भूजल का गिरता स्तर : सरोकार एवं समाधान

जलवायु परिवर्तन का जल के विभिन्न स्रोतों पर प्रभाव
जलवायु परिवर्तन का जल के विभिन्न स्रोतों पर प्रभाव


भूजल की वर्तमान स्थिति को सुधारने के लिये भूजल का स्तर और न गिरे इस दिशा में काम किए जाने के अलावा उचित उपायों से भूजल संवर्धन की व्यवस्था हमें करनी होगी। इसके अलावा, भूजल पुनर्भरण तकनीकों को अपनाया जाना भी आवश्यक है। वर्षाजल संचयन (रेनवॉटर हार्वेस्टिंग) इस दिशा में एक कारगर उपाय हो सकता है। हाल के वर्षों में, सुदूर संवेदन उपग्रह-आधारित चित्रों के विश्लेषण तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) द्वारा भूजल संसाधनों के प्रबन्धन में मदद मिली है। भूजल की मॉनिटरिंग एवं प्रबन्धन में भविष्य में ऐसी समुन्नत तकनीकों को और बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है।

भूजल स्तर की ऊँचाईजल हमारे ग्रह पृथ्वी पर एक आवश्यक संसाधन है। इसके बगैर जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यही कारण है कि खगोलविद पृथ्वी-इतर किसी अन्य ग्रह पर जीवन की तलाश करते समय सबसे पहले इस बात की पड़ताल करते हैं कि उस ग्रह पर जल मौजूद है या नहीं। ‘जल है तो कल है’ तथा ‘जल जो न होता तो जग खत्म हो जाता’ जैसी उक्तियों के माध्यम से हम जल की महत्ता को ही स्वीकारते हैं। पृथ्वी का तीन चौथाई यानी 75 प्रतिशत भाग जल से आच्छादित है लेकिन इसमें से पीने योग्य स्वच्छ जल की मात्रा बहुत कम है।

पृथ्वी का लगभग 97.2 प्रतिशत जल सागरों, महासागरों में समाया है। 2.15 प्रतिशत बर्फ के रूप में ग्लेशियरों में मौजूद है, 0.6 प्रतिशत भूमिगत या भौम जल के रूप में तथा 0.01 प्रतिशत नदियों और झीलों में एवं 0.001 प्रतिशत वायुमण्डल में मौजूद है। पृथ्वी पर जल 386X10 घन किलोमीटर जल भण्डार मौजूद है। यूनेस्को की सन 1994 की एक रिपोर्ट के अनुसार इसमें से ताजे, स्वच्छ जल की मात्रा केवल 35.03X106 घन किलोमीटर है। यह पृथ्वी पर मौजूद कुल जल भंडार का मात्र 0.01 प्रतिशत है।

जल का उपयोग बहते हुए जल, रुके हुए जल या भूजल के विभिन्न रूपों में होता है। नदी-नाले, झील आदि बहते हुए जल के उदाहरण हैं। नदी पर बाँध बनाकर हम इसका उपयोग विभिन्न तरीकों से कर सकते हैं। पाइप लाइनों द्वारा जल की आपूर्ति करना तथा तालाब से जल प्राप्त करना रुके हुए जल के उपयोग के उदाहरण हैं। भूजल, जिसे भूमिगत या भौमजल कहना ही उचित है, जमीन के अन्दर होता है। भूमिगत जलस्रोत का इस्तेमाल कुओं की खुदाई अथवा हैंडपम्पों और ट्यूबवेलों द्वारा भी किया जा सकता है। तालाबों और कुओं में एक विशेष अन्तर यह होता है कि जहाँ कुओं द्वारा केवल भूमिगत जलस्रोत का ही उपयोग होता है वहीं तालाबों में भूमिगत जल के अलावा बाहरी जल का जमाव भी हो जाता है। यह बाहरी जल वर्षा का जल हो सकता है और बाढ़ या नदी का बरसाती जल भी।

