भीमकाय प्रेम

8 Oct 2011
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आर सुकुमार
1980 से रमन सुकुमार दक्षिण भारत में हाथियों का जीवन और उनके व्यवहार का अध्ययन कर रहे हैं। एशियाई हाथियों के अध्ययन पर उन्हें 1988 में डाक्ट्रेट की उपाधि मिली। हाथियों और इंसानों के बीच के पारस्परिक संबंधों के अध्ययन में उनकी विशेष रुचि है। हमारी संस्कृति और सभ्यता के विकास में हाथियों का क्या रोल रहा है और आज लोगों और हाथियों के बीच क्यों टकराव की हालत पैदा हुई है। सुकुमार, इंडियन इंस्ट्टियूट ऑफ साइंस, बैंगलोर के सेंटर फॉर इकोलौजिकल साइंसिज में अध्यापक हैं। वो आईयूसीएन के एशियन एलीफेंट स्पेश्लिस्ट ग्रुप के चेयरमैन और एशियन एलीफेंट रिसर्च और कंजरवेशन सेंटर के अवैतनिक निदेशक हैं। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं जिनमें एलीफेंट डेज एंड नाइट्स और एशियन एलीफेंटः इकौलोजी एंड मैनेजमेंट उल्लेखनीय हैं। 50 तकनीकी शोध पत्रों के अलावा उन्होंने पुस्तकों में अध्याय भी लिखे हैं।

मैं बड़े होकर क्या करूंगा इसका मेरे बचपन के दिनों से कोई भी अतापता मिलना मुश्किल होगा। किसी शहरी बच्चे की तरह मेरी खेलों के अलावा कई अन्य रुचियां थीं। मुझे किताबों का बहुत शौक था। इसका कारण शायद यह था कि मेरे नानाजी की किताबों की एक दुकान थी। उनकी किताबों की अल्मारी में धमाका बोलने में ही मुझे बचपन में सबसे अधिक मजा आता था। मेरी दादी ने मुझ में एक भावी प्राकृतिक विज्ञानी के कुछ लक्षणों को शायद पहले ही पहचान लिया था। मेरी पहली जंगल यात्रा के बहुत पहले से ही, मालूम नहीं वो क्यों मुझे वनवासी कहकर ही बुलातीं थीं।

हाई स्कूल में पहुंचने के बाद ही मुझे प्राणियों की अद्भुत सुंदरता का कुछ आभास हुआ। उन दिनों अंतरिक्ष खोज का बोलबाला था और तभी मानव ने चंद्रमा पर अपना पहला कदम रखा था। अंतरिक्ष के रोमांच की पकड़ पृथ्वी की वास्तविकताओं से कहीं अधिक थी। उस समय सारी दुनिया पर्यावरण की दयनीय स्थिति - प्रदूषण और प्रकृति के विनाश से भी रूबरू हो रही थी। संरक्षण का आंदोलन थोड़ा जोर पकड़ रहा था। उस समय भी मेरी यही धारणा थी कि अगर लोग पृथ्वी के सीमित संसाधनों का विवेकपूर्ण, उपयुक्त और बराबरी से इस्तेमाल नहीं करेंगे तो स्थिति जल्दी ही एक बड़ी समस्या बन कर खड़ी हो जायेगी।

मेरी विज्ञान में गहरी रुचि थी और मैं संरक्षण के क्षेत्र में काम करना चाहता था। मुझे लगा कि आदर्श स्थिति तभी होगी जब मैं जीवविज्ञान पढ़कर पर्यावरण विज्ञान (इकौलोजी) में विशेषता हासिल करूं। इसी उद्देश्य को प्राप्ति के लिये मैंने लौयोलो कालेज में और बाद में मद्रास (अब चेन्नई) के विवेकानंद कालेज में वनस्पतिशास्त्र की पढ़ाई की। सौभाग्य से मुझे ऐसे शिक्षक मिले जिन्होंने पाठ्यक्रम के बाहर की भी सृजनशील गतिविधियों को प्रोत्साहित किया।

मैं भाग्यशाली था क्योंकि मैं उस समय दक्षिण भारत के सबसे बड़े शहर मद्रास में था। यहां शहर के बीच में ही एक राष्ट्रीय उद्यान है - गिंडी राष्ट्रीय उद्यान जहां अभी भी कुछ प्राकृतिक जंगल हैं, ढेरों चीतल और कृष्णसाल (ब्लैकबक) हैं और बहुत सारे पक्षी हैं। मैं अपना ज्यादातर समय गिंडी उद्यान में आर सेल्वाकुमार के साथ बिताता जो उस समय वहां प्राणी अध्ययन कर रहे थे। बाद में वो मेरे साथ कई जंगल यात्राओं पर गये। सेल्वम को प्रकृति से दिली लगाव था और वो पक्षियों और प्राणियों की दुनिया में हमेशा खोये रहते थे। वो चींटी से लेकर व्हेल तक किसी प्राणी को पहचान सकते थे और उसका विस्तृत वर्णन कर सकते थे। उनकी वजह से मेरा काम बहुत आसान हो गया और उसमें मुझे बहुत मजा भी आने लगा।

