भविष्य को ध्यान में रखकर बांध बनाने की आवश्यकता

बिहार का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ और सूखे की चपेट में आता है। हर साल करोड़ों रुपए इसमें बह और सूख जाते हैं। क्या ये आपदा बिहार के लिए नियति बन चुकी है? इनका कोई निराकरण नहीं? आमजन को इन आपदा से बचाने का कोई तरीका है या नहीं? इन सब सवालों का जवाब जानने के लिए प्रख्यात पर्यावरणविद दिनेश कुमार मिश्र से सुजीत कुमार ने बात की।

बाढ़ जैसी आपदा का क्या कारण है?

बाढ़ जैसी आपदा का सवाल है, तो उसके लिए हमारी भौगोलिक स्थिति एक बड़ा कारण है। बारिश कैसे होती है, सभी जानते हैं। मानसून में बारिश वाले बादल उठते-उमड़ते हिमालय पर्वत से टकराते हैं और पानी बन जाता है। हिमालय एक कच्चा पर्वत है। वहां से पानी के साथ गाद भी निकलता है। सिल्ट से पानी नदी में आता है। उसके कारण नदियों का रूख बदलता है, तो बाढ़ आती है।

हम आज तो विकास की बातें कर रहे हैं लेकिन यह भी तो ध्यान देना होगा कि प्रकृति से छेड़खानी भी हम ही कर रहें हैं। आज तो हम उसका फायदा उठा रहे हैं, उसका फल कौन भुगतेगाजहां तक निपटने का उपाय है, हम सभी जानते हैं कि सभ्यता के शुरुआत में मनुष्य का जीवन पहाड़ से शुरू हुआ। मनुष्य को जब अन्न की पहचान हुई तो घास की भी जरूरत हुई। मनुष्य ने नदी के पास अन्न या घास होने की बात सोची। कुछ लोगों को लगा होगा कि नीचे चल के देखा जाए। नदी के पास आने के बाद वह नदी के पास ही रह गए। फसल भी बढ़िया हुई होगी। उसके बाद उन्होंने नदी से खेलना शुरू किया होगा। रिंग बांध बनाया होगा। जैसे-जैसे जरूरत हुई होगी, रिंग बांध का सिलसिला शुरू हुआ होगा। जिसका रिंग टूटता होगा, बाढ़ आती होगी। फिर बाढ़ से सुरक्षा के लिए गांव को घेरा गया होगा। कालांतर में कोई बुद्धिमान आया होगा, जिसने नदी को घेरने का प्लान बनाया होगा। समय के साथ ठेकेदार या इंजीनियर का उदय हुआ होगा। बस हम उसी वक्त को ढो रहे हैं।

नदी के साथ ये छेड़खानी हमने ही तो की थी। अब उसी को भोग रहे हैं। नदी को छेड़े या नहीं, बाढ़ तो आएगी। हम उसको छेड़ते हैं और जब वह अपना रूप दिखाती है तो सिर्फ तबाही ही होती है।

इससे निपटने के उपाय हैं?

दो जरूरी चीजें हैं- पानी और मिट्टी। हमारी तकनीक केवल पानी की बात करती है, गाद की नहीं। गाद एकत्र होता है, तो नदी का स्तर ऊपर होता है और तबाही होती है। कुसहा बांध को ही ले लिजिए। उस पर बांध बनाया गया और प्रचारित किया गया कि आने वाले 30 साल तक बाढ़ से निजात मिल जाएगी। लेकिन यह नहीं बताया गया कि 30 साल के बाद क्या होगा? उसके बाद जो बाढ़ आएगी, तब तो और तबाही होगी। बांध की भी तो एक उम्र है। हमेशा से ऐसा ही होता आया है।

आमतौर पर अभी तक तो यही देखा गया है कि जब आग लगती है, तब ही कुआं खोदा जाता है। यह परंपरा बंद होनी चाहिए। इसमें कोई शक नहीं कि अपने विकास के क्रम को लेकर हमने प्रकृति से छेड़खानी की है, जिसका नतीजा भी देखने को मिल जाता है। किसी भी बांध को भविष्य के ध्यान में रखकर बनाने की जरूरत है, नहीं तो प्रकृति आज तो हमें वक्त-वक्त पर अपना रूप दिखा ही रही है। आने वाले समय को ध्यान में रखकर अगर निर्माण नहीं होगा, तो हमारी अगली पीढ़ी का भविष्य क्या और कैसा होगा, यह अंदाज लगा पाना मुश्किल है।
(दिनेश कुमार मिश्र, प्रख्यात पर्यावरणविद व बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक)
हम वर्तमान को देख रहें है। भविष्य की ओर देखते हुए बांध बनाने की जरूरत है। इंजीनियर से पूछा जाए, तो वे कहते हैं कि नेता फैसला लेते हैं। वे अपना हाथ खड़ा कर लेते हैं। नेता से पूछा जाए, तो वे कहते हैं कि विशेषज्ञ से पूछ कर काम कराया गया है। यह परिपाटी बंद करने की जरूरत है। हम पानी को तो रोक सकते है, लेकिन गाद को नहीं। तटबंध बनाएंगे, तो गाद बीच में जमा हो जाएगा। रिंग के बाहर गाद एकत्र करेंगे, तो रिंग को हमेशा बड़ा करने की डिमांड होगी। रिंग जितना बड़ा होगा, तबाही उतनी बड़ी होगी। पानी जैसे पूरे इलाके में फैले, गाद को भी फैलने दिया जाय।