जल का उपयोग पेयजल तथा सिंचाई, पशुपालन, परिवहन, उद्योग, जलविद्युत उत्पन्न करने तथा मत्स्य पालन आदि विभिन्न कार्यों में होता है। पेयजल, सिंचाई तथा उद्योगों में भूमिगत जल यानी ग्राउंड वॉटर का व्यापक तौर पर इस्तेमाल होता है। गाँवों में, जहाँ आज भी 80 प्रतिशत लोगों को नल का पानी उपलब्ध नहीं है, पेयजल के लिये भूमिगत जल पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इसे कुओं, हैंडपम्पों तथा ट्यूबवेलों द्वारा प्राप्त किया जाता है। भारत में कृषि कार्य के लिये किसान भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं। इस समय देश में 50 प्रतिशत से भी अधिक सिंचाई भूमिगत जल से होती है। उद्योगों में भी भूमिगत जल की बड़ी माँग है। खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) से लेकर वस्त्र उद्योगों तक में भूमिगत जल का व्यापक रूप से इस्तेमाल होता है।

 

 

भारत में भूमिगत जल का इतिहास


भूमिगत जल का इस्तेमाल कोई नया नहीं है। भारत में प्रागैतिहासिक काल से भूमिगत जल का इस्तेमाल हो रहा है। कुएँ जलापूर्ति के महत्त्वपूर्ण साधन रहे हैं। मत्स्य पुराण में भी कुआँ खोदे जाने का उल्लेख है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से पता चला है कि 3000 ई.पू. में सिंधु घाटी सभ्यता के लोगों ने ईंटों से कुओं का निर्माण किया था। मौर्यकाल में भी ऐसे कुओं का उल्लेख मिलता है। चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (300 ई.पू.) के दौरान कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी रहट के जरिए कुओं से सिंचाई का विवरण प्राप्त होता है। वराहमिहिर की ‘बृहद संहिता’ नामक ग्रंथ में भूमिगत जल के स्रोतों का पता लगाने की विभिन्न विधियों का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस ग्रंथ में विशेष रूप से इस बात का उल्लेख किया गया है कि किस पौधों, दीमक की बाँधियों तथा मृदा एवं चट्टानों से जमीन के नीचे के पानी यानी भूमिगत जल के बारे में संकेत प्राप्त होता है। आज भी जल वैज्ञानिक मिट्टी की विशेषताओं, पेड़ों एवं झाड़ियों तथा जड़ी-बूटियों आदि की मौजूदगी से भूमिगत जल की मौजूदगी का पता लगाते हैं।

कृत्रिम ताल भूजल पुनर्भरण के उत्तम साधन हैआधुनिक युग में, ब्रिटिशकाल के दौरान सन 1900 में सिंचित भूक्षेत्र का क्षेत्रफल 1.3 करोड़ हेक्टेयर था। इसमें से 40 लाख हेक्टेयर की सिंचाई भूमिगत जल से की जाती थी। इस प्रकार कुल सिंचाई जल का लगभग 30 प्रतिशत भूमिगत जल द्वारा प्राप्त किया जाता था। सन 1901 में उस समय के वायसराय लार्ड कर्जन ने सर कोलिन स्कॉट मॉनक्रेफ की अध्यक्षता में एक व्यापक सिंचाई आयोग का गठन किया। सन 1903 में इस प्रथम सिंचाई आयोग ने सिंचित भू-क्षेत्र को 26 लाख हेक्टेयर तक बढ़ाने की अनुशंसा की। उल्लेखनीय है कि यह सिंचित क्षेत्र सन 1947 तक बढ़कर 22 मिलियन हेक्टेयर हो गया। सिंचाई में सतही जल के साथ भूमिगत जल का उपयोग बराबर किया जाता रहा। सन 1947 में सतही एवं भूमिगत जल द्वारा सिंचित भू-क्षेत्र के परिमाण लगभग बराबर थे।

यह सब अपने आप नहीं हुआ बल्कि भूमिगत जल विकास तथा इसकी मॉनिटरिंग एवं प्रबंधन द्वारा ही सम्भव हुआ। सिंचाई के लिये भूमिगत जल के बड़े पैमाने पर विकास के लिये सन 1934 में उत्तर प्रदेश के मेरठ क्षेत्र में गंगा घाटी की सिंचाई के लिये 1500 गहरे ट्यूबवेल लगवाने की परियोजना बनी। इससे भूमिगत जल विकास कार्य को बहुत बढ़ावा मिला।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, सन 1954 में केन्द्रीय कृषि विभाग के अन्तर्गत एक्सप्लोरेटरी ट्यूबवेल्स ऑर्गेनाइजेशन (ईटीओ) की स्थापना की गई। भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया - जीएसआई) के भूमिगत जल प्रभाग यानी ग्राउंडवॉटर विंग के साथ मिलकर ईटीओ ने भूमिगत जल के विकास, अन्वेषण एवं प्रबन्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी आरम्भ की। सन 1972 में जीएसआई के भूमिगत जल प्रभाग के ईटीओ के साथ विलय द्वारा केन्द्रीय भूजल बोर्ड (सेंट्रल ग्राउंडवाटर बोर्ड-सीजीडब्ल्यूजी) की स्थापना हुई।

