दो लाख हेक्टेयर में होगी जैविक खेती

30 Jul 2018
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ब्रुसेल्स
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उत्तराखण्ड इस बात के लिये भाग्यशाली है कि पहाड़ी क्षेत्रों में रासायनिक खादों का प्रयोग नाम मात्र का होता है। कमोबेश यदि यहाँ रासायनिक खादों का इस्तेमाल किया भी जाता है तो वे बारिश के पानी के साथ पहाड़ी ढलानों में बह जाते हैं। इस खूबी का लाभ उठाने के लिये मौजूदा परिस्थितियों ने उत्तराखण्ड के सामने पर्याप्त अवसर पेश किये हैं। जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि जैविक खेती को वैज्ञानिक तौर-तरीके से अपनाकर विकसित किया जाये।

यह जगजाहिर है कि किसी भी उत्पाद पर यदि जैविक का मार्का चस्पा हो और उस पर यदि हिमालय क्षेत्र में उत्पादित लिखा हो तो भला कौन होगा जो इसे नहीं खरीदेगा। जैविक उत्पाद का बाजार यहाँ तेजी से विकसित हो रहा है। उत्तराखण्ड में इन दिनों कुछ काश्तकार तो सरकार के भरोसे जैविक खेती को आगे बढ़ा रहे हैं तो कुछ खुद के बलबूते पर जैविक खेती को विकसित कर रहे हैं।

जो भी हो जैविक खेती के माध्यम से जुड़े लोग स्वरोजगार से जुड़ चुके हैं और वे स्थानीय पर्यावरण की भी चिन्ता करते हैं। ये किसान प्राकृतिक संसाधनों का पूरा ख्याल रखते हैं क्योंकि उनके उत्पाद इसी आबो-हवा के बीच उत्पादित होते हैं। इसीलिये पहाड़ की खेती फिर से सरसब्ज हो रही है। इधर प्रदेश में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिये केन्द्र सरकार ने 1500 करोड़ का एकमुश्त बजट स्वीकृत किया है।

सरकार भी जैविक खेती की ओर

बताया जा रहा है कि केन्द्र सरकार ने कृषि आधारित विकास की सभी परियोजनाओं को प्रोत्साहित करने के लिये छब्बीस सौ करोड़ की योजना को स्वीकृति प्रदान की है। जिसे वे सहकारिता के आधार पर पहाड़ में बंजर हो चुके खेतों को फिर से सरसब्ज करने पर खर्च करेगी। सरकार की यह योजना पहाड़ में लोगों को स्वरोजगार के साधन सुलभ कराने और पलायन रोकने के लिये कारगर साबित हो सकती है।

सब ठीक-ठाक रहा तो इस योजना के तहत उत्तराखण्ड को देश के दूसरे जैविक राज्य की पहचान मिलने की प्रबल सम्भावना है। इधर सम्बन्धित अधिकारियों का कहना है कि जैविक उत्पाद से सम्बन्धित अधिनियम जल्द ही राज्य में अस्तित्व में आ जाएगा। वैसे भी राज्य के जैविक उत्पादों को बाजार देने के लिये जगह-जगह हाट लगाए जा रहे हैं। इतना ही नहीं, जैविक उत्पादों को बाजार की कठिनाइयों का सामना न करना पड़े, इसके लिये उत्तराखण्ड सरकार ने हरिद्वार स्थित पतंजलि संस्था के साथ करार भी किया है और इस करार के तहत राज्य में उत्पादित होने वाले एक हजार करोड़ रुपए तक के जैविक उत्पादों को पतंजलि खरीदेगा।

उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जनपद अर्न्तगत मुनस्यारी विकासखण्ड को साल 2016 में जैविक विकासखण्ड बनाया गया था। इसके अतिरिक्त जिले के अन्य सभी विकासखण्डों में भी जैविक खेती को बढ़ावा देने के कार्य किये जा रहे हैं। सरकारी सूचना के अनुसार जिले में कुल 32 जैविक कृषि क्लस्टर बनाए गए हैं। एक कलस्टर 20 हेक्टेयर भू-भाग में चिन्हित किया गया है और प्रत्येक कलस्टर में 50 किसानों के माध्यम से जैविक खेती की जा रही है।

वर्ष 2015-16 में राष्ट्रीय जैविक कृषि विकास योजना के तहत पिथौरागढ़ जिले को 20 करोड़ से भी अधिक की योजना की मंजूरी मिली थी, जिसमें से 11 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं। योजना से 6235 काश्तकारों को जोड़ा गया है और 3014 हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक कृषि योजना का संचालन किया जा रहा है।

इतना सब कुछ होने, करोड़ों रुपए खर्च कर देने और हजारों किसानों को जैविक कृषि से जोड़े जाने के बावजूद, आखिर मुनस्यारी के काश्तकारों के उत्पाद मुम्बई में ‘जैविक उत्पाद’ की संज्ञा पाने में असफल रहे। इसका जवाब देने में कृषि महकमें से जुड़े लोग किसानों पर आरोप लगाकर अपना पल्ला झाड़ देते हैं। जैविक विकासखण्ड, जैविक जिला और जैविक राज्य का हाल इस उदाहरण से समझा जा सकता है।

