चूल्हे में बच्चों का स्वास्थ्य

20 Feb 2017
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आँगनबाड़ी केन्द्रों में ईंधन के तौर पर लकड़ी व उपलों के इस्तेमाल के चलते वायु प्रदूषण बना बच्चों के लिये बड़ा खतरा

Fig-13बच्चों और माताओं को कुपोषण से बचाने के लिये शुरू किए गए आँगनबाड़ी केन्द्र एक नई समस्या की वजह बनते जा रहे हैं। आँगनबाड़ी में जाने वाले बच्चों में साँस की बीमारियों का खतरा बढ़ गया है। दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) के एक अध्ययन में सामने आया है कि जिन आँगनबाड़ी केन्द्रों में भोजन पकाने के लिये ठोस ईंधन जैसे सूखी लकड़ियों और उपले आदि का इस्तेमाल होता है, वहाँ की हवा खतरनाक ढंग से प्रदूषित है। आँगनबाड़ी के चूल्हों से निकला धुँआ और प्रदूषण फैलाने वाले महीन कण (फाइन पार्टिकल) माताओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रहे हैं। ये कण हवा में पाए जाने वाले सामान्य कणों की तुलना में काफी छोटे और स्वास्थ्य के लिये बहुत हानिकारक होते हैं।

मिड डे तैयार करने में ठोस ईंधन आधारित चूल्हों के स्थान पर एलपीजी गैस के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिये बिहार सरकार और इंडियन एकेडमी ऑफ पीडीऐट्रिक्स के बिहार चेप्टर ने यूनिसेफ के साथ मिलकर एक पहल की है। प्रयोग के तौर पर शुरू की गई इस योजना के सहयोग के लिये एक अध्ययन हुआ है, जिसमें सीएसई के शोधकर्ताओं ने गया जिले के डोबी ब्लॉक के 30 आँगनबाड़ी केन्द्रों में वायु प्रदूषण की जाँच की। इस सर्वेक्षण में प्रदूषण के लिये जिम्मेदार दो प्रमुख कणों पीएम 2.5 और पीएम 10 की जाँच की गई।

हरेक आँगनबाड़ी में शोधकर्ताओं ने 45 मिनट तक हवा की जाँच की, पहले 20 मिनट आँगनबाड़ी के भीतर और बाकी समय जब बच्चे बाहर होते हैं। इस तरह आँगनबाड़ी के अन्दर और आस-पास के वातावरण में वायु गुणवत्ता का पता लगाया गया। चूँकि, भारत में घरों के भीतर वायु प्रदूषण का कोई मानक ही नहीं है इसलिये सीएसई ने आँगनबाड़ी केन्द्रों में वायु प्रदूषण के खतरे को समझने के लिये बाहरी वातावरण के वायु प्रदूषण मानकों (ambient air quality) को आधार बनाया। इन मानकों के हिसाब से वातावरण में प्रदूषक कणों यानी पीएम की अधिकतम मात्रा 60 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज्यादा नहीं होनी चाहिए।

अध्ययन से पता चला कि आँगनबाड़ी केन्द्रों पर हवा में फैले अत्यंत सूक्ष्म दूषित कणों (पीएम 2.5) का घनत्व औसतन 2524 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर था। वहीं अपेक्षाकृत बड़े दूषित कणों (पीएम 10) का घनत्व औसतन 2600 माइक्रोग्राम था। अलग-अलग आँगनबाड़ियों में प्रदूषण का स्तर अलग-अलग समय पर भिन्न था। कहीं पीएम 2.5 का स्तर 84 तो कहीं 13,700 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पाया गया। वहीं पीएम 10 की मात्रा 95 से लेकर 13,800 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के बीच थी। इन सभी आँगनबाड़ी कन्द्रों में वायु प्रदूषण का स्तर मानकों से कहीं ज्यादा है।

