
भूजल में सबसे ज्यादा आर्सेनिक पाये जाने वाले राज्यों में शुमार पश्चिम बंगाल में उपजने वाले चावल में भी आर्सेनिक पाया गया है।
हाल ही में हुए एक शोध में इस सनसनीखेज तथ्य का खुलासा हुआ है, जो गम्भीर मामला है। यह शोध बताता है कि अगर आर्सेनिक का स्थायी समाधान नहीं निकाला गया, तो हालात भयावह होंगे।
जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंटल स्टडीज ने एक शोध में पाया कि पश्चिम बंगाल के जिन हिस्सों के पानी में आर्सेनिक अधिक मात्रा में पाया जाता है, वहाँ उगने वाले धान में भी आर्सेनिक मौजूद है।
यानी कोई आर्सेनिकयुक्त पानी नहीं भी पी रहा है और अगर आर्सेनिकयुक्त चावल खाता है, तो उसके शरीर में आर्सेनिक प्रवेश कर जाएगा, जिससे कैंसर का खतरा हो सकता है।
यहाँ यह भी बता दें कि गंगा तटवर्ती क्षेत्रों के भूगर्भ में प्राकृतिक तौर पर आर्सेनिक पाया जाता है। एक लीटर में 0.05 मिलीग्राम आर्सेनिक की मौजूदगी शरीर के लिये हानिकारक नहीं, लेकिन अगर इससे ज्यादा आर्सेनिक शरीर में प्रवेश करने लगता है, तो वह कैंसर का कारण बन जाता है।
केमोस्फेयर नाम के जर्नल में ‘आर्सेनिक एकुमुलेशन इन पेडी प्लांट्स ऐट डिफरेंट फेजेज ऑफ प्री-मानसून कल्टीवेशन’ नाम से छपे शोध में विस्तार से बताया गया है कि किस तरह मानसून से पहले बोई जाने वाली धान की फसल की सिंचाई आर्सेनिकयुक्त पानी से करने के कारण आर्सेनिक जमा होता और वह चावल तक पहुँचता है।
शोध के लिये उत्तर 24 परगना जिले के देगंगा ब्लॉक के 10 खेतों से नमूने जुटाए गए और कई स्तरों पर उनकी जाँच की गई। जाँच में पाया गया कि चावल में आर्सेनिक की मात्रा चिन्तनीय स्थिति में है।
हालांकि, ऐसा नहीं है कि अनाज खासकर धान में आर्सेनिक की उपलब्धता को लेकर पहले कभी शोध नहीं हुआ है। पहले भी कई शोध हो चुके हैं, लेकिन इस बार जो शोध किया गया है, वह कुछ मामलों में बिल्कुल नया है और इसमें कई नई चीजें सामने आई हैं।
शोध से जुड़े विशेषज्ञों ने बताया कि धान की बुआई से लेकर कटाई तक के तीन नमूने लिये गए थे। एक नमूना बुआई के चार हफ्ते बाद लिया गया। दूसरा नमूना 8 हफ्ते बाद और तीसरा नमूना फसल की कटाई के वक्त लिया गया।
स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट स्टडीज के डायरेक्टर और शोधकर्त्ताओं में शामिल तरित राय चौधरी कहते हैं, ‘शोध में धान का बीज लगाने के शुरुआती दौर में यानी 28 दिनों में पौधों में ज्यादा आर्सेनिक पाया गया। इसके बाद 29 से 56 दिनों की अवधि में पौधों में आर्सेनिक की मात्रा कम रही, लेकिन फसल की कटाई के समय दोबारा आर्सेनिक की मात्रा बढ़ गई।’
दरअसल, शुरुआती दौर में जड़ भारी मात्रा में आर्सेनिक संग्रह करती है जिस कारण पौधों में अधिक आर्सेनिक पाया जाता है। मध्य में जड़ में आयरन भी अधिक जमा हो जाता है, जो आर्सेनिक को सोख लेता है। इससे स्वाभाविक तौर पर पौधों में आर्सेनिक की मात्रा में कमी आ जाती है। तीसरे चरण में आयरन की क्षमता खत्म हो जाती है जिस कारण वह संग्रहित आर्सेनिक छोड़ने लगता है, जो जड़ों से होते हुए दोबारा पौधों में पहुँच जाता है।
तरित रायचौधरी कहते हैं, ‘फसल की तीन चरणों में शोध पहले कभी नहीं हुआ था। यह नया शोध है और इससे यह भी पता चलता है कि किस तरह फसलों में आर्सेनिक की मात्रा कम की जा सकती है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘शोध से पता चलता है कि आयरन में आर्सेनिक को सोखने की क्षमता है। यानी अगर धान की बुआई से लेकर कटाई तक अगर खेतों में आयरन का इस्तेमाल किया जाये, तो चावल में आर्सेनिक के प्रवेश को रोका जा सकता है।’
