चुनाव से पहले दिल्ली की जल कुंडली भी बांच लो

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दिल्ली जलबोर्ड

दिल्ली की पिछली 49 दिन वाली सरकार उम्मीदों के जिस रथ पर सवार होकर आई थी उसमें सबसे ज्यादा प्यासा अश्व ‘‘जल’’ का ही है- हर घर को हर दिन सात सौ लीटर पानी, वह भी मुफ्त। उसकी घोषणा भी हो गई थी लेकिन उसकी हकीकत क्या रही? कहने की जरूरत नहीं है। दिल्ली एक बार फिर चुनाव के लिए तैयार है और जाहिर है कि सभी राजनीतिक दल बिजली, पानी के वायदे हवा में उछालेंगे। जरा उन उम्मीदों पर एतबार करने से पहले यह भी जानना जरूरी है कि इस महानगर में पानी की उपलब्धता क्या सभी के कंठ तर करने में सक्षम है भी कि नहीं।

दिल्ली में तेजी से बढ़ती आबदी और यहां विकास की जरूरतों, महानगर में अपने पानी की अनुपलब्धता को देखें तो साफ हो जाता है कि पानी के मुफ्त वितरण का यह तरीका ना तो व्यावहारिक है, ना ही नीतिगत सही और ना ही नैतिक। यह विडंबना ही है कि अब हर राज्य सरकार सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए कुछ-ना-कुछ मुफ्त बांटने के शिगूफे छोड़ती है जबकि बिजली-पानी को बांटने या इसके कर्ज माफ करने के प्रयोग अभी तक सभी राज्यों में असफल ही रहे हैं। दिल्ली में जरूरत पानी के सही तरह से प्रबंधन और मितव्ययता से इस्तेमाल की सीख को बढ़ावा देने की है।

एक राजनीतिक दल की वेबसाइट कहती है कि दिल्ली में 840 मिलियन गैलन प्रतिदिन यानी प्रत्येक व्यक्ति को 210 लीटर पानी उपलब्ध है, जो लंदन व जर्मनी से कहीं ज्यादा है। दिल्ली जल बोर्ड को 685 करोड़ का मुनाफा होता है और मुफ्त पानी देने पर महज 470 करोड़ का खर्च होगा। इसके अलावा दिल्ली में अवैध टैंकर माफिया पर रोक लगा कर यह पूर्ति आसानी से की जा सकती है।

देखने में एकबारगी योजना अच्छी लगती है लेकिन दिल्ली की जल कुंडली बांचे तो पता चलता है कि सब कुछ इतना लुभावना नहीं है और उपलब्धता, मांग और आपूर्ति में जमीन-आसमान का फर्क है और फिर किसी परिवार की परिभाषा भी साफ नहीं है- दिल्ली में कहीं दौ सौ गज फ्लैट में चार लोग रहते हैं तो कहीं 25 गज में दस लोग। यह साढ़े उन्नीस लाख से ज्यादा जल उपभोक्ता पहले से दर्ज है यानी इतने परिवार हैं, जबकि कई लाख लोग तक कनेक्शन पहुंचा नहीं है और वे चोरी या दीगर तरीके से पानी की जरूरत पूरी करते हैं।


दिल्ली जलबोर्डदिल्ली जलबोर्डदिल्ली से बड़े लेकिन व्यवस्थित शहर पेकिंग या बीजिंग की जल व्यवस्था बानगी है - वहां हर घर में तीन तरह का पानी आता है और उनके दाम और सप्लाई की मात्रा भी अलग-अलग होती है। पीने लायक पानी सबसे महंगा व मात्रा सबसे कम, रसोई के काम का पानी उससे कम दाम में व मात्रा ज्यादा, जबकि गुसलखाने में इस्तेमाल पानी के दाम सबसे कम व मात्रा अफरात।

जाहिर है कि इसके लिए पूरा पर्यावास व उसमें पड़ी पाईपलाईन, घर से निकलने वाले गंदे पानी का परिशोधन और शहर के बीच से निकलने वाली नदी, नहर और तालाबों पर नियोजित काम किया गया है। एक बात और, वहां बिजली या पानी की चोरी के किस्से सुनने को मिलते नहीं हैं। अब दिल्ली के 1484 वर्ग किलोमीटर में कोई 16 हजार किलोमीटर लंबी पानी की लाईनें जमीन के भीतर पड़ी हैं, तो भी हर रोज कई लाख लीटर पानी चोरी होने का रोना सरकार व मुनाफे में चल रहा जल बोर्ड रोता है।