एक जनवरी 2015 के आँकड़े के अनुसार, देश में कुल 13.4 लाख सक्रिय आँगनबाड़ी केंद्र हैं, जिनमें से 92 हजार अकेले बिहार में हैं। देश के सभी 13.4 लाख आँगनबाड़ी केन्द्रों में मध्यान्ह भोजन तैयार करने के लिये ठोस ईंधन आधारित चूल्हों का इस्तेमाल होता है।

अगर आँगनबाड़ी केन्द्रों में प्रदूषण की तुलना भारत सरकार द्वारा तय मानकों से करें तो स्थिति काफी चिंताजनक है। वायु गुणवत्ता के राष्ट्रीय मानकों के अनुसार, वायु में दूषित कणों (पीएम 2.5 व पीएम 10) की औसत मात्रा दिन भर में क्रमशः 60 और 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से अधिक नहीं होनी चाहिए। जबकि अध्ययन के नतीजे बेहद हैरान करने वाले हैं। अध्ययन में शामिल सभी आँगनबाड़ियों में वायु प्रदूषण का स्तर मानकों से कई गुना अधिक पाया गया है। बेहद महीन प्रदूषक कणों यानी पीएम 2.5 का औसत स्तर 2524 माइक्रोग्राम/घनमीटर पाया गया जो स्वीकृत अधिकतम सीमा से करीब 40 गुना ज्यादा है। किसी भी आँगनबाड़ी की हवा स्वास्थ्य की दृष्टि से सुरक्षित सीमा के भीतर नहीं मिली।

Fig-14सीएसई के इस अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता पोलाश मुखर्जी कहते हैं, “आँगनबाड़ी में तीन से छह साल की उम्र के बच्चे आते हैं। इस अवस्था में फेफड़े बहुत नाजुक होते हैं और भयंकर वायु प्रदूषण इन्हें जीवन भर के लिये नुकसान पहुँचाएगा।”

कितना खतरनाक है यह धुआँ?


सवाल उठता है कि क्या किसी सरकारी कार्यक्रम को बच्चे के स्वास्थ्य से खिलवाड़ की इजाज़त दी जा सकती है? गाँवों में आमतौर पर रसोई ईंधन के तौर पर सूखी लकड़ियों और उपलों का इस्तेमाल होता है। इस तरह घर पर तो बच्चों का अधिकांश समय प्रदूषण फैलाने वाले चूल्हों के नजदीक गुजरता ही है, जब ये बच्चे आँगनबाड़ी और स्कूलों में होते हैं, वहाँ भी इन्हें प्रदूषित हवा मिलती है। यद्यपि इससे होने वाले नुकसान का अंदाजा लगाना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि ठोस ईंधन से घरों में फैलने वाले धुँए से तीव्र श्वसन संक्रमण होता है। इसकी वजह से विश्व में हर साल करीब 18 लाख बच्चे मौत के मुँह में चले जाते हैं।

 

प्रदूषण का खतरा


स्टोव के प्रत्यक्ष सम्पर्क में आने का जोखिम और बच्चों के लिये वास्तविक जोखिम का औसत

कहाँः सीएसई ने बिहार के गया के डोबी ब्लॉक की 30 आँगनबाड़ियों में वायु गुणवत्ता का अध्ययन किया


क्याः आँगनबाड़ी जाने वाले 3 से 6 साल के बच्चे हैं भयंकर वायु प्रदूषण के शिकार

जाँच-परिणामः सभी आँगनबाड़ी केन्द्रों पर वायु प्रदूषण का स्तर सुरक्षित सीमा से कई गुना अधिक आँगनबाड़ी केन्द्रों की हवा में स्वीकृत सीमा से औसतन 40 गुना ज्यादा प्रदूषक कण मिले

30 आँगनबाड़ी केन्द्रों में औसत प्रदूषण

पीएम 2.5

पीएम 10

2,524 μ/m3

2,600 μ/m3

मानक

60 μ/m3

100 μ/m3

 

