भूवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य में पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन, प्रारम्भ से वर्तमान तक


‘‘किस प्रकार के जैविक, रासायनिक और भूभौतिकीय कारणों से वायुमण्डल अस्तित्व में आया और फिर जिसने जटिल जीवों के विकास का मार्ग सुगम बनाया ?’’ सरीखे अभूतपूर्व प्रश्न को केंद्र बिंदु बनाकर 2008 में साइंस में फकोसकी तथा इसोजोकी ने भूविज्ञान परिचर्चा में ‘ऑक्सीजन की कहानी’ शीर्षक के अंतर्गत अपना मत व्यक्त करते हुए निम्नवत तथ्य प्रस्तुत किये।

पृथ्वी के वायुमण्डल में नाइट्रोजन तथा आॅक्सीजन की प्रचुरता वर्तमान का एक तथ्य है। नाइट्रोजन पृथ्वी के मौलिक तत्वों में से एक है इसकी उपस्थिति तथा प्रचुरता जीव जगत से संचालित होने के कारण घटती बढ़ती नहीं है। दरअसल नाइट्रोजन लगभग निष्क्रिय है और वायुमण्डल में इसका जीवन काल लगभग दस करोड़ वर्ष है। लेकिन ऑक्सीजन के मामले में स्थिति बिल्कुल विपरीत है तथा इसका सतत उत्पादन जीव जगत द्वारा सूर्य ऊर्जा का प्रयोग करके जल से ऑक्सीजन को मुक्त कर किया जाता है। पृथ्वी के प्रारंभ काल में निश्चित रूप से यह लगभग नगण्य मात्रा में थी तथा अत्यंत क्रियाशील होने के कारण इसका वायुमंडल में जीवन काल लगभग 40 लाख वर्ष ही है। फिर भी तुलनात्मक रूप से अतिक्रियाशील होने के कारण वातावरण में अल्पायु होने के बावजूद पिछले लगभग 50 करोड़ वर्षों से 10 प्रतिशत से 30 प्रतिशत वायुमंडल के आयतन का हिस्सा बनी रही है।

इन तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह जानना अपने आप में अत्यंत रोचक है कि ऑक्सीजन जो हम सभी के लिये प्राणवायु है किस प्रकार पृथ्वी के वर्तमान वातावरण में प्रचुरता के रूप में दूसरा स्थान बना सकी है। यह आसान लगने वाली आॅक्सीजन के वर्तमान स्तर तक आने की कहानी वास्तव में गहन सोच तथा समझ के बाद ही समझनी पड़ेगी। इस सबके लिये जानना होगा कि सबसे पहले O2 पृथ्वी पर कब और कैसे आयी तथा इसकी प्रचुरता में पृथ्वी में वातावरण का हिस्सा अनवरत रूप से कैसे बनी रही।

परमाण्विक (एलिमेंटल) ऑक्सीजन नामक रासायनिक तत्व, अत्यंत गर्म स्टारों के परिवेश में, मौलिक रासायनिक क्रियायों का उत्पाद बनकर पृथ्वी के बिल्कुल प्रारंभ में अन्य तत्वों के साथ रसायन पदार्थ के रूप में मिला था। बाद में एक के बाद एक चल रहे ठंडे तथा गर्म के क्रमों में ऑक्सीजन ने सिलिका तथा कार्बन के साथ मिलकर बने दो प्रमुख अनायनों ने धात्विक केटाआयनों से मेंटल तथा कृस्ट के आधारभूत खनिजों को तथा हाइड्रोजन से जुड़कर जल को जन्म दिया। इस तरह मिले जल के अलावा ज्ञात हो कि मितिओरितों तथा संभवतः कमेटो से भी पृथ्वी की सतह पर जल आया। किस प्रकार से कितना जल प्राप्त हुआ इसके बारे में अभी कुछ अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। यह जरूर ज्ञात है कि पृथ्वी के स्थूल रूप में आने के 20 करोड़ वर्ष के अदंर ही जल पृथ्वी की सतह का हिस्सा था। जल जीवन की प्रथम आवश्यकता है लेकिन जल से ऑक्सीजन जैविक विधि द्वारा प्राप्त करने के लिये स्वयं में पर्याप्त नहीं है।

