चिड़ियाघर में बड़े होना

5 Oct 2011
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एस्थर डेविड
एस्थर डेविड भारत के प्रसिद्ध चिडि़याघर विशेषज्ञ रयूबिन डेविड की पुत्री हैं। डेविड ने अहमदाबाद के चिडि़याघर की स्थापना की और रिटायर होने तक उसके सुपरिंटेंडेंट रहे। उनको प्यार से लोग ‘रयूबिन अंकल’ के नाम से बुलाते थे। उन्होंने अपना पूरा जीवन जानवरों की देखरेख और सेवा में बिताया। चिडि़याघर प्रबंधन और जानवरों के व्यवहार संबंधी विषयों पर उन्होंने मौलिक काम किया। भारत सरकार ने उन्हें पदमश्री से सम्मानित किया। 1989 में उनका देहांत हो गया। एस्थर डेविड एक चित्रकार और लेखिका हैं। वो बच्चों के लिये वन्यजीवन से संबंधित पुस्तकें भी लिखती हैं। उन्होंने अहमदाबाद पर आधारित दो उपन्यास लिखें हैं। उनका पूरा काम प्रकृति पर आधारित है।

मैं एक चिडि़याघर में बड़ी हुई! यह शायद एक सपना जैसा लगे परंतु यह सच है। मुझे विश्वास है कि आप सभी को जानवरों और पक्षियों की कहानियां पसंद होंगी। मुझे भी यह सब अच्छा लगता था। वन्यप्राणी मेरे जीवन का ही एक हिस्सा थे - क्योंकि मेरे पिताजी ने ही अहमदाबाद का चिडि़याघर स्थापित किया था। उनका नाम रयूबिन डेविड था। वो भारत में चिडि़याघरों के एक प्रसिद्ध विशेषज्ञ थे।

मुझे अपने पिता की एक याद है। वो बहुत ही अच्छे और दयालु व्यक्ति थे। चिडि़याघर शुरू करने से पहले वो घर पर ही कुत्तों का कारोबार और बंदूकों की मरम्मत करते थे। क्योंकि मेरी मां स्कूल में पढ़ाती थीं इसलिये पिताजी ही मेरी देखभाल करते थे। सात साल की उम्र तक पिताजी ने ही मेरे साथ अधिक समय बिताया। उसके बाद उन्होंने चिडि़याघर की स्थापना की। उसके बाद जब कभी मेरे स्कूल की छुट्टी होती तो वो मुझे अपने साथ लेकर जाते और अपनी सबसे प्रिय चीजों से मेरा परिचय कराते। उन्होंने मुझे जंगली प्राणियों और पक्षियों के बारे में जानने और सीखने के बहुमूल्य मौके प्रदान किये।

जब मैं छोटी थी तब मैं अपने पिता से पूछती थी कि वो चिडि़याघर विशेषज्ञ कैसे बने। तब वो मुझे अपने बचपन की अनेकों कहानियां सुनाते। उस समय मेरी दादी जिंदा थीं और वो भी अपने पुत्र, यानि पिताजी के बारे में कई और कहानियां सुनाती थीं।

मेरी दादी ने मुझे बताया कि जब मेरे पिता छोटे थे तो उन्हें पक्षियों और जानवरों का बहुत शौक था। उनके घर में बुल-टेरियर प्रजाति का एक कुत्ता, एक हिरन और एक तोता था। स्कूल जाने से पहले मेरे पिता उन जानवरों के साथ खेलते और अपने पिता की उन जानवरों की देखभाल करने में मदद करते - उन्हें खाना खिलाते और सफाई करते। और स्कूल खत्म होने के बाद, घर आने की बजाये मेरे पिता दौड़ते हुये साबरमती नदी पर चले जाते।

वहां वो तैरते थे और नदी का पानी पीने आये सभी जानवरों और पक्षियों को निहारते थे। उन दिनों नदी का पानी एकदम साफ था और उसके दोनों किनारों पर पौधे और पेड़ थे। नदी में पानी पीने के लिये सामान्य जानवर ही आते जैसे गाय, सांड, बैल, भैंस, घोड़े, गधे, कुत्ते और बकरियां। कभी-कभी वहां पर मंदिर के हाथी भी आते। वहां बहुत से पक्षी भी आते जैसे मोर, सारस, बगुले, कौवे, तोते, फाख्ता, कबूतर, बुलबुल, मैना और बत्तखें। मेरे पिता को उन्हें देखने में मजा आता। जब उन्हें स्कूल से लौटने में देरी होती तो मेरी दादी फिक्र नहीं करतीं। उन्हें पता होता कि पिताजी नदी पर गये होंगे।

