चल उड़ जा रे पंछी… परिवेश हुआ बेगाना


विश्व में तकरीबन दस हजार पंछियों की प्रजातियां हैं। प्रख्यात पक्षी विज्ञानी डॉ. ऑलीवर ऑस्टिन ने अपनी मशहूर किताब बड्र्स ऑफ द वर्ल्ड में लिखा है कि फॉसिल रिकार्ड के मुताबिक 250,000 साल पहले विश्व में 11,500 पंछियों की प्रजातियां थीं। उनके अनुसार पिछले 600 सालों में 100 विशिष्ट पंछियों की प्रजातियां तथा सन् 2009 तक 1000 पंछियों की प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। यह भी हैरान करने वाला तथ्य है कि सन् 2100 तक 10,000 पंछियों की प्रजातियों में से एक बटा आठवां हिस्सा विलुप्त हो जायेगा। इसका कारण तेजी से आ रहे मौसम में बदलाव, ग्लोबल वार्मिंग, वातावरण में मौजूद प्रदूषण व प्राकृतिक स्रोतों का विनाश माना जा रहा है।

भारत में चिडिय़ों की पांच प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें जीव विज्ञानियों की भाषा में पैसर डोमैस्टिकस इंडिकस (घरेलू चिडिय़ा) पैसर डोमैस्टिकस हिस्पानियों लैनसिस (स्पैनिश स्पैरो), पैसर पायरोहोनटस (सिंध स्पैरो), पैसर रूटीलैंस (रूसैट स्पैरो) तथा पैसर मौनटेनस (यूरेशियन ट्री स्पैरो) शामिल हैं। देश में ज्यादातर पैसर डोमिस्टिकस इंडिकस चिडिय़ा की प्रजाति ही बहुतायत में पाई जाती है। इन पांच चिडिय़ों की प्रजातियों में से केवल पैसर डोमैस्टिकस इंडिकस अथवा हाउस स्पैरो ही ऐसी प्रजाति है जो मनुष्य के आसपास रहते हुए विचरण करती है बाकी सभी अमूमन पेड़ों पर ही अपना घोंसला बनाती हैं। यह मानवीय आवासों की छतों व अन्य जगहों में अपने घोंसले बनाती हैं। प्राय: आम बोलचाल की भाषा में इन सभी पांच प्रजातियों को लोग गौरैया ही कहते हैं परन्तु जीव विज्ञानियों के मत अनुसार पैसर डोमैस्टिकस इंडिकस (देश में बहुतायत में पायी जाने वाली चिडिय़ा) केवल कांटों वाले पेड़ों जैसे कीकर, बेरी व सिट्रस प्रजाति के पेड़ों जैसे नींबू, संतरा, किन्नू व गलगल पर ही अपना घोंसला बनाती हैं ताकि पर-भक्षी जैसे कि सांप, बिल्ली व बाज इन पर धावा न बोल सकें। वाकई कभी हर घर- आंगन का अहम हिस्सा रही घरेलू चिडिय़ा यानी पैसर डोमैस्टिकस इंडिकस आजकल किसी की हथेली से दाना नहीं उठाती, किसी घर में उनके नन्हे बच्चे फुदकते नहीं नजर आते, अपनी मधुर चहचहाहट से तड़के जगाने वाली यह हाउस स्पैरो अब नजर नहीं आती तथा घरों में इनके घोंसले भी दिखाई नहीं देते। मनुष्य ने अपने घर बनाते समय चिडिय़ों के घर तो उजाड़ दिए लेकिन इनके पुनर्वास की कोई व्यवस्था तक नहीं की। आज के आधुनिक ईंट, पत्थर, बजरी व सीमेंट के कंक्रीट शहरी जंगल में घरों मे न तो शहतीर होते हैं और न ही उन पर डाली जाने वाली कडिय़ां या बाले। घरेलू चिडिय़ा अथवा हाउस स्पैरो भी तो ठीक वहीं हुआ करती थी। बदलते दौर में मनुष्य ने पेड़ काट दिए, फसलों पर जहरीले कीटनाशकों का छिड़काव करना आरम्भ कर दिया इसीलिए धीरे-धीरे चिडिय़ां विलुप्त होने के कगार पर हैं।

पक्षी विज्ञानियों—ऑरीनथोलॉजिस्ट द्वारा चिडिय़ा अथवा पैसर डोमैस्टिकस को एनवायरनमेंट इंडीकेटर अथवा बढिय़ा वातावरण के सूचक का दर्जा दिया गया हैं क्योंकि चिडिय़ां उन्हीं इलाकों में अपना आशियाना बनाती हैं जहां पर मोबाइल टावर रेडिएशन्स न हों। ऐसे इलाके मनुष्य के रहने के लिए काफी सुरक्षित माने जाते हैं। इसी तरह चिडिय़ा का एक बहुत ही सवेदनशील पंछी होने के कारण इन्हें भूचाल का सूचक भी कहा जाता है। अमूमन एक रियेक्टर स्केल पर भूचाल आने पर चिडिय़ां तेज चहचहाना शुरू कर देती हैं जिससे यह आने वाले भूचाल की सूचना मनुष्य को देकर उसे सचेत कर देती हैं।

