दफन होते दरिया

Drinking water
Drinking water


देश के बत्तीस फीसदी हिस्से को अब पानी की किल्लत के लिए गर्मी का इंतजार नहीं करना पड़ता। सरकार संसद में बता चुकी है कि देश की ग्यारह फीसदी आबादी साफ पीने के पानी से महरूम है। कुछ दशक पहले लोग स्थानीय स्रोतों की मदद से इफरात पानी जुटाते थे। फिर अंधाधुंध नलकूप लगाए जाने लगे, जब तक संभलते तब तक भूजल का स्तर काफी नीचे जा चुका था। पारंपरिक तालाबों की देखभाल करने वाले लोग किसी और काम में लग गए और तालाब सहेजने की तकनीक नदारद हो गई। तभी तो 2001 से अब तक तालाबों से गाद निकालने के नाम पर सरकार ने आठ सौ करोड़ रुपये से ज्यादा फूंक दिए और नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा। तालाबों की जल-ग्रहण क्षमता भले न बढ़ी हो, कुछ लोगों का जमा-खाता जरूर बढ़ गया।

देश की अट्ठावन पुरानी झीलों को पानीदार बनाने के लिए 2001 में केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने राष्ट्रीय झील संरक्षण योजना शुरू की थी। इसके लिए पौने नौ सौ करोड़ रुपए से अधिक धन का प्रावधान था। इसके तहत मध्यप्रदेश की सागर झील, रीवां का रानी तालाब और शिवपुरी झील, कर्नाटक के चौदह तालाबों, नैनीताल की दो झीलों सहित अट्ठावन तालाबों की गाद सफाई के लिए पैसा दिया गया। इसमें राजस्थान के पुष्कर का कुंड और श्रीनगर की डल झील भी थी। झील सफाई का पैसा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों को भी दिया गया। लेकिन इन पैसों का सही इस्तेमाल नहीं हो पाया। केंद्रीय जल आयोग ने जब खर्च पैसे की पड़ताल की तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आए। कई जगह तो गाद निकाली ही नहीं गई और उसकी ढुलाई का खर्च दिखा दिया। कुछ जगह गाद निकाल कर किनारों पर ही छोड़ दी गई, जो अगली बारिश में फिर से तालाब में भर गई।

असल में तालाब की सफाई का काम आज के अंग्रेजीदां इंजीनियरों के बस की बात नहीं है। छतरपुर जिले के अंधियारा तालाब की कहानी पर गौर करें। कोई पंद्रह साल पहले वहां सूखा राहत के तहत तालाब को गहरा करने का काम शुरू हुआ। इंजीनियर ने तालाब के बीचों-बीच खूब गहरी खुदाई करना दी। जब इंद्र देवता मेहरबान हुए तो तालाब एक रात में लबालब हो गया, लेकिन अगली सुबह ही उसकी तली दिख रही थी। असल में हुआ यों कि बगैर सोचे-समझे की गई खुदाई में तालाब की वह झिर टूट गई, जिसका संबंध सीधे इलाके के ग्रेनाइट भू संरचना से था। पानी आया और झिर से बह गया।यहां जानना जरूरी है कि अभी एक सदी पहले तक बुंदेलखंड के इन तालाबों की देखभाल का काम पारंपरिक रूप से ढीमर समाज के लोग करते थे। वे तालाब को साफ रखते, उसकी नहर, बांध, जल आवक को सहेजते और एवज में तालाब की मछली, सिघांड़े और समाज से मिलने वाली दक्षिणा पर उनका हक होता। इसी तरह हर इलाके में तालाबों को सहेजने का जिम्मा समाज के एक वर्ग ने उठा रखा था और उसकी रोजी-रोटी की व्यवस्था वही समाज करता था, जो तालाब के जल का इस्तेमाल करता था। तालाब लोक की संस्कृति-सभ्यता का अभिन्न अंग हैं। इन्हें सरकारी बाबुओं के लाल बस्ते के बदौलत नहीं छोड़ा जा सकता।