मेरी दादी भी बड़ी दयालु प्रकृति की थीं और उन्हें भी जानवरों और पक्षियों से बहुत स्नेह था। स्कूल जाते समय वो मेरे पिता को उनके लिये तो खाने का डिब्बा देतीं हीं। परंतु, साथ में वो उन्हें एक और डिब्बा भी देतीं जिसमें साबरमती नदी पर इंतजार कर रहे उनके दोस्तों के लिये अनाज और पुरानी डबलरोटी के टुकड़े होते।

मेरे पिता ने मुझे एक असाधरण अनुभव बताया जो अहमदाबाद के पुराने शहर में घटा था। इस घटना के समय मेरे पिता 16-17 साल के होंगे। वो सामान खरीदने में अपनी मां की मदद कर रहे थे। अचानक उन्हें बंदरों की ‘व्हूप, व्हूप’ की आवाजें सुनायी पड़ीं। उन्हें सड़क पर एक बंदर का बच्चा पड़ा हुआ दिखा, जो बिजली के तारों से करंट का झटका लगने के कारण मर गया था। तभी फौरन उस बच्चे की बंदर मां दौड़ती हुई वहां पहुंची और उसने अपने बच्चे को बाहों में उठा लिया। इससे सारा ट्रैफिक जाम हो गया। बाकी बंदर भी वहां आ गये और उसके चारों ओर बैठ गये, क्योंकि आगे क्या करें यह उन्हें पता नहीं था।

मेरे पिता उस समय एक युवा थे और इस घटना का उन पर गहरा असर हुआ। उस दिन वो बहुत उदास रहे। उस दिन उन्होंने अपने आपको बहुत छोटा और असमर्थ पाया। परंतु उन्होंने यह पक्का निश्चय किया कि वो बड़े होकर जानवरों के भलाई के लिये कुछ अवश्य करेंगे। वो जल्दी से बड़े हो जाना चाहते थे। परंतु जब वो बड़े हुये तो अचानक उनकी रुचियां बदल गयीं। उन्हें शरीर को हष्ट-पुष्ट रखने और बंदूकों में मजा आने लगा। वो पक्षी और कुत्ते पालते परंतु उन्हें साहसिक कारनामों की जरूरत महसूस होने लगी। उस समय उनकी दोस्ती गुजरात के कई राजकुमारों से हो गयी और वो उनके साथ शिकार खेलने जाने लगे। लोग उन्हें खोजते हुये आते क्योंकि वो जंगल में जानवरों को ढूंढने में बहुत माहिर थे।

उन्हें बंदूकों और राइफलों का भी बहुत अच्छा ज्ञान था। जैसा कि उस उम्र के बहुत से लोगों के साथ होता है वो जो कुछ भी कर रहे थे उसे वो बुरा या खराब नहीं समझते थे। इससे मेरी दादी परेशान रहतीं परंतु पिता उनकी बात नहीं सुनते और अपनी मनमानी करते।

परंतु शायद हरेक की जिंदगी का कुछ मकसद होता है और तीन घटनाओं ने मेरे पिता के जीवन को एक नया मोड़ दिया। पहली घटना जंगल में एक तेंदुए के साथ हुई। जंगल में पिता एकदम अकेले थे और अचानक उनके सामने एक तेंदुआ आ गया। उन दोनों ने एक-दूसरे को घूर कर देखा और फिर तेंदुआ अपने आप जंगल में गायब हो गया। मेरे पिता उसे मारना नहीं चाहते थे। दोनों में से किसी ने भी एक-दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचाया।

दूसरी घटना तब घटी जब किसी ने एक खरगोश को मारा और मेरे पिता ने उसे बचाने की कोशिश की। परंतु वो उसमें सफल नहीं हुये क्योंकि खरगोश एक बेहद कंटीली झाड़ी में फंसा था। इससे पिता को बहुत दुख हुआ। तीसरी घटना में उनके मित्रों ने एक गर्भवती हिरणी को गोली से मारा। इस घटना ने मेरे पिता को हिला दिया और उन्होंने निर्णय लिया कि वो जीवन में कभी भी शिकार नहीं करेंगे।