वह इस बात पर हैरानी भी जताते हैं कि अगर आयरन का हस्तक्षेप न होता, तो चावल में आर्सेनिक की मौजूदगी खतरनाक स्थिति में पहुँच जाती और इसका सेवन करने वाला कैंसर की चपेट में आ जाता।
चावल के अलावा धान के डंठल और चावल के खोल में भी आर्सेनिक पाये गए हैं। धान के डंठल और खोल का इस्तेमाल मवेशियों के चारे के रूप में किया जाता है। यानी कि मवेशियों के शरीर में भी आर्सेनिक प्रवेश कर रहा है।
उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना, दक्षिण 24 परगना, मालदा, मुर्शिदाबाद समेत कुल 9 जिलों के 79 ब्लॉकों में रहने वाले एक करोड़ से ज्यादा लोग आर्सेनिक के शिकंजे में हैं।
पश्चिम बंगाल में आर्सेनिक की शिनाख्त 3 दशक पहले वर्ष 1983 में ही कर ली गई थी।
बताया जाता है कि सबसे पहले उत्तर 24 परगना के बारासात और दक्षिण 24 परगना जिले के बारुईपुर में आर्सेनिक युक्त पानी मिला था। इसके बाद मुर्शिदाबाद, मालदा, नदिया व अन्य जिलों में इसकी मौजूदगी पाई गई। महानगर कोलकाता का दक्षिणी हिस्सा भी आर्सेनिक से अछूता नहीं है। कई ब्लॉकों के पानी में आर्सेनिक की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक से कई गुना अधिक पाई गई है।
पश्चिम बंगाल सरकार दावा करती है कि 90 फीसदी से ज्यादा लोगों को आर्सेनिकमुक्त पानी मुहैया कराया जा रहा है। सरकार का यह भी दावा है कि लोगों को साफ पानी उपलब्ध कराने के लिये हर साल सरकार लाखों रुपए खर्च कर रही है, लेकिन शोध में सामने आये तथ्य बता रहे हैं कि पानी ही नहीं अब तो खाने में भी आर्सेनिक है।
राज्य सरकार साफ पानी मुहैया कराने की योजनाओं पर भले ही लाखों रुपए खर्च करने का दावा कर रही है, लेकिन ये शोध बताते हैं कि जमीनी स्तर पर इसका फायदा नहीं मिल रहा है।
अगर लोगों को पीने के लिये साफ पानी मिल भी रहा है, तो चावल के माध्यम से उनके शरीर में आर्सेनिक प्रवेश कर रहा है। सरकार का इस तरफ कोई ध्यान ही नहीं है।
पश्चिम बंगाल में चावल प्रमुख भोज्य पदार्थ है। बंगाली समुदाय रोटी की जगह चावल को ज्यादा तरजीह देता है और यही वजह है कि पश्चिम बंगाल में चावल की खेती अधिक होती है।
पश्चिम बंगाल में 2.5 करोड़ टन धान का उत्पादन होता है, जिससे 1.5 करोड़ टन चावल निकलता है। बंगाल में उत्पादित होने वाले चावल की खपत बंगाल में ही ज्यादा हो जाती है। थोड़ा बहुत दूसरे राज्यों को निर्यात किया जाता है।
सोचने वाली बात यह है कि पश्चिम बंगाल के जिन जिलों में आर्सेनिक अधिक पाया जाता है वहाँ उपजने वाला चावल उन जिलों में भी जाता है, जहाँ चावल की खेती कम होती है। इसका मतलब है कि जिन जिलों के ग्राउंडवाटर में आर्सेनिक नहीं है, उन जिलों के लोगों के शरीर में भी चावल के माध्यम से आर्सेनिक जा रहा है। शहरी क्षेत्रों में लोगों के खान-पान का स्तर ठीक है जिस कारण उनमें रोगों से लड़ने की क्षमता अधिक होती है और वे आर्सेनिक से लड़ सकते हैं। लेकिन, ग्रामीण क्षेत्रों में यह सम्भव नहीं है, इसलिये ग्रामीण लोगों पर खतरा ज्यादा है।
दूसरी तरफ, जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसरों द्वारा किये गए एक अन्य शोध में अरवा और उसना चावल में आर्सेनिक अलग-अलग मात्रा में पाया गया है।
शोध में पता चला है कि अरवा चावल की तुलना में उसना चावल में आर्सेनिक की मात्रा अधिक पाई गई। इसके अलावा चावल से बनने वाले अन्य उत्पाद मसलन फरही, चूड़ा, आटा आदि में भी आर्सेनिक मिला है।
