भूगर्भीय जल संसाधन की सम्भाल करना जरूरी


1970 और 2008 के बीच भारतवर्ष में लगभग 250 लाख हेक्टेयर असिंचित कृषि भूमि को सिंचाई योग्य बनाया गया, जिसमें भूजल का योगदान 85 प्रतिशत रहा।

सिंचित क्षेत्र में से 62 फीसदी सिंचाई भूजल से हो रही है। नहरों से 26 प्रतिशत, तालाबों से 4 प्रतिशत और अन्य साधनों से 8 प्रतिशत क्षेत्र की सिंचाई हो रही है। कुल सिंचित क्षेत्र लगभग 570 लाख हेक्टेयर है। 1964 से ट्यूबवेल सिंचाई में लगातार वृद्धि हुई है। यानी हरित क्रान्ति के साथ-साथ इसका तीव्र गति से विकास हुआ है।

ट्यूबवेल सिंचाई का हिस्सा उस समय 3 प्रतिशत था, जो अब बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया है। दूसरे कुओं से सिंचाई का हिस्सा, जो 1964 में 27 प्रतिशत था, अब घटकर 20 फीसदी रह गया है। इस तरह कुल भूजल द्वारा सिंचित हिस्सा 62 प्रतिशत हो गया है।

भारतवर्ष में कुल पानी के खर्च में से 80 फीसदी सिंचाई के लिये प्रयोग होता है और 7 प्रतिशत पेयजल के लिये, लेकिन ग्रामीण पेयजल आपूर्ति में भूजल का हिस्सा 90 प्रतिशत है। जाहिर है कि भूजल के अति दोहन से पेयजल आपूर्ति पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। विशेषकर अधिकांशत: सूखाग्रस्त रहने वाले क्षेत्रों में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए।

भूजल के अति दोहन से भूजल संकट पैदा होने की सम्भावनाएँ पैदा हो जाती हैं। भूजल के अति दोहन का अर्थ है कि भूजल के पुन: भरने की गति से ज़्यादा मात्रा में भूजल निकालना।

2007 में योजना आयोग द्वारा स्थापित भूजल प्रबन्धन विशेषज्ञ समूह की रिपोर्ट में माना गया है कि भूजल के पुन: भरने की गति से कहीं ज़्यादा गति से भूजल को निकला जा रहा है। एक साल में भूजल निकालने की मात्रा 210 बिलियन घन मीटर है। इससे भूजल का स्तर लगातार गिरता जा रहा है।

1995 में जहाँ 7 प्रतिशत प्रखण्ड संवेदनशील और अति दोहन के शिकार थे, उनकी संख्या 2004 में बढ़कर 28 प्रतिशत हो गई थी, जो अब बढ़कर और ज़्यादा हो चुकी होगी। ट्यूबवेल्स की संख्या 210 लाख से पार हो चुकी है।

ऐसी स्थिति में भूजल संरक्षण और संवर्धन पर पूरा ध्यान देने की जरूरत है। संरक्षण का अर्थ है कि प्राकृतिक रूप से जितना भूजल भर रहा है, उतनी ही मात्रा में भूजल का दोहन करना। यानी टिकाऊ प्रबन्धन करना और संवर्धन का अर्थ है, भूजल भरण की प्राकृतिक प्रक्रिया व स्थलों का गम्भीर भूगर्भ शास्त्रीय अध्ययन करके प्राकृतिक पुन: भरण की प्रक्रिया को मानव-निर्मित हस्तक्षेप से तेज़ करना।

भूगर्भीय जलाशय एक बहुत ही जटिल संरचना है, जो उस क्षेत्र की मिट्टी और चट्टानों की संरचना पर आधारित होती है। जहाँ-जहाँ सैंड स्टोन जैसी छिद्रिल चट्टानें और रेतीली दोमट मिट्टी होती है, वहाँ पानी सोखने की क्षमता ज़्यादा होती है।

भूगर्भीय चट्टानों के अन्दर टूट-फूट और दरारें आग्नेय चट्टानों वाले क्षेत्रों में भूजल संचय में मददगार होती हैं। अन्यथा जो सख्त चट्टानों वाले क्षेत्र हैं, उनमें भूजल सोखने की क्षमता कम होती है। भूजल की स्थिति अच्छी होने का बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि सतह पर बनाए गए बड़े-बड़े जलाशयों की तरह भूमि को रोकने और विस्थापन जैसी समस्याएँ कभी नहीं होती।

भूगर्भीय जलाशय अन्दर-ही-अन्दर आपस में जुड़े भी रहते हैं, इसी पानी को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने वाली नहरों के लिये भी भूमि अधिग्रहण की जरूरत नहीं होती।

हाँ, इतना जरूर है कि भूगर्भीय जलाशयों की क्षमता और आन्तरिक जुड़ाव व्यवस्थाओं की सटीक जानकारी के आधार पर भूजल संवर्धन का कार्य मानवकृत प्रयासों से सुचारू रूप से किया जा सकता है। कुछ भूगर्भीय जलाशय 10-20 मीटर गहरे होते हैं और कुछ की गहराई 100 से 500 मीटर तक भी हो सकती है।

भूजल पर निर्भरता के स्तर को देखते हुए भूजल संवर्धन कार्य पर बहुत कम ध्यान दिया जा रहा है। भारतवर्ष में बारिश के पानी का अधिकांश हिस्सा समुद्र में चला जाता है। बारिश का पूरे साल में बँटवारा भी असमान होता है।

