भारत पर मँडरा रहा गुम हुए प्लूटोनियम का खतरा

बेस कैम्प जहाँ प्लूटोनिम कैप्सुल्स खो गए
बेस कैम्प जहाँ प्लूटोनिम कैप्सुल्स खो गए

बेस कैम्प जहाँ प्लूटोनियम कैप्सुल्स खो गए (फोटो साभार - मेंस एक्सपी)अभी हाल ही में हॉलीवुड की एक फिल्म आई है। नाम है- मिशन इम्पॉसिबल: फॉलआउट। फिल्म की कहानी प्लूटोनियम की एक बड़ी खेप तक खलनायकों की पहुँच को रोकने के मिशन पर आधारित है। फिल्म में मुख्य किरदार टॉम क्रूज ने निभाया है।

प्लूटोनियम तक अगर खलनायक पहुँच जाएगा, तो वह उससे (प्लूटोनियम) भारत, चीन और पाकिस्तान पहुँचने वाले पानी को प्रदूषित कर देगा, जिससे करोड़ों लोगों की मौत हो जाएगी।

फिल्म पूरी तरह काल्पनिक कहानी पर आधारित है और जैसा कि अधिकतर फिल्मों में होता है, इस फिल्म में बुराई पर अच्छाई की जीत होती है।

‘मिशन इम्पॉसिबल: फॉलआउट’ की यह काल्पनिक कहानी भारत पर मँडराते असली खतरे की याद दिलाती है और संयोग से फिल्म के तार भारत से भी जुड़ते हैं।

भारत पर यह खतरा पिछले कई दशकों से मँडरा रहा है, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि इस खतरे को टालने पर कभी भी गम्भीरता से विचार किया ही नहीं गया।

भारत को यह खतरा पाँच दशक पहले नंदा देवी पर्वत शृंखला में गुम हुए उन प्लूटोनियम-238 और 239 भरे 7 कैप्सुल्स से है, जो करोड़ों लोगों को कैंसर का मरीज बना सकता है।

इसके खतरे का अन्दाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि हिरोशिमा पर गिराए गए ‘फैट मैन’ परमाणु बम बनाने में जितने प्लूटोनियम लगे थे, उससे महज एक किलोग्राम कम प्लूटोनियम नंदा देवी में गुम हुआ है।

घटना 70 के दशक की है। भारत और चीन के बीच हुए युद्ध में चीन के हाथों भारत की शर्मनाक हार हुई थी और पूर्वी व पश्चिमी मुल्कों के बीच शीत युद्ध परवान पर था। हर देश चाहता था कि वह खुद को परमाणु बमों से लैस कर ले और प्रतिद्वंद्वी देशों को आँखें तरेरे।

इसी बीच सन 1964 में चीन ने जिनजियांग प्रान्त में पहला परमाणु परीक्षण कर दुनिया को हैरत में डाल दिया था।

अमरीका समेत तमाम देश चीन के इस परीक्षण से सकते में आ गए थे और उन्हें अन्देशा होने लगा था कि चीन आने वाले वर्षों में खुद को ऐसे ही घातक बमों से लैस कर लेगा, जिससे शक्ति सन्तुलन बिगड़ सकता है।

ऐसे में अमरिका ने तय किया कि चीन की इस तरह की तमाम गतिविधियों पर वह नजर रखेगा। इसके लिये अमरिकी खुफिया एजेंसी सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) के साथ मिलकर उत्तराखण्ड के चमोली में स्थित भारत की दूसरी सबसे ऊँची चोटी नंदा देवी पर रिमोट सेंसिंग डिवाइस लगाने का फैसला लिया।

नंदा देवी का चुनाव इसलिये किया गया था कि इसकी चोटी से जिनजियांग से आगे तक की गतिविधियों पर नजर रखी जा सकती थी।

इस डिवाइस को लगाने के लिये भारी-भरकम उपकरणों को 7816 मीटर (नंदा देवी की ऊँचाई) ऊपर ले जाना था। भारी-भरकम मशीनों में 56 किलोग्राम के एक उपकरण के अलावा 8 से 10 फीट ऊँचा एंटीना, दो ट्रांसीवर और न्यूक्लियर ऑक्जिलरी पॉवर जेनरेटर शामिल थे। इनके अलावा 7 कैप्सुल्स में 5 किलोग्राम प्लूटोनियम भरकर लाया गया। प्लूटोनियम पावर जेनरेटर के लिये बिजली मुहैया कराने का काम करता और प्रतिकूल मौसम में भी जेनरेटर चलता रहता, इसलिये प्लूटोनियम के इस्तेमाल का निर्णय लिया गया था।

वैसे मुख्य मिशन को अंजाम देने से पहले अलास्का की पर्वत चोटी पर प्रायोगिक तौर पर ऐसे ही यंत्र लगाए गए गए थे। इसमें भी भारतीय व अमरिकी एक्सपर्ट मौजूद थे। अलास्का का प्रयोग सफल होने के बाद नंदा देवी की चोटी पर इस डिवाइस को इंस्टॉल करने का काम शुरू हुआ।

इन वजनी उपकरणों को सही-सलामत चोटी तक ले जाना दुरूह कार्य था। इसके लिये स्थानीय पर्वतारोहियों, सीआईए तथा आईबी के अफसरों, विशेषज्ञों को मिलाकर 200 लोगों की एक मजबूत टीम तैयार की गई। टीम का नेतृत्व करने का जिम्मा मिला कैप्टन मनमोहन सिंह कोहली को।

उस वक्त इस मशीन को दुनिया का सबसे बड़ा मिशन बताया गया था। इसकी वजह थी 200 लोगों की टीम। इसमें खर्च भी बहुत हुआ था। कहते हैं कि टीम में शामिल लोगों को सीआईए की तरफ से वे जैकेट मुहैया कराए गए थे, जिनका इस्तेमाल अन्तरिक्ष में जाते वक्त वैज्ञानिक किया करते हैं।

बहरहाल, 18 अक्टूबर 1965 को सभी जरूरी उपकरण लेकर टीम 7239 मीटर (कैम्प-4) तक पहुँच गई। वहाँ से नंदा देवी चोटी महज 577 मीटर दूर थी।

टीम के सदस्य चोटी को देख पा रहे थे और मिशन को लगभग पूरा मान चुके थे। लेकिन ऐन वक्त बर्फानी तूफान आ गया और मौसम बेहद खराब हो गया। मौसम इतना खराब था कि अगर वे वहाँ थोड़ी देर भी रुक जाते, तो हिम समाधि ले लेते।

नतीजतन, कोहली ने मिशन को स्थगित कर देने की घोषणा की और सारे उपकरण वहीं छोड़कर लौट जाने को कहा। पूरी टीम सही-सलामत लौट आई।

करीब छह महीने तक इन्तजार करने के बाद मई 1966 में अधूरा मिशन पूरा करने के लिये टीम के कुछ सदस्य और एक अमरिकी वैज्ञानिक ने दोबारा वहाँ जाने का फैसला लिया।

हालांकि, तब तक टीम के सदस्यों और खुद कोहली इस नतीजे पर पहुँच चुके थे कि नंदा देवी की चोटी पर पहुँचना मुश्किल है और खुफिया मशीन लगाने की ही बात है, तो उसे किसी छोटे पर्वत पर भी लगाई जा सकती है।

आखिर में यह तय किया गया कि नंदा देवी से उपकरण उतारे जाएँगे और उन्हें पास के 6861 मीटर ऊँचे पर्वत नंदा कोट पर स्थापित किया जाएगा।

उपकरण वापस लाने के लिये टीम नंदा देवी पर्वत के कैम्प-4 पर पहुँचे, तो उनके पैरों के नीचे की जमीन ही खिसक गई। वहाँ न तो एंटीना था, न जेनरेटर और न ही प्लूटोनियम से भरे कैप्सुल। था तो बस बर्फ।

हैरानी की बात ये थी कि जिस नंदा देवी पर्वत शृंखला में प्लूटोनियम कैप्सुल गुम हुआ, वहीं ऋषि गंगा का उद्गम स्थल है, जो आगे जाकर गंगा में मिल जाती है।

गंगा भारत की जीवनरेखा है। ऐसे में यह खयाल ही रोंगटे खड़े कर देता है कि अगर प्लूटोनियम गंगा नदी में मिल जाएगा, तो क्या होगा।

हालांकि, मानने वाले इस खयाल को अव्यावहारिक या काल्पनिक मान सकते हैं। लेकिन, सच यही है कि वे कैप्सुल नंदा देवी में ही कहीं दबे पड़े हैं और किसी भी समय बाहर निकलकर करोड़ों लोगों की जिन्दगी तबाह कर सकते हैं।

कैप्सुल्स में प्लूटोनियम से बेखबर थे कोहली

नंदा देवी पर रिमोट सेंसिंग डिवाइस स्थापित करने का पूरा मिशन बेहद सावधानी से और एहतियात बरतते हुए अंजाम दिया गया था।

नन्दा देवी पर्वत शृंखलानन्दा देवी पर्वत शृंखला (फोटो साभार - लाइवमिंट) कहा तो यह भी जाता है कि टीम के अधिकतर सदस्यों को यह नहीं बताया गया था कि कैप्सुल में जो रसायन है, उससे परमाणु बम बनता है।

प्लूटोनियम की तासीर गर्म होती है, इसलिये कैप्सुल भी गर्म रहता था। यही वजह थी कि सर्दी के मौसम में इस मिशन को अंजाम देने का निर्णय लिया गया था।

कैप्सुल उठाने वाले सभी पर्वतारोहियों के ऊपरी कपड़ों पर सफेद दाग लगाए गए थे। ऐसा इसलिये किया गया था क्योंकि प्लूटोनियम का रिसाव होने पर सफेद दाग का रंग बदल जाता और इससे विज्ञानियों को पता चल जाता।

कोहली ने एक इंटरव्यू में बताया था कि सर्दी बहुत थी, जबकि कैप्सुल गर्म रहते थे, इसलिये स्थानीय पर्वतारोही खुशी-खुशी उन्हें उठाकर चलते थे। यही नहीं, रात में ये कैप्सुल ही उन्हें गर्माहट दिया करते।

इस पूरे मामले में दिलचस्प पहलू यह है कि खुद कोहली को नहीं पता था कि प्लूटोनियम ऐसा तत्व है जो हवा, पानी को प्रदूषित कर लोगों की जान ले सकता है!

उन्होंने एक इंटरव्यू में स्पष्ट तौर पर कहा था, ‘हमारे लिये यह एक विफल मिशन रहा। सबसे बुरा तो यह रहा कि किसी ने हमें यह नहीं बताया कि यह कितना खतरनाक है और लोगों की जान ले सकता है। यह भी कि पर्यावरण को भी यह नुकसान पहुँचा सकता है।’

उन्होंने आगे कहा, ‘अगर मुझे इसका जरा भी इल्म होता, तो खराब मौसम होने के बावजूद मैं उन्हें लेकर लौटने की पूरी कोशिश करता।’

प्लूटोनियम खोजने की हर कोशिश का नतीजा सिफर

मई 1966 में टीम नंदा देवी से बैरंग लौट गई, लेकिन उनके दिल-ओ-दिमाग में एक बेचैनी तो थी ही कि अगर उन्हें बरामद नहीं किया गया, तो कुछ भी हो सकता है। लिहाजा 1967 में दोबारा टीम वहाँ पहुँची, लेकिन इस बार भी उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा।

प्लूटोनियम का गुम होना एक बड़ी चूक थी। अगर इसे सार्वजनिक कर दिया जाता, तो देशवासियों के लिये खौफ का बायस बन जाता। इसलिये तय हुआ कि इस राज को किसी भी सूरत में फाश न किया जाये।

मिशन में शामिल अफसरों ने भी भरसक कोशिश की कि इसे सार्वजनिक नहीं किया जाये, लेकिन ऐसा हो न सका। मिशन के विफल होने के एक दशक तक पूरा मामला दबा रहा लेकिन सन 1977 में यह सार्वजनिक हो गया।

सन 1977 में ‘आउटसाइड’ नाम की एक पत्रिका ने इसके बारे में विस्तार से एक स्टोरी छाप दी। इस स्टोरी के छपने के बाद देश के सांसदों ने संसद में इस मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया। नतीजतन तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को संसद में इस ऑपरेशन के बारे में बताना पड़ा।

