भूमि को प्रदूषण से बचाने की करें शुरूआत

विशेषज्ञों का कहना है कि पर्यावरण में बदलाव के कारण भारत में चावल और गेहूं की ऊपज में कमी आयेगी। पर्यावरण में हो रहे बदलाव के परिणाम स्वरूप प्राकृतिक आपदाओं में बढ़ोतरी होगी और इसकी सबसे गहरी चोट गरीबों पर पड़ेगी।

स्वस्थ, उर्वर व अच्छी मिट्टी मनुष्य के लिए अनमोल उपहार है। इसके बिना मनुष्य के अस्तित्व की कल्पना नहीं कर सकते। पर, तुरंत लाभ पाने व भविष्य के बारे में सोचे बिना हम अपनी मिट्टी को प्रदूषित कर रहे हैं। उसी मिट्टी को जिसे हम धरती मां भी कहते हैं और खुद को धरती पुत्र कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं। मिट्टी को प्रदूषण व क्षरण से बचाने की जिम्मेवारी पंचायत निकाय पर भी है। हम यहां कुछ ऐसे उपायों पर चर्चा कर रहे हैं, जिससे मिट्टी को सुरक्षा संभव है।

रासायनिक उर्वरकों का करें कम व संतुलित उपयोग

भूमि का प्रदूषण से बचाना आवश्यक है। देश में रासायनिक उर्वरकों का उपयोग आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा है। हालांकि इसका फौरी लाभ बेहतर कृषि उत्पाद के रूप में मिला है, लेकिन इसका दीर्घकालीन नुकसान भूमि के बंजर होने जैसे खतरे हैं। अध्ययन बताते हैं कि खेतों में अधिक मात्रा में उर्वरक डाले जाने से वे जमीन में मिल जाते हैं, जिस कारण भूमि का जल भी प्रदूषित हो रहा है। साल 1991-92 में उर्वरकों का इस्तेमाल प्रति हेक्टेयर 69.8 किलोग्राम था, जो साल 2006-7 में बढ़ कर 113.3 किलोग्राम हो गया। इन सालों में उर्वरकों के इस्तेमाल में 3.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यूरिया का इस्तेमाल अत्यधिक मात्रा में हो रहा है। उर्वरकों में नाइट्रोजन-फास्फेट-पोटाशियम का अनुपात 4-2-1 होना चाहिए, लेकिन फिलहाल यूरिया का इस्तेमाल 6-2 और 4-1 के अनुपात में हो रहा है। योजना आयोग की स्थायी समिति के अनुसार, नाइट्रोजन आधारित उर्वरक पोटाश या फास्फेट आधारित उर्वरक की तुलना में ज्यादा अनुदानित हैं, इसलिए इसका ज्यादा फायदा उन इलाकों और फसलों को होता है, जहां नाइट्रोजन आधारित उर्वरक की जरूरत ज्यादा है। यूरिया के ज्यादा उपयोग का असर भूमि की उर्वरा शक्ति पर पड़ रहा है।

खेत में नहीं लगायें आग

किसान अकसर चावल व गेहूं के डंठल व जड़ वाले हिस्से को खेत में जला देते हैं। कुछ लोगों में यह मान्यता है कि इससे भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। लेकिन शोध बताता है कि कृषि अवशिष्ट को जलाने से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी आयी है। साथ ही वायु प्रदूषण बढ़ा है। पंजाब, हरियाणा व उत्तरप्रदेश में अगली फसल लगाने से पहले यह आम प्रचलन है। बिहार-झारखंड जैसे राज्यों में ऐसे मामले छिटपुट ही देखने में आते हैं, जो कि अच्छी बात है। पौधों के डंठल में नाइट्रोजल, फास्फेट और पोटाश होता है। अगर किसान उसे जलाने के बजाय गला लें, तो काफी अच्छा उर्वरक साबित होगा। जबकि जलाने से भूमि प्रदूषण भी होता है और वायु प्रदूषण भी होता है। जलाने से उत्पन्न गर्मी के कारण भूमि के तीन इंच की परत के नाइट्रोजन, फास्फेट और पोटाश का संतुलन बदल जाता है।

मिट्टी के कटाव को बचायें

भूमि की ऊपरी परत उर्वर होती है। उसका पानी, हवा या अन्य कारणों से कटाव किसानों के लिए क्षति पहुंचाने वाला साबित होता है। इसके कटाव को रोकना जरूरी है। आसपास की नदियों भी भूमि अपरदन करती हैं। पर्वतीय हिस्सों में वर्षा जल व नदियों के कारण होने वाले अपरदन से भूस्खलन का भी खतरा उत्पन्न होता है। इसे रोकने के लिए खेत के किनारे, नदी के आसपास के इलाके में पेड़ लगाना जरूरी है। इससे पर्यावरण का संतुलन भी बनेगा।

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