ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन ने बनाया बाँध

3 Nov 2015
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Brahmaputra river
Brahmaputra river

ब्रह्मपुत्र नदी पर हाइड्रोपावर परियोजना का चालू होना खतरे का संकेत है। सिर्फ सुरक्षा ही नहीं, चीन की इस परियोजना को लेकर पर्यावरणीय चिन्ताएँ भी हैं। सरसरी तौर पर देखने से यह भले ही चीन का आन्तरिक मामला और उसके विकास से जुड़ा दिखे लेकिन ऐसा है नहीं। भारत को इस पर गहरी चिन्ताएँ रही हैं और ये वाजिब हैं। दो साल पहले ही भारत सरकार के एक अन्तर-मंत्रालय विशेषज्ञ समूह ने कहा था कि ब्रह्मपुत्र नदी पर जिस बाँध को चीन बना रहा है, उससे इस नदी के बहाव के भारतीय हिस्से पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

ब्रह्मपुत्र नदी पर चीन द्वारा बाँध बनाने को लेकर भारत पहले भी कई बार आशंका जता चुका है। डेढ़ अरब अमेरिकी डॉलर (करीब 9764 करोड़ रुपए) की इस परियोजना से जल आपूर्ति में व्यवधान उत्पन्न होने की आशंका पर भारत की चिन्ता को चीन ने नजरअन्दाज करते हुए तिब्बत में सबसे बड़ी पनबिजली परियोजना का कार्य पूरा कर लिया है। इससे भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में पानी की आपूर्ति बाधित हो सकती है।

चीनी अखबारों के मुताबिक चीन सरकार ने कहा है कि वह भारत की चिन्ताओं पर गौर करेगा और इस सम्बन्ध में भारत के साथ सम्पर्क में रहेगा। चीन के वुहान में स्थित प्रमुख चीनी पनबिजली ठेकेदार 'चाइना गेझोउबा ग्रुप' ने सरकारी समाचार एजेंसी 'शिन्हुआ' को बताया कि केन्द्र की सभी छह इकाइयों का समावेश पावर ग्रिड में करा दिया गया है और इससे केन्द्र ने संचालन करना शुरू कर दिया।

शन्नान के ग्यासा काउंटी में स्थित जम हाइड्रो पावर स्टेशन को जांगमू हाइड्रोपावर स्टेशन के नाम से भी जाना जाता है। यह ब्रह्मपुत्र नदी के पानी का इस्तेमाल करता है। ब्रह्मपुत्र नदी को तिब्बत में यारलुंग जांगबो नदी के नाम से जाना जाता है। यह नदी तिब्बत से भारत आती है और फिर वहाँ से बांग्लादेश जाती है।

इस बाँध को विश्व की सबसे ज्यादा ऊँचाई पर बने पनबिजली केन्द्र के रूप में जाना जाता है। यह अपने किस्म की सबसे बड़ी परियोजना है, जो एक साल में 2.5 अरब किलोवाट-घंटे बिजली उत्पादन करेगी। भारत की चिन्ताओं के सन्दर्भ में चीन के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुआ चुनयिंग का बयान काबिलेगौर हैं।

उन्होंने कहा कि दोनों देश उच्च स्तरीय यात्राओं के दौरान उठे जल मुद्दों को लेकर एक-दूसरे के सम्पर्क में हैं। इसके साथ ही दोनों ओर के विशेषज्ञ एक-दूसरे के सम्पर्क में हैं। इस परियोजना से जहाँ चीन समेत तिब्बत के मध्य क्षेत्र में बिजली की कमी दूर होगी वहीं भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को पानी के लिये प्यासा रहना पड़ सकता है।

तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर बाँध को लेकर चीन का कहना है कि वह अपने इलाके में अन्तरराष्ट्रीय नियमों के तहत ही बाँध बनाया है। इससे भारत के हिस्से के पानी का बहाव नहीं रुकेगा।