भूमिगत जल के सर्वेक्षण, अन्वेषण, मॉनिटरिंग तथा प्रबन्धन के क्षेत्र में केन्द्रीय भूजल बोर्ड की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। राज्य भूजल विभाग सीजीडब्ल्यूबी के प्रयासों के पूरक रहे हैं। अपने-अपने राज्यों में इन विभागों ने सर्वेक्षण, अन्वेषण तथा जाँच सम्बन्धी कार्यों को अंजाम दिया है।

इस सब प्रयासों के बावजूद भूमिगत जल के स्तर जिसे वॉटर टेबल भी कहते हैं, ये गिरावट देखने को मिल रही है। इसके पीछे अनेक कारण हैं। आइए, इन पर चर्चा करते हैं।

 

 

 

 

भूमिगत जल का गिरता स्तर-कारण क्या हैं?


तेजी से बढ़ती जनसंख्या, बढ़ता औद्योगिकीकरण, फैलते शहरीकरण के अलावा ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन भी इसके लिये जिम्मेदार हैं।

सन 1901 में हुई प्रथम जनगणना के समय भारत की जनसंख्या 23.8 करोड़ थी जो सन 1947 यानी स्वतंत्रता प्राप्ति के समय बढ़कर 400 करोड़ हो गई। सन 2001 में भारत की जनसंख्या 103 करोड़ थी। इस समय देश की जनसंख्या 130 करोड़ (1.30 अरब) है। एक अनुमान के अनुसार सन 2025 तक भारत की जनसंख्या 139 करोड़ तथा सन 2050 तक 165 करोड़ तक पहुँच जाएगी। इस बढ़ती जनसंख्या का पेयजल खासकर भूमिगत जल पर जबर्दस्त दबाव पड़ेगा।

बढ़ती आबादी के कारण जहाँ जल की आवश्यकता बढ़ी है वहीं प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता भी समय के साथ कम होती जा रही है। कुल आकलनों के अनुसार सन 2000 में जल की आवश्यकता 750 अरब घन मीटर (घन किलोमीटर) यानी 750 जीसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) थी। सन 2025 तक जल की यह आवश्यकता 1050 जीसीएस तथा सन 2050 तक 1180 बीसीएम तक बढ़ जाएगी। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में प्रति व्यक्ति जल की औसत उपलब्धता 5000 घन मीटर प्रति वर्ष थी। सन 2000 में यह घटकर 2000 घन मीटर प्रतिवर्ष रह गई। सन 2050 तक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1000 घन मीटर प्रतिवर्ष से भी कम हो जाने की सम्भावना है।

स्पष्ट है कि बढ़ती जनसंख्या के कारण जल की उपलब्धता कम हो जाने के चलते भूमिगत जल पर भी दबाव बढ़ा जिसका परिणाम इसके गिरते स्तर के रूप में सामने आया।

बढ़ते औद्योगिकीकरण तथा गाँवों से शहरों की ओर तेजी से पलायन तथा फैलते शहरीकरण ने भी अन्य जलस्रोतों के साथ भूमिगत जलस्रोत पर भी दबाव उत्पन्न किया है। भूमिगत जल-स्तर के तेजी से गिरने के पीछे ये सभी कारक भी जिम्मेदार रहे हैं।

जल प्रदूषण की समस्या ने बोतलबन्द जल की संस्कृति को जन्म दिया। बोतलबन्द जल बेचने वाली कम्पनियाँ भूमिगत जल का जमकर दोहन करती हैं। नतीजतन, भूजल-स्तर में गिरावट आती है। गौरतलब है कि भारत बोतलबन्द पानी का दसवाँ बड़ा उपभोक्ता है। हमारे देश में प्रति व्यक्ति बोतलबन्द पानी की खपत पाँच लीटर सालाना है जबकि वैश्विक औसत 24 है। देश में सन 2013 तक बोतलबन्द जल का कारोबार 60 अरब रुपये था। सन 2018 तक इसके 160 अरब हो जाने का अनुमान है।

