भगीरथ तो मन में ही बसा

2 Jul 2013
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16वीं और 17वीं सदी तक गंगा-यमुना इलाका घने जंगलों से ढंका था। पर धीरे-धीरे आबादी की बसावट के साथ इंसानी जरूरतों की पूर्ति के लिए वनों के इलाके खुले मैदानी भागों में तब्दील होने लगे। यह सब मंथर गति से हो रहा था। लिहाजा प्रकृति कभी करवट लेती भी तो नुकसान ज्यादा नहीं होता, क्योंकि मनुष्य उससे मेल बनाए रखता। फिर विज्ञान की तरक्की की रफ्तार तेज होने लगी। मनुष्य खुद को शक्तिशाली मानने लगा। वह और प्रयोग करने लगा। वर्षा की फुहारों ने अभी चंद दिन पहले तप्त धरा को सुकून भरी शीतल फुहारें थमाई थीं। धरा ने अभिसिंचन के लिए बाहें फैलाई थी। फिर पलक झपकते कौन-सी पीड़ा मर्म भेद गई कि बादल फट पड़े और धरती भी फटने-बहने लगी-सब तहस-नहस कर गई। अखबार की सुर्खियां कर रही है। रुद्रप्रयाग में बादल फटा, जल प्रलय से केदारनाथ मंदिर तबाह; उत्तराखंड में सैकड़ों जिंदगियां काल का ग्रास बन गई। ऋषिकेश के परमार्थ निकेतन के सामने महानदी के बीचो-बीच शिव की विशाल मूर्ति के कंधों पर सिर टकरा-टकरा कर गंगा मानो आर्तनाद कर रही थीं। कैसी धरती पर उतारा शिव? रूप दिया पतितपावन, मोक्षदायनि पर मां...मां कहती संतानों ने पापों का कैसा कलुष धोया कि काल का काला साया उतर आया मेरी लहरों पर? भरभरा कर ढहती धरती भी मानो पुकार कर कह रही थी कि फटते बादलों को थामने के लिए उसने अपनी बाहें फैलाई थीं पर वे कंक्रीट की दीवारों से जा टकराई। सहारे के लिए अपनी जमीन टटोलती धरती खुद लहूलुहान होकर निरुपाय हो ढहने लगी।

हमने उनके प्रवाह मार्ग में बाधाएं खड़ी कर रखी हैं। तभी उनकी धाराएं उच्छृंखल हो उठी हैं। अपने बहाव को वह समेटे भी तो कितना? फिर भी बहाव अनुशासन तोड़कर कभी बहकता भी है तो पीछे इंसानों के लिए उपजाऊ भूमि छोड़ जाता है। वह तो जिधर से गुजरती है शस्य श्यामला धरती का संदेश फैलाती जाती है। गंगा इंसानों की बसावट का अतिक्रमण नहीं करती। सगर के पुत्रों को मोक्ष दिलाने के उद्देश्य से गंगा के पृथ्यी पर अवतरण के लिए जब भगीरथ ने घोर तपस्या की थी तब धरती पर उतरने के लिए तैयार गंगा की सबसे पहली चिंता यह थी कि उनके वेग से धरती घायल न हो जाए। तब शिव ने उनके वेग को अपनी जटाओं में झेल धरतीवासियों को मृदुल प्रवाहमान गंगा सौंपी थी। शायद ऋषिकेश में शिव के वक्षस्थल पर सिर पटकती गंगा वही गुहार लगा रही है-मेरे वेग को मृदुल कर दो। पर पौराणिक काल में विष को कंठहार बना लेने वाले शिव आज मानव निर्मित प्रदूषण, महानदी के प्रवाह मार्गों पर अंधाधुंध खुदाई, वनों की कटाई और अतिक्रमण से उपजे हलाहल का निवारण करने में विवश हैं। गंगा दशहरा के अवसर पर मां गंगा की लहरों में डुबकी लगाने से सभी पाप धुल जाते हैं पर आज उसी समय के दौरान रौद्ररूपा बनी गंगा ने गौमुख से लेकर हरिद्वार तक अपने प्रवाह मार्ग में खड़े पुलों, सड़कों, होटलों और मकानों को मटियामेट कर दिया। वह चेता रही है कि अब तो बस करो। प्रकृति की इस अलौकिक विरासत का संरक्षण करने में पिछड़ रहा मानव खुद अपने ही विनाश को न्योत रहा है।

