बुरहानपुर की मुगलकालीन जलप्रदाय व्यवस्था

मध्यकाल में भारत में कई शहरों का विकास हुआ जिनमें कुछ शहर प्रांतों की राजधानी थे, कुछ व्यापार या शिल्प के केन्द्र थे और कुछ सैनिक मह्त्त्व के शहर थे। इन विशाल शहरों में उस समय जलपदाय की कुशल व्यवस्था थी और उसके लिए प्राकृतिक नियमों और उस समय प्रचलित तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता था। मध्यप्रदेश को ही लें, तो पन्द्रहवीं और सोलहवीं सदी में माण्डू एक विशाल शहर था और वहाँ जलसंग्रहण की पारम्परिक व्यवस्था तो थी ही, शासक और अभिजात्य वर्ग के विशाल आवासों में पानी पहुंचाने की कारगर व्यवस्था थी। वहाँ के बाजबहादुर महल, जहाजमहल और चम्पा बावड़ी में पानी के प्रदाय की व्यवस्था के अवशेष अभी भी मौजूद हैं। असीर गढ़ के किले में बारिश के पानी को जलाशयों और आवासों में पहुंचाने की कुशल व्यवस्था थी। इसी प्रकार एक नायाब उदाहरण है बुरहानपुर शहर, जहाँ मुगलों के जमाने में 19वीं सदी के शुरूआत में जलप्रदाय की उत्कृष्ट व्यवस्था निर्मित की गयी, जो सदियों की लापरवाही औऱ विनाश के बावजूद अभी भी बुरहानपुर शहर की पानी की जरूरत पूरी करने में योगदान दे रही है।

जलप्रदाय की यह व्यवस्था बुरहानपुर के गौरवपूर्ण अतीत का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्मारक है। जहाँगीर के शासन काल में अब्दुर्रहीम खानखाना की सूबेदारी के समय बुरहानपुर में एक कुशल जलप्रदाय प्रणाली के निर्माण की शुरुआत हुई। इस प्रणाली का विस्तार आगे आने वाले शासकों के समय भी होता रहा। बुरहानपुर की इस जल-प्रदाय प्रणाली के अवशेष आज भी हैं और भी बुरहानपुर शहर के पेयजल की जरूरत का करीब चौथाई हिस्सा इस व्यवस्था से पूरा हो रहा है। जलप्रदाय की इस अद्भुत प्रणाली के जो अवशेष आज बुरहानपुर में मिलते हैं वे मुगलों के जमाने की सिविल इंजीनियरी और नगर नियोजन का अच्छा परिचय देते हैं। इसे स्थानीय रूप से खूनी भण्डारा कहा जाता है लेकिन खूनी भण्डारा तो पूरी प्रणाली का एक हिस्सा है।

यह व्यवस्था इसलिए करनी पड़ी कि मुगलों का शासन शुरू होते ही जो शान्ति व्यवस्था कायम हुई उससे बुरहानपुर का व्यापार बढ़ने लगा और उसकी आबादी भी बढ़ने लगी। सूबे का मुख्यालय होने के साथ वह तीव्र सैनिक गतिविधियों और व्यापार-वाणिज्य का केन्द्र हो गया। विशाल मुगल सेनाएँ लम्बे समय तक वहाँ पड़ाव डाले रहती थीं और कभी-कभी तो सेना में चार-पाँच लाख सैनिक भी होते थे। मुगलों का शासन स्थापित होने के बाद सूरत बन्दरगाह के जरिए आयात और निर्यात का व्यापार बढ़ा और इस व्यापार का प्रमुख मार्ग बुरहानपुर होकर जाता था। व्यापार में लगे कारवाँ यहाँ रुकते थे। इन सबके लिए बुरहानपुर में पानी का पर्याप्त इतजाम नहीं था, बुरहानपुर से होकर ताप्ती नदी बहती तो पर जैसा कि विदेशी यात्रियों के विवरण से ज्ञात होता है, उसका पानी साफ नहीं रहता था। दूसरे ताप्ती नदी के कगार इतने ऊँचे थे की उतनी ऊँचाई तक पानी चढ़ाकर शहर के विभिन्न हिस्सों तक पहुंचाना कठिन काम था और खर्चीला भी। बुरहानपुर से लगा था बहादुरपुर, जो उस समय व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। वहाँ भी पानी की समुचित व्यवस्था नहीं थी। इस कारण बुरहानपुर शहर में पानी की और भी किल्लत हो जाती थी। पानी की इस कमी का निदान करना जरूरी था।