उसके बाद वो अहमदाबाद वापिस आये। वहां उन्होंने अपनी सारी बंदूकें बेंच दीं और स्वतः से प्राणी विज्ञान का अध्ययन करने लगे। और क्योंकि वो कुत्तों के विशेषज्ञ थे इसलिये लोग अपने बीमार कुत्तों को उनके पास इलाज के लिये लाने लगे।

इसी समय अहमदाबाद म्यूनिसिपिल कारपोरेशन ने एक चिडि़याघर स्थापित करने की सोची। उस समय तक मेरे पिता अपने काम के लिये काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। परंतु उन्हें चिडि़याघर स्थापित करने के लिये किस प्रकार बुलाया गया और उन्होंने कंकारिया झील के पास की पहाड़ी को कैसे चिडि़याघर में बदला यह अपने आप में एक रोचक कहानी है।

एक दिन मेयर, कमिश्नर, और स्टैंडिंग कमेटी के चेयरमैन और अहमदाबाद म्यूनिसिपिल कारपोरेशन के कुछ अधिकारी हमारे घर पर आये। मेरे पिता साधरण काम के कपड़े पहने थे - एक धरीदार पजामा और एक बुशर्ट। उन्होंने अधिकारियों से बैठने को कहा क्योंकि वो उस समय एक बीमार कुत्ते को इंजेक्शन देने जा रहे थे। मैं उस समय छह साल की थी और कुत्ते को पकड़कर रखने में अपने पिता की मदद कर रही थी। मेरे पिता को अधिकारियों की मंशा का जरा भी अंदाज नहीं था। मेरी मां ने अधिकारियों को पानी दिया और उनसे चाय या कॉफी पीने के लिये आग्रह किया। कुत्ते को इंजेक्शन देने के बाद मेरे पिता ने तसल्ली से अपने हाथ धोये और उसके बाद ही उन्होंने अधिकारियों से बातचीत की।

इस बीच में अधिकारियों ने मेरे पिता को चिडि़याघर का सुपरिंटेंडेंट नियुक्त करने का निर्णय ले लिया था – क्योंकि उन्होंने अधिकारियों से बात करने से पहले एक बीमार कुत्ते का पहले इलाज किया था!

चिडि़याघर की शुरुआत के समय पिताजी के पास कुछ तोते, मछलियां, कछुए और केवल एक मोर था। मुझे याद है जब वो पहली बार चिडि़याघर में एक तेंदुआ लाये। जानवर के सुख-चैन के लिये वो अक्सर उसे शाम को अपने साथ घर ले आते थे। तेंदुआ अभी छोटा ही था। मेरे साथ और कुत्तों के साथ उसका बहुत दोस्ताना व्यवहार था। मुझे तब बहुत मजा आया जब मैंने पहली बार तेंदुए को छुआ और उसने मेरा हाथ चाटा। इस प्रकार मैंने जंगली जीव-जंतुओं को समझना सीखा।

धीरे-धीरे पिताजी का संकलन बढ़ता गया। उसमें शेर, चीते, हिरन, जेबरा, कंगारू, तरह-तरह के पक्षी और सांप जुड़ते गये और वो एक बहुत बड़ा चिडि़याघर बन गया। वो पूरे एशिया का सबसे अच्छा चिडि़याघर था क्योंकि पिताजी हरेक जानवर की खुद देखभाल करते थे। उनको शेरों और चीतों के पिंजड़ों में घुसते देखना एक आम बात थी। उन्होंने सहवास को लेकर कुछ प्रयोग भी किये। इनमें कुत्ते, बंदर और शेर बिना एक-दूसरे को नुकसान पहुंचाये एक-साथ रहते थे।

हरेक सुबह वो आठ बजे घर से निकल जाते और फिर रात को आठ बजे वापिस लौटते। उन्होंने चिडि़याघर में रहने का घर स्वीकार नहीं किया क्योंकि वो अपनी व्यक्तिगत घरेलू जिंदगी में दखल नहीं चाहते थे। परंतु जब कभी जानवर बीमार होते तब तनाव के बहुत से क्षण आते। तब पिताजी बेचैन हो जाते और खाना-पीना छोड़ देते। अगर जानवर मर जाता तो वो कई दिनों तक सदमे में रहते।

