भारत में वनों का वितरण


हमारे देश में लोगों की वनों के प्रति विशेष रुचि न होने, वन व्यवस्था अवैज्ञानिक होने प्रशिक्षित कर्मचारियों के अभाव, वनोपज सम्बंधी शोध कार्य की कमी तथा वन दोहन के तकनीकी ज्ञान की अनभिज्ञता इत्यादि के कारण वनों का विकास सम्भव नहीं हो पाया है।

वन, परिस्थितियों के मुख्य आधार होनेे के साथ-साथ मानव की आजीविका के स्रोत भी हैं। खाना पकाने के लिये ईंधन की लकड़ी, खेती/पशुपालन के लिये चारा-पत्ती इत्यादि वनों से ही प्राप्त होते हैं। वर्तमान में तकरीबन 3.5 लाख से अधिक व्यक्ति वन, सम्बंधित विभिन्न कार्य कलापों से जुड़े हुए हैं तथा राष्ट्रीय आय का 2 प्रतिशत भाग हमें वनों से ही प्राप्त होता है।

प्राकृतिक वनस्पति के तीन प्रकारों-1. वन 2. घास तथा 3. झाड़ियों में सबसे अधिक महत्त्व वनों का ही है। वनों से ही जलवायु का नियमन होता है। वनों से नमी रहने के कारण तापमान कम हो जाता है तथा जलवायु में परिवर्तन होने से वर्षा होती है। वर्षा के जल का बहाव वनों के कारण कम होने से बाढ़, भूस्खलन और भू-अपरदन नहीं होने पाता तथा इससे भूमिगत जल स्तर में वृद्धि होती है। यही नहीं वन ठंडी हवाओं, आंधी तूफान इत्यादि को भी रोकने में सहायक होते हैं। वृक्षों से गिरी सूखी पत्तियाँ जमीन में सड़कर खाद का काम देती है जिससे उर्वरा शक्ति में बढ़ोत्तरी होती है। वनों में कई प्रकार की वनस्पतियाँ, जड़ी बूटी तथा दुर्लभ जीव-जन्तु पाए जाते हैं। वनों की हरियाली, प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करती है जिससे पर्यटन को बढ़ावा मिलता है एवं राष्ट्रीय आय में वृद्धि होती है।

भूतकाल में हमारे देश में काफी घने जंगल थे। आबादी तथा विकास की तीव्र वृद्धि के कारण इन जंगलों का धीरे-धीरे विनाश होता आया, जिस कारण अनेक भू-भाग अब वृक्ष विहीन हो गए हैं। पर्वतीय क्षेत्र में जंगल अब गाँवों से दूर होते जा रहे हैं। वहाँ की महिलाओं को घास-पात, लकड़ी व पानी लाने के लिये काफी दूर जाना पड़ रहा है। यही नहीं वनों की कमी से बाढ़, भू-स्खलन, भू-कटाव इत्यादि प्राकृतिक प्रकोपों में वृद्धि हो रही है। साथ ही जलवायु में प्रतिकूल प्रभाव पड़ने के कारण कई स्थानों की जलवायु शुष्क हो गई है तथा भूमि मरुस्थल में तब्दील होती जा रही है। वनों में कमी आने के कारण पशुओं हेतु चारा प्राप्त करने में भी कठिनाई हो रही है। फलतः दुग्ध व्यवसाय प्रभावित हो रहा है।

भारत में उष्ण कटिबन्ध एवं शीत कटिबन्ध जलवायु पाए जाने से वर्षा तापमान तथा स्थलाकृतियों में काफी असमानता पाई जाती है। इसी कारण प्राकृतिक वनस्पति भी भिन्न-भिन्न स्थानों पर झाड़ियों, घास के मैदानों तथा जंगलों के रूप में पाई जाती हैं, 200 सेंटीमीटर से अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सदा-बहार चौड़ी पत्ती वाले वन पाए जाते हैं, जिनमें लताएं, गुल्म, एवं झाड़ियाँ पाई जाती हैं। 100 से 200 सेंटीमीटर वर्षा वाले भागों में पर्णपाती मानसूनी वन पाए जाते हैं। इन वनों में रोजवुड़, सागवान, चीड़ साल के वृक्ष पाए जाते हैं, 50-100 सेंटीमीटर वर्षा वाले शुष्क भागों में कंटीली प्रजाति के वृक्ष-बबूल खेजड़ा इत्यादि पाए जाते हैं। तथा 50 सेंटीमीटर से कम वर्षा वाले क्षेत्र में अर्द्ध मरुस्थलीय वन पाये जाते हैं। भारत के कुल वन क्षेत्रों में 93 प्रतिशत उष्ण कटिबन्धीय वन तथा 87 प्रतिशत शीतोष्ण वन पाए जाते हैं। इसमें से 95.7 प्रतिशत वन राज्य सरकारों, 2.8 प्रतिशत निगमों तथा शेष 1.5 प्रतिशत निजी संस्थानों के अधिकार में हैं।

