बुंदेलखण्ड का विकास, सूखा और पैकेज

42 यहां जंगल का जो अनुपात है महज 8 प्रतिशत है वह अब बढ़कर 10 साल में राज्य के औसत के बराबर हो जायेगा। यहां के पारम्परिक तालाब और जल संरचना पुर्नजीवित हो जायेगी, यह स्पष्ट होना चाहिये। जरूरी है कि इस इलाके के जल, जंगल और जमीन को नुकसान पहुंचाने वाले हर कार्यक्रम पर प्रतिबंध हो ताकि विनाश के रास्ते हम विकास की ओर न बढ़ें।

बुंदेलखण्ड की महागाथा हमें जो संदेश बार-बार दे रही है, उस संदेश के पकड़ने के लिये हमारा राजनैतिक नेतृत्व बिल्कुल तैयार नहीं दिखता है। बुंदेलखण्ड ने अपना इतिहास आप गढ़ा है। यही एक मात्र ऐसा इलाका था जो मुगल साम्राज्य के अधीन नहीं रहा क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों और बुनियादी जरूरतों जैसे अनाज-पानी-पर्यावरण के मामलों में यह आत्मनिर्भर राज्य था। इसी आत्मनिर्भरता ने बुंदेलखण्ड को स्वतंत्र रहने की ताकत दी। आज बुंदेलखण्ड के बारे में देश चिंतित हो गया है क्योंकि अपनी जीवटता से पनपा यह इलाका पिछले एक दशक में ज्यादातर साल सूखे की चपेट में रहा। यह सूखा पानी का नही जनकेंद्रित विकास के नजरिये के अभाव का है। यह एक राजनैतिक सवाल बना, जिसका जवाब एक विशेष आर्थिक पैकेज में खोजा गया। कुछ ही दिनों पहले निर्णय हुआ है कि मध्यप्रदेश के बुंदेलखण्ड इलाके को इस विशेष पैकेज के तहत 3627 करोड़ रुपए जैसी भारी भरकम राशि दी जा रही है। इस राशि में से छतरपुर को 918.22 करोड़ रुपए, सागर को 840.54 करोड़ रुपए, दमोह को 619.12 करोड़ रुपए, टीकमगढ़ को 503.12 करोड़ रुपए, पन्ना में 414.91 करोड़ और दतिया को 331 करोड़ रुपए मिलेंगे। विकास के नाम पर जब धन आता है, तो वह कुछ निहित स्वार्थ भी साथ लाता है।

बुंदेलखण्ड के विशेष पैकेज के तहत जल संसाधन (सिंचाई) पर 1118 करोड़ रुपए और जल प्रबंधन के लिए 1250 करोड़ रुपए खर्च होंगे परन्तु वन विकास के लिये महज 242.16 करोड़ रुपए का प्रावधान है। पैकेज के आर्थिक आकार से ज्यादा जो महत्वपूर्ण बात है वह यह कि बुंदेलखण्ड की खुशहाली का रास्ता दिल्ली और भोपाल के विशेषज्ञ और नौकरशाह तैयार करेंगे या फिर वास्तव में बुंदेलखण्ड के लोगों का अपना भविष्य रचने की स्वतंत्रता दी जायेगी। अब तक की प्रक्रिया तो यही संकेत देती है कि पैसा कहां, कैसे और कितना खर्च होगा, इस पर सरकार का ज्यादा नियंत्रण होगा। स्थानीय सहभागिता के बिना बुंदेलखण्ड के दिन पूरी तरह से फिरेंगे नहीं। इस इलाके में निवेश के लिये राज्य सरकार नें निजी कम्पनियों से 50000 करोड़ रुपए के करार किये हैं। इसके तहत सरकार नें उन्हे सड़क, बिजली, पानी उपलब्ध कराने का वायदा किया है। क्या यह वायदा विशेष पैकेज का उपयोग करके नही निभाया जायेगा!

बुंदेलखण्ड के मामले में सरकार का नजरिया कुछ अस्पष्ट और संशय भरा सा लगता है। वे बुंदेलखण्ड के विकास के लिये पैकेज दे रहे हैं या उसका सुनहरा अतीत वापस लौटाने के लिये यह साफ नहीं है। मध्यप्रदेश सरकार सूखे के तर्क दे-दे कर यहां ऐसे औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने का वातावरण तैयार करती रही है जो बुंदेलखण्ड के ऐतिहासिक मर्म को खत्म कर देगा। यहां सीमेंट और खनिज के लिये खदानों की बेतरतीब ढंग से अनुमतियां दी जा रही है। 'रियोटिंटो' नामक बहुराष्ट्रीय कम्पनी को बुंदेलखण्ड के 10 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में हीरे की तलाश करने की अनुमति दी जा चुकी है। पिछले पखवाड़े ही चीन में इसी कम्पनी पर चीन सरकार के अफसरों को रिश्वत देकर खदानों की अनुमतियां लेने का आरोप सिद्ध हुआ है। सरकार का मकसद इस आर्थिक पैकेज से सड़कों का जाल बिछा देने का है ताकि उद्योगों को परिवहन की सुविधायें मिल सकें। साथ ही बांधों से बिजली उत्पादन और सिंचाई के साधन भी हासिल करने की मंशा है। सवाल यह है कि क्या खदानों, सीमेंट, उद्योग और सड़कों से बुंदेलखण्ड की बदहाली को दूर किया जा सकेगा? मध्यप्रदेश सरकार मानती है कि यदि केन्द्र सरकार जल्दी-जल्दी पर्यावरणीय अनापत्ति प्रमाण पत्र देती जाये तो बुंदेलखण्ड का दर्द उतनी ही जल्दी दूर होता जायेगा। इन अनापत्तियों का मतलब है जंगल काटने, नदियों को मारने, जैव विविधता को खत्म करने की अनुमति!