इसके लिए तबकात-उल-अर्ज याने भूतत्व विज्ञान के अधिकारियों ने शहर के विस्तार और उसकी जरूरतों का ख्याल रखकर एक जलप्रदाय की विराट प्रणाली निर्मित की। ‘कनात’ नाम से जानी जाने वाली यह प्रणाली ईरान-इराक से आयातित की गयी थी। मध्यकाल की यह प्रणाली ईरान में आज भी प्रचलित है और इसे ‘कनात’ के नाम से जाना जाता है। चूँकि मुगलों का ईरान से नजदीक का रिश्ता था इसलिए मुगलों के समय भारत में उपयोग के लिए सार्वजनिक उपयोग की तकनीकों का वहां से आयात हुआ करता था। ईरान में प्रचलित इस जलप्रदाय प्रणाली का विस्तृत विवरण ‘कैम्ब्रिज ज्याग्राफी ऑफ ईरान’ में दिया गया है। जल प्रदाय के वहाँ तीन स्रोत हैं- कनात, कुएँ और नदी-नाले। पीने का पानी जहाँ तक संभव होता है कनात से प्राप्त किया जाता है। क्योंकि इससे जो पानी प्राप्त होता है वह कम से कम गंदा होता है और इसके द्वारा पानी बड़ी तादाद में काफी दूर तक ले जाया जा सकता है। कनात से सिंचाई भी होती है।

उक्त पुस्तक में उत्तर पूर्वी ईरान के नगर मशहद के पास के कस्बे नीलदार में बनायी गयी कनात का विवरण इस प्रकार दिया गया है- वहाँ जो पहला कुआँ खोदा गया उसमें 80 मीटर पर पानी मिला। वहाँ से 100 मीटर दूर ढलान की तरफ दूसरा कुआँ खोदा गया। इन दोनों कुओं को एक सुरंग द्वारा जोड़ दिया गया। फिर ढलान की तरफ अगला कुआँ खोदा गया और उसे भी सुरंग से जोड़ दिया गया। ढलान के कारण हर अगला कुआँ (या बुरहानपुर की भाषा में कुंडी) कम गहरा होता जाता था। जैसे-जैसे कुआँ कम गहरा होता जाता था उनकी पारस्परिक दूरी क्रमशः कम होती जाती थी। ये कुण्डियाँ या कुँए पानी तक ताजा हवा पहुंचाते थे और कनात बनाने वाले कारीगरों औऱ बाद में मरम्मत करने वाले को नीचे पहुंचाने में सहायक होते थे। बाद-बाद की कुण्डियाँ 30 मीटर की दूरी पर बनायी गयी थीं। ढलान की तरफ आती हुई कनात याने सुरंग अंत में जमीन की सतह पर याने जमीन के ऊपर आकर खुलती थी। इस स्थान को ‘मजहर-ए-कनात’ कहा जाता है और यहीं से अक्सर मैदान में बस्तियाँ विकसित होती हैं। कई बार गाँव अपने नीचे से गुजरने वाली कनात का उपयोग कर लेता है। इसके उदाहरण के रूप में उपर्युक्त पुस्तक में मरघानान गाँव का उल्लेख किया गया है। गाँव में कनात तक पहुंचने के लिए पचास-साठ सीढ़ियों वाला कुआँ बनाया गया है और तल में इतनी जगह बनायी गयी है कि तीन-चार स्त्रियाँ नहा-धो सकें।