यही नहीं, सांसदों के दबाव में आकर उन्होंने गुम हुए प्लूटोनियम कैप्सुल का पता लगाने की पूरी कोशिश करने का आश्वासन भी दिया।

इसके लिये उस वक्त के प्रधानमंत्री के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. आत्मा राम और परमाणु ऊर्जा आयोग के चेयरमैन होमी सेठना के नेतृत्व में 6 सदस्यीय वैज्ञानिक कमेटी का गठन किया गया।

मगर इस कमेटी के साथ दिक्कत यह रही कि उन्हें पड़ताल के लिये पूरी तरह से अमरीका की ओर से मुहैया कराए गए दस्तावेज पर ही निर्भर रहना पड़ा। अमरीका की तरफ से 94 पन्नों की एक रिपोर्ट सौंपी गई। इसी के आधार पर जाँच की शुरुआत हुई।

कमेटी ने केन्द्र सरकार को कई अनुशंसाएँ कीं। इनमें नंदा देवी के करीब हवा, पानी और मिट्टी में विकिरण की सम्भावित मौजूदगी को लेकर नियमित जाँच, प्लूटोनियम कैप्सुल का पता लगाने के लिये नई तकनीक विकसित करना आदि शामिल थी।

इन अनुशंसाओं के बावजूद प्लूटोनियम कैप्सुल का पता नहीं लगाया जा सका।

सीआईए का अलर्ट : ‘कोलकाता तक होगा असर’

जब प्लूटोनियम कैप्सुल गुम हुए थे, तो उस वक्त कई तरह की शंकाएं-आशंकाएं थीं। कुछ वैज्ञानिक यह मान रहे थे कि अगर प्लूटोनियम पानी में मिल भी गया, तो बहुत खतरा नहीं होगा। वहीं, कुछ वैज्ञानिकों का कहना था कि यह लाखों लोगों को मौत की नींद सुला देगा।

इन सबके बीच प्लूटोनियम कैप्सुल के गुम होने के कुछ समय बाद ही सीआईए ने आईबी को अलर्ट किया था कि यह गम्भीर चिन्ता की बात है। सीआईए ने आईबी से कहा था – (गंगा के उद्गम से लेकर) कोलकाता तक के लोग इसकी जद में आ सकते हैं।

हालांकि, बाद में सीआईए खुद ही अपनी बात से मुकर गई और कहा कि इससे बहुत खतरा नहीं है और अगर गंगा में भी मिल जाये, तो इसका मानव पर बहुत कम असर होगा। मगर सीआईए यह बताना भूल गई या छिपा गई कि विकिरण का असर तुरन्त पता नहीं चलता है बल्कि धीरे-धीरे इसका असर बढ़ता है। मोरारजी देसाई के निर्देश पर गठित कमेटी के सदस्य रहे एमजीके मेनन हालांकि मानते हैं कि इसके खतरे बड़े हैं।

2010 में एक मैगजीन को दिये इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘देखिए, अगर वह डिवाइस लीक करने लगे और प्लूटोनियम निकलकर पानी में मिल जाये, तो खतरनाक है। यह लोगों की जान ले सकता है। यह जहरीला और रेडियोएक्टिव है।’

उन्होंने गुम हुए कैप्सुल पर नियमित नजरदारी करने की वकालत करते हुए कहा था, ‘इस पर नजर रखी जानी चाहिए, लेकिन यह खर्चीला है। अगर आपने कोई खतरनाक चीज गुम कर दी है, तो उसे ढूँढा जाना चाहिए या फिर उस क्षेत्र की लगातार निगरानी की जानी चाहिए। आपको उस क्षेत्र के लोगों के लिये जिम्मेवारीपूर्ण कार्य करना चाहिए।’

‘सीटल पोस्ट-इंटेलिजेंसर’ नामक जर्नल में छपे एक लेख में मिशन का हिस्सा रहे रॉबर्ट स्केलर बताते हैं, ‘जेनरेटर और अन्य उपकरण गायब थे। इससे हमलोग चिन्ता में पड़ गए थे। क्योंकि न्युक्लियर आधारित जेनरेटर नंदा देवी पर्वत पर खो गया था।’