ब्रह्मपुत्र नदी को लेकर चीन का रवैया शुरू से ही आक्रामक रहा है। भारत को बगैर औपचारिक जानकारी दिये बाँध बनाने की उसकी चाल दोतरफा है। एक तो इससे उसकी बिजली की जरूरतें पूरी होंगी, दूसरे इससे भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के आर्थिक हितों को नुकसान पहुँचेगा।

चीन और भारत के बीच पानी मुख्य सुरक्षा मुद्दे के तौर पर उभर रहा है। यह दोनों देशों के बीच विवाद का एक बड़ा कारण बना हुआ है। ऐसा इसलिये हो रहा है कि गंगा को छोड़कर एशिया की तमाम बड़ी नदियों का उद्गम चीनी नियंत्रण वाले तिब्बती क्षेत्र में है। यहाँ तक कि गंगा की दो प्रमुख सहायक नदियाँ भी यहीं से होकर आती हैं।

ब्रह्मपुत्र नदी पर हाइड्रोपावर परियोजना का चालू होना खतरे का संकेत है। सिर्फ सुरक्षा ही नहीं, चीन की इस परियोजना को लेकर पर्यावरणीय चिन्ताएँ भी हैं। सरसरी तौर पर देखने से यह भले ही चीन का आन्तरिक मामला और उसके विकास से जुड़ा दिखे लेकिन ऐसा है नहीं।

भारत को इस पर गहरी चिन्ताएँ रही हैं और ये वाजिब हैं। दो साल पहले ही भारत सरकार के एक अन्तर-मंत्रालय विशेषज्ञ समूह ने कहा था कि ब्रह्मपुत्र नदी पर जिस बाँध को चीन बना रहा है, उससे इस नदी के बहाव के भारतीय हिस्से पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। उस दौरान भारत सरकार ने आधिकारिक द्विपक्षीय वार्ताओं में इस मुद्दे को उठाया। मगर चीन से कोई सन्तोषजनक जवाब नहीं मिला। उसने सिर्फ इतना भर कहा कि चिन्ता की कोई जरूरत नहीं, यह बाँध ऐसा नहीं है, जिसमें पानी जमाकर रखा जाता है।

यह पनबिजली परियोजना का हिस्सा है, जिससे बहाव अप्रभावित जारी रहेगा। इसके बावजूद ऐसी आशंकाएँ कभी दूर नहीं हुई कि चीन इन बाँधों का उपयोग भारत और बांग्लादेश के हिस्से का पानी रोकने और कभी एक साथ ज्यादा पानी छोड़ने के लिये कर सकता है। इसके पीछे कारण चीन की नीतियाँ हैं। वह किसी भी पड़ोसी देश प्रति सदाशय नहीं रहा है।

कई साल पहले गुपचुप तरीके से ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे दागू, जियाचा और जिएक्सू में बाँध बनाने के प्रस्ताव को चीन की कैबिनेट ने मंजूरी दी थी। भारत को पहले तो कोई जानकारी नहीं दी गई, बाद में पोल खुलने पर चीन यह कहता रहा कि यह अध्ययन कर काम को आगे बढ़ाया जा रहा है कि परियोजना से ऊपर और निचले प्रवाह क्षेत्र में मौजूद देशों के हितों पर चोट नहीं पहुँचे।

चीन के इस आधिकारिक बयान के बावजूद आशंकाएँ कायम रहीं तो इसके कारण थे। एक तो चीन जो कहता है वह करता नहीं, दूसरे अगर वाकई हितों का ध्यान रखा जाता है तो प्रस्ताव मंजूरी से पहले भारत से इस सन्दर्भ में बातचीत होती। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। चीन पहले ही जांग्मू में 510 मेगावाट बिजली क्षमता वाली एक परियोजना के लिये बाँध बनाने में जुटा था। इस बाँध पर भी काम गुपचुप तरीके से किया गया और सेटेलाइट चित्रों से इसकी पोल खुली।