उत्तराखण्ड में कृषि विभाग के हालिया आँकड़े बता रहे हैं कि राज्य में 585 क्लस्टर में जैविक कृषि की जा रही है जिससे 80 हजार किसान जुड़े हैं। विभाग का दावा है कि राज्य में एक लाख 76 हजार क्विंटल से अधिक जैविक उपज ली जा रही है। जैविक कृषि के तहत 15 फसलों को चिन्हित किया गया है।

उत्तराखण्ड जैविक उत्पाद बोर्ड के निदेशक संजीव कुमार ने बताया कि इस योजना के तहत राज्य में 10 हजार नए क्लस्टरों में जैविक कृषि की जाएगी जिससे राज्य के पाँच लाख किसानों को जोड़ा जाएगा। एक क्लस्टर के लिये 20 हेक्टेयर भू-भाग का निर्धारण किया गया है। इस प्रकार अब राज्य के दो लाख हेक्टेयर भू-भाग में जैविक कृषि किया जाना तय है।

इस तरह अब पूरे उत्तराखण्ड को जैविक कृषि के अन्तर्गत लाया जा रहा है। यदि जैविक प्रदेश की योजना धरातल पर उतरती है तो आने वाले कुछ ही वर्षों में उत्तराखण्ड जैविक राज्य के रूप में विकसित हो जाएगा। वैज्ञानिक ढंग से भी खेती की जाएगी तो पहाड़ के काश्तकारों की आय चौगुनी होने की सम्भावना है।

जैविक प्रदेश

देश के अन्य हिमालयी राज्यों के साथ ही उत्तराखण्ड इस बात के लिये भाग्यशाली है कि पहाड़ी क्षेत्रों में रासायनिक खादों का प्रयोग नाम मात्र का होता है। कमोबेश यदि यहाँ रासायनिक खादों का इस्तेमाल किया भी जाता है तो वे बारिश के पानी के साथ पहाड़ी ढलानों में बह जाते हैं।

इस खूबी का लाभ उठाने के लिये मौजूदा परिस्थितियों ने उत्तराखण्ड के सामने पर्याप्त अवसर पेश किये हैं। जरूरत है तो सिर्फ इस बात की कि जैविक खेती को वैज्ञानिक तौर-तरीके से अपनाकर विकसित किया जाये। यहाँ किसानों को जैविक खेती के लिये प्रेरित किया जाये, जैविक उत्पादन को बढ़ाया जाये और बाजार तंत्र को आज की जरूरत के अनुसार विकसित किया जाये, ताकि किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये इधर-उधर ना भटकना पड़े।

बंजर खेत और भुतहा गाँव

यह सच है कि उत्तराखण्ड हिमालय में, खेती में रसायनिक खादों का प्रयोग न के बराबर हुआ है, लेकिन कृषि की चुनौतियाँ यहाँ मुँह बाए खड़ी हैं। सबसे बड़ी चुनौती तो पूरे पहाड़ के अन्न उगलते खेतों का बंजर पड़ जाना है, जो पिछले 20 वर्षों में सर्वाधिक हुआ है। आज पहाड़ के अधिकांश गाँवों की आबादी आधी या इससे भी कम रह गई है। कुछ गाँव वीरान होकर ‘भुतहा गाँव’ कहलाने लग गए हैं। गाँवों को केवल उन्हीं लोगों ने आबाद किया है जो कतिपय कारणों से गाँव में ही रुक गए हैं।

इससे पहाड़ में खेती भी संकट के दौर से गुजर रही है क्योंकि जैवविविधता चक्र के गड़बड़ाने के कारण वन्य जीवों और खेती पर हमला तेजी से बढ़ा है। बिखरी और छोटी जोत वाले पहाड़ी काश्तकारों ने अब खेती से मुँह मोड़ लिया है। पहाड़ी किसानों की इस उदासी का कारण सरकारें बताई जा रही हैं।

सरकारी कृषि महकमें का काम अब तक पहाड़ी किसानों को रबी व खरीफ की गोष्ठियों में उलझाए रखने तक रहा। वहीं सिंचाई के नाम पर कमीशनखोरी और घोटालों का सिलसिला चलता रहा। ताज्जुब तो यह है कि सरकार राज्य बनने के 17 साल बाद जैविक खेती के नाम पर ‘पारम्परिक खेती विकास योजना’ का संचालन करने जा रही है। यहाँ याद दिला दें कि इस योजना को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘ड्रीम प्रोजेक्ट’ बताया जा रहा है, जिसे उन्होंने उत्तराखण्ड की पिछली केदारनाथ यात्रा के दौरान उजागर किया था।

