भारत के लिये लाभकारी भी हो सकता है धरती का बढ़ता तापमान


दो दशक पहले प्रिंस्टन विश्वविद्यायल के एक शोध में बताया गया था कि जिस तरह से धरती पर कार्बन की मात्रा बढ़ रही है उससे अनुमान है कि धरातल पर तापमान में 20 डिग्री तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इससे भारत सहित उत्तरी व पूर्वी अफ्रीका, पश्चिम एशिया आदि इलाकों में बारिश की मात्रा बढ़ेगी, जबकि अमेरिका, रूस सहित पश्चिमी देशों में बारिश कम होगी। अनुमान है कि इस बदलाव से आने वाले 50 सालों में भारत सहित वर्षा सम्भावित देशों में खेती सम्पन्न होगी संयुक्त राष्ट्र की वैश्विक पर्यावरण पूर्वानुमान कमेटी ने एक बार फिर चेतावनी दी है कि जिस तरह से धरती का तापमान बढ़ रहा है उससे सन 2050 तक समुद्र के किनारे बसे दुनिया के दस शहरों में तबाही आ सकती है। इसमें भारत के मुम्बई, कोलकाता जैसे शहरों पर भी गम्भीर खतरा बताया गया है।

अनियोजित विकास, बढ़ती आबादी और जलवायु परिवर्तन के चलते समुद्र में पानी की मात्रा बढ़ेगी और इस विस्तार से तटों पर बसे शहर तबाह हो सकते हैं। हालांकि यह कोई नई या पहली बार दी गई चेतावनी नहीं है।

फरवरी 1981 में रायल स्विस सोसायटी के तत्वावधान में स्टॉकहोम में सम्पन्न एक गोष्ठी में कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती मात्रा पर चिन्ता व्यक्त की गई थी। हाँ बस उस गोष्ठी में यह तथ्य सामने आया था कि कार्बन की मात्रा बढ़ने का फायदा भारत सहित एशिया के कई देशों व अफ्रीकी दुनिया को होगा।

विडम्बना है कि अत्याधुनिक मशीनों, कार्बन उर्जा के अन्धाधुन्ध इस्तेमाल से दुनिया का मिजाज बिगाड़ने वाले पश्चिमी देश अब भारत व तीसरी दुनिया के देशों पर दबाव बना रहे हैं कि धरती को बचाने के लिये कार्बन उत्सर्जन कम करें। हालांकि आज भी भारत जैसे देशों में इसकी मात्रा कम ही है।

कोई दो दशक पहले प्रिंस्टन विश्वविद्यायल के एक शोध में बताया गया था कि जिस तरह से धरती पर कार्बन की मात्रा बढ़ रही है उससे अनुमान है कि धरातल पर तापमान में 20 डिग्री तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है। इससे भारत सहित उत्तरी व पूर्वी अफ्रीका, पश्चिम एशिया आदि इलाकों में बारिश की मात्रा बढ़ेगी, जबकि अमेरिका, रूस सहित पश्चिमी देशों में बारिश कम होगी।

अनुमान है कि इस बदलाव से आने वाले 50 सालों में भारत सहित वर्षा सम्भावित देशों में खेती सम्पन्न होगी। इन इलाकों में खेत इतना सोना उगलेंगे कि वे खाद्य मामले में आत्मनिर्भर हो जाएँगे तथा आयात पूरी तरह बन्द कर देंगे। यह भी सही है कि कार्बन डाइऑक्साइड के कारण तापमान में बढ़ोत्तरी के चलते अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड और आर्कटिक प्रदेशों में बर्फ पिघलेगी। समझा जाता है कि वहाँ से इतनी बर्फ पिघलेगी कि विश्व में सागर का जलस्तर तीन से 18 मीटर तक ऊपर उठेगा और इससे 10 प्रतिशत तटीय भूमि जलमग्न हो सकती है।

धरती में कार्बन का बड़ा भण्डार जंगलों में हरियाली के बीच है। पेड़, प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से हर साल कोई सौ अरब टन यानि पाँच फीसदी कार्बन वातावरण में पुनर्चक्रित करते हैं। आज विश्व में अमेरिका सबसे ज्यादा 1,03,30,000 किलो टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है जो कि वहाँ की आबादी के अनुसार प्रति व्यक्ति 7.4 टन है। उसके बाद कनाडा प्रति व्यक्ति 15.7 टन, फिर रूस 12.6 टन हैं ।

जापान, जर्मनी, द.कोरिया आदि औद्योगिक देशों में भी कार्बन उत्सर्जन 10 टन प्रति व्यक्ति से ज्यादा ही है। इसकी तुलना में भारत महज 20 लाख सत्तर हजार किलो टन या प्रति व्यक्ति महज 1.7 टन कार्बन डाइऑक्साइड ही उत्सर्जित करता है। अनुमान है कि यह 2030 तक तीन गुणा यानि अधिकतम पाँच तक जा सकता है। इसमें कोई शक नहीं कि प्राकृतिक आपदाएँ देशों की भौगोलिक सीमाएँ देखकर तो हमला करती नहीं हैं।