वनों का वर्गीकरण


भारत के वनों का वर्गीकरण अनेक विद्वानों ने किया है जिनमें प्रमुखतः एस.एस. चैम्पियन, डा. स्पेट तथा डा बी. पुरी इत्यादि का प्रयास सराहनीय है। सामान्यतया जलवायु के आधार पर वनों को निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

1. हिमालय प्रदेशीय अथवा पर्वतीय वन


इस प्रकार के वन उच्च स्थलाकृति वाले हिमालय क्षेत्र में पाए जाते हैं। इस प्रदेश में विभिन्न ऊचाईयों के अनुसार वनों की प्रजातियों में भी भिन्नता पाई जाती है। अधिक ऊँचाई वाले भागों में कोणधारी नुकीली पत्ती वाले वन पाए जाते हैं जो कि 17-18 मीटर से अधिक ऊँचे होते हैं। निचले भागों में चौड़ी पत्ती वाले वन पाए जाते हैं जिसकी ऊँचाई साधारणतया 6 से 9 मीटर के आस-पास होती है। हिमालय के पूर्वी भाग असम, मणिपुर और पं. बंगाल में अधिक वर्षा होने के कारण घने वन पाए जाते हैं। हिमालय के इन वनों को आठ उपभागों में विभक्त किया जा सकता है।

उष्ण कटिबंधी सदाबहार वन
इस प्रकार के वन असम में पाए जाते हैं ये वन काफी घने होते हैं। इनमें मुख्य प्रजातियाँ जामुन, बेंत, कदम, इरूल, रोजवुड, हल्दू, पागर, चम्पा तथा जंगली आम इत्यादि पाई जाती हैं।

उष्ण कटिबंधी शुष्क पतझड़ वाले वन
यह वन समस्त हिमालय क्षेत्र की तलहटी में पाए जाते हैं। इनमें मुख्य प्रजातियाँ सागवान, रोजवुड़, अमलताश, पलाश, बांस, सैटनवुड, हल्दू इत्यादि पाई जाती है।

चौड़ी पत्ती वाले वन
पं. बंगाल तथा असम हिमालय के निचले ढलानों पर इस प्रकार के वन पाए जाते हैं। इनमें मैचिलस, मैलेसिमा तथा जामुन इत्यादि की प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

उप-उष्ण कटिबंधी चीड़ के वन
River (Gad Ganga) and Ecology Revive in Ufaraikhal, Bironkhal, Pauri-Garhwal, UK, Indiaउत्तर पश्चिम हिमालय में 1000 मीटर से 1800 मीटर की औसत ऊँचाई में यह वन पाए जाते हैं। इस प्रकार के वनों में अधिकांशतः चीड़ के ही वन पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त जामुन, बांज, बुंराश की भी प्रजातियों पाई जाती है।

उप-उष्ण कटिबंधी शुष्क सदाबहार वन
इस प्रकार के वनों में छोटी-छोटी झाड़ियाँ इत्यादि पाई जाती हैं। शिवालिक पर्वत तथा पश्चिमी हिमालय क्षेत्र में 1000 मीटर से ऊपर के भागों में इस प्रकार के वन पाए जाते हैं। इन वनों में पाई जाने वाली मुख्य प्रजातियाँ खैर, कीकर, बबूल इत्यादि हैं।

पर्वतीय मध्यम नम जलवायु
इस प्रकार के वन पूर्वी हिमालय क्षेत्र में पं. बंगाल के उच्च पहाड़ी भाग में पाए जाते हैं जिनमें दालचीनी, भोजपत्र, जूनियर, सितबरफर, पांगर इत्यादि प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