वो चिडि़याघर के जानवरों से इतना प्यार करते थे कि जब मौंटू नाम का शेर बीमार पड़ा तो पिताजी के गले से एक कौर भी नहीं निगला गया। वो तब तक बहुत उदास रहे जब तक मौंटू ठीक नहीं हो गया।

दो चिंपैंजी थे - एमिली और गाल्की, जिनके लिये पिताजी ने एक विशेष मीठी चटनी (जेली) बनायी थी। मैं अक्सर गाल्की को अपने कंधे पर बिठाकर चिडि़याघर में घूमती थी। पिताजी ने मुझे गाल्की को बालपेन से चित्रकारी करना सिखाने के लिये प्रेरित किया। मैंने गाल्की का हाथ पकड़ कर उसे चित्रकारी सिखायी। ये सुखद यादें अभी भी मैंने संजो के रखी हैं।

कभी-कभी चिडि़याघर में तनावपूर्ण क्षण भी होते थे। एक बार दो चीते अपने पिंजड़ों से निकलकर बाहर आ गये। पिताजी अपने सहायक बाबू की मदद से उन दोनों चीतों को पिंजड़ों में वापिस लाये। एक बार दो बड़े अजगर कहीं से शहर में घुस आये! पिताजी ने उनको भी पकड़ कर सुरक्षित स्थान पर भेजा।

उन्होंने कंकारिया झील में से एक आदमखोर मगरमच्छ को पकड़ा। इन सभी अवसरों पर उन्होंने कभी भी बंदूक का सहारा नहीं लिया।

इन कहानियों की सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने पूरे जीवन में पिताजी को किसी भी जानवर ने कभी भी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया।

इसके साथ-साथ पिताजी बहुत विनोदी और मजाकिया स्वभाव के थे। एक बार एक राजनेता ने पिताजी की मेज पर रखे शतुरमुर्ग के अंडे को देख बड़ी उत्सुकता दिखायी। पिताजी ने उन्हें बताया कि दुनिया के एक हिस्से में भैंस इस तरह का अंडा देती हैं!

हमारे घर में मछलियों के कांच के घर के उपर मधुर गीत गाने वाली एक कैनरी चिडि़या रहती थी। पिताजी ने अपने मित्रों को मनवा लिया कि मछलियां भी पक्षियों की तरह गा सकती हैं! एक बार जंगल विभाग के लोग हमारे घर में रखे पारितोषिक और मैडिलों की एक सूची बना रहे थे। वहीं एक कांच की बोतल रखी थी जो मुर्गे जैसी रंगी थी। पिताजी की बात पर अफसरों ने यह मान लिया कि वो बोतल असल में एक खास प्रजाती की चिडि़या थी!

एक आप्रेशन के बाद मेरे पिताजी की आवाज जाती रही। परंतु मेरे पिता फिर भी अपने पालतू जानवरों के बहुत करीब रहते। वो अपने हाथ से ही उन्हें आदेश देते और उन्हें प्यार करते। और जानवर भी उनसे अथाह प्रेम करते। मेरे पिताजी ने मुझे प्रकृति से प्रेम करना और उसकी इज्जत एंव संरक्षण करना सिखाया।

पिताजी के साथ बड़े होना अपने आप में एक बड़ी शिक्षा थी। उन्होंने मुझे उन सभी चीजों को प्यार करना सिखाया जो इंसानों के लिये महत्वपूर्ण हैं जैसे प्रकृति, साहित्य, चित्रकारी, मूर्तिकला, मिट्टी का काम, संगीत, कविता, इतिहास, मानव-विज्ञान, वास्तुकला, लोक कलायें, नृत्य, सिनेमा, संस्कृति, कुत्ते, पेड़, मौसम और सबसे महत्वपूर्ण मूल्य - मानवता।

मेरे लिये मेरे पिता टार्जन के समान थे। उन्होंने मुझे जीवन को शक्ति, व्यवहार-कुशलता और विनोदी तरीके से जीने के सबक सिखाये।

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