भोपाल का बड़ा तालाब यानी अन्तरराष्ट्रीय आर्द्रभूमि (वेटलैण्ड) खतरे में

31 Jan 2016
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यूँ तो झीलों की नगरी भोपाल में 18 तालाब और एक नदी है। इसीलिये इसे ‘सिटी ऑफ लेक’ कहा जाता है। अगर पूरे मध्य प्रदेश की बात करें, तो यहाँ लगभग 2400 छोटे-बड़े तालाब हैं।

इनमें भोपाल का बड़ा तालाब अन्तरराष्ट्रीय वेटलैण्ड के रूप में जाना जाता है। यह तालाब जलसंग्रहण की पुरानी तकनीक का बेहतरीन नमूना है और मनुष्यों द्वारा निर्मित यह तालाब एशिया का सबसे बड़ा तालाब है। इस तालाब का कैचमेंट क्षेत्र 361 किलोमीटर और पानी से भरा क्षेत्र 31 वर्ग किलोमीटर में फैला है।

आज भी सारे शहर की प्यास यह तालाब बुझा रहा है। लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार यहाँ पानी बी. कैटेगरी का है और यह पीने योग्य नहीं है। वर्तमान में इस तालाब के चारों ओर अवैध कब्ज़ा हो चुका है। इसके अलावा लगभग 12 नालों का गन्दा पानी इसी तालाब में आकर मिलता है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट बन्द बड़ा है।

आस-पास के रहवासी यहीं नहाते और कपड़े धोते हैं। और-तो-और नगर निगम ने इसी तालाब में सिंघाड़ा उत्पादन की अनुमति देकर पानी का प्रदूषण बढ़ा रहा है। क्योंकि सारा कैमिकल पानी में ज़हर घोल रहा है। इससे गुर्दे की बीमारी की आशंका बढ़ जाती है।

दूसरी ओर हाशिए पर बैठे समाज पानी के परिदृश्य पर मौजूद विसंगतियों और खामियों पर आपस में बात तो करते हैं। लेकिन वे पीने योग्य पानी, इसके बँटवारे से जुड़े मुद्दों के स्थायी हल के लिये सरकार पर कोई दबाव नहीं बनाते और न ही सरकार इन विसंगतियों को दूर करने का कोई स्थायी हल ढूँढती है। जबकि एक हजार साल पहले मध्य प्रदेश के धार में राज करने वाले राजा भोज द्वारा आने वाली पीढ़ी को ध्यान में रखते हुए पानी बचाने के लिये एक जबरदस्त उदाहरण को दुनिया ने सराहा है।

जब यह तालाब पूरा भर जाता है, तो इसका पानी बहकर भदभदा से होता हुआ कलियासोत में, फिर कलियासोत से बेतवा नदी से होते हुए यमुना नदी में जाकर मिलता है। यह नदियाँ शहरीकरण की मार के चलते मल-जल से प्रदूषित हो रही हैं।

इसी तरह शहर का छोटा तालाब, शाहपुरा तालाब और सिद्दीक हसन तालाब के पानी को ई कैटेगरी का बताया गया है, जो सिंचाई योग्य भी नहीं है। छोटा तालाब जिसका कैचमेंट क्षेत्र 9.6 किलोमीटर तथा इसका विस्तार 1.3 वर्ग किलोमीटर है। इसका पानी भी बड़े तालाब के रीसे हुए पानी के साथ-साथ आस-पास के नालों के अपशिष्ट से प्रदूषित हो रहा है।

इस तालाब का पानी भी आगे जाकर हलाली नदी से होता हुआ यमुना में मिल रहा है। हालांकि इन तालाबों का पानी पीने के लिये उपयोग में नहीं लाया जाता। फिर भी शहर की ऊँची-ऊँची बिल्डिंगों और व्यावसायिक गतिविधियों और विशेष प्रयोजन के लिये पानी के टैंक इन्हीं तालाबों के पानी से भरते देखा गया है।

वर्तमान में शहर में बढ़ती आबादी के कारण सतही पानी के स्रोत कम हो रहे हैं, छोटे तालाब और कुएँ को पाटकर उस पर इमारतें तानी जा रही है। कैचमेंट एरिया, ग्रीन बेल्ट सब धीरे-धीरे खत्म हो रहे हैं। इससे जल प्रबन्धन की व्यवस्था चरमरा गई है और जल निकाय (वाटर बॉडी) खत्म हो रही है।

केन्द्र सरकार की ओर से भेजे गए एक दल ने रिपोर्ट में यहाँ तक लिखा कि मध्य प्रदेश का 97 फीसदी भूजल प्रदूषित है केवल साढ़े 3 फीसदी पानी ही पीने योग्य बचा है। इसका प्रभाव केवल मनुष्यों पर ही वरन पशु-पक्षियों पर भी पड़ रहा है।

वन विहार, कलियासोत, शाहपुरा झील, भदभदा, केरवा , हथईखेड़ा बाँध क्षेत्रों में भारी मात्रा में स्थानीय और प्रवासी पक्षियों की संख्या में गिरावट आ रही है। हालांकि इस बार अच्छी बारिश के चलते भोपाल के बड़े तालाब में बतख की कई किस्में देखने को मिले, लेकिन प्रवासी पक्षियाँ बहुत ही कम देखी गईं।

इसी तरह शाहपुरा झील में घरेलू अपशिष्ट और किनारे कुड़ा-करकट फेंकने के चलते प्रवासी पक्षियों का आना प्रभावित हुआ है। इस साल भोपाल में बड़े जलकाग (शिकारी) बत्तख, सारस, छोटे नीले किंगफिशर देखे गए।

भोजतालभविष्य के लिये झीलों एवं आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिये आयोजित रामसर सम्मेलन में भी बड़े तालाब को इंटरनेशनल लेक एन्वायरनमेंट कमेटी जापान के सहयोग से संरक्षित करने के प्रयास को विश्व स्तर पर सराहा गया था। बढ़ते शहरीकरण एवं औद्योगीकरण के कारण विश्व भर में झीलों को अनेक प्रकार से जो क्षति पहुँची है।

भारत पहला देश है जिसने कि जल प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये व्यापक कानून बनाया और इसी के साथ विश्व स्तर पर संरक्षण प्रयासों के तहत 1971 में आर्द्रभूमि पर आयोजित रामसर कन्वेंशन में भी सक्रिय रूप से भागीदारी की थी।

भारत में अनेक झीलों के संरक्षण के प्रयासों को विश्व स्तर पर सराहा गया है। चिल्का झील के पुनरुद्धार के लिये देश को रामसर संरक्षण अवार्ड दिया गया। इसी प्रकार भोपाल झील के संरक्षण कार्य की भी अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा हुई है।

उल्लेखनीय है कि झीलों तथा आर्द्रभूमि के संरक्षण के लिये सर्वप्रथम 1984 में इस प्रकार का पहला सम्मेलन आयोजित किया गया था तथा इसके बाद दो वर्षों के अन्तराल में विश्व के विभिन्न भागों में इसके सम्मेलन निरन्तर हो रहे हैं, जो वैज्ञानिक सोच के साथ विकासशील देशों को झीलों तथा आर्द्रभूमि के रखरखाव के उपाय सुझाते हैं। उन्होंने आशा प्रकट की कि सम्मेलन में आने वाले सुझाव इस कार्य को एक नई दिशा प्रदान करेंगे।

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