पहले तालाब बहुत होते थे जिनकी परम्परा अब लगभग समाप्त हो चुकी है। इन तालाबों का जल भूगर्भ में समाहित होकर भूजल को संवर्द्धित करने का कार्य करता था। लेकिन, बदलते समय के साथ लोगों में भूमि और धन-सम्पत्ति के प्रति लालच बढ़ा जिसने तालाबों को नष्ट करने का काम किया। वैसे वर्षा का क्रम बिगड़ने से भी काफी तालाब सूख गए। रही-सही कसर भू-माफियाओं ने पूरी कर दी। उन्होंने तालाबों को पाटकर उन पर बड़े-बड़े भवन खड़े कर दिए अथवा कृषिफार्म बना डाले।

धरातल से विभिन्न स्रोतों से प्राप्त जल के भूगर्भ में पहुँचने के कारण ही भूजल की सृष्टि होती है। इन स्रोतों में एक है वर्षा का जल जो पाराम्य शैलों से होकर रिस-रिसकर अन्दर पहुँचता है। शैल रंध्रों में भी जल एकत्रित होता है। जब कोई शैल पूर्णतया जल से भर जाती है तो उसे संतृप्त शैल कहते हैं। शैल रंध्रों के बन्द हो जाने से जल रिसकर नीचे नहीं जा पाता है। इस प्रकार जल नीचे न रिसने के कारण जल एकत्रित हो जाता है। यही एकत्रित जल जलभृत यानी एक्विफर कहलाता है।

जलवायु परिवर्तन का जल के विभिन्न स्रोतों पर प्रभावग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न जलवायु परिवर्तन से वर्षा का जल-चक्र गड़बड़ा गया है जिससे वर्षा की मात्रा कम हो गई है। दूसरी ओर, वृक्षों को अन्धाधुन्ध काटने से वनक्षेत्र कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होते जा रहे हैं। नतीजन वर्षा का जल भूमि के अन्दर समाहित नहीं हो पाता है जो खारा होने के कारण किसी काम का नहीं रह जाता।

जंगलों के कटने से धरती का हर साल एक प्रतिशत क्षेत्रफल रेगिस्तान में तब्दील होता है।

खाना पकाने के लिये जलावन लकड़ी काटने के कारण मृदा की नमी घट रही है जिस कारण भी भूजल-स्तर तेजी से गिर रहा है।

पहाड़ी क्षेत्रों में स्थिति और भी विकट है। वहीं हर साल वनों में लगने वाली आग से करोड़ों की वन सम्पदा तो नष्ट होती ही है, प्राकृतिक जल स्रोत भी सूख जाते हैं। भूमि के अन्दर जल भण्डारण न होने के कारण भूजल-स्तर बुरी तरह से प्रभावित होता है। पहाड़ों में अधिकांश वनभूमि चीड़ के पेड़ों से आच्छादित होती है। इस कारण वर्षा का जल ठीक से भूमि के अन्दर अवशोषित नहीं हो पाता है। यही नहीं, चीड़ के पेड़ों के और भी नुकसान हैं। गर्मियों में चीड़ के पेड़ों में आग लग जाती है जिससे करोड़ों की वन-सम्पदा तो नष्ट होती ही है, कई पारम्परिक जलस्रोत भी सूख जाते हैं। यह परोक्ष रूप से भूजल-स्तर को प्रभावित करता है। चीड़ के पेड़ विद्युत के सुचालक भी होते हैं। अतः चीड़ के वनों के निकट ही बादल फटने की अधिक घटनाएँ होती हैं। इस प्रकार भूजल के गिरते स्तर के पीछे अनेक कारण हैं। अब विभिन्न राज्यों में भूजल की स्थिति क्या है इसकी चर्चा करते हैं।

 

 

 

 