हिमालय मध्यम नम जलवायु
नुकीली पत्ती वाले यह वन समूचे हिमालय भाग में कश्मीर, हिमालय प्रदेश, उ.प्र. बंगाल के पर्वतीय क्षेत्र तथा सिक्किम में 1500 मीटर से 3,000 मीटर की ऊँचाई के बीच में पाए जाते हैं- इनमें महत्त्वपूर्ण प्रजातियाँ-बाज देवदार, फर, स्पूस, कैल, पांगर, चिलगोजा इत्यादि पाई जाती हैं।

अल्पाइन वन
कश्मीर में ‘मर्ग’ तथा उत्तराखंड में बुगयाल नाम से प्रचलित ये अल्पाइन घास के मैदान हिमालय क्षेत्र में 3,000 मीटर से अधिक ऊँचाई में पाए जाते हैं जिनमें विभिन्न प्रकार की झाड़ियाँ, फर्न, घास, रंग-बिरंगे पुष्प तथा सुगन्धित जड़ी-बूटियाँ इत्यादि पाई जाती है।

2. उष्णार्द्र सदाबहार वन


200 सेंटीमीटर की औसत वर्षा तथा 25 के तापमान वाले क्षेत्र में इस प्रकार के वन पाए जाते हैं। उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्वी हिमालय के पाद प्रदेश, दक्षिण में पश्चिमी घाट के ढलान, अन्नामलाई, नीलगिरी, केरल, कर्नाटक तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में इस प्रकार के वन पाए जाते हैं। पश्चिमी घाटों में 450 मीटर से 1,300 मीटर की ऊँचाई तथा असम में 1,00 मीटर की ऊँचाई में यह वन पाए जाते हैं। इन वनों में जंगली आम, रोजवुड, बांस, ताड़, महोगनी, रबड़ इत्यादि वृक्ष बहुतायात से पाए जाते हैं। इन वृक्षों की ऊँचाई सामान्यतया 30 से 40 मीटर तक अथवा उससे अधिक होती है।

3. आर्द्र मानसून वन


इस प्रकार के वन पंजाब से असम तक हिमालय के वाह्य ढलानों पर मिलते हैं जहाँ औसतन 100-200 सेंटीमीटर औसत वर्षा होती है। दक्षिण में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तमिलनाडु, कर्नाटक, केरल के शुष्क भागों तथा उत्तर में उत्तर प्रदेश व बिहार पूर्व में पं. बंगाल, उड़ीसा तथा पश्चिम में पंजाब राज्यों में यह वन फेले हुए हैं। इन वनों में सागौन, आम, पलाश, साल, लालचन्दन, साख, तेंदू, शहतूत इत्यादि की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इन वनों पर लाख बीड़ी चमड़ा रंगने तथा कागज बनाने के उद्योग आधारित हैं।

4. उष्णार्द्र पतझड़ वाले वन


इस प्रकार के वन प्रायद्वीपीय भारत के मध्य भागों में प्रमुखता से पाए जाते हैं। इसके अलावा उत्तर पश्चिम में हरियाणा, पंजाब से मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक राज्यों में भी यह वन पाए जाते हैं। आंशिक रूप से यह वन काबेरी, कृष्णा, गोदावरी, ताप्ती, नर्मदा, चम्बल नदियों के आस-पास भी पाए जाते हैं। दक्षिण में नीलगिरी की पहाड़ियों पर 1,800 मीटर तक सतपुड़ा की पहाड़ियों पर 1,000 मीटर तथा पूर्वी ढाल पर 1,500 मीटर तक यह वन पाए जाते हैं। इन वनों में मुख्य प्रजातियाँ लारेल, खेर, साल, बांस, मैग्नेलिय चैस्टनेट के वृक्ष बहुतायात से पाए जाते हैं।

