साल 1984 में 2-3 दिसंबर की दरमियानी रात में यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के कीटनाशक कारखाने से रिसी जहरीली गैस, मिथाइल आइसोसाइनेट (मिक) भोपालवासियों पर कहर बनकर टूटी थी। तीन दशक हो गए, पर आज भी गैस पीड़ित इंसाफ की बाट जोह रहे हैं। पंद्रह हजार से ज्यादा लोगों की जान लेने वाले और लाखों लोगों की जिंदगी को प्रभावित करने वाले भोपाल गैस हादसे से जुड़े हर पहलू पर सरकार का रवैया ज्यादातर टालमटोल का ही रहा है। चाहे वह दोषियों को सजा दिलाने और पीड़ितों को उचित मुआवजे का मामला रहा हो या यूनियन कार्बाइड कारखाने के कचरे के निपटान का।
गोया कि हर काम के लिए अदालत को निर्देश जारी करने पड़े या फटकार लगानी पड़ी। जबकि इस हादसे से सबक लेने और दोषियों को कठोर सजा दिलाने की जरूरत थी। लेकिन सरकार ने न तो इस दुर्घटना से कोई सबक सीखा और न ही उसने दोषियों को कड़ी सजा दिलवाने में दिलचस्पी ली। गैस पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिए सरकार की संजीदगी इस बात से जाहिर होती है कि मामले का मुख्य अभियुक्त अमेरिकन नागरिक वॉरेन एंडरसन अपनी मौत खुद मर गया, लेकिन हमारी सरकार उसे आखिर तक इंसाफ के कठघरे में खड़ा नहीं कर पाई। यही बाकी अपराधियों के साथ हुआ। ज्यादातर को मामूली सजाएं हुईं, जिस पर भी उन्हें जल्द ही जमानत मिल गई।
साल 1989 में जब यूनियन कार्बाइड से मुआवजे के लिए समझौता हुआ तो सरकार ने कार्बाइड परिसर में पड़े जहरीले कचरे पर कोई बात नहीं की। साल-दर-साल गुजरते गए और कचरा उसी स्थिति में कार्बाइड परिसर में पड़ा अपना जहर घोलता रहा। जब इस जहर का लोगों के स्वास्थ्य पर असर पड़ा, तो वे अदालत गए और सरकार से मांग की कि वह इस प्रदूषणकारी कचरे का निपटान करे।
साल 2004 से भोपाल के गैर-सरकारी सामाजिक संगठन कारखाना परिसर से प्रदूषणकारी कचरे को हटाने की लड़ाई अदालतों में लड़ रहे हैं। विडंबना यह है कि अदालतों के आदेश के बाद भी सरकार इस कचरे को हटाने का फैसला नहीं कर पाई है। शुरू में तो यही तय नहीं हो पा रहा था कि इस कचरे के निपटारे की जिम्मेदारी किसकी होगी, यूनियन कार्बाइड को खरीदने वाली डाउ केमिकल्स की या भारत सरकार की। डाउ केमिकल्स ने जब इस पूरे मामले से अपना पल्ला झाड़ लिया, तो कचरा निपटान की सारी जिम्मेदारी भारत सरकार के सिर आ गई।
अदालती लड़ाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि मध्य प्रदेश के पीथमपुर और गुजरात के अंकलेश्वर के भस्मकों में कचरे को जलाकर नष्ट कर दिया जाए। लेकिन कचरे के खतरनाक असर को देखते हुए, पहले तो गुजरात की पूर्ववर्ती मोदी सरकार ने इसे अपने यहां नष्ट करने की इजाजत नहीं दी। फिर ऐसा ही रवैया पीथमपुर निवासियों का रहा। उन्होंने भी इस कचरे को अपने यहां जलाने का विरोध किया। जिसके चलते कचरा नष्ट नहीं हो पाया।
भोपाल गैस पीड़ित संगठन को एक बार फिर इस कचरे को हटवाने के लिए अदालत का आसरा लेना पड़ा। इस बीच तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण राज्य मंत्री जयराम रमेश की भोपाल यात्रा के दौरान निर्णय लिया गया कि कार्बाइड परिसर में पड़े जहरीले कचरे को नागपुर स्थित डीआरडीओ की प्रयोगशाला में नष्ट किया जाएगा। पर इस मामले में महाराष्ट्र सरकार ने भी अपने हाथ खड़े कर लिए। स्थानीय लोगों के विरोध के चलते आखिर उसने भी अपने यहां कचरा जलाने की इजाजत देने से इनकार कर दिया।
आगे चलकर जर्मनी की एक कंपनी जीआईजेड ने इस कचरे के निपटान के लिए केंद्र व राज्य सरकार को एक प्रस्ताव दिया। सरकार ने यह प्रस्ताव मंजूर भी कर लिया। लेकिन एक बार फिर वही कहानी दोहराई गई। जर्मनी के लोगों को जब इस बात का पता चला कि यूनियन कार्बाइड के जहरीले कचरे का निपटान उनके यहां होगा, तो वहां भी विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। नतीजा जीआईजेड कंपनी ने भी इस मामले में अपने बढ़ते कदम पीछे खींच लिए।

अदालती प्रक्रियाओं की भी अपनी सीमाएं हैं। अदालत और सरकार के बीच चल रहे इस टकराव से हटकर एक हकीकत अभी सामने आई है। देश के कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि सच बात तो यह है कि रासायनिक कचरे को जलाने के लिए हमारे देश में उपयुक्त भस्मक ही मौजूद नहीं है। इसके लिए विशेष बंदोबस्त करने होंगे, तब जाकर कचरे का निपटान होगा। यानी, उपयुक्त भस्मक नहीं होने की वजह से ही कचरे के निपटान में देरी हो रही है।
आर्थिक विकास की बड़ी-बड़ी डींगे हांकने वाली सरकारों के लिए इससे ज्यादा शर्म की क्या बात होगी कि आजादी के 67 साल बाद भी हमारे देश में प्रदूषणकारी कचरे के निपटान के लिए कोई उपयुक्त भस्मक नहीं है। जिसका खामियाजा भोपालवासियों को भुगतना पड़ रहा है। कुल मिलाकर आज से तीस साल पहले भोपाल गैस पीड़ितों की लड़ाई जहां से शुरू हुई थी, आज भी वहीं खड़ी है। इंसाफ का कहीं ओर-छोर नजर नहीं आ रहा।
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