हाथियों में शायद मेरी गुप्त रुचि रही हो क्योंकि उस समय मुझे इस बात का बिल्कुल अंदाज नहीं था कि मैं कभी हाथियों का अध्ययन करूंगा। हटारी नाम की फिल्म में एक छोटे हाथी की चाल और वो मस्त धुन आज भी मुझे सबसे प्रिय है। जब मुझे रेडियो पर पहला कार्यक्रम पेश करने का मौका मिला तो मैंने इसी धुन से प्रोग्राम की शुरूआत की।

जब मैंने पहले जंगली हाथी को देखा तो मैं उसमें कुछ खास चमत्कारिक नहीं लगा। मुझे अभी भी इस बात का शक है कि मैंने असल में कोई हाथी देखा भी था! सितम्बर 1976 में हमारी क्लास वनस्पतिशास्त्र के दौरे पर गयी थी। हम लोग दक्षिण भारत में तमिलनाडु के मधुमलाई अभ्यारण्य में गये जो हाथियों के झुंडों के लिये मशहूर है। मैं मधुमलाई के वारडन पी पद्मानाभन से बात कर रहा था। वो बाद में राज्य के मुख्य वाइल्डलाइफ वार्डन बने और उन्हें जंगली प्राणियों के शोध् को काफी प्रोत्साहन दिया।

एक खटारा कार मेरे सामने आकर रूकी और उसमें से एक परिचित सा व्यक्ति बाहर निकला और बोला, “अरे बेटे, तुम यहां पर क्या कर रहे हो?” वो प्रकृति के प्रसिद्ध फोटोग्राफर सिद्धार्थ बुच थे। मेरी जंगल यात्राओं में वो पहले गुरुओं में एक थे और इस समय वो अपने जीजाजी के साथ मधुमलाई घूमने आये थे। वो मद्रास से 600 किलोमीटर की दूरी इस खटारा गाड़ी में तय करके आये थे। ये गाड़ी हाईवे पर मुश्किल से 40 किलोमीटर प्रति घंटा तय कर पाती! हाथियों के इलाके में इस तरह की गाड़ी में सवारी करना एकदम अनउपयुक्त था क्योंकि हाथी की छोटी सी ठोकर से भी इस गाड़ी की धज्जियां उड़ जातीं। और मधुमलाई का यह क्षेत्र हाथियों से भरा था। परंतु इन दोनों लोगों ने फिर भी भारी जोखिम उठाया। सिद्धार्थ मुझे देखकर काफी खुश हुये। उन्होंने पूछा कि क्या मुझे कुछ हाथी दिखायी दिये। मैंने उन्हें बताया कि हमारी टीम भी तभी वहां पहुंची थी। उन्होंने तुरंत मुझसे अपनी पुरानी खटारा कार में बैठने के लिये कहा क्योंकि वे लोग उसमें मोयर नदी के किनारे घूमने जाने वाले थे। गाड़ी को लेकर शंका के बावजूद मैं तुरंत गाड़ी में बैठ गया क्योंकि जंगली जानवरों को देखने की मेरी दिली तमन्ना थी।

हम बस कोई एक किलोमीटर आगे गये होंगे कि सिद्धार्थ ने कार रोकी और बाहर झांका और फिर एक पहाड़ी की ओर इशारा करते हुये कहा, “देखो वहां एक हाथी ढाल पर चढ़ रहा है। वो अभी-अभी नदी में से आया होगा और उसने सड़क पार की होगी।” मैंने अपनी आंखों से बहुत देखने की चेष्टा की परंतु मुझे वहां कोई भी हाथी नजर नहीं आया। “क्या तुमको उन झाडि़यों में कोई काली आकृति चलती दिखायी नहीं दे रही है?” उन्होंने पूछा। इस समय तक दोपहर हो गयी थी और जंगल प्रकाश और छांव के चकत्तों से भरा था। मुझे सौ मीटर दूर एक काला साया अवश्य दिखायी दिया परंतु फिर भी वो मुझे चलता हुआ नहीं दिखा। वो कोई पत्थर भी हो सकता था परंतु फिर भी मैंने हां में अपना सिर हिलाया जैसे मुझे सच में वो काली आकृति दिखी हो। “देखो बेटा! मैंने तुम्हें पहले जंगली हाथी के दर्शन कराये हैं!” सिद्धार्थ ने पुलकित होकर कहा। मैं अभी भी उस काले साये के बारे में कुछ निश्चित रूप से नहीं कह सकता हूं। परंतु सालों के अनुभव के बाद मैं पाठकों को, जो हाथियों के मनमौजी तरीकों से परिचित न हों को आगाह करना चाहूंगा कि किसी हाथी को पत्थर समझने की बजाय पत्थर को हाथी समझना ही बेहतर होगा।