लेख में आगे लिखा गया है, ‘उपकरणों के गायब होने की दो चिन्ताएँ थीं। एक तो यह कि ये तकनीकी गलत हाथों में न पड़ जाये और दूसरी यह कि प्लूटोनियम कहीं गंगा में मिलकर पानी को प्रदूषित न कर दे।’

लेख में स्केलर कहते हैं, ‘यह कल्पनातीत है कि उसे कैसे नष्ट किया जा सकेगा।’

क्या मोदी सरकार कराएगी जाँच

मोरारजी देसाई की सरकार में जो कमेटी बनी थी, उसकी अनुशंसाओं पर नहीं के बराबर काम हुआ, जिस वजह से सरकार के लिये ठोस तौर पर यह कह पाना मुश्किल है कि आखिरकार प्लूटोनियम भरे कैप्सुल्स के साथ क्या हुआ? अगर वे हैं, तो कहाँ हैं?

अलबत्ता 70 के दशक में थोड़ी-बहुत पड़ताल जरूर हुई, लेकिन उसे बाद मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।

इस बीच, 2007 में सीटल पोस्ट-इंटेलिजेंसर में छपे लेख में एक हैरतंगेज खुलासा हुआ जो बताता है कि प्लूटोनियम का खतरा अब भी बरकरार है।

मनमोहन सिंह कोहलीमनमोहन सिंह कोहली (फोटो साभार - लाइवमिंट)लेख में लिखा गया है कि 2005 में अमरीका पर्वतारोही व लेखक पी. टेकेडा ने नंदा देवी अभयारण्य से पानी के नमूने लिये थे।

इन नमूनों की जाँच में प्लूटोनियम 239 की मौजूदगी की आशंका जताई गई है। लेख में यह भी बताया गया है कि प्रकृति में ऐसे तत्व प्राकृतिक रूप से नहीं पाये जाते हैं।

लेख में उल्लिखित ये तथ्य निश्चित तौर पर चिन्ता के सबब हैं, लेकिन अफसोस की बात सरकार की तरफ से इसको लेकर भी गम्भीरता नहीं दिखाई गई।

हाँ, सतपाल महाराज अक्सर यह मुद्दा उठाते रहते हैं। उन्होंने नंदा देवी के करीब के गाँवों के लोगों व गंगा को प्लूटोनियम के सम्भावित खतरों को लेकर यूपीए की सरकार के वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर इस मामले की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की थी। लेकिन, पत्र मिलने की पावती रसीद के सिवा कुछ नहीं हुआ।

हाल ही में उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी इससे अवगत कराया है। पीएम मोदी ने उन्हें जरूरी कदम उठाने का आश्वासन दिया है। अब देखना यह है कि भाजपा सरकार क्या करती है।

अन्त में यह भी बता दें कि हॉलीवुड इस विफल मिशन को लेकर फिल्म बनाने जा रहा है। यह इस मिशन पर आधिकारिक फिल्म होगी।

अमरीका के फिल्म प्रोड्यूसर स्कॉट रोजेनफेल्ट फिल्म का निर्माण करेंगे। इसके लिये कोहली की किताब ‘स्पाइज इन हिमालयाज’ के राइट्स 2007 में ही खरीद लिये गए। फिल्म का अनुमानित बजट 20 मिलियन अमरिकी डॉलर रखा गया है।

मिशन की बारीकियों से रूबरू होने के लिये कोहली और रॉबर्ट स्केलर का इंटरव्यू लिया गया है। बताया जाता है कि फिल्म में भारतीय और अमरिकी कलाकार होंगे तथा इसकी शूटिंग भारत, अमरीका समेत कई देशों में की जाएगी।

कई बार सिनेमा सरकार की आँखें खोलने का काम करता है। अतः उम्मीद की जानी चाहिए कि फिल्म बनने पर फिर एक बार इस मिशन पर बहस छिड़ेगी और गुम हुए प्लूटोनियम कैप्सुल की पड़ताल दोबारा शुरू की जाएगी।

 

 

 

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