अब तो जैविक प्रदेश बनाने के कार्य में लगे महकमें के पास संसाधनों की कमी भी नहीं है। उसके पास 1500 करोड़ रुपए का भारी-भरकम बजट जो है। इस भारी-भरकम बजट से उत्तराखण्ड की कृषि उपज पर ‘जैविक’ का लेबल बाजार में स्वीकार होगा कि नहीं यह तो समय ही बता पाएगा। कहीं ऐसा न हो कि भविष्य में बजट तो खर्च हो जाएगा और मुनस्यारी की तरह फिर से किसानों को जैविक उत्पाद प्रमाणन के लिये दर-दर भटकना पड़ेगा। जैविक उत्पादों को बाजार उपलब्ध करवाने के लिये सरकार प्रयास तो कर रही है लेकिन इस पर कब रंग चढ़ेगा यह तो वक्त ही बताएगा।

जैविक उत्पादों का आकर्षण

हालिया दौर में पूरी दुनिया का आकर्षण जैविक उत्पादों की तरफ बढ़ा है जबकि रासायनिक उत्पादों की तुलना में जैविक उत्पादों के दाम 20 फीसदी से लेकर 150 फीसदी तक अधिक हैं। बता दें कि साठ के दशक के अन्त में शुरू हुई हरित क्रान्ति के बाद खाद्यान्नों के माँग को पूरी करने के लिये रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के बेतहाशा इस्तेमाल के चलते कृषि उपज में पर्याप्त उछाल तो आया, लेकिन धीरे-धीरे खेती में प्रयुक्त किये गए रसायन और कीटनाशक भोजन के जरिए शरीर में पहुँचकर कैंसर जैसी तमाम गम्भीर रोगों का कारण बन गए। दुनिया के सामने अब एक तरफ भूख मिटाने की चुनौती है तो दूसरी तरफ रोगों के नियंत्रण की। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिये जैविक खेती के अलावा कोई दूसरा रास्ता नहीं है।

भारत में वर्ष 2004 में राष्ट्रीय जैविक खेती विकास योजना की शुरुआत की गई। जिसके तहत वर्तमान में पूरे देश में लगभग साढ़े सात लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में जैविक खेती की जा रही है। लगभग साढ़े बारह करोड़ टन जैविक अनाजों, फलों, सब्जियों का उत्पादन किया जा रहा है। एक आकलन के मुताबिक भारत में खेती करने वाले किसानों की संख्या 12 करोड़ बताई जा रही है जबकि जैविक खेती करने वालों की संख्या छह लाख बताई जा रही है।

कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) का अध्ययन बताता है कि जैविक प्रमाणन के अन्तर्गत खेती करने वाले देशों में भारत अभी 10वें स्थान पर है। इसी संस्था के आकलन के मुताबिक जैविक उत्पादों का बाजार वर्तमान में तीन हजार करोड़ है जो इतनी तेजी के साथ बढ़ रहा है कि आने वाले पाँच सालों में छः हजार करोड़ और दस सालों में नौ हजार करोड़ के आँकड़े को पार कर सकता है।

बाजार में जैविक उत्पाद

बाजार में जैविक उत्पादों की माँग रही है लेकिन उत्पादन इतना कम है कि माँग की पूर्ति सम्भव नहीं है। हमारे सामने आज ऐसी स्थिति आ गई है कि हमारे पास जैविक उत्पादों को अपनाने के अलावा और कोई दूसरा विकल्प नहीं है। आज रसायनों का इस्तेमाल इतना बढ़ गया है कि दूध, तेल, दाल, सब्जी, चावल, आटा, फल के अतिरिक्त उस धागे में भी रसायन का इस्तेमाल किया जाता है जिससे तैयार कपड़े हम पहनते हैं। देश में सरकारी प्रयासों के साथ ही मोरारका फाउंडेशन, एमवे, टाटा ट्रस्ट जैसी कई संस्थाएँ जैविक खेती को प्रोत्साहित कर रही हैं।

रसायन बनाम जैविक उत्पाद

विश्व में खाद्यान्नों की बढ़ती माँग को जैविक खेती से पूरा किया जा सकता है। परन्तु सवाल यह है कि हरित क्रान्ति के दौरान बाद के पिछले पाँच-छह दशकों में खेती में रसायनों का इस तरह से उर्वरकों के इस्तेमाल के कारण मिट्टी का स्वास्थ्य बुरी तरह बिगड़ चुका है।

इस मिट्टी में अब बिना रसायनों के प्रयोग की खेती घाटे का सौदा है। वैज्ञानिक बताते हैं कि रसायनों के प्रभाव से खेती को मुक्त करने के लिये लगातार तीन-चार साल तक जैविक खेती करने की जरूरत होती है। इस अवधि में तुलनात्मक रूप से उत्पादन में भी गिरावट आ सकती है। इस प्रकार खाद्यान्न की आपूर्ति कुछ समय के लिये असन्तुलित हो सकती है।


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