नदी का दो काम होता है। ग्रहण क्षेत्र में जितना पानी आता है आसमान से, उसे किसी सुरक्षित जगह पर पहुंचाया जाए। भूमि का निर्माण करें। अगर भूमि का निर्माण नहीं होता, तो गंगा-यमुना का मैदान का निर्माण नहीं होता। गाद तो परेशान करेगी। हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे। पानी अगर शहर में परेशानी लाता है, तो किसान को फायदा भी पहुंचता है। हम उसे स्वीकार नहीं करेंगे। बेहतर है पानी, गाद को फैलने दिया जाए।

नेपाल में अगर 800 फीट का बांध बनेगा तो तबाही भी तो उसी हिसाब से होगी। सौ किलोमीटर लंबा फ्लाईओवर बनाके क्या होगा? बनाने वाला तो बना देगा, लेकिन उसको भुगतेगा कौन? अगर बाढ़ से बचना है, तो पानी के साथ गाद को भी फैलने दिया जाए।

इसका मतबल सरकार को आपदा से कोई मतलब नहीं है?

मैने सन् 1856 से लेकर अभी तक कोसी नदी के इतिहास को खंगाला है। तब से लेकर अब तक 540 लोगों का कोसी में मरने की खबर नहीं है। लोगों को कोई नहीं पूछता। बाढ़ के समय लोगों ने कहा कि मुसीबत के समय सरकार साथ खड़ी थी। लोग यह भूल गए कि इस तबाही का कारण भी तो सरकार ही है। चाहे वह जिस किसी की भी सरकार रही हो।

सरकार का करोड़ों का फंड है। सरकार ने बंटवा दिया, जो लोगों को कभी नहीं मिला। फंड बंटवाया और चुनाव जीत गए। सरकार को तो लगता है कि लोगों ने अपनी कीमत खुद तय कर दी है। पीड़ितों में से किसी को कुछ मिला नहीं मिला। सरकार ने तो लोगों की कमजोर नब्ज को पकड़ लिया है और इसी बात को लेकर सरकार ऐश करती है।

इन सारे मामलों में आखिर कहां शून्यता है? इसको कैसे भरा जा सकता है?

शून्यता यही है कि हमारी बातों को कोई नहीं सुनता। मैने कई शोध किए, कई लेख लिखा, लेकिन नतीजा कुछ नहीं। एक बार मैने एक पूर्व सीएम से पूछा कि आप नेपाल में बांध बनाने की बात कहते है। कब बनेगा बांध? उन्होंने कहा कि कभी नहीं बनेगा। सब वोट का मामला है।

नेपाल तो बार-बार हमें आइना दिखाता है। उसे कभी भी बिहार या बाढ़ से मतलब नहीं रहा। उसे केवल बिजली से मतलब है। रियो सम्मेलन से भी ज्यादा कुछ नहीं हुआ। सब अपना फायदा देखते हैं। हकीकत से दूर भागते हैं। थोड़ी बहुत जागरूकता आई थी, लेकिन बात वहीं की वहीं है। कभी भी सही बात नहीं बताई गई। नेपाल के भरोसे किसी भी चीज को नहीं छोड़ सकते। बाढ़ आएगी तो बांध बनाने की बात आएगी। लोग मरेंगे। सबसे बड़ा गैप पॉलीटिकल है। उसी को भरना होगा।

आपदा रोकने के लिए जो पहल हो रही है, क्या वह पर्याप्त है?

सवाल यह है कि आपदा है कैसी? प्राकृतिक या सरकारी? जो लोग एकाएक झेलते हैं, वह आपदा अचानक आती है। बिहार में सन् 2000 से लगभग हर साल सूखा पड़ रहा है, जिसकी जद में गया और इसके आस-पास के जिले आते हैं। उनके लिए यह आपदा है या जीवन शैली? खगड़िया में या अगल-बगल के इलाके में बाढ़ आती है। वह क्या है? आपदा बता के अपना उल्लु-सीधा करना होता है। अगस्त-सितंबर में जब आपदा अपने शबाब पर होती है तो सेमिनार आयोजित होता है बड़े-बड़े होटलों में। इस काम में एनजीओ भी मदद करते हैं। किसी को कोई मतलब नहीं। सब अपना हित देखते है।

भविष्य की ओर बढ़ना अच्छी बात है, लेकिन भविष्य का निर्माण आज की तबाही के ऊपर हो यह सही नहीं है। हमारे नेताओं को बांध बनाने में राजनीति नहीं करनी चाहिए। आने वाला समय सुनहरा हो, इसके लिए राजनीति के गैप को भरना होगा।
(दिनेश कुमार मिश्र, प्रख्यात पर्यावरणविद व बाढ़ मुक्ति अभियान के संयोजक)
सेंट्रल की टीम आएगी। रिपोर्ट देगी, कुछ मुआवजा मिल जाएगा। बात वहीं की वहीं रह जाएगी। होना तो यह चाहिए कि सूखा, बाढ़ या किसी और भी आपदा के लिए ऐसे सेमिनार हमेशा होते रहना चाहिए, पूरी निष्ठा के साथ। आग लगे तो कुआं खोदने की बात नहीं होनी चाहिए। यहां तो सबकी यही सोच रहती है कि कुछ मिल जाए। पहल ऐसी हो कि समाधान निकले। गरीबों से उनका निवाला नहीं छीनना चाहिए। यह बड़ी बात है।

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