विभिन्न राज्यों में भूजल की स्थिति


हालाँकि पिछले कुछ दशकों से भूजल विकास की दिशा में केन्द्रीय भूजल बोर्ड तथा राज्य भूजल संगठनों (सीजीजेएसजीओ) ने भी अनेक कदम उठाए हैं, लेकिन देश में भूजल विकास की समग्र स्थिति मुश्किल से 58 प्रतिशत है। भूजल दोहन की स्थिति विभिन्न राज्यों में अलग-अलग पाई गई है। कुछ राज्यों में भूजल की स्थिति यह है कि इसका पूरी तरह से इस्तेमाल नहीं हो पाता है जबकि कुछ अन्य राज्यों में अति-दोहन की स्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं। उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, असम, बिहार, त्रिपुरा, केरल तथा मध्य प्रदेश उन राज्यों के उदाहरण हैं जिनमें भूजल का पूर्ण रूप से दोहन ही नहीं हो पाता है। इसके विपरीत, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, तमिलनाडु, कर्नाटक तथा उत्तर प्रदेश में भूजल के अतिदोहन से पर्यावरणीय संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है। खासकर, पंजाब राज्य के रोपड़, फतेहगढ़ साहिब, लुधियाना, गुरदासपुर, नवांराहर, जालंधर, पटियाला, संगरूर, अमृतसर, फिरोजपुर, मोंगा, मनसा, कपूरथला तथा फरीदकोट जिले, जो राज्य के 90 प्रतिशत क्षेत्र में आते हैं, में भूजल का अति-दोहन हुआ है। इसी प्रकार हरियाणा राज्य के निम्नलिखित जिलों में भूजल का अतिदोहन हुआ है; कुरुक्षेत्र, महेंद्रगढ़, पानीपत, रिवाड़ी, करनाल, कैथल, गुड़गाँव, भिवानी, यमुनानगर, फतेहाबाद और सोनीपत।

भूजल के अति दोहन ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। दरअसल, भूजल का उपयोग बैंक में जमापूँजी की तरह किया जाना चाहिए। अमर बैंक से जमा धन से अधिक धनराशि आहरित होगी तो क्या होगा? चेक सीधे-सीधे बाउंस हो जाएगा। इसी प्रकार धरती के अन्दर जितना जल संरक्षित हो, उसी हिसाब से ही निकासी होनी चाहिए। वर्तमान में, भूमि के अन्दर जल तो कम संग्रहित हो रहा है और विभिन्न माध्यमों से इसकी निकासी अधिक हो रही है। जिस प्रकार टंकी से पानी निकाले जाने पर उसका स्तर कम होता जाता है ठीक उसी प्रकार अति-दोहन से भूजल-स्तर भी नीचे गिरता जा रहा है।

 

 

 

 

भूजल के अति-दोहन से उत्पन्न समस्याएँ


भूजल के अत्यधिक दोहन या दुरुपयोग से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। अति-दोहन के परिणामस्वरूप भूजल स्तर में कमी तो हो ही रही है इससे उथले कुओं के सूख जाने की परेशानी भी उत्पन्न हो रही है। साथ ही इससे भूजल में समुद्री जल के प्रवेश से यह खारा हो रहा है तथा प्रदूषणकारी तत्वों के कारण यह जल संदूषित भी हो रहा है।

भूजल की निकासी कुओं और हैंडपम्पों के अलावा ट्यूबवेलों के माध्यम से भी की जाती है। ट्यूबवेलों से पानी की निकासी काफी गहराई से भी की जा सकती है। लेकिन ट्यूबवेल उथले या कम गहराई के कुओं को प्रभावित करते हैं क्योंकि इन कुओं का पानी ट्यूबवेल में चला जाता है। परिणामस्वरूप, उथले या कम गहराई तक खुदे कुएँ सूख जाते हैं। अधिकांश किसानों के कम गहराई वाले कुएँ खुदे होते हैं। इन कुओं के सूखने से किसानों की फसल नष्ट हो जाती है और वे भुखमरी के कगार पर पहुँच जाते हैं।

समुद्र किनारे बसे गुजरात आदि राज्यों में गहरे कुएँ खोदने से भूजल में समुद्र का खारा पानी प्रवेश कर जाता है। जीना तो दूर ऐसा पानी तो सिंचाई योग्य भी नहीं रह जाता। भूजल के अधिक दोहन से नदियाँ सूख रही हैं तथा नदी किनारे के वृक्ष मर रहे हैं। ऐसा माना जाता है कि भूजल के अति-दोहन के कारण गुजरात में साबरमती नदी सूखती जा रही है।