जल से ऑक्सीजन, जल को उसके रासायनिक अवयवों में अल्ट्रावायलेट (पराबैंगनी) प्रकाश द्वारा विभाजित कर प्राप्त की जा सकती है। लेकिन अत्यंत सीमित मात्रा में ही यह संभव होगा क्योंकि इस प्रकार प्राप्त O2 पराबैंगनी प्रकाश को रोकने का प्रयास कर, क्रिया की गति अत्यंत धीमी कर देता है। इस प्रकार O2 का प्रमुखतम स्रोत पृथ्वी के जीवों द्वारा किया गया। प्रकट रूप से एक प्रकार के बैक्टीरिया ने इसको प्रारंभ किया जिसे बाद में सभी ने अपना लिया और निरंतर पीढ़ी दर पीढ़ी उपयोग में लाते रहे। इस प्रकार इस आदि जीव से सभी प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया अपनाने वाले युकेरियाट जिनमें अलगी तथा बड़े वृक्ष समूह सम्मिलित हैं ने वर्तमान की नींव रखी।

आक्सीकरण तकनीक के मूल में फोटोसिस्टम II है। जिसमें एक बड़े प्रोटीन समुच्चय में चार मैंग्नीज परमाणु फोटो कैटालिटिक तौर से आक्सीकृत होकर इलेक्ट्रॉन उत्सर्जन करता है। O2 की निम्नवत प्राप्ति होती है।

2H2O→ 4e + 4H+ +O2
यह उपलब्ध इलेक्ट्रान और प्रोटान CO2 को अनाक्सीकृत कर जैविक पदार्थ और जल को बनाते हैं।
CO2 – 4H → (CH2O) + H2O

पृथ्वी पर इस प्रकार प्राप्त होने वाली O2 लाख के समय स्तर पर, प्राणवायु के रूप में व्यय होने की प्रक्रिया से जुड़ी होने के कारण लगभग नगण्य मात्रा में ही शेष रहती है। O2 के व्यय को सीमित करने के लिये जैविक पदार्थों का भूतल में समाहित हो जाना उपयोगी जान पड़ा और इसी के चलते पृथ्वी तल पर O2 की उपलब्धि दिखाई पड़ रही है। अब यह कहने का औचित्य बनता है कि O2 को प्रकाश संश्लेषण से प्राप्त करने के साथ-साथ पृथ्वी तल पर वातावरण में स्थान बनाने के लिये जरूरी है कि जैविक तत्वों को उपलब्ध ऑक्सीजन व्यय न करने देने के लिये भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से भूतल में बंदी बना लिया जाये। यदि प्रकाश संश्लेषण O2 के पृथ्वी पर प्रचुर मात्रा में पाये जाने के लिये आधारभूत आवश्यकता है तो अवसादीकरण द्वारा जैविक का भूतल में इकट्ठा करने का कार्य इसमें सफलता का मूलमंत्र है।

पृथ्वी पर O2 की उपलब्धता को वर्तमान स्तर पर बनाये रखने के लिये ऑक्सीजन को कम करने वाले जैविक कार्बन का लम्बे समय के लिये वातावरण से दूर करने के लिये भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से डालना जरूरी है। प्रक्रियाओं से भूतल पर इनका अवसादी सस्तरों में इकट्ठा किया जाना सबसे प्रमुख तरीका है। यह अवसादी स्तर बड़े-बड़े भूभागों पर बन सकते हैं तथा समुद्र की गहराइयों में भी। एक अल्प तरीका भी है जिसके पृथ्वी की ऊपरी सतह मैटल में समाहित हो जाती है जिसमें साथ-साथ जैविक कार्बन भी अधिक समय के लिये O2 के उपयोग से दूर हो जाता है। इन सभी भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के आधार में प्लेट टेक्टानिक्स काम करती है जिसके लिये आवश्यक बल रेडियोजेनिक ऊष्मा से चलने वाले मेंटल के कंवेक्शन उपलब्ध कराते हैं। भूतल की प्लेटों का मिलना अलग होता है तथा इसी क्रम से समुद्री प्लेटों को विशाल भूखण्डों में अंतर्रिनिद्रित होते हुए समुद्र तल में निछेपित जैविक तत्व का विवर्तिकी के द्वारा समुद्रतटीय पर्वतों से भूतल का हिस्सा बन कर भूभागों का आकार बढ़ा देते हैं। वास्तव में जब तक समुद्र में संग्रहित जैविक कार्बन विवर्तिनिकी के चक्र में आकर बड़े-बड़े भूभागों का हिस्सा नहीं बन जाते समुद्रतलीय प्लेटों के साथ अंतर्निहित होने पर गर्म होकर ज्वालामुखी के रास्ते वातावरण का हिस्सा बनकर O2 की मात्रा को कम करते हैं।

इस प्रकार पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन की सतत प्रचुर उपलब्धता और जैविक कार्बन के भूवैज्ञानिक प्रक्रिया पिछले लगभग 50 करोड़ वर्षों से चली आ रही अनवरत क्रियाशीलता का परिणाम है। स्पष्ट रूप से भूवैज्ञानिक समयकाल के स्तर पर ऑक्सीजन उत्पाद और खर्च में विसंगति का ही परिणाम है कि आज वातावरण में पर्याप्त ऑक्सीजन है। ऑक्सीजन युक्त वातावरण के निर्माण के लिये जैविक कार्बन की समुचित मात्रा में आमद और व्यय के चक्र से अलग किया जाना आवश्यक प्राथमिकता है।

अतीत में पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन का प्रतिशत का अनुपात लगाने के कौन-कौन से सटीक साधन हैं। वास्तव में ऐसा कोई सटीक साधन नहीं है। प्रमुख रूप से कारबोनेट तथा किसी हद तक सल्फर के खनिजों से कार्बन तथा सल्फर के समस्थानिकों (आईसोटोपो) को गुणानुवाद के आधार पर सांख्यकीय (क्वांटिटेटिव) पुनर्निमाण का प्रयास किया जाता है। प्रकाश संश्लेषित (फोटोसिथेंटिक) कार्बन एकत्रीकरण (फिक्सेशन) में 13CO2 को यथा संभव दूर ही रखा जाता है और परिणाम स्वरूप जनित जैविक तत्वों में 12CO2 पृथ्वी (मेंटल) से प्राप्त होते हैं CO2 (= 12CO2 + 13 CO2) की तुलना में अधिक मात्रा में होती है। इसके विपरीत HCO3-, Ca2+ तथा Mg2+ के साथ समुद्र में निक्षेपित होने पर कारबोनेट बनाने पर 12C तथा 13C में भेद करते हुए स्रोत से प्राप्त समस्थानिकों की तुलनायुक्त मात्रा को गुणानुवाद में प्रकट करते हैं। इस प्रकार के तथ्यों के परिपेक्ष्य में कार्बन के समस्थानिकों की कार्बोनेटों से मिली जानकारी के आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि कितना जैविक कार्बन समुद्र में समाहित किया गया और फिर उसे पुनः भूवैज्ञानिक काल स्तर पर इसी चक्र का हिस्सा दिया गया।

यद्यपि वातावरण में लगभग 2.2 बिलियन वर्ष पूर्व O2 की उपस्थिति अनुमानित की गई है तथा जिसकी मात्रा वातावरण में वर्तमान O2 के भाग का मात्र 1% ही रही होगी। O2 मात्रा में बड़ी अधिकता पृथ्वी के इतिहास में बहुत बाद में लगभग, 750 से 550 मिलियन वर्ष पूर्व (निओप्रोटेरोजोइक के अंतिम हिस्से में) तथा 360 से 300 मिलियन वर्ष पूर्व (कारबोनिफेरस) हुई थी।