16वीं और 17वीं सदी तक गंगा-यमुना इलाका घने जंगलों से ढंका था। पर धीरे-धीरे आबादी की बसावट के साथ इंसानी जरूरतों की पूर्ति के लिए वनों के इलाके खुले मैदानी भागों में तब्दील होने लगे। यह सब मंथर गति से हो रहा था। लिहाजा प्रकृति कभी करवट लेती भी तो नुकसान ज्यादा नहीं होता, क्योंकि मनुष्य उससे मेल बनाए रखता। फिर विज्ञान की तरक्की की रफ्तार तेज होने लगी। मनुष्य खुद को शक्तिशाली मानने लगा। वह और प्रयोग करने लगा। आग के आविष्कार के बाद शायद पानी को बांधने की क्षमता का विकास इंसान के लिए बड़ा रोमांचक रहा होगा। इस तरह आगे बढ़ते हुए पीछे मुड़कर देखने की सुध बिसराने लगी। जो समय रहते उसने पीछे पलट कर देखा होता तो क्या पता कुदरत से परस्पर मेल बरकरार रखने का कोर्ई सिद्धांत भी तलाश लिया होता।

गंगा महज प्राकृतिक धरोहर नहीं बल्कि भारत के जमनानस में गहरे पैठी आस्था का प्रतीक भी है। न सिर्फ इंसानों बल्कि जानवरों के जीवन के लिए भी अमृत है गंगा। इसके तटवर्ती इलाके विभिन्न रंग-बिरंगे पंछियों के कलरव से गुंजायमान रहते हैं तो पहाड़ी किनारों पर लाल बंदर, हिरण, सांभर, सफेद चीता, कस्तूरी मृग जैसे जानवरों का बसेरा है, वहीं इसके जल की गहराई में मीठे पानी की दुर्लभ डॉल्फिनों समेत ढेरों मछलियों और सांपों ने डेरा डाल रखा है। खेत खलिहानों में अनाज के ढेर लगाने वाली उपजाऊ जमीन का आशिर्वाद भी गंगा मइया ही झोली डालती है। देश के जन-जीवन और अर्थवयवस्था को भी प्रगति की ओर ले जाती है मां गंगा। ऑक्सीजन बनाए रखने की असाधारण क्षमता और जड़ी-बूटियों के सत से परिपूर्ण यह भागीरथी जीवनदायनी ही रही है। लेकिन पिछले कई दशकों से गगा में भागीरथी जल की जगह शहरों, महानगरों के घरों और उद्योगों का कचरा और गंदगी भरने लगा है। देश का प्रशासन, देश के नागरिक और स्वार्थ में अंधे वे लोग भी जो गंगा के साथ अन्याय और उसका दोहन कर अपनी तिजोरी समृद्ध कर रहे हैं, गंगा को बचाने का भागीरथी प्रयास करें, क्योंकि गंगा है तभी जीवन है।

विश्व में कहीं जल का अभाव तो कहीं बाढ़। जलचक्र को एक दैवी चमत्कार की जरूरत है जो पूरी दुनिया में जल का संतुलित परिमाण मुहैया कर सके। यह कंपोल कल्पना कहला सकती है पर कल्पना के ऐसे ही झरोखे से आविष्कार के अंकुर नहीं फूटते? मान लें कि फटते बादल गंगा का धरती पर अवतरण सदृश है, जिन्हें मृदुल-मंथर दिशा देने और शिव की जटाओं सरीखे उपयुक्त मार्ग तैयार करने के लिए श्रमनिष्ठ कर्म की जरूरत है। उसके लिए चाहिए एक भगीरथ। वह भगीरथ और कहीं नहीं हमारे अंदर ही बसा है तो करो उस अंतर्यामी से निवेदन:

शंभु उतमांग का अलभ्य ज्ञान चक्षु खोल,
पाशुपत संयुक्त सुसैन्य शक्तिशाली दे।

इंदिरा-इरा की सृष्टि व्यापिनी समृद्धि हेतु,
भागीरथी! श्रम की भगीरथ प्रणाली दे।


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