ईरान के बीलदार गाँव में कनात का पानी पहले एक हौज में ले जाया जाता है फिर वहाँ से वह सिंचाई की नहरों को जाता है, जहाँ एक कर्मचारी पानी के बहाव को नियंत्रित करता है और खेतों की जरूरत के अनुसार पानी देता है। पानी की पूर्ति कम होने पर वह सिर्फ पीने के लिए और बगीचों की सिंचाई के काम आता है। जिन गाँवों के पास नदी बहती है वे नदी के पानी और कनात के पानी का इस्तेमाल करते हैं। उक्त पुस्तक में कनात प्रणाली का उपयोग करने वाले 21 गाँवों का उल्लेख किया गया है जो मशहद नगर के पास है। ये गाँव हैं-कलात-ए-शैखहा, बीद-ए-बीद, कलात-ए आली, काशिफ, शहर-ए-हशक, पीयानी, देहनौ, बीलदार, नौशहर, गुलिस्तां, चहरबुर्जे, मर्दाकिशान, हाज्जाबाद, कासिमाबाद, नस्त्रबाबाद, महदियाबद, खियाबान, तेल-ए-गिर्द, आब-ए-शूर, मरघानान और खानरूद। मशहद के सिंचाई विभाग में कनात प्रणाली और उससे मिलने वाले पानी की तादाद का पूरा लेखा-जोखा है। जिससे लोगों को दिए जाने वाले पानी पर सही नियंत्रण रखा जा सकता है। आब-ए-शूर गाँव को दिये जाने वाली कनात तो साठ किलोमीटर से ज्यादा लंबी है, पर उसकी सुरंग में हाल में प्रयोग के रूप में धातु के पाइप डाले गये हैं जिससे ज्यादा बारिश होने पर वे सुरक्षित रहें।

अब हम बुरहानपुर की मध्यकालीन जल प्रदाय प्रणाली पर नजर डालें। बुरहानपुर से कुछ किलोमीटर दूर फैली सतपुड़ा पर्वत श्रेणियों से ताप्ती नदी की ओर बहने वाले भूमिगत जल स्त्रोतो को जमीन के भीतर तीन स्थानों पर रोककर पानी एकत्र किया गया। पानी की इन बावड़ियों को भंडारा कहा गया है। बुरहानपुर के धरातल की तुलना में ये तीनों भंडारे या बावड़ियाँ पर्याप्त ऊँचाई पर थे। इन भंडारों के नाम हैं- सूखा भण्डारा, मूल भण्डारा और चिंताहरण। ये सभी भंडारे बुरहानपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में है। इन भण्डारों में भूमिगत पानी एकत्र किया जाता है और भूमिगत सुरंगों से इन्हें जाली कारंज तक पहुंचाया जाता है, जहाँ से पानी मिट्टी और तराशे हुए पत्थरों के पाइपों द्वारा शहर को पानी पहुंचाया जाता है।

इन तीन जलाशयों से बुरहानपुर औऱ बहादुरपुर तक पानी पहुंचाने के लिए जो चैनल या प्रवाह-समूह बनाए गये थे उनमें से आठ चैनलों के अवशेष मिलते हैं पर इनमें से दो नष्ट हो चुके हैं। जो 6 चैनल बचे हुए हैं वे पानी की भूमिगत सुरंगों से भूमिगत गैलरियों से जुड़े हैं और ऐसे बने हैं कि पास की पहाड़ियों से भुमिगत जल रिसकर इन तक आ सके। इनमें से तीन चैनल बुरहानपुर शहर को पानी पहुंचाते हैं, दो बहादुरपुर कस्बे को और एक रावरतन हाड़ा के महल को। बहादुरपुर और रावरतन हाड़ा के महल को जाने वाले चैनल संभवतः 1690-1710 में बनाए गये थे।

भूमिगत सुरंगों से होकर बहने वाले जल तक हवा आने-जाने के लिए एवं सुरंग में एकत्र होने वाले गाद एकत्र करने वाली व्यवस्था तक पहुंचने के लिए सुरंगों में अनेक वायु-कूपक या कुएँ थोड़ी-थोड़ी दूर पर बनाए गये हैं जो ऊपर से खुले हैं। ये वायुकूपक कुण्डियों के नाम से जाने जाते हैं और भूमि के एक मीटर ऊपर तक बनाए गये हैं। ऊपर से देखने पर नीचे बहता पानी दिखता है। इन कुण्डियों से मिलने वाली हवा सुरंगों से होकर बहने वाले जल को स्वच्छ रखने में सहायक होती थी। इसके अलावा इन कुण्डियों से सुरंग की सफाई भी की जा सकती थी। ये कुण्डियाँ लगभग 20-20 मीटर दूर बनायी गयी हैं और बहुधा गोलाकार हैं और 1.2 से 1.8 मीटर तक व्यास की हैं। उल्लेखनीय हैं कि ये कुण्डियाँ अपने जलस्त्रोत के उद्गम के जलस्तर की ऊँचाई के बराबर बनायी गयी हैं। कहीं-कहीं चौकोर कुण्डियाँ भी बनायी गयी हैं। पानी ले जाने वाली सुरंगें लगभग 80 सेमी चौड़ी हैं औऱ इतनी ऊँची हैं कि औसत ऊँचाई का आदमी उस पर सरलता से चल सके। संभवतः सफाई और मरम्मत के काम के लिए सुरंगें इतनी ऊँची बनायी गयी थीं। यह बात साफ है कि यह प्रणाली पानी के गुरूत्वाकर्षण पर आधारित है यानी पानी भण्डारों से निकलकर ढलान पर शहर की तरफ बहता है और उसके लिए कोई बाहरी ऊर्जा की जरूरत नहीं होती।