चूँकि भारत नदियों का देश है, वह भी अधिकांश ऐसी नदियाँ जो पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से बनती हैं, सो हमें हरसम्भव प्रयास करने ही चाहिए। प्रकृति में कार्बन की मात्रा बढ़ने का प्रमुख कारण है बिजली की बढ़ती खपता। सनद रहे हमारे द्वारा प्रयोग में लाई गई बिजली ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है।

ईंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है। हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिये उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होगा। फिर धरती पर बढ़ती आबादी और उसके द्वारा पेट भरने के लिये उपभेाग किया गया अन्न भी कार्बन बढ़ोत्तरी का बड़ा कारण है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।

यहाँ एक बात और गौर करने वाली है कि भले ही पश्चिमी देश इस बात से हमें डरा रहे हों कि जलवायु परिवर्तन से हमारे ग्लेशियर पिघल रहे हैं व इससे हमारी नदियों के अस्तित्व पर संकट है, लेकिन वास्तविकता में हिमालय के ग्लेशियरों का आकार बढ़ रहा है। हमारे पाँच से 10 वर्ग किलोमीटर आकार के किछकुंदन, अख्ताश और च्योंकुंदन के अलावा अन्य सात बगैर नाम वाले ग्लेशियरों का आकार साल-दर-साल बढ़ रहा है।

कोई चार साल पहले तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को भी दाल में कुछ काला लगा था और उन्होंने विदेशी धन पर चल रहे शोध के बजाय वीके रैना के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल को हिमनदों की हकीकत की पड़ताल का काम सौंपा था। इस दल ने 25 बड़े ग्लेशियरों को लेकर गत 150 साल के आँकड़ों को खंगाला और पाया कि हिमालय में ग्लेशियरों के पीछे खिसकने का सिलसिला काफी पुराना है और बीते कुछ सालों के दौरान इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं देखने को मिला है।

पश्चिमी हिमालय की हिंदुकुश और कराकोरम पर्वत शृंखलाओं के 230 ग्लेशियरों के समूह समस विकसित हो रहे हैं। पाकिस्तान के के-2 और नंदा पर्वत के हिमनद 1980 से लगातार आगे बढ़ रहे है। जम्मू-कश्मीर के केंग्रिज व डुरंग ग्लेशियर बीते 100 सालों के दौरान अपने स्थान से एक इंच भी नहीं हिले हैं।। सन 2000 के बाद गंगोत्री के सिकुड़ने की गति भी कम हो गई है।

इस दल ने इस आशंका को भी निर्मूल माना था कि जल्द ही ग्लेशियर लुप्त हो जाएँगे व भारत में कयामत आ जाएगी। यही नहीं ग्लेशियरों के पिघलने के कारण सनसनी व वाहवाही लूटने वाले आईपीसीसी के दल ने इन निष्कर्षों पर ना तो कोई सफाई दी और ना ही इस का विरोध किया।

जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय के प्रो. आरके गंजू ने भी अपने शोध में कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने का कारण धरती का गरम होना नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो पश्चिमोत्तर पहाड़ों पर कम और पूर्वोत्तर में ज्यादा ग्लेशियर पिघलते, लेकिन हो इसका उलटा रहा है।

इसमें कोई शक नहीं कि ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियर हमारे लिये उतने ही जरूरी है जितना साफ हवा या पानी, लेकिन यह भी सच है कि अभी तक हम इन तीनों मसलों के अनन्त सत्यों को पहचान ही नहीं पाये हैं और पूरी तरह पश्चिमी देशों के शोध व चेतावनियों पर आधारित अपनी योजनाएँ बनाते रहते हैं।

ग्लेशियर हमारे देश के अस्तित्व की पहचान हैं और इनका अस्तित्व मौसम के चक्र में आ रहे बदलाव पर काफी कुछ निर्भर है। हमें यह समझना होगा कि कुछ पश्चिमी देश इस अभेद संरचना के रहस्यों को जाननेे में रुचि केवल इस लिये रखते हैं ताकि भारत की किसी कमजोर कड़ी को तैयार किया जा सके।

इसी फिराक में ग्लोबल वार्मिंग व ग्लेशियर पिघलने के शोर होते हैं और ऐसे में शोध के नाम पर अन्य हित साधने का भी अन्देशा बना हुआ है। ऐसे अन्तरविरोधों व आशंकाओं के निर्मूलन का एक ही तरीका है कि राज्य में ग्लेशियर अध्ययन के लिये सर्वसुविधा व अधिकार सम्पन्न प्राधिकारण का गठन किया जाय जिसका संचालन केन्द्र के हाथों में हो।

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