“बतरस” सामुदायिक शौचालय

Batras communal toilet
Batras communal toilet

विदर्भ में महिलाओं के लिये विशेष…


आज भी भारत के ग्रामीण इलाकों में लोग खुले में शौच जाते हैं, वे खुशी से नहीं जाते, बल्कि यह उनकी मजबूरी है। लेकिन खुले में शौच जाने की आदत सेनिटेशन और स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित नहीं है। ऐसी ही सोच के साथ महिलाओं की सुविधाओं का ध्यान रखते हुए आगे आए विकासखण्ड अधिकारी राजेन्द्र पाटिल.......यानी बीडीओ साहब। पर ये क्या! देउलगाँव की महिलाएं तो खुले में ही शौच जाना पसंद करती हैं, इसके पीछे उनका कहना है कि ‘समूह में जाने की वजह से उनका आपसी सामाजिक मेलजोल तो बढ़ता ही है, इसी बहाने परिवारिक काम के बोझ से थोड़ी मुक्ति भी मिल जाती है।‘ ऐसे में फिर क्या किया जाए?

विदर्भ क्षेत्र के बुलढाणा की मेहकर तहसील में विकासखण्ड अधिकारी ने गांव की औरतों के लिये “सामुदायिक शौचालयों” के निर्माण को सोची, कुछ जगह काम हो भी गए। पहले तो ये शौचालय सफ़ल नहीं हुए, इनमें गाँव की महिलायें आती ही नहीं थीं, बल्कि जंगल में जाना पसन्द करती थीं। ऐसे ही देउलगाँव में बीडीओ साहब ने जब सामुदायिक शौचालय बनवाने का प्रस्ताव रखा तो गांववालों ने एकदम नकार दिया, वे चाहते थे कि शौचालय स्थान को सिर्फ़ एक पक्की दीवार से घिरवा दें, बाकी खुला रखें। पाटिल इसके लिये राजी नहीं थे, क्योंकि उनके मुताबिक यह स्वच्छता की दृष्टि से ठीक नहीं था। इस मुद्दे पर ग्रामीणों और पाटिल के बीच काफ़ी गर्मागर्मी भी हुई।

जब दोनों पक्ष शांत हुए तब पाटिल ने गांववालों से मना करने की वजह पूछी तब महिलाओं ने बताया कि अगर वें गाँव के बाहर समूह में आ भी जायें तो एकल और दूर-दूर बने शौचालय की वजह से उन्हें आपस में बात करने का मौका नहीं मिलता और डर भी लगता है, जबकि जंगल में झाड़ियों के पीछे ऐसा कोई खतरा नहीं होता क्योंकि तब वे सब एक जगह होती हैं, खुली हवा में बातें करते हुए शौच करते हैं और इससे आपसी नेटवर्क भी मजबूत होता है और गाँव की विभिन्न समस्याओं पर चर्चा भी हो जाती है। इसीलिये जब तीन साल पहले कई कमरों वाले सामुदायिक शौचालय बनवाये गये थे तब भी महिलाओं ने दो माह में ही उनका उपयोग करना बन्द कर दिया था। तथाकथित सामुदायिक शौचालय उनके सामूहिकता और मेलजोल में बाधा उत्पन्न कर रहा था।

राजेन्द्र पाटिल को बात समझ में आ गई, दोनों पक्षों ने आपसी सहमति बनाई, एक-दूसरे की समस्याएं समझीं, हल यह निकला कि एक विशेष डिजाइन वाले सामुदायिक शौचालय बनाये जायेंगे। “अर्धवृत्ताकार शौचालय बनवाये गये, बीच की दीवार की ऊंचाई सिर्फ़ इतनी रखी गई कि जिसमें महिलाएं एक-दूसरे का चेहरा आसानी से देख सकें, दरवाजों की जरूरत नहीं थी क्योंकि महिलाओं ने इसके लिये मना कर दिया था। सुरक्षा और महिलाओं के लिये आरक्षित होने की वजह से इस शौचालय को एक बड़ी गोल दीवार से घेर दिया गया जिसमें सिर्फ़ एक दरवाजा रखा गया। इस बड़े शौचालय के लिये अलग से नलों की व्यवस्था नहीं रखी गई, बल्कि उसकी बजाय बीच में एक बड़ा पानी का हौद रखा गया ताकि पानी की बचत हो सके। इस पानी की टंकी को थोड़ी-थोड़ी देर में भर दिया जाता है, जबकि मल-मूत्र एकत्रित करने के लिये बाहर एक बड़ा खुला सेप्टिक टैंक निर्मित कर दिया गया, जिसमें वह प्राकृतिक रूप से “डी-कम्पोज़” हो जाता है।“

