दामोदर नदी ने रास्ता दिखाया

‘‘कोई भी गाँव वाला इस तरह की स्पष्ट तकनीकी राय नहीं दे सकता था अगर उसने अपने बाप-दादों से यह किस्से न सुने होते या उन्होंने खुद तटबन्धों को काटते हुये उनको न देखा होता। नदी के तटबंध 40.50 जगहों पर क्यों काटे जाते थे-यह तर्क इस बात को रेखांकित करता है।”

ईस्ट इंडिया कम्पनी के अंग्रेज अफसर और मुलाजिम मूलतः व्यापारी और नाविक थे और उनको भारत में सिंचाई, बाढ़ और उसके नियंत्रण आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। बाढ़ नियंत्रण के नाम पर नदियों के किनारे कुछ जमींदारी तटबंध थे जो कि बहुत कम ऊँचाई के हुआ करते थे। इनसे केवल हल्की-फुल्की बाढ़ों का ही सामना किया जा सकता था कि निचले इलाकों में पानी जल्दी न भरने पाये। जैसे ही बाढ़ का पानी इतनी ऊँचाई अख्तियार कर ले कि तटबंध के ऊपर से पानी बहने का अंदेशा होने लगे तो गाँव वाले बरसात में इन तटबंधों को खुद ही काट दिया करते थे जिससे कि गाद युक्त गंदला पानी खेतों में चला जाय और सिंचाई तथा खाद की जरूरतें अपने आप पूरी हो जायें। विल्कॉक्स (1930) ने पिछले समय में बंगाल के बर्द्धमान जिले में दामोदर नदी घाटी में सिंचाई पद्धति के बारे में बड़ा ही दिलचस्प विवरण दिया है। इस घाटी में किसान नदी के किनारे 60-75 सेंटीमीटर ऊँचे बौने तटबंधों का हर साल निर्माण करते थे। सूखे मौसम में इनका इस्तेमाल रास्ते के तौर पर होता था। उनके अनुसार घाटी में बरसात की शुरुआत के साथ-साथ बाढ़ों की भी शुरुआत होती थी जिससे कि बुआई और रोपनी का काम समय से और सुचारु रूप से हो जाता था। जैसे-जैसे बारिश तेज हेाती थी उसी रफ्तार से जमीन में नमी बढ़ती थी और धीरे-धीरे सारे इलाके पर पानी की चादर बिछ जाती थी। यह पानी मच्छरों के लारवा की पैदाइश के लिए बहुत उपयुक्त होता था।

इसी समय उफनती नदी का गंदा पानी या तो बौने तटबंधों के ऊपर से बह कर पूरे इलाके पर फैलता था या फिर किसान ही बड़ी संख्या में इन तटबंधों को जगह-जगह पर काट दिया करते थे जिससे नदी का पानी एकदम छिछली और चौड़ी धारा के माध्यम से चारों ओर फैलता था। इस गंदले पानी में कार्प और झींगा जैसी मछलियों के अंडे होते थे जो कि नदी के पानी के साथ-साथ धान के खेतों और तालाबों में पहुँच जाते थे। जल्दी ही इन अंडों से छोटी-छोटी मछलियाँ निकल आती थीं जो कि पूरी तरह मांसाहारी होती थीं। यह मछलियाँ मच्छरों के अण्डों पर टूट पड़ती थीं और उनका सफाया कर देती थीं। खेतों की मेड़ें और चौड़ी -छिछली धाराओं के किनारे इन मछलियों को रास्ता दिखाते थे और जहाँ भी यह पानी जा सकता था, यह मछलियाँ वहाँ मौजूद रहती थीं। यही जगहें मच्छरों के अंडों की भी थी और उनका मछलियों से बच पाना नामुमकिन था। अगर कभी लम्बे समय तक बारिश नहीं हुई तो ऐसे हालात से बचाव के लिए स्थानीय लोगों ने बड़ी संख्या में तालाब और पोखरे बना रखे थे जहाँ मछलियाँ जाकर शरण ले सकती थीं।

सूखे की स्थिति में यही तालाब सिंचाई और फसल सुरक्षा की गारंटी देते थे, क्योंकि नदी के किनारे बने तटबंध बहुत कम ऊँचाई के हुआ करते थे और 40-50 जगहों पर एक साथ काटे जाते थे इसलिए बाढ़ का कोई खतरा नहीं हेाता था और इस काम में कोई जोखिम भी नहीं था। नदी के उपरी सतह का पानी खेतों तक पहुंचने के कारण ताजी मिट्टी की शक्ल में उर्वरक खाद खेतों को मिल जाती थी। बरसात समाप्त होने के बाद बौने तटबंधों की दरारें भर कर उनकी मरम्मत कर दी जाती थी। विल्कॉक्स लिखते हैं कि, ‘‘कोई भी गाँव वाला इस तरह की स्पष्ट तकनीकी राय नहीं दे सकता था अगर उसने अपने बाप-दादों से यह किस्से न सुने होते या उन्होंने खुद तटबन्धों को काटते हुये उनको न देखा होता। नदी के तटबंध 40.50 जगहों पर क्यों काटे जाते थे-यह तर्क इस बात को रेखांकित करता है।”

अंग्रेजों ने इस व्यवस्था को मजबूत बनाने और सुधारने का काम नहीं किया। उन्हें लगा कि चौड़ी और छिछली धाराएं नदी की छाड़न हैं और नदियों के किनारे बने तटबंध केवल बाढ़ से बचाव के लिए बनाये जाते हैं। उन्होंने चौड़ी -छिछली धाराओं की उपेक्षा की और उन्हें ‘‘मृत नदी’’ घोषित कर दिया और जमींदारी तटबंधों को बाढ़ नियंत्रण के लिए मजबूत करना शुरू किया। लोगों ने फिर भी तटबंधों को काटना नहीं छोड़ा। उधर अंग्रेज सरकार इस बात पर तुली हुई थी कि वह किसी भी कीमत पर इस ‘दुर्भाग्यपूर्ण घटना’ को रोकेगी। उसका मानना था कि इतनी जगहों पर तटबंध नदी की ‘अनियंत्रित बाढ़’ के कारण टूटते हैं। उन्हें इस बात का गुमान तक नहीं हुआ कि तटबंध चोरी-चुपके किसान ही काटते हैं। उन्हें यह भी समझ में नहीं आया कि एक बड़ी लम्बाई में तटबन्धों के बीच घिरी नदी से एक ही साल में 40 से 50 स्थानों पर दरारें क्यों पड़ेंगी? तटबन्धों के अंदर फंसी नदी की मुक्ति के लिए तो दो एक जगह की दरार ही काफी है - वह इतनी जगहों पर तटबंध क्यों तोड़ेगी?

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