राजधानी के सबसे महंगे रिहाईशी इलाकों में शुमार वसंतकुंज में भले ही करोड़ में दो कमरे वाला फ्लैट मिल जाए, लेकिन पानी के लिए टैंकर का सहारा लेना ही होगा। ठीक यही हालत दिल्ली की पांच सौ से ज्यादा पुनर्वास, कच्ची कालोनियों की भी है। यदि सभी जगह ठीक तरीके से टैंकर सरकारी तौर पर पहुंचाने पड़ें तो टैंकर का प्रबंधन अपने-आप में एक बड़ा ‘‘बोफोर्स’’ हो जाएगा। यहां जान लेना जरूरी है कि पानी सप्लाई की माकूल व्यवस्था के लिए चाक चौबंद पाईप बिछाना कई हजार करोड़ का काम है और यदि जल बोर्ड के दिख रहे मुनाफे को पहले साल मुफ्त में ही बांट दिया गया तो अगले साल ना तो मुनाफा दिखेगा और ना ही नई पाईप लाईन डालने, पुराने की देखभाल करने का बजट।

केंद्रीय भूजल बोर्ड ने सन् 2001 यानी आज से 13 साल पहले एक मास्टर प्लान बनाया था जिसमें दिल्ली में प्रत्येक व्यक्ति की पानी की मांग को औसतन 363 लीटर मापा था, इसमें 225 लीटर घरेलू इस्तेमाल के लिए, 47 लीटर कल-कारखानों में, 04 लीटर फायर ब्रिगेड के लिए, 35 लीटर खेती व बागवानी में और 52 लीटर अन्य विशेष जरूरतों के लिए। अनुपचारित पानी को दूर तक लाने ले जाने के लिए रिसाव व अन्य हानि को भी जोड़ लें तो यह औसत 400 लीटर होता है। यदि यहां की आबादी एक करोड़ चालीस लाख ली जाए तो हर रोज पानी की मांग 1,232 मिलियन गैलन होती है। यदि अपने संसाधनों की दृष्टि से देखें तो दिल्ली के पास इसमें से बामुश्किल 15 फीसदी पानी ही अपना है। बाकी पानी यमुना, गंगा, भाखड़ा, हरियाणा, उत्तरांचल आदि से आता है।

कोई भी सरकार आज से बनिस्पत आने वाले कई सालों की आबादी, आंकड़ों पर उपलब्धता पर योजना बनाती है। यदि ‘‘आप’’ सही में अपने वायदे पर दूरगामी खरा उतरना चाहती है तो उसे दिल्ली की जल कुंडली को सही तरीके से खंगालना चाहिए और आने वाले दो साल में यहां की आबादी को नियंत्रित करने, यहां रोजगार व बेहतर भविष्य की तलाश में आ रहे लोगों को दूरस्थ इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था करने जैसी योजनाओं पर गंभीरता से काम करना होगा। बगैर संसाधन बढ़ाए मांग बढ़ाने से बात तो बनने से रही- फिर बस दिल्ली सरकार केंद्र को कोसेगी व केंद्र सरकार बजट की सीमाएं बताएगी- बीच में जनता यथावत पानी के लिए कलपती रहेगी। दिल्ली में अकेले यमुना से 724 मिलियन घनमीटर पानी आता है, लेकिन इसमें से 580 मिलियन घन मीटर पानी बाढ़ के रूप में यहां से बह भी जाता है। हर साल गर्मी के दिनों में पानी की मांग और सप्लाई के बीच कोई 300 एमजीडी पानी की कमी होना आम बात है। अप्रैल से सितंबर तक वजीराबाद जल संयंत्र से निकलने वाले पानी की मात्रा 30 फीसदी कम हो जाती है।

आमतौर पर सामान्य बारिश वाले सालों में इस समय दिल्ली में वजीराबाद बैराज पर यमुना का जलस्तर 674.5 फुट से अधिक होता है, जो बीते कई सालों से लगातार 672.2 पर टिका है। गर्मी में पश्चिमी यमुना नहर का जलस्तर 710 फुट से नीचे होने पर वजीराबाद, हैदरपुर और चंद्रावल जल संयंत्रों को पर्याप्त पानी नहीं मिल पाता है। यह हर साल हल्ला होता है कि हरियाणा ने बगैर किसी चेतावनी के पानी की सप्लाई रोक दी। सनद रहे कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक यमुना का जलस्तर दिल्ली की सीमा पर 674.5 से कम में ही होना चाहिए।