5. मरुस्थलीय वन


शुष्क प्रदेश के न्यून वर्षा वाले क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहाँ पाए जाने वाले वनों को उष्ण कटिबन्धीय शुष्क कंटीले वन भी कहा जाता है। यहाँ पाई जाने वाली वनस्पतियों में झाड़ियों की अधिकता होती है जिनकी औसत ऊँचाई 6 से 9 मीटर के मध्य होती है। इन वृक्षों की जड़े काफी मोटी तथा गहराई तक होती हैं ताकि वे जल के अभाव में भू-गर्भ के जल को सोखकर अपने तनों में संचित कर सकें। इन झाड़ियों की पत्तियाँ बहुत छोटी अथवा काँटों के रूप में होती है ताकि जल का कम-से-कम वाष्पीकरण हो सके। मुख्यतया उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र में इस प्रकार की प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त दक्षिण प्रायद्वीप के शुष्क भागों, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र व गुजरात के कुछेक हिस्सों में भी इस प्रकार के वन पाए जाते हैं- बबूल, कीकर, खेजड़ा नागफनी, खजूर खैर तथा रामबांस की प्रजातियाँ इस प्रकार के क्षेत्रों में पाई जाती हैं।

दलदली वन


ज्वारभाटा वन नाम से भी पुकारे जाने वाले ये वन डेल्टाई तथा पूर्वी घाट के तटीय भागों में बिखरे हुए पाए जाते हैं। दलदली मिट्टी के कारण यहाँ पाए जाने वाले वृक्षों में नमी सोखने की शक्ति होती है। इन पेड़ों की ऊँचाई 30-35 मीटर के आस-पास होती है। इस प्रकार के वन गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, गोदावरी आदि नदियों के डेल्टाई भाग में पाए जाते हैं। गंगा, ब्रह्मपुत्र के डल्टाई भाग में ‘सुन्दरी’ नाम के वृक्षों की प्रजाति पाई जाती है जिस कारण यहाँ के वनों को सुन्दर वन भी कहा जाता है। इन भागों में नारियल, ताड़, रोजीफोरा, फोनिक्स व केवड़ा आदि की प्रजातियाँ प्रमुख रूप से पाई जाती है।

वनों का वितरण


संग्रहित आँकड़ों के अनुसार वर्तमान समय में भारत की 7,70,078 वर्ग किलोमीटर भूमि वन क्षेत्र से ढकी हुई है जोकि कुल भू-भाग का 2,343 प्रतिशत है। जबकि वास्तविक रूप में वन क्षेत्र इससे कहीं कम है। भारतीय वन सर्वेक्षण, देहरादून द्वारा लैण्ड सैट से प्राप्त छायाचित्रों तथा भू-निरीक्षण से प्राप्त आँकड़ों के अनुसार भारत में वास्तविक वनों का क्षेत्र 6,33,982 वर्ग किलोमीटर (कुल भू-भाग का 19.44 प्रतिशत) है।

भारत के सभी राज्यों में वनों का वितरण समान रूप से नहीं हैं जिसके कई मुख्य कारण हैं- राजस्थान में 3.7 प्रतिशत पंजाब में 2.7 प्रतिशत हरियाणा में 1.2 प्रतिशत तथा गुजरात में 6.1 प्रतिशत वन हैं। इन क्षेत्रों में कम वर्षा होने के कारण वन बहुत कम पाए जाते हैं। साथ ही हरियाणा तथा पंजाब में पूर्वकाल में खेती के लिये जंगलों का सफाया कर दिया गया, जिससे वन क्षेत्र में कमी आ गई। कमोबेश यही स्थिति पं. बंगाल (9.0 प्रतिशत), उ.प्र. (11.4 प्रतिशत) तथा बिहार (15.3 प्रतिशत) राज्यों में भी है। जहाँ वन भूमि अधिकाशतः कृषि भूमि में तब्दील की गई जबकि इन राज्यों के पर्वतीय क्षेत्रों में तथा बिहार के नागपुर पठारी क्षेत्र में उच्च भौगोलिक स्थिति वर्षा का अधिकता के कारण वनों की अधिकता है। जम्मू कश्मीर (9.0 प्रतिशत) में वनों का प्रतिशत कम होने के कई कारण हैं जिसमें प्रमुख कारण कम वर्षा, तीव्र बंजर ढलान तथा बर्फ से ढकी हुई चोटियों का होना है। महाराष्ट्र (14.3 प्रतिशत), कर्नाटक (16.8 प्रतिशत), आंध्र प्रदेश (17.2 प्रतिशत) तथा तमिलनाडु (13.6 प्रतिशत) प्रदेशों का अधिकांश भाग वृष्टिछाया प्रदेश के अन्तर्गत होने के कारण इन प्रदेशों में भी वनों की कमी है। आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के समुद्र तटीय क्षेत्रों में जहाँ सघन वर्षा होती है वहाँ जंगलों को साफ करके खेती की भूमि में परिवर्तित कर दिया गया है। हिमालय क्षेत्र के प्रदेशों तथा मध्य के उच्च पठारी भागों में अन्य राज्य-क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक वन पाए जाते हैं। सघन वर्षा, उच्च भौगोलिक स्थिति तथा अन्य प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण ही मिजोरम (89.4 प्रतिशत), नागालैण्ड (86.4 प्रतिशत), अरुणाचल प्रदेश (82.1 प्रतिशत), मणिपुर (79.2 प्रतिशत), मेघालय (70.8 प्रतिशत), सिक्किम (42.8 प्रतिशत), त्रिपूरा (52.8 प्रतिशत), असम (31.3 प्रतिशत), हिमाचल प्रदेश (21.2 प्रतिशत), तथा मध्य प्रदेश (30.6 प्रतिशत) व उड़ीसा (30.3 प्रतिशत) प्रदेश में वनों का प्रतिशत सबसे अधिक है।