एक मौसम सूखा निकल जाता है तो दूसरे में जरूरत से ज़्यादा बारिश और बाढ़ की स्थिति बन जाती है, लेकिन जब जल संरक्षण की बात आती है तो सतह पर जलाशय और रिवर लिंकिंग (नदी जोड़ो) जैसे विकल्पों पर ही ज़्यादा चर्चा होती है।

ये विकल्प विस्थापन बढ़ाने वाले और केन्द्रीयकृत प्रबन्धन व्यवस्था की माँग करते हैं, ये बहुत खर्चीले हैं, जबकि भूजल की उचित संरक्षण व संवर्धन योजना के लिये कोई विस्थापन नहीं होगा। यह सस्ती और विकेन्द्रीकृत भी होगी। हाँ, इसकी भी कुछ सीमाएँ हो सकती हैं जिन्हें ध्यान में रखा जा सकता है।

1. उपयुक्त प्रजाति का वन रोपण


गहरी जड़ों वाली, धीरे-धीरे बढ़ने वाली और चौड़ी पत्ती वाली वृक्ष प्रजातियाँ जल संरक्षण की बेहतर क्षमता रखती हैं। ऐसे में वनों में पत्ते मल्चिंग के तौर पर ज़मीन का पानी सोखने की क्षमता को बढ़ा देते हैं। ऐसे वन क्षेत्रों में यदि मिट्टी और चट्टानों की बनावट पानी सोखने वाली है, तो भूजल भरण में यह कार्य कारगर सिद्ध होने के साथ-साथ सकारात्मक पर्यावरणीय प्रभाव और आजीविका संवर्धन प्रभाव भी पैदा कर सकता है।

2. जल पुनर्भरण गड्ढे


एक से दो मीटर व्यास के 2 से 3 मीटर गहरे गड्ढे बनाए जाते हैं, जिन्हें पत्थर, बजरी व मोटी रेत से भर दिया जाता है, जिससे पानी सोखने की क्षमता में वृद्धि हो जाती है। इनकी दूरी स्थलाकृति की जरूरत के अनुसार निर्धारित है।

3. खाइयाँ


इसी तरह आधी मीटर चौड़ी, 3-4 से 10-15 मीटर लम्बी खाइयाँ निर्धारित दूरी पर बनाकर उन्हें पत्थर, बजरी व मोटी रेत से भर दिया जाता है, जिससे जल सोखकर भूजल में परिवर्तित हो सकता है।

भूगर्भीय जलाशय एक बहुत ही जटिल संरचना है, जो उस क्षेत्र की मिट्टी और चट्टानों की संरचना पर आधारित होती है। जहाँ-जहाँ सैंड स्टोन जैसी छिद्रिल चट्टानें और रेतीली दोमट मिट्टी होती है, वहाँ पानी सोखने की क्षमता ज़्यादा होती है। भूगर्भीय चट्टानों के अन्दर टूट-फूट और दरारें आग्नेय चट्टानों वाले क्षेत्रों में भूजल संचय में मददगार होती हैं। अन्यथा जो सख्त चट्टानों वाले क्षेत्र हैं, उनमें भूजल सोखने की क्षमता कम होती है। भूजल की स्थिति अच्छी होने का बहुत बड़ा लाभ यह होता है कि सतह पर बनाए गए बड़े-बड़े जलाशयों की तरह भूमि को रोकने और विस्थापन जैसी समस्याएँ कभी नहीं होती। 4. इसी तरह पारम्परिक कुओं और पुनर्भरण गहरे कुएँ बनाकर वर्षाजल को घरों की छतों से इकट्ठा करके फिल्टर बैंड में से गुजारते हुए इन कुओं को भरकर 100 मीटर से 300 मीटर तक गहरे भूजल भण्डारों का पुनर्भरण किया जा सकता है।

5. रीचार्ज शाफ़्ट


आधा से तीन मीटर तक व्यास के 10-15 मीटर गहरे कुएँ बनाकर उन्हें पत्थर, बजरी और मोती रेत से भर देते हैं। इससे मध्यम गहराई वाले भूजल भण्डारों का पुनर्भरण हो सकता है।

6. परम्परागत तालाब, छोटे-छोटे नालों, नदियों पर बनाए गए छोटे-छोटे बाँध भी वर्षाजल को रोककर भूजल पुनर्भरण में सहायक सिद्ध हो सकते हैं।

जलवायु परिवर्तन के इस दौर में जब वर्षा चक्र गड़बड़ाता जा रहा है और सूक्ष्म स्तर पर जल प्रबन्धन की आवश्यकता बढ़ती जा रही है, ऐसे में भूजल प्रबन्धन पर विशेष ध्यान दिये जाने की जरूरत है।

भूजल प्रबन्धन में यह बात भी ध्यान में रखने योग्य है कि भूजल एक सामुदायिक संसाधन हैं, किन्तु इसका प्रयोग निजी संसाधन के रूप बढ़ता जा रहा है। इससे समाज का कमजोर वर्ग इस प्रतिस्पर्धा में पिछड़ जाता है।

बड़े औद्योगिक संस्थान या बड़े किसान अपने नियंत्रण की जमीनों में ज़्यादा बड़े और गहरे ट्यूबवेल लगाकर दूर-दूर तक का और कम गहराई वाले ट्यूबवेल्स का पानी खींच सकते हैं। इसलिये भूजल के सामुदायिक प्रबन्धन की जरूरत पर भी उचित ध्यान दिये जाने की जरूरत है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading