भूकम्प : उत्पत्ति एवं प्रभाव

30 Jul 2015
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भूकम्प का अभिप्राय सामान्यतः पृथ्वी की सतह के कम्पन से है। यह कम्पन पृथ्वी पर जीवन एवं सम्पत्ति को हानि पहुँचाने के लिए पर्याप्त होता है। भूकम्प की तीव्रता को सीस्मोमीटर (आधुनिक रूप) या रिएक्टर स्केल द्वारा मापा जाता है जिसे सीस्मोग्राफ कहते हैं। भूकम्प के फलस्वरूप झटकों को मरकैली पैमाने पर मापा जाता है। भूकम्प की तीव्रता में, एक तीव्रता की वृद्धि (यानी 6.0 से 7.0) होने पर उसका प्रभाव दस गुना अधिक हो जाता है। भूकम्प के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए, दो माप निर्धारित किये गये हैं। पहला 3 तीव्रता या उससे कम, जिसे कमजोर अथवा अगोचर माना गया है, जबकि तीव्रता 7.0 या उससे अधिक तीव्रता के भूकम्प को अति विनाशकारी माना गया है। विशेषज्ञों द्वारा अध्ययन के फलस्वरूप तीव्रता 9.0 वाले भूकम्प को अधिकतम तीव्रता वाला माना गया है, परन्तु भूकम्प की अधिकतम सीमा तय नहीं की गई है।

सामान्यतः भूकम्प आने के अनेक कारण हो सकते हैं इनमें मानव जनित (खनन आदि हेतु विस्फोट, परमाणु परीक्षण आदि) तथा प्राकृतिक भूकम्प (ज्वालामुखी, विवर्तनिक क्रिया आदि) दोनों ही हो सकते हैं, किन्तु पृथ्वी की सतह में कम्पन का एक ही कारण है वह है मानवजनित या प्राकृतिक हलचलों के फलस्वरूप उत्पन्न ऊर्जा, जो भूकम्प के लिए उत्तरदायी होती है। यह ऊर्जा भू-सतह पर भूकम्पी तरंगे उत्पन्न करती है जो कम्पन या विस्थापन कर प्रकट होती है। भू-गर्भ में भूकम्प के प्रारम्भिक बिन्दु जहाँ पर यह उत्पन्न होता है उस बिन्दु को केन्द्र अथवा फोकस कहते हैं तथा पृथ्वी सतह पर ठीक उसके ऊपर के बिन्दु को अधिकेन्द्र (Epicenter) कहा जाता है। भूकम्पी तरंगे तीन प्रकार की होती हैं-

1. प्राथमिक तरंगे (P-Wave)- प्राथमिक तरंग को अनुदैर्ध्य तरंग या ध्वनि तरंग भी कहते हैं क्योंकि ये तरंगे ध्वनि तरंगों की भाँति व्यवहार करती हैं। यह तरंगे सबसे तेज गति से चलती हैं और ठोस तथा द्रव माध्यम दोनों से चल सकती हैं।
2. द्वितीयक तरंगे (S-Wave)- द्वितीयक तरंग को अनुप्रस्थ तरंग या प्रकाश तरंग भी कहते हैं, क्योंकि ये प्रकाश तरंगों की भाँति व्यवहार करती हैं। यह तरंगे द्रव माध्यम में लुप्त हो जाती हैं अतः इसी तरंग को सिस्मोग्राफ पर अध्ययन से पता चलता है कि पृथ्वी का क्रोड (केन्द्र) द्रवीय अवस्था में है।
3. सतही तरंगे (Surface-Wave)- यह तरंगे केवल धरातल पर चलती हैं अतः इसी से सर्वाधिक नुकसान पहुँचता है।

विशेषज्ञों का यह मानना है, कि पृथ्वी की सतह से लेकर केन्द्र तक, पृथ्वी कई परतों में विभक्त है। इन परतों को खण्डों या प्लेटों की संज्ञा प्रदान की गई है। पृथ्वी की बाह्य सतह में कई खण्डों अथवा चट्टानों के मिलन स्थल पर भ्रंश अथवा फॉल्ट का निर्माण हो जाता है। कई लाखों वर्षों के समयान्तर में ये विवर्तनिक प्लेटें विस्थापित होती और अलग भी होती हैं, इस कारण घर्षण से ऊर्जा का उत्सर्जन होता है जो इन भूखण्डों में दबाव के फलस्वरूप पृथ्वी सतह पर भूकम्प के रूप में प्रकट होती है। अपकेन्द्रित प्लेट सीमाओं पर जब एक प्लेट दूसरी के नीचे खिसक जाती है या फिर पृथ्वी सतह पर पर्वत श्रृंखला का निर्माण करती है, दोनों ही स्थितियों में प्लेटों के मिलन स्थल पर भयावह तनाव उत्पन्न हो जाता है। इसी तनाव का अचानक निष्कासन भूकम्प को जन्म देता है।

विवर्तनिकी सिद्धान्त के अनुसार विश्व की समस्त पर्वत शृंखलाओं का निर्माण विवर्तनिक घटनाओं के परिणामस्वरूप ही हुआ है। विश्व की सबसे ऊँची पर्वत शृंखला हिमालय का निर्माण भी ऐसी ही दो प्लेटों (यूरेशियन प्लेट तथा भारतीय प्लेट) के पास आने तथा टेथीज सागर में जमा अवसाद के संपीडन से हुआ है।

विवर्तनिकी सिद्धान्त का विकास पुरा-जलवायु विज्ञानी, वैगनर के 1912 में प्रतिपादित सिद्धान्त जो कि 1915 में ‘महाद्वीपों एवं महासागरों की उत्पत्ति’ के रूप में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने महाद्वीपीय विस्थापन को प्रस्तुत किया है।

इस विवर्तनिकी सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि इन प्लेटों के परस्पर घर्षण से ही, अधिकाशतः महाद्विपीय सीमाओं पर भूकम्प अत्यधिक सक्रिय रहे हैं।

पुरातत्व विज्ञानियों द्वारा यह परिकल्पना की गई कि 300 मिलियन वर्ष पूर्व एक अतिविशाल महाद्वीप पैंजिया का निर्माण हुआ जो 100 मिलियन वर्ष बाद टूटना प्रारम्भ हुआ जिसके फलस्वरूप उत्तरी वृहत महाद्वीप लौरेसिया तथा दक्षिणी वृहत महाद्वीप गोडवाना का निर्माण हुआ।

शोधकर्ताओं द्वारा यह माना गया है कि लगभग 14 करोड़ वर्ष पूर्व भारत भी गोडवाना महाद्वीप का ही हिस्सा था तथा 12 करोड़ वर्ष पूर्व यह गोडवाना से टूटकर 5 सेमी/वर्ष की रफ्तार से उत्तर दिशा की ओर गति करते हुए 5 करोड़ वर्ष पूर्व यूरेशिया महाद्वीप से जा टकराया और अत्यधिक दबाव से ही हिमालय का निर्माण हुआ। जहाँ की विवर्तनिक घटनाऐं अत्यधिक तेजी से घटित होती रही है। यूरेशियन प्लेट अत्यधिक दबाव के कारण जहाँ हिमालय का निर्माण अब भी सतत है वहीं इस क्षेत्र में भूकम्प की घटनाएँ भी घटित होती रहती हैं। अति संवेदनशील होने के कारण इस परिक्षेत्र में भूकम्प का प्रभाव भी तुलनात्मक रूप से अधिक होता है। हाल ही में नेपाल में आए भूकम्प को इसके प्रत्यक्ष प्रमाण के रूप में माना जा सकता है।

