण के लिये बदनाम पाकिस्तान के कराँची, रावलपिंडी एवं चीन के बीजिंग सहित अन्य शहरों से यह अधिक है।

 

 

 

 

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