यहां जानना जरूरी है कि 12 मई 1994 को केंद्र सरकार की पहल पर पांच राज्यों के बीच यमुना के पानी के बंटवारे पर एक समझौता हुआ था। माना गया था कि दिल्ली में ओखला बैराज तक यमुना में पानी का बहाव 11 अरब 70 करोड़ घनमीटर है। इसमें से हरियाणा को पांच अरब 73 करोड़ घनमीटर, उ.प्र. को चार अरब तीन लाख घमी, राजस्थान को आए रोज जब अप्रत्याशित ढंग से यमुना में पानी कम होता है तो दिल्ली वाले हरियाणा पर कम और गंदा पानी छोड़ने का आरोप मढ़ देते हैं। हरियाणा भी दिल्ली पर तयशुदा संख्या से अधिक पंप चलाकर ज्यादा पानी खींचने को समस्या का कारण बता देता है।


दिल्ली जलबोर्डदिल्ली जलबोर्ड यदि सही में कोई दिल्ली में अफरात पानी चाहता है तो उसे इस बह गए पानी की हर बूंद को सहेजने की तकनीक ईजाद करना होगी, क्योंकि इन दिनों पानी पर निर्भरता का सबसे बड़ा जरिया, भूजल तो यहां से कब का रूठ चुका है। यहां भूजल की उपलब्धता सालाना 291.54 मिलियन घन मीटर है। पाताल खोद कर निकाले गए पानी से यहां 47 हजार पांच सौ हेक्टेयर खेत सींचे जाते हैं। 142 मिलियन घन मीटर पानी कारखानों व पीने के काम आता है।

दिल्ली जलबोर्ड हर साल 100 एमजीडी पानी जमीन से निकालता है। गुणवत्ता के पैमाने पर यहां का भूजल लगभग जहरीला हो गया है। जहां सन् 1983 में यहां 33 फुट गहराई पर पानी निकल आता था, आज यह गहराई 132 फुट हो गई है और उसमें भी नाईट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक जैसे रसायन बेहद हानिकारक स्तर पर हैं।

सनद रहे कि पाताल के पानी को गंदा करना तो आसान है लेकिन उसका परिशोधन करना लगभग असंभव। जाहिर है कि भूजल के हालात सुधारने के लिए बारिश के पानी से रिचार्ज व उसके कम दोहन की संभावनाएं खोजनी होंगी व यहां से ज्यादा पानी लिया नहीं जा सकता।

सन् 2002 में ईपीडब्ल्यू (इकानामिक एंड पॉलिटिकल वीकली) ने डॉ. विक्रम सोनी के एक शोध को प्रकाशित किया था- ‘‘एक शहर का पानी व वहन क्षमता-दिल्ली’’, जिसमें बताया गया था कि यहां हर स्रोत से उपलब्ध पानी की कुल मात्रा अस्सी लाख से ज्यादा लोगों के लिए नहीं हैं।

दिल्ली जलबोर्ड का कहना है कि यहां मांग 1080 मिलियन गैलन रोजाना (एमजीडी) की है, जबकि उपलब्धता 835 एमजीडी है। नियंत्रक एवं लेखा परीक्षक यानि केग की ताजा रपट चेतावनी देती है कि प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 172 लीटर पानी की मानक मांग की तुला में दिल्ली के 24.8 फीसदी घरों को हर रोज 3.82 लीटर पानी भी नहीं मिलता है।



दिल्ली जलबोर्डदिल्ली जलबोर्ड लुभावने नारे पानी की उपलब्धता को बढ़ा नहीं सकते। पानी को जरूरत के लिहाज से अलग-अलग दर पर अलग-अलग पाईपों से पहुंचाना बेहद खर्चीला व दूरगामी योजना है। घरों से निकले बेकार पानी का इस्तेमाल बढ़ाने के लिए तकनीकी विकसित करना भी तात्कालिक तौर पर संभव नहीं है। इन सब काम के लिए बजट, जमीन, मूलभूत सुविधाएं जुटाने के लिए कम-से-कम पांच साल का समय चाहिए।


कोई भी सरकार आज से बनिस्पत आने वाले कई सालों की आबादी, आंकड़ों पर उपलब्धता पर योजना बनाती है। यदि ‘‘आप’’ सही में अपने वायदे पर दूरगामी खरा उतरना चाहती है तो उसे दिल्ली की जल कुंडली को सही तरीके से खंगालना चाहिए और आने वाले दो साल में यहां की आबादी को नियंत्रित करने, यहां रोजगार व बेहतर भविष्य की तलाश में आ रहे लोगों को दूरस्थ इलाकों में वैकल्पिक व्यवस्था करने जैसी योजनाओं पर गंभीरता से काम करना होगा। बगैर संसाधन बढ़ाए मांग बढ़ाने से बात तो बनने से रही- फिर बस दिल्ली सरकार केंद्र को कोसेगी व केंद्र सरकार बजट की सीमाएं बताएगी- बीच में जनता यथावत पानी के लिए कलपती रहेगी।
 

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