जालन्धर में दस्तक वैलफेयर काउंसिल एनजीओ के संस्थापक प्रधान के अनुसार यूनाइटेड किंगडम की रायल सोसायटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ बड्ïर्स के आंकड़ों के अनुसार लगातार कम होती संख्या के कारण चिडिय़ा- पैसर डोमैस्टिकस को अब विलुप्त होती जा रही पक्षियों की 39 अन्य प्रजातियों की लाल सूची में शामिल कर लिया गया है। इंगलैंड की ही अन्य संस्था बीटीओ के आंकड़ों के अनुसार सन् 1994 से 2008 तक विश्व में चिडिय़ों की संख्या में 70 फीसदी की गिरावट आयी है। जर्मनी में किए गए शोध के अनुसार समूचे जर्मनी में चिडिय़ों की संख्या पिछले 30 सालों में आधी रह गयी है।

इसी तरह बड्र्स ऑफ ब्रिटेन एण्ड वल्र्डस रिपोर्ट के अनुसार भारत में भी पिछले 30 सालों में चिडिय़ा की संख्या में 60 से 70 फीसदी गिरावट आई है। आश्चर्यजनक रूप से चिडिय़ों की संख्या जर्मनी, हॉलेंड, यूनाइटेड किंगडम, कनाडा, भारत, चीन आदि में आधे से भी कम रह गई है। इसकी मुख्य वजह अनलेडेड पेट्रोल से पैदा होने वाले मिथाइल नाइट्रेट का प्रदूषण, खेतों में बहुतायत से इस्तेमाल हो रहे कीटाणुनाशक व केमिकल युक्त फर्टीलाइजर्स, परभक्षियों – बिल्लियों, बाजों और सांपों द्वारा बहुसंख्या में चिडिय़ों व इनके अंडों को खाना, मोबाइल टावरों एवं मोबाइल फोन्स की रेडिएशन्स का ज्यादा फैलना, नर चिड़ों का यूनानी दवाइयों में अन्धाधुन्ध प्रयोग होना तथा पेड़-पौधों की संख्या का कम होना भी शामिल है। सन् 2001 में यूनाइटेड किंगडम के ब्रिटिश ट्रस्ट फॉर ओरिन्थोलॉजी द्वारा 30000 बर्ड वाचर्स की सहायता से एक शोध करवाया गया जिसमें मोबाइल टावरों से निकलने वाली घातक रेडिएशन्स का चिडिय़ों पर पडऩे वाले प्रभावों का गहन अध्ययन किया गया। इस शोध के नतीजे चौंकाने वाले निकले जिसके अन्तर्गत यह पाया गया कि जिन इलाकों में मोबाइल टावर लगे होते हैं वहां से चिडिय़ां जल्द ही पलायन कर जाती हैं।

शोधकर्ताओं के अनुसार साधारणत: रिहायशी इलाकों में लगे मोबाइल टावरों की रेडिएशन्स मानव शरीर के सबसे मजबूत हिस्से खोपड़ी को भेद कर डेढ़ इंच अन्दर तक मस्तिष्क पर नकारात्मक असर डालकर आठ सालों में ट्यूमर पैदा कर देती हैं। जबकि पक्षी के शरीर का पैसर डोमैस्टिकस ढांचा नरम हड्डïी कार्टीलेज का बना होता है जिसे मोबाइल टावर की रेडिएशन्स पूर्ण भेदकर उन्हें पलायन करने पर मजबूर कर देती हैं। इसी तरह दोपहिया, तिपहिया व चौपहिया वाहनों में जिस अनलैडेड अथवा सीसा रहित ईंधन का इस्तेमाल किया जाता है उसमें से निकलने वाले मिथाइल टरशरी ब्यूटाइल तथा बैनजीन कैमिकल के धुएं से चिडिय़ा के प्रमुख आहार तितलियों के लारवा—यानी सूंडिया मर जाती हैं जिसकी वजह से भी इनकी संख्या में भारी गिरावट आ रही है। भारत में ब्राजील की भांति एथनोल युक्त ईंधन के इस्तेमाल से इस समस्या का हल निकाला जा सकता है। पैसर डोमैस्टिकस को बचाने हेतु दस्तक वैलफेयर काउंसिल ने सन् 2007 से 2010 तक वाटर प्रूफ व टरमाइट प्रूफ लकडी के विशिष्ट घोंसले बनाने शुरू किए। इन विशिष्ट लकड़ी के घोंसलो को संस्था दस्तक वेलफेयर काउंसिल द्वारा नि:शुल्क लोगों के घरों के बरामदों, रोशनदानों आदि छाया वाली जगहों पर लगाया गया जिनमें घरेलू चिडिय़ा ने आकर अपना रैनबसेरा बना लिया।सन् 2007 से 2010 तक दस्तक वेलफेयर काउंसिल की तरफ से 350 लकड़ी के चिडिय़ों के विशिष्ट घोंसले नि:शुल्क 350 घरों में जालंधर में लगाए जा चुके हैं। इन 350 लकड़ी के घोंसलों में ब्रीडिंग सीजन में चिडिय़ों ने प्रत्येक घोंसले में चार बार चार अण्डे दिए जिससे तकरीबन 4800 चिडिय़ों की संख्या की बढ़ोतरी जालन्धर में हुई है। घरेलू चिडिय़ा यानी की पैसर डोमैस्टिकस इंडिकस हमारे सभ्याचार तथा विरसे का अभिन्न चिन्ह है तथा इसको बचाने से हम न केवल अपने वातावरण को बढिय़ा बना सकते हैं बल्कि अपने रहने के लिए एक सुरक्षित माहौल भी तैयार कर सकते हैं। इसलिए इसे बढिय़ा वातावरण का सूचक कहा जाता है।
 
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