‘इम्पैक्ट ऑफ आर्सेनिक कॉन्टेमिनेटेड ग्राउंडवाटर यूज्ड ड्यूरिंग डोमेस्टिक स्केल पोस्ट हार्वेस्ट ऑफ पेडी क्रॉप इन बंगाल: आर्सेनिक पार्टिसिपेटिंग इन रॉ एंड परबॉयल्ट होल ग्रेन’ (Impact of Arsenic Contaminated Groundwater Used During the Domestic Scale Post Harvest of Paddy Crop in Bengal : Arsenic Participating in Raw and Peribault Hole Grain) नाम से छपे शोध में बताया गया है कि चावल से बनने वाले फरही, चूड़ा और आटा के साथ ही अरवा और उसना चावल नमूने के तौर पर लिये गए।
इन नमूनों की जाँच की गई, तो पाया गया कि इनमें आर्सेनिक है। खासकर जब अरवा और उसना चावल में आर्सेनिक की मात्रा की जाँच की गई, तो देखा गया कि प्रति किलोग्राम अरवा चावल में जितना आर्सेनिक है, उसना चावल में उसकी मात्रा 200 प्रतिशत से अधिक बढ़ी हुई है। एक किलोग्राम अरवा चावल में 66 माइक्रोग्राम आर्सेनिक मिला जबकि उसना चावल में 186 माइक्रोग्राम आर्सेनिक पाया गया।
दरअसल, अरवा चावल को तो उबाला नहीं जाता है, इसलिये उसमें आर्सेनिक की मात्रा कम रही। वहीं, उसना चावल को कई दफे उच्च तापमान पर उबाला जाता है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि उसना चावल बनाने के लिये धान को लम्बे समय तक पानी में उबाला जाता है। जिन क्षेत्र के ग्राउंडवाटर में आर्सेनिक है। वहाँ आर्सेनिकयुक्त पानी से ही धान को उबाला जाता है। इन क्षेत्रों में उगने वाले धान में पहले से ही आर्सेनिक मौजूद रहता है और उस पर आर्सेनिकयुक्त पानी से उसे लम्बे समय तक उबाल दिया जाता है, जिस कारण चावल में और आर्सेनिक प्रवेश कर जाता है।
अफसोस की बात ये है कि धान उगाने वाले किसानों को इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है, जिस कारण उनके स्तर पर किसी तरह का एहतियाती कदम नहीं उठाया जाता है। हालांकि, उनके पास वैसा संसाधन भी नहीं है कि वे कुछ कर पाएँ।
उनकी सारी उम्मीदें सरकार से है। लेकिन, सरकार की तरफ से बमुश्किल पीने के लिये साफ पानी मुहैया कराया जा रहा है और वह भी कहीं-कहीं।
पिछले दिनों बंगाल के कुछ स्कूलों के छात्रों की जाँच हुई थी, जिसका रिजल्ट हैरान करने वाला था। जाँच में पता चला था कि ज्यादातर बच्चों के शरीर में आर्सेनिक मौजूद था।
इन स्कूलों के शिक्षकों का कहना था कि यहाँ साफ पानी मुहैया कराने की कोई व्यवस्था नहीं की गई है, जिस कारण बच्चे स्कूल के ट्यूबवेल (इनसे आर्सेनिकयुक्त पानी निकलता है) से पानी पीने को विवश हैं। पानी के अलावा इन्हीं ट्यूबवेल के पानी से दोपहर का खाना भी बनता है। यानी कि खाने से लेकर पीने तक में आर्सेनिक उनके शरीर में जा रहा है।
यहाँ तक कि वे घर में जिस पानी का इस्तेमाल करते हैं, वे भी आर्सेनिकयुक्त ही हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार को कई मोर्चों पर गम्भीरता से काम करने की जरूरत है। पहला तो यह कि भूजल का इस्तेमाल बेहद सावधानी से किया जाना चाहिए। दूसरी बात ये कि बारिश के पानी के संचयन पर फोकस किया जाना चाहिए। बारिश के पानी में आर्सेनिक नहीं होता है, इसलिये सिंचाई में इसका इस्तेमाल करने से खाद्यान्न में आर्सेनिक के प्रवेश की आशंका नहीं के बराबर रहती है।
इसके अलावा आर्सेनिक प्रभावित इलाकों की शिनाख्त कर साफ पानी मुहैया कराने की कवायद तेज करनी चाहिए, ताकि समय रहते आर्सेनिक के दुष्परिणामों को रोका जा सके।