ट्यूबवेलों के द्वारा अधिक गहराई से पानी खींचे जाने के कारण धरती के गर्भ में पड़े हानिकारक रसायन आर्सेनिक, फ्लोराइड आदि ऊपर आ जाते हैं जो भूजल को प्रदूषित कर रोगों को जन्म देते हैं।

सिंचाई प्रणालियों के प्रकारथोड़ी मात्रा में फ्लोराइड हमारे दाँतों एवं हड्डियों के विकास के लिये आवश्यक होता है। दाँतों की ऊपरी परत एनामेल का निर्माण फ्लोराइड ही करता है। शरीर में फ्लोराइड की 0.5 से 1.0 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन यानी भाग प्रति दस लाख) मात्रा मान्य है। लेकिन अगर इसकी मात्रा पीपीएम से अधिक हो जाए तो यह दाँतों और हड्डियों के लिये हानिकारक होता है। अधिक फ्लोराइड के कारण दाँत खराब हो जाते हैं तथा इसे रीढ़, टाँगों, पसलियों और खोपड़ी की हड्डियाँ भी प्रभावित होती हैं। अधिक फ्लोराइड के कारण होने वाले इस रोग को फ्लोरोसिस कहते हैं।

आर्सेनिक भी स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक है। आरम्भिक लक्षणों के रूप में अतिसार वमन, शरीर में ऐंठन आदि देखने को मिल सकता है। यह फेफड़ों, किडनी, लीवर तथा त्वचा को प्रभावित करता है। इससे किडनी और लीवर का कैंसर भी हो सकता है।

भूजल में नाइट्रेट की उपस्थिति भी शरीर के लिये हानिकारक है। यह कैंसरकारक है तथा इसके कारण छोटे बच्चों में साइनोसिस नाम का रोग होता है जिसके असर से बच्चों की त्वचा नीली पड़ जाती है। इसलिये, इसे बच्चों का ‘नीला रोग’ (ब्लू बेबी सिंड्रोम) भी कहते हैं। यह मवेशियों को भी प्रभावित करता है जिससे उनके दुग्ध उत्पादन में भारी कमी आ जाती है।

भूजल में कैडमियम, सरकारी (पारा), लेड (सीसा) तथा कॉपर (तांबा) आदि भारी धातुएँ भी मौजूद होती हैं। ये शरीर में तरह-तरह की बीमारियों को जन्म देते हैं।

इस प्रकार देश में भूजल की स्थिति काफी गम्भीर एवं चिन्ताजनक है। इस दिशा में शीघ्र ही जरूरी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। कुछ सुझाव भी हैं जिनका पालन करने से भूजल के स्तर एवं गुणवत्ता में सुधार लाया जा सकता है। लेकिन इससे पहले सरकारी निकायों द्वारा उठाए गए कदमों के बारे में संक्षिप्त जानकारी हासिल करना उपयोगी होगा।

 

 

 

 

भूजल की मॉनिटरिंग एवं प्रबन्धन में सरकारी पहल


जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है, सन 1972 में केन्द्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी) के गठन से ही भूजल की मॉनिटरिंग एवं प्रबन्धन की दिशा में सरकारी पहल की शुरुआत हुई। इस कार्य हेतु देशभर में सीजीडब्ल्यूबी द्वारा स्थापित 15,000 नेटवर्क स्टेशन तथा राज्य भूजल विभाग द्वारा स्थापित 30,000 पर्यवेक्षीय कूपों द्वारा सतत रूप से भूजल की मॉनिटरिंग की जाती है। इस प्रकार प्राप्त डाटा का इस्तेमाल भूजल भंडारण में होने वाले परिवर्तन, दीर्घकालिक जलस्तर की प्रकृति तथा पानी की गुणवत्ता में लम्बे समय से हो रहे उतार-चढ़ाव का अध्ययन करने के लिये किया जाता है।