भारत सरकार के सिंचाई एवं विद्युत मंत्रालय के एक अध्ययन के मुताबिक बुंदेलखण्ड में बारिश का 131021 लाख घनफीट पानी हर साल उपलब्ध रहता है पर इसमें से महज 14355 लाख घन मीटर पानी ही उपयोग हो पाता है यानि पूरी क्षमता का 10.95 प्रतिशत उपयोग में लिया जाता है। यह इलाका पहले भी प्रकृति के प्रकोपों से जूझता रहा। पानी का संकट वहां इसलिये रहा कि वहां की भौगोलिक और जमीनी स्थितियां बारिश के पानी को टिकने नहीं देती है। वहां जमीन में पत्थर भी है और कुछ इलाकों में उपजाऊ नरम जमीन भी। इसीलिये बुंदेलखण्ड के समाजों और राजसत्ता ने तालाबों के निर्माण को तवज्जो दी और ऐसी फसलों को अपनाया जिनमें कम पानी लगता है। यही कारण है कि यहां अनाज उत्पादन बढ़ा और समाज आत्मनिर्भर हुआ। जंगल के मामले में पिछले दो दशकों में यह इलाका अभिशप्त सा हो गया है। तीस लाख हेक्टेयर (मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश के बुंदेलखण्ड) क्षेत्र में फैले इस अंचल में कुछ छह लाख हेक्टेयर में जंगल रह गया है, 24 लाख हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि है पर मात्र 4 लाख हेक्टेयर की ही सिंचाई हो पा रही है। खेती के विकास के लिये सिंचाई, मिट्टी प्रबंधन और जल संरक्षण की ऐसी योजनायें नहीं बनाई गई जिनका प्रबंधन कम खर्च में समाज और गांव के स्तर पर ही किया जा सके। बड़े-बड़े बांधों की योजनाओं के कारण 30 हजार हेक्टेयर उपजाऊ जमीन बेकार हो गयी। मध्यप्रदेश के इस इलाके में केवल 8 फीसदी जमीन पर जंगल है जबकि राज्य का औसत 20 प्रतिशत है। यहां वन क्षेत्र बढ़ाने के बजाय ऐसे उद्योगों को बढ़ावा दिया जा रहा है जो बचे-खुचे जंगल को बर्बाद कर देंगे। और जलस्रोतों को गहरा नुकसान पहुँचायेंगे। कम क्षेत्र में जंगल होने के कारण धरती की सतह की उपजाऊ मिट्टी लगातार बहती गई। यहां घास, पेड़ और गहरी जड़ें न होने के कारण बीहड़ का दायरा भी खूब तेजी से बढ़ रहा है। लगभग 2.60 लाख हेक्टेयर जमीन अब बीहड़ में बदल रही है। जब जल प्रबंधन की व्यवस्था टूटी तो नीतिगत स्तर पर नलकूपों के जरिये भू-जल के दोहन को प्राथमिकता दी जाने लगी। बारिश के दिन कम होने के कारण वहां पानी रुकता नहीं है और बह जाता है। साथ में बहा ले जाता है जीवन की संभावनाएं!

यहां दालों का उत्पादन हो सकता है, जो देश की जरूरत है; यहां के पान उत्पादक संकट में हैं और भूमिहीन को जमीन की दरकार है। अब बदहाली का पलायन लोगों की जिंदगी का कड़वा सच बन गया है। गैर सामाजिक विकास को शाश्वत सत्य नहीं माना जाना चाहिये। सरकार की कारगुजारियों पर नजर रखने वाले कुत्तों (वॉच डाग) को यह देखना होगा कि सार्वजनिक संसाधनों (जैसे सरकार के खर्चे पर) का उपयोग निजी कम्पनियों के फायदे और आर्थिक हितों को संरक्षित करने में न किया जाये। बुंदेलखण्ड की बेहतरी का सूचक यह होना चाहिये कि वहां से पिछले साल जैसे साढ़े पांच लाख लोगों को बदहाली में रोजागर की तलाश में पलायन करना पड़ा; वह अब नहीं करना पड़ेगा। वे खुद के आजीविका के साधन विकसित कर पायेंगे और वे आत्मनिर्भर हो जायेंगे। यहां जंगल का जो अनुपात है महज 8 प्रतिशत है वह अब बढ़कर 10 साल में राज्य के औसत के बराबर हो जायेगा। यहां के पारम्परिक तालाब और जल संरचना पुर्नजीवित हो जायेगी, यह स्पष्ट होना चाहिये। जरूरी है कि इस इलाके के जल, जंगल और जमीन को नुकसान पहुंचाने वाले हर कार्यक्रम पर प्रतिबंध हो ताकि विनाश के रास्ते हम विकास की ओर न बढ़ें।
 

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