इस अधखुले शौचालय को “महिला गप्प शौचालय” नाम दिया गया यह प्रयोग काफी सफल रहा। गाँव की महिला कुसुम बाली बताती हैं, “यह बड़ा ही अच्छा अनुभव है, इसमें हम एक दूसरे से आसानी से बात कर सकते हैं, साथ ही खुली हवा में होने के कारण दम घुटने का अहसास नहीं होता।“ ग्राम पंचायत ने इसकी सफ़लता को देखते हुए शौचालय तक जाने का रास्ता कंक्रीट का बनवा दिया है, इस शौचालय में 24 घण्टे लाइट तथा पानी की व्यवस्था कर दी गई है, एक महिला सफ़ाईकर्मी इसकी चौकीदारी और साफ़-सफ़ाई के लिये रखी गई है।

इसकी सफ़लता को देखते हुए इसी प्रकार के दो और शौचालय गाँव में स्थापित किये जा चुके हैं,जबकि चौथा निर्माणाधीन है। प्रत्येक शौचालय में 13-15 शौच सीटें स्थापित की गई हैं जहाँ दिन भर में गाँव की लगभग 300 से अधिक महिलाएं निवृत्त होने आती हैं। राजेन्द्र पाटिल कहते हैं, “इस प्रकार की डिजाइन वाले शौचालय प्रत्येक गाँव में बनने चाहिये, क्योंकि पारम्परिक कमरे वाले सामुदायिक शौचालय के मुकाबले कम स्थान घेरता है और सामान्य कीमत (2.25 से 2.50लाख) के मुकाबले निर्माण खर्च भी दो-तिहाई ही रह जाता है।“

पुरुषों के लिये भी ऐसे ही शौचालय बनवाने की बात सोची जा रही हैं। ग्राम प्रधान किशोर गाभाने कहते हैं, “पानी की बचत करने की दृष्टि से हम यह शौचालय बनवायेंगे, भले इसमें दरवाजे लगाने पड़ें, लेकिन बीच की दीवारें तो कम ऊंचाई वाली ही रहेंगी। बीच में एक सेप्टिक टैंक और पानी की टंकी वजह से पानी की बचत होगी ही साथ ही पुरुषों को भी घर से जंगल तक पानी की बोतल अथवा डिब्बा उठाकर नहीं जाना पड़ेगा।“

शौचालयों की इस डिजाइन से आसपास के गाँवों में कौतुहल पैदा हो गया है। जिला पंचायत के मुख्य कार्य अधिकारी सदानन्द कोचे कहते हैं, पूरे जिले के ग्रामीण इलाकों से महिलाएं इसे देखने आ रही हैं, जलगाँव जिले की एक पाइप निर्माता कम्पनी “सुप्रीम इंडस्ट्रीज़” कुछ गाँवों में ऐसे शौचालय प्रायोजित करने के लिये तैयार भी हो गई है। इस नवीन प्रकार के डिजाइन वाले सामुदायिक शौचालयों ने यह भ्रम तोड़ दिया है कि ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक शौचालय सफ़ल नहीं हो सकते। सरकारी एजेंसियाँ हमेशा पानी की कमी, इनके रखरखाव सम्बन्धी समस्याओं का हवाला देकर टालमटोल करती रहीं, जबकि इसमें पानी की बचत ही है।

किशोर गाभाने सही कहते हैं, “यदि परम्पराओं और आम जनजीवन में लागू सामान्य क्रियाओं को सुविधाओं के साथ जोड़ दिया जाये तब उनका सफ़ल होना निश्चित है…”।
 

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