.भूकम्प के प्रभावों में मुख्यतः झटके, भू-भाग का फट जाना आदि की क्षति पहुँचती है। भूकम्प के कारण मृदा का द्रवीकरण हो सकता है जिससे सतह एवं इमारतें नष्ट हो सकती है। पर्वतीय क्षेत्रों में भूकम्प के परिणामस्वरूप भू-स्खलन, हिमस्खलन, बाढ़ आदि घटनायें जन्म लेती हैं, इतना ही नहीं भूकम्प से क्षतिग्रस्त संरचनायें, बाढ़, सुनामी आदि अति आतंकित आपदाओं को जन्म देती हैं, जो व्यापक स्तर पर जीवन की हानि, सम्पत्ति की क्षति, मूलभूत सुविधाओं की क्षति आदि प्रभाव डालती हैं। विशेषज्ञों के अनुसार विश्व भर में प्रतिवर्ष लगभग 5 लाख से भी अधिक भूकम्प आते हैं। किन्तु इनमें से लगभग 1 लाख से ही महसूस किये जा सकते हैं। इनमें से भी कुछ ही क्षतिकारक होते हैं। ‘यूनाइटेड स्टेट जियोलॉजिकल सर्वे’ के अनुसार वर्ष 1900 से अब तक 18 बड़े भूकम्प जिनकी तीव्रता 7.0 से 7.9 तक होती है तथा एक अत्यधिक तीव्रता (8.0 या उससे अधिक) वाला भूकम्प प्रतिवर्ष घटित हो रहा है किन्तु कुछ वर्षों में अधिक तीव्रता वाले (7.0 से 7.9) भूकम्प कम ही घटित हुए हैं। विश्व के सर्वाधिक 90 प्रतिशत (81 प्रतिशत बड़े) भूकम्प प्रशान्त भूकम्पीय बैल्ट के 40 हजार किमी क्षेत्र में फैले परिक्षेत्र में घटित हुए हैं। ऐतिहासिक आँकड़ों के अनुसार भूकम्पों की संख्या तथा इससे हुई क्षति की घटनाएँ तो असंख्य हैं।

विश्व के अतिविनाशकारी भूकम्पः


1. वर्ष 1556 में चीन में आये अत्यधिक तीव्रता वाले भूकम्प के कारण लगभग 8.3 लाख लोगों की मृत्यु हुई तथा कई सम्पत्तियों को नुकसान पहुँचा।
2. यदि वर्ष 1950 के बाद की बात करें तो 1976 में तांगसान, चीन में आये भूकम्प ने भी जमकर तबाही मचायी जिसमें 2.4 लाख से 6.5 लाख तक मृत्यु होने का अनुमान लगाया गया था। इसे शताब्दी का सर्वाधिक भयावह भूकम्प माना गया है।
3. वर्ष 1990 में ईरान तथा इसी वर्ष तुर्की में आये 7.9 तीव्रता वाले भूकम्पों ने क्रमशः 40 हजार व 18 हजार जानें ली।
4. वर्ष 1960 में चिली में आये 9.5 तीव्रता वाले भूकम्प ने अत्यधिक नुकसान किया तथा इसे अब तक का सर्वाधिक तीव्रता वाला भूकम्प माना गया है।

5. वर्ष 2004 में हिन्द महासागर में आये 9.1 तीव्रता वाले भूकम्प को भी अत्यधिक विनाशकारी कहा जाता है जिसमें करीब 1.5 लाख लोगों की मृत्यु हुई। इस भूकम्प का प्रभाव थाईलैंड, इण्डोनेशिया व मालद्वीप पर पड़ा।6. वर्ष 2005 में कश्मीर तथा पाकिस्तान क्षेत्र में आये 7.6 तीव्रता वाले भूकम्प ने भी लगभग 85 हजार जानें ली थी।
7. वर्ष 2008 में पुनः चीन में 8.0 तीव्रता वाला भूकम्प घटित हुआ, जिसमें सिचुआन शहर में लगभग 69,197 लोगों की मृत्यु हो गई और अरबों की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचा।
8. जापान में वर्ष 2011 में 9.3 तीव्रता का भूकम्प आया। इस भूकम्प में भी लगभग 16 हजार लोगों की जानें चली गई व कई अरब डॉलर की सम्पत्ति तबाह हो गई।
9. अप्रैल 2015 में नेपाल-भारत में आये 7.8 की तीव्रता वाले भूकम्प में भी मृतकों की संख्या लगभग 8 हजार के पार पहुँच गई।