उपरोक्त विवरणों के आधार पर यह कहा जा सकता है। कि भारत में वनों की स्थिति अच्छी नहीं है। पाश्चात्य देशों की तुलना में यहाँ प्रति व्यक्ति वन क्षेत्र बहुत ही कम है। हमारे देश में लोगों की वनों के प्रति विशेष रुचि न होने, वन व्यवस्था अवैज्ञानिक होने प्रशिक्षित कर्मचारियों के अभाव, वनोपज सम्बंधी शोध कार्य की कमी तथा वन दोहन के तकनीकी ज्ञान की अनभिज्ञता इत्यादि के कारण वनों का विकास सम्भव नहीं हो पाया है। निष्कर्ष रूप में इन वनों के सुधार तथा विकास हेतु निम्न कदम उठाए जा सकते हैं-सरकार को चाहिए कि प्रत्येक प्रदेश के लिये वन क्षेत्र की न्यूनता निर्धारित करे तथा इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु योजनाएं बनाकर कार्य करे, नैसर्गिक रूप से हमारे देश में कई स्थानों पर बेकार पड़ी भूमि (खेती के अयोग्य) मौजूद हैं, जिस पर वृक्षों को रोपित किया जा सकता है। वन क्षेत्र की उस भूमि पर जहाँ अब वन नहीं है, उस स्थान पर भी वन लगाए जाने चाहिए। तालाबों, नहरों, सड़कों, रेलमार्गों के किनारों पर वृक्षारोपण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। इस दिशा में सरकार, वन विभाग, स्वैच्छिक संस्थाएँ, विश्वविद्यालय/कॉलेज/स्कूल के छात्र व स्थानीय ग्रामीण जन महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसके अलावा वन अनुसंधान संस्थान वन विभाग, वन निगम, भारतीय वन सर्वेक्षण, रिमोट, सेंसिंग सेंटर इत्यादि संस्थानों को समय-समय पर वनों की जाँच-पड़ताल, अनुसंधान तथा विकास हेतु सतत कार्य किया जाना चाहिए। साथ ही वनों के प्रति व्यवसायिक दृष्टिकोण को प्रबल किया जाना चाहिए। जिससे लोगों को आय प्राप्त होने के साथ ही उनमें वनों के प्रति जागरूकता भी बढ़ सकेगी। स्थानीय स्वैच्छिक संस्थानों को ग्राम स्तर पर वनों के प्रति शिक्षा व पर्यावरण में उसके महत्त्व तथा वनों के सुधार व विकास हेतु प्रयोगात्मक रूप में कार्य करना चाहिए ताकि वनों के प्रति लोगों का नया दृष्टिकोण सामने आ सके।

सम्पादकीय सहायक, ‘शेरपा संदेश’ क.नं.- 826, आठवां तल, जवाहर भवन, लखनऊ-226001

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