अब थोड़ा भंडारों का विवरण। सूखा भण्डारा या तिरखुटी एक भूमिगत जलाशय के रूप में है और जमीन से 30 मीटर नीचे बना है। प्राकृतिक चट्टानों को सहारा देने के लिए चूना गारे की करीब एक मीटर मोटी दीवार बनायी गयी है। पानी इस दीवार से, उसमें बने सुराखों से और चट्टानों से रिसकर जलाशय याने भण्डारा में एकत्र होता है। सूखा भण्डारा का पानी मूलतः पनवाड़ियों, लालबाग के बागों या मुगल सूबेदार के बगीचों की सिंचाई के लिए प्रयुक्त होता था। सन् 1880 में इसका पानी तीन इंच मिट्टी की पाइप लाइन द्वारा तिरखुटी कारंज से जाली करंज तक नगर की ओर भी लाया गया।

मूल भण्डारा बुरहानपुर शहर से 10 किलोमीटर दूर लालबाग की दिशा में एक नाले के तट पर है। यह 15 मीटर गहरा हौज है और पत्थर की चिनाई करके निर्मित किया गया है। और इसकी 10 मीटर ऊँची चारों दीवारें ईंट-पत्थर से बनी हैं। यहाँ से पानी भूमिगत सुरंग द्वारा आगे जाकर चिंताहरण का पानी लाने वाली सुरंग से मिलता है। इस संगम तक अलग-अलग दूरी पर 15 कुण्डियाँ याने वायुकूप बने हैं। ऐसा माना जाता है कि मूल भण्डारा और सूखा भण्डारा की जल प्रणालियाँ 1640 के लगभग बनी थीं। मूल भंडारा के तीन चैनलों से महल और नगर के मध्य भाग में जलपूर्ति की जाती थी। यह पानी करीब 3900 मीटर लंबी सुरंग से जाता था।

चिंताहरण जलाशय मूल भण्डारा के पास ही एक मौसमी नाले के पास है। 80 मीटर वर्ग का यह खुला जलाशय 20 मीटर गहरा है और पत्थर की चिनाई से निर्मित किया गया है। यहाँ से भी भूमिगत सुरंगों द्वारा पानी आगे जाता था और सुरंगों पर कुण्डियाँ बनी हैं। मुगलों के समय इससे बुरहानपुर शहर को पानी प्रदाय किया जाता था। अंग्रेजों के समय इससे भूमिगत सुरंगों द्वारा मूल भण्डारा की सुरंग से जोड़ा गया था और फिर इस मिलन बिन्दु से पानी सुरंग द्वारा खूनी भण्डारा को भेजा जाने लगा।

खूनी भण्डारा शहर से 5 किलोमीटर दूर लालबाग की दिशा में है। जैसा कि ऊपर बाताया गया है, इसे चिंताहरण और मूल भंडारा के जलाशयों से जल प्राप्त होता है। यहाँ पानी जमीन से करीब 10 मीटर नीचे एकत्र होता है। खुनी भण्डारा में 3.60 मीटर की ऊँचाई तक पत्थर की चिनाई है और उसके ऊपर पतली ईंट की चिनाई। जमीन के ऊपर के निर्माण की चिनाई मोटी ईंटों की है। खूनी भण्डारा से निकली सुरंग पर भी 18 से 30 मीटर की दूरी पर वायुकूपक या कुण्डियाँ हैं। खूनी भण्डारा की भूमिगत नालियाँ कालांतर में खराब हो जाने के कारण बुरहानपुर नगर पालिका ने ढलवाँ लोहे के पाइप लगा दिये। जिनके माध्यम से यहाँ का पानी लालबाग स्थित ‘जाली करंज’ पहुंचता है।

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