हालाँकि भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची-2 की प्रविष्टि 17 के अनुसार जलापूर्ति का विकास राज्य का विषय है। सन 1970 में कृषि मंत्रालय ने भूजल संसाधन के विनियमन (रेगुलेशन) और विकास के लिये एक मॉडल बिल तैयार किया था। इस बिल, जिसमें समय-समय पर संशोधन किए जाते हैं, को सीजीडब्ल्यूबी ने सन 1970 के दशक के शुरू में सब प्रसारित-प्रचारित किया था। इस बिल में भूजल प्राधिकरण के गठन का प्रावधान शामिल था। अधिसूचित क्षेत्रों में भूजल के निष्कर्ष एवं उपयोग के लिये एक लाइसेंसिंग निकास को स्थापित किए जाने का प्रावधान भी इस बिल में मौजूद था। अधिसूचित क्षेत्रों में विद्यमान भूजल उपभोक्ताओं के पंजीकरण की व्यवस्था भी इस बिल में थी। कुछ प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति में इस बिल में जुर्माने की व्यवस्था भी थी। लेकिन, भूजल राज्य का विषय होने के कारण केन्द्र द्वारा इस बिल के प्रावधानों का एक सीमा के बाद सख्ती से पालन कर पाना सम्भव नहीं हो पाया।

इसका संज्ञान लेते हुए शीर्षस्थ न्यायालय के निर्देशों के अनुपालन के लिये पर्यावरण और वन मंत्रालय ने पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 (1986 का 29) के अन्तर्गत केन्द्रीय जल प्राधिकरण बोर्ड का गठन किया। इसका उद्देश्य भूजल प्रबन्धन एवं विकास का विनियमन तथा नियंत्रण था।

सतही एवं भूजल की गुणवत्ता से सम्बन्धित पर्यावरणीय मुद्दों से निपटने के लिये पर्यावरण और वन मंत्रालय ने 29 मई, 2001 की जल गुणवत्ता आकलन प्राधिकरण का गठन किया जिसकी गजेट अधिसूचना 22 जून, 2001 को प्रकाशित की गई। इस प्राधिकरण को सतही और भूजल दोनों जल संसाधनों की गुणवत्ता की स्थिति की समीक्षा तथा आवश्यक कार्रवाइयों के लिये महत्त्वपूर्ण स्थानों यानी ‘हॉट स्पॉट्स’ का पता लगाने का अधिकार प्राप्त है।

गौरतलब है कि सन 1995 में भारत सरकार ने विश्व बैंक द्वारा वित्तपोषित राष्ट्रीय जलविज्ञान परियोजना को आरम्भ किया था जिसका उद्देश्य एक जलविज्ञान सूचना प्रणाली का सृजन करना था।

विनियमन द्वारा भूजल दोहन के नियंत्रण तथा सतही एवं भूजल के समेकित एवं समन्वित विकास के लिये पहली राष्ट्रीय जल नीति सन 1987 में स्वीकार की गई। नई राष्ट्रीय जल नीति अप्रैल 2002 में आई। इसका प्रारूप राष्ट्रीय जल संसाधन परिषद द्वारा गठित कार्यवाही दल द्वारा तैयार किया गया था।

 

 

 

 

भूजल के संवर्धन तथा उसकी गुणवत्ता में सुधार हेतु


भूजल की वर्तमान स्थिति को सुधारने के लिये भूजल का स्तर और न गिरे, इस दिशा में काम किए जाने के अलावा उचित उपायों से भूजल संवर्धन की व्यवस्था हमें करनी होगी।

वर्षाजल संरक्षणकुओं और ट्यूबवेलों की गहराई निश्चित करनी होगी। लगभग 400 फुट (120 मीटर) तक ही ड्रीलिंग की जानी चाहिए। लेकिन जल संसाधन राज्य का विषय होने के कारण केन्द्र दिशा-निर्देश देकर अधिसूचित क्षेत्रों के लिये इसका सख्ती से पालन करे, फिलहाल एक सीमा के बाद यह सम्भव नहीं दिखता है। लेकिन, स्थानीय-स्तर पर लोगों में गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा इस बारे में जागरुकता उत्पन्न की जा सकती है। किसानों द्वारा ऐसी फसलें उगाई जाएँ जिनमें पानी की खपत कम-से-कम हो। सिंचाई के लिये ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों को लोकप्रिय बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए।

इसके अलावा, भूजल पुनर्भरण तकनीकों को अपनाया जाना भी आवश्यक है। वर्षाजल संचयन (रेनवॉटर हार्वेस्टिंग) इस दिशा में एक कारगर उपाय हो सकता है। छत पर प्राप्त भारी रूफटॉप वर्षाजल तथा सतही अप्रवाह जल दोनों के संचयन से ही यह काम हो सकता है। इस प्रकार वर्षा के दौरान व्यर्थ बह रहे जल को रोककर भूजल की गुणवत्ता में सुधार होगा तथा उसकी पुनर्भरण क्षमता भी बढ़ेगी।