नियोप्रोटीरोजोइक में O2 के एकाएक बढ़ने का ज्ञान कार्बन समस्थानिकों के अध्ययन पर आधारित है तथा एक कोशीय युकेरियाट एलगी (प्लवक) की पृथ्वी पर प्रथम प्रचुरता के समसामयिक है। युकेरियाटों द्वारा सहज ही संभव था कि जैविक तत्वों को समुद्र में निक्षेपित किया जा सके जिसे बाद में मेंटल के तापमान में गिरावट तथा अंतर्निहितीकरण द्वारा नियंत्रित भूभौतिकीय दबावों में लाया जा सका। पृथ्वी की कायांतरित चट्टानों का इतिहास बताता है कि अंदर से निकलने वाली ऊष्मा में निरंतर गिरावट के चलते पृथ्वी का तापमान कम हुआ है और जियोथर्मल ग्रेडिएंट इस हद पर आ गया कि OH युक्त खनिजों को मेंटल से प्रवेश का रास्ता मिल गया। इस तरह से वेष बदलकर स्थलीय जल का मेंटल का हिस्सा बनना भूविज्ञान इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण क्रम का प्रारंभ हुआ और परिणाम स्वरूप बड़े-बड़े भूखण्डों का उदय होना प्रारंभ हो गया। यह परिकल्पना पूर्ववर्ती ऑक्सीजन समस्थानिकांक के अध्ययन से और भी सबल होती है।

पिछले 750 मिलियन वर्षों से अनवरत चल रहे जैविक कार्बन का निक्षेपण ऑक्सीजन में अभूतपूर्व वृद्धि के रूप में दिखाई दे रहा है और जिसके चलते ही संभव है कि कैम्ब्रियन काल में एकाएक अनेकों जीव अस्तित्व में आ गये। कारबोनीफेरस (350 से 300 मिलियन वर्ष पूर्व) में पृथ्वी पर वृक्षों की संख्या अधिक होने के कारण जैविक कार्बन के निक्षेपण की अधिकता हो गई। कार्बन तथा सल्फर के समस्थानिकों का इस समय काल का आंकड़ा बताता है कि वातावरण में ऑक्सीजन का प्रतिशत अपने अधिकतम स्तर पर लगभग 30% तक पहुँच गया था। प्राकृतिक तेल, गैस तथा कोयले के रूप में इस समयकाल के जैविक कार्बन के निक्षेप बहुत कम मात्रा में मिलते हैं अतः समस्थानिकों का अध्ययन स्पष्ट रूप से इस समय काल के वातावरणीय ऑक्सीजन के बारे में सम्यक जानकारी के लिये अभूतपूर्व महत्त्व का है। आजकल मानवीय प्रयासों के चलते जैविक कार्बन युक्त खनिजों का दोहन निक्षेपण की तुलना से 1 मिलियन गुना अधिक तेजी से हो रहा है।

Fig-1ट्रियासिक विनाश के अंतिम प्रहर में वातावरणीय ऑक्सीजन में अत्यन्त कमी हो गई और यह लगभग 10% से 12% जैसे निचले स्तर तक आ गई थी। विगत 200 मिलियन वर्षों में वातावरणीय ऑक्सीजन की मात्रा लगभग 10% से अधिकतम 23% तक घटी-बढ़ी है और इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वातावरणीय ऑक्सीजन की सीमित घट-बढ़ के पीछे भूवैज्ञानिक प्रक्रियाओं द्वारा जैविक कार्बन का निक्षेपण तथा पृथ्वी की सतह पर जैविक कार्बन के आक्सीकरण का प्रबल सामंजस्य था। कार्बन समस्थानिकों के आंकड़ों से अनुमानित है कि 13C के विगत 2 बिलियन वर्षों में अधिकता का अभाव न ही अधिक समय हेतु या और न काल चक्रिक। मेंटल में जैविककार्बन की तुलना में अजैविक कार्बन का प्रचुर भंडार है और जैविक कार्बन का निक्षेपण/अंतखनहितीकरण ऑक्सीकरण तथा अपरदन जैसी विपरीत क्रियाओं के साथ संतुलन में रहा है।