सन 2010 में प्रकाशित ‘ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज’ रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू वायु प्रदूषण भारत में दूसरा सबसे बड़ा जानलेवा कारण है, जबकि इसमें आँगनबाड़ी के प्रदूषण को नहीं जोड़ा गया था। घरों में ठोस ईंधन जलने से पैदा वायु प्रदूषण हर साल करीब 10.4 लाख लोगों की मृत्यु और 314 लाख जीवन वर्षों के नुकसान का कारण बनता है। यह आँकड़ा घर के बाहर वायु प्रदूषण से होने वाली मौतों से कहीं अधिक है। घरों के बाहर वायु प्रदूषण से हर साल करीब 6.27 लाख मौतें होती हैं।

इस रिपोर्ट के मुताबिक, घरों के भीतर उत्पन्न वायु प्रदूषण की बाहरी वायु प्रदूषण में कम-से-कम 25 प्रतिशत हिस्सेदारी रहती है। अगर घर के अन्दर और बाहर वायु प्रदूषण से होने वाली बीमारियों को जोड़ दिया जाए तो यह 67 जानलेवा कारणों में सबसे खतरनाक साबित होगा।

घरों में भोजन पकाने के लिये ठोस ईंधन के अत्यधिक इस्तेमाल की वजह से महिलाओं और बच्चों में वायु प्रदूषण का खतरा ज्यादा रहता है, क्योंकि इनका अधिक समय चूल्हे के नज़दीक गुजरता है। अनुमान है कि भारत में बच्चों, महिलाओं और पुरुषों को क्रमशः 285 माइक्रोग्राम, 337 माइक्रोग्राम और 204 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर पीएम 2.5 का प्रदूषण रोजाना झेलना पड़ता है।

खाना पकने के दौरान अधिकतम वायु प्रदूषण, रोजाना औसत प्रदूषण के इन आँकड़ों से कई गुना अधिक हो सकता है। चेन्नई स्थित श्री रामचंद्र मेडिकल कॉलेज की कल्पना बालाकृष्णन ने कई अन्य वैज्ञानिकों के साथ अध्ययन कर साबित किया है कि जिन घरों में ठोस ईंधन का इस्तेमाल होता है वहाँ 24 घंटे के दौरान प्रदूषक कणों का औसत घनत्व 570 माइक्रोग्राम तक हो सकता है, जबकि रसोई गैस का प्रयोग करने वाले घरों में इसकी मात्रा 80 माइक्रोग्राम रहती है। घरों में ठोस ईंधन से पैदा वायु प्रदूषण बाहर फैले वायु प्रदूषण से कहीं ज्यादा खतरनाक होता है। वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि जिन घरों में चूल्हा अंदर की तरफ नहीं होता, वहाँ भी चौबीस घंटे के दौरान वायु प्रदूषण की मात्रा तय मानकों से अधिक हो सकती है।

दुनिया भर में काफी प्रमाण मिल चुके हैं जो घरों में ठोस ईंधन के इस्तेमाल और महिलाओं व बच्चों में स्वास्थ्य सम्बन्धी गंभीर समस्याओं जैसे ब्रोंकाइटिस, अस्थमा, टीबी, मोतियाबिंद और गंभीर श्वसन संक्रमण के बीच गहरा सम्बन्ध दर्शाते हैं। घर के भीतर वायु प्रदूषण झेलने वाले बच्चों में श्वसन सम्बन्धी संक्रमण का खतरा दो से तीन गुना बढ़ जाता है। छह से 15 साल की कई लड़कियाँ भी रसोई के कामों में लगी रहती हैं, जिसके चलते अन्य बच्चों के मुकाबले इन पर वायु प्रदूषण की मार ज्यादा पड़ती है।

यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोनिर्या, बर्कले से जुड़े विशेषज्ञ कर्क स्मिथ भारत में घरेलू प्रदूषण पर काफी काम कर चुके हैं। उनका मानना है कि ठोस ईंधन के उपयोग का जोखिम इसलिये भी ज्यादा है क्योंकि इससे घरों में प्रदूषण बढ़ता है और माताओं के साथ छोटे बच्चे भी घरों में ज्यादा समय गुजारते हैं। नवजात शिशुओं और बच्चों में साँस सम्बन्धी बीमारियों से जूझने वाला प्रतिरोधक तंत्र काफी कमजोर होता है। घरों के अंदर वायु का प्रवाह की दिशा इस खतरे को और भी बढ़ा देती है। चूल्हे के पास माताओं व बच्चों का अधिक समय गुजारना भी एक गंभीर कारक है। इसलिये यह जरूरी है कि पाँच साल से कम आयु के बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान दिया जाए और घरों के भीतर वायु प्रदूषण से उनका बचाव हो सके।

भारत दुनिया के सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर वाले देशों में शामिल है। इसे देखते हुए घरेलू प्रदूषण पर जल्द से जल्द काबू पाना बहुत आवश्यक है। यद्यपि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के नवीनतम दौर (2015-16) के अनुसार, भारत की राष्ट्रीय शिशु मृत्यु दर में कमी आई है। फिर भी देश अपने निर्धारित लक्ष्यों से काफी पीछे है। प्रति 1000 स्वस्थ जन्म की तुलना में मृत पैदा होने वाले बच्चों की संख्या को 100 से नीचे लाना था और शिशु मृत्यु दर को प्रति हजार 60 से कम करना था। तमाम कोशिशों के बावजूद देश सन 2000 तक इस लक्ष्य को हासिल करने में नाकाम रहा। इससे पहले हुए सर्वे (एनएफएचएस-3) से पूर्व पाँच वर्षों अर्थात साल 2000 से 2005 के दौरान, प्रत्येक चौदह बच्चों में से एक बच्चा अपना पाँचवाँ जन्मदिन नहीं देख पाता था। इस दुखद स्थिति के लिये निमोनिया और साँस की बीमारियाँ जिम्मेदार हैं।

बिहार में इस तरह के संक्रमण की दर 6.8 प्रतिशत है जो राष्ट्रीय औसत की तुलना में काफी अधिक है। यदि खाना पकाने के लिये ठोस ईंधन का प्रयोग ऐसे ही जारी रहा तो इसका सीधा असर बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ना तय है। हालाँकि, समय के साथ बिहार समेत कई राज्यों में ठोस ईंधन के उपयोग में गिरावट आई है, लेकिन अभी भी इसका प्रयोग काफी ज्यादा हो रहा है। ठोस ईंधन के समग्र उपयोग में गिरावट के बावजूद, जनगणना के अनुसार, ठोस ईंधन से खाना पकाने वाले परिवारों की कुल संख्या बढ़ी है। सन 2001 की जनगणना के मुताबिक, देश में कुल 10.08 करोड़ परिवार खाना पकाने के लिये ठोस ईंधन का उपयोग करते थे। एक दशक बाद, 2011 की जनगणना से पता चलता है कि ठोस ईंधन का इस्तेमाल करने वाले परिवारों की कुल संख्या बढ़कर 12.09 लाख तक पहुँच गई है।

केन्द्र सरकार ने हाल में कई योजनाओं की शुरुआत की है, इनमें ‘उज्जवला’ कार्यक्रम भी शामिल है। इसके तहत सरकार गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले करीब डेढ़ करोड़ परिवारों को रसोई गैस मुहैया कराएगी। अगले तीन वर्षों में पाँच करोड़ बीपीएल परिवारों को रसोई गैस मुहैया कराने का लक्ष्य है। सरकार को आँगनबाड़ी जैसी जगहों को भी धुएँ और बीमारियों से मुक्त बनाने के लिये रसोई गैस के इस्तेमाल पर जोर देना होगा। इस दिशा में बिहार में जो पहल हो रहा है, उससे देश के अन्य राज्यों को इस दिशा में आगे बढ़ने में मदद मिल सकती है।

 

