चुल्लू की आत्मकथा

19 Jan 2014
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मैं न झील न ताल न तलैया,न बादल न समुद्र

मैं यहां फंसा हूँ इस गढै़या में

चुल्लू भर आत्मा लिए,सड़क के बीचों-बीच

मुझ में भी झलकता है आसमान

चमकते हैं सूर्य सितारे चांद

दिखते हैं चील कौवे और तीतर

मुझे भी हिला देती है हवा

मुझ में भी पड़कर सड़ सकती है

फूल-पत्तों सहित हरियाली की आत्मा

रोज कम होता मेरी गन्दली आत्मा का पानी

बदल रहा है शरीर में

चुपचाप भाप बनकर बाहर निकल रहा हूँ मैं।

संकलन/प्रस्तुति
नीलम श्रीवास्तव,महोबा उत्तर प्रदेश

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