लवणयुक्त या तटवर्ती क्षेत्रों में वर्षाजल संचयन से भूजल का खारापन कम हो जाता है। तथा स्वच्छ जल और खारे पानी के बीच जल-रासायनिक हाइड्रोकेमिकल सन्तुलन को बनाए रखने में मदद मिलती है। समुद्री द्वीपसमूह में स्वच्छ जल की सीमित मात्रा के कारण घरेलू उपयोग के लिये छत पर प्राप्त यानी रूफटॉप वर्षाजल संचयन सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। रेगिस्तान जहाँ वर्षा बहुत कम होती है, में भी वर्षाजल संचयन से लोगों को राहत मिलती है। पर्वतीय भू-भागों में सामान्यतया रूफटॉप वर्षाजल संचयन को प्राथमिकता दी जाती है।

पहाड़ी तथा कठोर शैल वाले क्षेत्रों में कृत्रिम रीचार्ज द्वारा भूजल संवर्धन की अनेक सम्भावनाएँ हैं। आगामी दशकों में इन तकनीकों के माध्यम से भूजल संसाधनों के संवर्धन पर अधिकाधिक बल देना होगा। कृत्रिम रीचार्ज द्वारा खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में ढलान, नदियों तथा नालों के माध्यम से व्यर्थ जा रहे जल को बचाकर उससे भूजल संवर्धन के कार्य को अंजाम दिया जा सकता है। गली प्लग, परिरेखा यानी कंटूर बन्ध, गेबियन संरचना, चेक डैम, अन्तः स्रवण यानी परकोलेशन टैंक, पुनर्भरण यानी रीचार्ज शाफ्ट, कूप पुनर्भरण यानी डगवेल रीचार्ज, भूजल बाँध, नाला बाँध, उपसतही डाइक आदि कृत्रिम रीचार्ज की कुछ तकनीकें हैं। इन्हें अपनाकर भूजल संवर्धन कार्य को बढ़ावा दिया जा सकता है।

जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है, घटते भूजल-स्तर की एक वजह तेजी से कटते वन क्षेत्र भी हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में चीड़ के वृक्षों की जगह बांज और बुरांश तथा चौड़ी पत्तियों वाले अन्य प्रकार के वृक्षों के रोपण को प्राथमिकता देकर भूजल संवर्धन के कार्य में मदद मिल सकती है।

हमारे देश में स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सतही एवं भूजल का मिला-जुला, लगभग बराबर मात्रा में उपयोग किया जाता था। इसे अपनाकर भूजल पर बढ़ते दबाव को कम किया जा सकता है।

भूजल से प्राप्त जल को दैनंदिन के विभिन्न क्रियाकलापों जैसे बागवानी, गाड़ी धोने, नहाने, मंजन करने, बर्तन धोने आदि के लिये भी इस्तेमाल किया जाता है। इस जल का बहुत किफायत से इस्तेमाल करना चाहिए। पानी का किफायत से उपयोग किए जाने के प्रति जागरुकता फैलानी आवश्यक है, इसलिये ‘बूँद-बूँद पानी अनमोल, सारे घरवालों को बोल’ उक्ति इस जागरुकता को फैलाने में विशेष सहायक हो सकती है। इस तरह पानी का अपव्यय बचने से परोक्ष रूप से भूजल संवर्धन के कार्य को ही बढ़ावा मिलेगा।

भूजल संसाधनों के बारे में जनसाधारण को जागरूक बनाने और जल की महत्ता के बारे में उन्हें शिक्षित करने के लिये प्रदर्शनी, डॉक्यूमेंटरी फिल्मों, सूचनापरक विज्ञापनों आदि का सहारा भी लिया जा सकता है। हाल के वर्षों में, सुदूर संवेदन उपग्रह-आधारित चित्रों के विश्लेषण तथा भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) द्वारा भूजल संसाधनों के प्रबन्धन में मदद मिली है। भूजल की मॉनिटरिंग एवं प्रबन्धन में भविष्य में ऐसी समुन्नत तकनीकों को और बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है।

 

 

 

 

लेखक परिचय


डॉ. प्रदीप कुमार मुखर्जी
लेखक वरिष्ठ विज्ञान लेखक हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं।
ई-मेल : pkm_du@rediffmail.com

 

 

 

 

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