मध्यान्ह भोजन योजना में ईंधन का सवाल


सचिन कुमार जैन


बहुत महत्त्वपूर्ण तर्कों के साथ इसी साल भारत में प्रधानमंत्री उज्जवला योजना की शुरुआत हुई। तर्क थे कि भारत में 24 करोड़ परिवारों में से 10 करोड़ से ज्यादा परिवारों में भोजन पकाने के लिये लकड़ी, कंडों, सूखी वनस्पतियों और खेती के सूखे उत्पादों का इस्तेमाल होता है। जिसका सबसे ज्यादा असर महिलाओं पर पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, भारत में इस तरह के ईंधन के उपयोग के कारण हर साल पाँच लाख से ज्यादा मौतें होती हैं। बीमार होने वाले बच्चों-महिलाओं की संख्या तो करोड़ों में है। यह तथ्य भीतर तक हिला देता है कि इस तरह के ईंधन के उपयोग से एक घंटे में 400 सिगरेट जलने के बराबर का धुआँ पैदा होता है। मतलब यह कि 10 करोड़ से ज्यादा महिलाएँ ज़बरदस्त धूम्रपान जैसे खतरे की चपेट में हैं। उज्जवला योजना में कहा गया कि भारत सरकार उन परिवारों को गैस कनेक्शन उपलब्ध करवाएगी, जो 2011 की सामाजिक-आर्थिक-जातीय जनगणना के अन्तर्गत वंचित होने के किसी भी एक सूचक में आए हैं, ताकि उन्हें जबरिया तौर पर धुएँ के बीच जिंदगी न बितानी पड़े।


भारत में 25.53 लाख महिलाएँ स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से मध्यान्ह भोजन योजना के अन्तर्गत 10.2 करोड़  बच्चों के लिये रसोइए और सहायक रसोइए की भूमिका निभाती हैं और हर रोज आठ घंटे काम करती हैं। इन्हें मानदेय के रूप में केवल एक हजार रुपए प्रतिमाह मिलते हैं। इनमें से सभी महिलाएँ गरीब तबकों से सम्बन्ध रखती हैं और 55 प्रतिशत से ज्यादा दलित और आदिवासी महिलाएँ हैं। इन समूहों और महिलाओं को प्राथमिकता के आधार पर उज्जवला योजना के तहत सस्ती दर पर रसोई गैस उपलब्ध कराए जाने का प्रावधान होना चाहिए था, पर ऐसा नहीं हुआ। वर्ष 2012 और 2013 के वित्तीय वर्षों में मानव संसाधन मंत्रालय ने यह प्रावधान किया था मध्यान्ह भोजन योजना में शामिल स्वयं सहायता समूहों को बिना रियायती दर की रसोई गैस दी जाएगी, इस प्रावधान को भी 7 अगस्त 2015 को खत्म कर दिया गया और कहा गया कि ये समूह बाजार दर पर (जिसका अभी मूल्य 900 से 1000 रुपये के बीच है) रसोई गैस का उपयोग करें। इससे दो नकारात्मक असर पड़े; पहला-भोजन पकाने की लागत 50 पैसे तक बढ़ गई और समूहों पर आर्थिक दबाव बढ़ा। दूसरा-प्राथमिकता नहीं होने के कारण अब भी मध्यान्ह भोजन में ज्यादातर लकड़ी/वन ईंधन का ही इस्तेमाल हो रहा है। उदाहरण के लिये मध्यप्रदेश के 1.157 लाख स्कूलों में से 31276 स्कूलों में ही रसोई गैस उपलब्ध है। वास्तव में मध्यान्ह भोजन योजना में ईंधन का सवाल एक भौतिक सवाल नहीं है, यह सीधे तौर पर स्वच्छ पर्यावरण, बच्चों की सुरक्षा और महिलाओं के शारीरिक-सामाजिक स्वास्थ्य के अधिकार से जुड़ा सवाल है, जिसका अभी तक जवाब नहीं दिया गया है।

 

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