चीन और भारत के बीच पानी मुख्य सुरक्षा मुद्दे के तौर पर उभर रहा है। यह दोनों देशों के बीच विवाद का एक बड़ा कारण बना हुआ है। आज उसकी कुदृष्टि यारलंग सांगपो (ब्रह्मपुत्र का चीनी नाम) पर पड़ चुकी है और वह इंजीनियरिंग व तकनीकी कौशल से उसका पूरा पानी हड़प कर जाना चाहता है। इसके जरिए वह अपनी प्यास बुझाने में कम, हमें प्यासा मारने का ज्यादा इच्छुक है। इस नदी का पानी बड़े-बड़े टनलों द्वारा चीन येलो नदी तक ले जाना चाहता है, जो उसके अनुसार सूखने के कगार पर है।

चीन इस पानी का उपयोग अपने उद्योगों और राजधानी बीजिंग सहित अन्य नगरों की बढ़ती आबादी की प्यास बुझाने में करेगा। वहाँ के पूर्व राष्ट्रपति हू जिनताओ, जिनके दौर में सभी बाँधों की योजना परवान चढ़ी, खुद एक हाइड्रो इंजीनियर रहे हैं और उनकी इस परियोजना में खासी दिलचस्पी रही है। मजेदार बात तो यह है कि चीन ने अपनी इस परियोजना को मजबूरी के तौर पर पेश किया है।

तर्क यह दिया जा रहा है कि इसके कार्यान्वयन के बिना उसके सभ्यता की जननी येलो रिवर सूख जाएगी और उसके किनारे आबाद शहर वीरान हो जाएँगे। वैसे थोड़ी बहुत सामान्य ज्ञान की जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी बता सकता है कि हाल तक पानी की प्रचुर मात्रा और अपने अनियंत्रित रुख के कारण येलो रिवर को 'चीन का शोक' कहा जाता था।

अब ऐसी बड़ी नदी के एकाएक सूखने की खबर या तो झूठ है या अपने संसाधनों के अन्धाधुन्ध दोहन का नतीजा। जाहिर है, इसके जिम्मेदार हम नहीं जो ब्रह्मपुत्र का पानी खोकर इसका दंड भुगतें। चीन इस मामले में अड़ियल रवैया अपनाने की जिद में है। उससे सदाशयता की कल्पना इसलिये नहीं की जा सकती कि वह पहले भी मेकांग नदी के साथ ऐसा कर चुका है।

उसके जलस्रोत पर कब्जे का नतीजा यह हुआ कि थाइलैंड और लाओस, जहाँ चीन से यह नदी जाती थी, की जलविद्युत परियोजनाएँ बुरी तरह चरमरा गई। ज्ञात हो कि बाँध बनाने से जुड़ा मामला 2001, 2003 और 2007 में प्रमुखता से प्रकाश में आया था लेकिन भारत सरकार चुप बैठी रही और इसका ख़ामियाज़ा यह हुआ कि चीन बेरोकटोक बाँध बनाने की योजना में जुटा रहा। उस समय अगर सही प्रतिक्रिया की गई होती तो शायद जांग्मू में बाँध नहीं बनता।

चीन को अपने कदम वापस खींचने पड़ते। इस मामले में बांग्लादेश का भी साथ लिया जा सकता था क्योंकि ब्रह्मपुत्र नदी का प्रवाह क्षेत्र वहाँ भी है। चीन सतलज नदी से जुड़े हमारे समझौते का भी खुला उल्लंघन कर चुका है।

समझौते के मुताबिक इस नदी के चीनी प्रवाह क्षेत्र या आसपास के चीनी इलाके में अगर जल स्तर बढ़ा तो उसकी सूचना उसे हमें देनी थी, लेकिन 2005 में 'पारी छू' झील में पानी के बढ़ते जल स्तर की सूचना उसने हमें नहीं दी, फलस्वरूप हिमाचल में बाढ़ की नौबत आ गई और करोड़ों का नुकसान हुआ।

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