भारत को भी समय-समय पर अनेकों भूकम्पों का सामना करना पड़ा है जिसमें कश्मीर, गुजरात एवं उत्तराखण्ड में आये भूकम्प प्रमुख हैं।

हिमालयी परिक्षेत्र की भूकम्प के प्रति संवेदनशीलता को ध्यान में रखते हुए ही विशेषज्ञों द्वारा भारतीय भू-भाग के लगभग 54 प्रतिशत भू-भाग को संवेदनशील माना गया है। इसी के आधार पर भारत को पाँच भागों में बाँटा गया है तथा जोन 1 से जोन 5 में वर्गीकृत किया गया है, जोन 5 को सर्वाधिक संवेदनशील तथा जोन 2 को कम संवेदनशीलता माना गया है, जबकि जोन 1 को भूकम्प से सुरक्षित माना गया है। सम्पूर्ण हिमालयी परिक्षेत्र (उत्तर-पश्चिम से पूर्वोत्तर तक) तथा कुछ भू-भाग गुजरात, राजस्थान को जोन 5 व 4 में रखा गया है अर्थात ये क्षेत्र भूकम्प की दृष्टि से अति-संवेदनशील हैं।

भारत में भूकम्प अध्ययन केन्द्र, जो कि भारतीय मौसम विभाग का हिस्सा है, पृथ्वी विज्ञान मन्त्रालय के तहत नोडल एजेन्सी के रूप में भूकम्प पर निगरानी एवं सूचना प्रसार हेतु स्थापित किया गया है। यद्यपि, भूकम्प का पूर्वानुमान आज भी लगा पाना अत्यधिक कठिन है तथा इसे आने से नहीं रोका जा सकता फिर भी इसके फलस्वरूप होने वाले जीवन एवं सम्पत्ति के नुकसान को कम किया जा सकता है।

वास्तव में भूकम्प के कारण किसी भी राष्ट्र की अर्थव्यवस्था पूरी तरह डगमगा जाती है किन्तु विकासशील देशों में इसका असर और भी भयावह होता है। इन देशों की आर्थिक, सामाजिक स्थिति कमजोर होने के कारण गरीबी, शिक्षा के संसाधनों व स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव जैसी समस्याएँ और खतरों को भी जन्म देती हैं। भूकम्प का प्रभाव हर वर्ग पर तो पड़ता ही है किन्तु किसी भी आपदा से महिलायें, बच्चे तथा वृद्ध व्यक्ति सर्वाधिक प्रभावित होते हैं।

भूकम्प के प्रभाव को वैश्विक जलवायु परिवर्तन ने भी गति प्रदान की है परन्तु भूकम्प के विनाशकारी प्रभाव को कम किया जा सकता है। इसके लिए भवनों के निर्माण के समय भूकम्प-रोधी तकनीक का समायोजन, भूकम्प के विषय में जागरूकता, सक्षम व्यक्तियों को बचाव कार्यों हेतु प्रशिक्षण, भूकम्प का सामना करने हेतु बचाव के उपाय तथा परस्पर सहयोग की भावना का होना अत्यधिक जरूरी है। मानव जनित गतिविधियाँ जिनके फलस्वरूप भूकम्प या दुष्प्रभाव हो सकता है उन पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है। हमें सर्वप्रथम इससे सम्बन्धित नीतियों, नियमों एवं कानूनों को सुदृढ़ कर उन्हें लागू करने की आवश्यकता है। इसके साथ-साथ समेकित पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के विकास एवं संरक्षण पर बल देना चाहिए तथा सतत विकास की अवधारणा को अंगीकार करने का प्रयास करना होगा। इन सभी के अभाव में स्थितियाँ अत्यधिक भयावह हो सकती हैं तथा मानव अस्तित्व संकट में पड़ सकता है।

पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधन विभाग, दून विश्वविद्यालय, देहरादून, लेखक ईमेल : knbalodidoon@gmail.com

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