ऊपर लिखे गए अध्ययनों की मीमांसा पर आधारित विचार बताते हैं कि वातावरणीय O2 का वर्तमान स्तर तक आना तथा लम्बे समय तक बने रहना किस प्रकार संभव हो सका है लेकिन बहुत से ऐसे स्थान भी हैं जिनमें अभी मजबूत साक्ष्यों का अभाव है तथा जानकारी अपूर्ण है। जल को ऑक्सीजन तथा हाइड्रोजन में विभक्त करने वाली ऑक्सीजनदात्री प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया अभी भी पूर्ण-रूपेण समझ से परे है तथा यह भी ठीक से नहीं ज्ञात है कि वातावरण की गैसों का नियामक क्या है। सघन प्रयासों के चलते संभव है कि निकट भविष्य में हम बायोफिजिक्स अध्ययनों द्वारा तथा अत्यंत गूढ फोटो सिस्टम की समझ से यह जान सकें कि प्रकाश-संश्लेषण प्रक्रिया किस प्रकार कार्य करती है। दूसरा गैस नियामक सम्बंधी पहलू अभी दूर का विषय है लेकिन बेहतर मॉडलों और जैव रासायनिक परिमाणों के ज्ञान से दूर भविष्य में यह भी बेहतर ज्ञात होगा।

आज के वातावरण में ऑक्सीजन का प्रत्येक अणु लगभग 450 किलो जूल ऊर्जा व्यय करने पर प्राप्त हुआ है और पृथ्वी के वायुमंडल में उपस्थित लगभग 4×1010 ऑक्सीजन अणुओं के लिये लगभग 2×1010 TJ हाइड्रोजन बम के बराबर की ऊर्जा का खर्च लगा हुआ है और यह ऊर्जा भी प्रत्येक लगभग 40 लाख वर्षों में निरन्तर खर्च की जानी है। प्रकृति में उपस्थित यह पोटेंशियल ऊर्जा ही जीव जगत को लगातार ऊर्जा के रास्ते पर संबल प्रदान करती हुई आधारभूत पूँजी है।

वर्तमान में पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन अत्यधिक सौर ऊर्जा के व्यय से प्राप्त हुई है और परिणामस्वरूप स्थितिज ऊर्जा के रूप में ताकत का विपुल भंडार है। ध्यान रहे यह ऊर्जा प्रत्येक 40 लाख वर्षों के समय में ऑक्सीजन की यथास्थिति बनाए रखने के लिये बदलती और प्रयोग होती रही है। प्रकृति ने पृथ्वी पर जीवों के सतत विकास के लिये असाधारण सामर्थ्य शक्ति स्थितिज ऊर्जा के रूप में दी है। ऑक्सीजन उत्पादन का प्रारंभ और अतीत में हुए प्रमुख बदलाव जीवों के सतत विकास के क्रम में दिखाई देते हैं और यह इतिहास जीवाश्म विज्ञानियों के अध्ययन का केंद्र बिंदु है।

फकोसकी और इसोजोकी के साइंस में 2008 में प्रकाशित लेख ने इस तरह प्रभावित किया कि मन में यह भाव आया कि अपने सभी साथियों के साथ इसमें लिखी जानकारी पर मातृभाषा में चर्चा करनी चाहिए। हिन्दी व्याख्यानमाला में मुझे यह सुअवसर मिला और निकट के साथियों ने इस प्रस्तुति को लिपिबद्ध करने के लिये उत्साहित किया, अस्तु उन सभी का हृदय से धन्यवाद। लेखन के इस प्रयास में डॉ. अनसूया भंडारी, रिसर्च एसोसिएट (वाहिभूसं) ने अन्य संबंधित प्रकाशित तथ्यों को मेरे संज्ञान में लाकर अपना बहुमूल्य और सक्रिय सहयोग दिया जिससे मुझे प्रस्तुत लेख को सम्यक रूप से पूरा करने में सफलता प्राप्त हो सकी।

यद्यपि दिए गए तथ्यों को फकोसकी और इसोजोकी (2008) से लिया गया है अतः त्रुटियों की संभावना बहुत कम है फिर भी दोबारा जाँचने के लिये साइंस में अंक 322, पेज 540-542 पर दिए गये मौलिक लेख को पढ़ना मजेदार अनुभव होगा।

सम्पर्क


ब्रह्मा नन्द तिवारी
वा. हि. भूवि. सं., देहरादून


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