चलें गाँव की ओर


भारत की आत्मा गाँवों में बसती है इस बात पर प्रधानमंत्री से लेकर पटवारी तक सभी सहमत हैं। परन्तु इस आत्मा को कौन कितना कष्ट दे सकता है यह प्रतिस्पर्धा भी हमारे देश में पूरी शिद्दत से जारी है। हम सबको मिलकर गाँव का रुख करना होगा तभी गाँव और भारत दोनों बच पाएंगे। वैसे भी भारत और गाँव कमोवेश पर्यायवाची ही हैं।

प्रधानमंत्री ने 14 अक्टूबर 2014 को सांसद आदर्श ग्रामयोजना की शुरूआत की थी। लगभग 18 माह बाद उन्हें अपने दल के ही सांसदों से पूछना पड़ा कि क्या वे कभी गाँव जाते हैं। अर्थात सरकार के उच्चतम स्तर पर भी यह संशय बना हुआ है कि सांसद कभी गाँव जाते भी हैं कि नहीं। राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी अपने-अपने प्रशासनिक अधिकारियों से यह जानना चाहिए कि क्या वे गाँव जाते हैं। राज्यों की प्रशासकीय कार्य नियमावली में विभिन्न स्तर के अधिकारियों के लिये निश्चित अवधि के लिये ग्राम प्रवास करने के निर्देश भी हैं। परन्तु यह सब कागजों में ही रह गया है।

गाँव में जिन कर्मचारियों को रहना भी होता है, उन्हें भी आकस्मिकता के समय गाँव में ढूँढ पाना मुश्किल होता है। इतना ही नहीं ग्राम सरपंचों को पंचायत सचिवों को ढूँढना पड़ता है। विद्यालयों-महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं व अन्य अध्ययनकर्ताओं का ग्रामीण जन से यह सवाल अवश्य रहता है कि क्या कभी आपके गाँव में अधिकारी, विधायक या सांसद आते हैं। जबाब ज्यादातर ना सा या कभी-कभी ना का ही होता है।

ग्रामपंचायतों के कुछ चुने गये प्रधान व सदस्य भी गाँवों में नहीं रहते हैं। गाँवों से ऐसा उपेक्षापूर्ण बर्ताव होता ही रहा है। जब पंचायतों के चुनाव होते हैं, तो गाड़ी भर-भर आकर वोट देकर वापस लोग शहरों को सालों-साल के लिये लौट जाते हैं। गाँवों में खुले अस्पतालों में डॉक्टर तक नहीं आते हैं और स्कूलों में पढ़ाने वाले नहीं आते हैं। इसी तरह चुनाव के बाद जनप्रतिनिधि वहाँ नहीं आते हैं। ऐसे व्यवहारों से तो ग्रामोदय से भारत उदय नहीं होगा। और तो और आम ग्रामीण का जो अपना और अपने गाँव के विकास की राह देख रहा है, उसका भी स्थाई सवाल यही रहता है कि गाँव में कोई योजना आई क्या? क्या बिजली आई? पानी आया या राशन आया जैसे शाश्वत सवाल तो बने ही रहते हैं।

गाँव का छोड़ना ही गाँव में आगे बढ़ने की राह रह गई है। गाँवों को मार कर उन्हें शहर बनाकर ही गाँव के विकास की सोच को ही यदि जारी रखना है तो ग्रामोदय से भारत उदय के नारे का क्या अर्थ है? गाँव में जो खेती के लिये रह भी रहा है, उसे भी परिवार को जिन्दा रखने का रास्ता केवल आत्महत्या में ही दिख रहा है। भले ही एनजीओ को कितना ही कोसा जाये, किन्तु उनके कारण ही परियोजनाओं को चलाने के नाम से ही सभी गाँवों में कुछ लोगों का जाना व काम होता दिखाई दे रहा है।

अन्यथा पलायन से स्थितियाँ तो ऐसी हो गई हैं कि सामुदायिकता अथवा श्रमदान से सरकारी व गैरसरकारी परियोजनाओं में जो काम होना है उसे भी कागजी कार्यवाही करके बाहर के लोगों से करवाना पड़ता है। अन्यथा गाँववासियों के माध्यम से जो विकास कार्य होने हैं, वो तो कई गाँवों में हो ही ना। मनरेगा में भी काम हो इसके लिये भी कोई गाँवों में बाहर के लोगों को ही काम में लगाना पड़ रहा है। यह हकीकत कई राज्यों की है।

गाँवों में खेती के काम के लिये मजदूर नहीं है। आशाजनक यह है कि कई गाँव के प्रवासी ऐसी मुहिम भी चला रहे हैं जिससे गाँवों में लोगों का जाना पड़े। करोड़ों-करोड़ लोग गाँव आते जाते रहेंगे, तो ऐसे सवाल कमजोर पड़ जायेंगे कि हमारे अकेले के जाने से क्या होगा। हमारा संवेदनशील होना ही गाँवों को अस्त होने से बचा सकेगा। गाँवों का बचना जैवविविधता व हरितमा बचाने व जलवायु बदलाव से लड़ने के लिये बहुत जरूरी है। पारम्परिक व लोक ज्ञान की निरन्तरता के लिये भी उनका अस्तित्व जरूरी है। परन्तु गाँव में लोग तभी रह सकेंगे जब वहाँ के और उनके आस-पास के प्राकृतिक संसाधन व साझा सम्पदा के प्रबंधन में गाँव वालों की प्रमुखता हो।

जनसुनवाइयों, व ईगवर्नेंस को गाँव स्वराज का अंग माना जाये । आप हम गाँव की राह पकड़ेंगे तो गाँव भी मजबूती की राह पकड़ेंगे। विडम्बना यह है कि जहाँ आम ग्रामीण गाँवों को छोड़ रहा है वहीं कार्पोरेट घराने रूपी माफिया गाँवों में इतनी तेजी से व सरकारी साठ-गांठ से घुसकर खेती की जमीन को ही नहीं बल्कि ग्राम समाज की जमीन, जलस्रोतों, चारागाहों पर कब्जा कर रहे हैं। ऐसे तत्वों से भी निपटने के लिये जगह-जगह आन्दोलन व गाँव बचाओ जैसे अभियान चल रहे हैं। सरकारी मदद के बजाय आन्दोलनकारी मुकदमे झेल रहे हैं। क्या ऐसे ही ग्रामोदय होगा?

श्री वीरेन्द्र पैन्यूली स्वतंत्र लेखक हैं।

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