1979 में मैंने इंडियन इंस्ट्टियूट आफ साइंस, बैंगलोर में पर्यावरण विज्ञान के डाक्टरल कार्यक्रम में दाखिला लिया। माधव गाडगिल ने यहां पर नवीन पर्यावरण विज्ञान का पहला शैक्षिक कार्यक्रम स्थापित किया था।

जब शोध् का विषय चुनने का समय आया तो माधव ने कुछ समस्यायें सुझायीं जिनमें हाथियों और मनुष्यों के बीच संघर्ष के अध्ययन का सुझाव भी था। हाथियों का नाम सुनकर मैं एकदम चौकन्ना हुआ। मैं बड़े स्तनपायी प्राणियों का अध्ययन करना चाहता था और इसके लिये हाथियों से अच्छा और क्या हो सकता था। परंतु मैं यह कबूल करता हूं कि यह बात मेरे दिमाग में पहले कभी नहीं आयी थी।

माधव ने समझाया कि कुछ इलाकों में जंगली हाथियों के झुंड खेतों में घुस जाते हैं, खड़ी फसल को खा जाते हैं और कभी-कभी लोगों को भी मार डालते हैं। साथ-साथ लोग भी हाथियों के प्राकृतिक जंगलों पर कब्जा करते हैं और अपनी फसलों को बचाने और हाथी दांत की तस्करी के लिए हाथियों को मार देते हैं। इंसानों और हाथियों के बीच के इस परस्पर संबंध् का विस्तृत अध्ययन न तो एशिया में और न ही कभी अफ्रीका में हुआ है। इस रूप में यह अपने आपमें एक अनूठा अध्ययन होगा। यह अध्ययन संरक्षण के दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण होगा क्योंकि हाथियों के लंबे समय तक जीवित रहने के लिए इस समस्या का समाधन नितांत आवश्यक था।

इस प्रकार 1980 में मैंने दक्षिण भारत में हाथियों का अपना अध्ययन शुरू किया जो आज भी जारी है। मैं हाथियों का अध्ययन कर रहा हूं, उनके फोटोग्राफ्स ले रहा हूं, उनको खदेड़ रहा हूं और उनके द्वारा खदेड़ा जा रहा हूं। मैंने हाथियों को प्यार करते, संभोग करते, बच्चे जनते, मां-बाप का रोल अदा करते, खेलते, लड़ते, मिट्टी में लुढ़कते, जीवन का आनंद लेते और मरते देखा है। हाथी बड़े मजेदार भी हो सकते हैं। हाथी काफी भयावय भी हो सकते हैं। उन्हें देखकर बहुत संतोष मिलता है परंतु साथ-साथ उनके अध्ययन की लत भी लग सकती है। दो दशकों के बाद भी जब मैं हजारों हाथियों का अध्ययन कर चुका हूं, आज भी मैं जब किसी हाथी को देखता हूं तो ठिठक कर खड़ा होकर उसे निहारता रहता हूं। अगर चीता जंगल की आत्मा है - जो रहस्यमयी है और कभी-कभी ही दिखता है तो हाथी जंगल का शरीर है - भीमकाय, तेजस्वी, जिसके प्रभुत्व को हरेक कोई महसूस कर सकता है। फिर भी हाथी के जीवन में कोई जल्दबाजी नहीं होती। उसे देख कर ऐसा लगता है जैसे आप किसी फिल्म को धीमी-गति से देख रहे हों।

इस मंत्र-मुग्ध करने वाले जीव को थोड़ा भी समझने के लिए किसी को जंगल में कई वर्ष बिताने होंगे। हरेक दिन, हरेक महीने, हरेक साल इसकी प्रकृति के कुछ नए लक्षण आपको सीखने को मिलेंगे। हाथियों की जनसंख्या की गतिशीलता को सूक्ष्मता से समझने के लिए शायद कई साल भी काफी न हों। इसके लिए शायद कई दशकों तक आपको आंकड़ें और जानकारी एकत्रित करनी पड़े। हाथी लंबी उम्र तक जीते हैं और उनका सामान्य जीवनकाल 70 वर्ष का हो सकता है।

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