हकीकत में तालाबों की सफाई और गहरीकरण अधिक खर्चीला काम नहीं है, न ही इसके लिए भारी-भरकम मशीनों की जरूरत होती है। तालाबों में भरी गाद सालों से सड़ रहीं पत्तियों और दूसरी वजहों से उपजी है, जो उम्दा दर्जों की खाद है। रासायनिक खादों ने किस कदर जमीन को चौपट किया है? यह किसान जान चुके हैं और उनका रुख अब कंपोस्ट और अन्य देसी खादों की ओर है। किसानों को अगर इस कीचड़ की सफाई का जिम्मा सौंपा जाए तो वे सहर्ष राजी हो जाते हैं। राजस्थान के झालावाड़ा जिले में ‘खेतों में पालिश करने’ के नाम से यह प्रयोग सफल और लोकप्रिय रहा है।

कर्नाटक में समाज के सहयोग से ऐसे कोई पचास तालाबों का कायाकल्प हुआ है, जिसमें गाद की ढुलाई मुफ्त हुई, यानी ढुलाई करने वालों ने इस बेशकीमती खाद को बेच कर पैसा कमाया। इससे एक तो उनके खेतों को उर्वरक मिलता है, साथ ही तालाबों के रख-रखाव से उनकी सिंचाई सुविधा भी बढ़ती है।

1944 में गठित अकाल जांच आयोग ने निर्देश दिए थे कि आने वाले सालों में संभावित पेयजल संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। आयोग की रिर्पोट लाल बस्ते में कहीं दब गई। आजादी के बाद इन पुश्तैनी तालाबों की देखरेख करने में लापरवाही बरती जाने लगी। चाहे कालाहांडी हो या फिर बुंदेलखंड या फिर तेलंगाना, देश के जल-संकट वाले सभी इलाकों की कहानी एक है। इन सभी इलाकों में एक सदी पहले तक सैकड़ों बेहतरीन तालाब थे। तालाब केवल लोगों का प्यास नहीं बुझाते थे, यहां की अर्थव्यवस्था का मूल आधार भी होते थे। मछली, कमल गट्टा, सिंघाड़ा, कुम्हार के लिए चिकनी मिट्टी-यहां के हजारों-हजार घरों को रोजी-रोटी देते थे। तालाबों का पानी यहां के कुओं का जल स्तर बनाए रखने में सहायक होते थे। शहरीकरण की चपेट में लोग तालाबों को ही पी गए और अब उनके पास पीने के लिए कुछ नहीं बचा है।

गांव या शहर के रसूखदार लोग जमीन पर कब्जा करने के लिए बाकायदा तालाबों को सुखाते हैं, पहले इनके बांध फोड़े जाते हैं, फिर इनमें पानी की आवक के रास्तों को रोका जाता है- न भरेगा पानी, न रहेगा तालाब। गांवों में तालाब से खाली हुई उपजाऊ जमीन लालच का कारण होती है तो शहरों में कॉलोनियां बनाने वाले भूमाफिया इसे सस्ता सौदा मानते हैं। यह राजस्थान में उदयपूर से लेकर जैसलमेर तक, हैदराबाद में हुसैनसागर, हरियाणा में दिल्ली से सटे सुल्तानपुर झील या उत्तर प्रदेश के चरखारी और झांसी हो या फिर तमिलनाडु की पुलिकट झील, सभी जगह एक ही कहानी है। कर्नाटक के बीजापुर इलाके में कहने को चप्पे-चप्पे पर जल भंडारण के संसाधन मौजूद हैं, लेकिन हकीकत में बारिश का पानी यहां टिकता ही नहीं है। लोग रीते नलों को कोसते हैं, जबकि उनकी किस्मत को आदिलशाही जल प्रबंधन के बेमिसाल उपकरणों की उपेक्षा का दंश लगा हुआ है।

समाज और सरकार पारंपरिक जल-स्रोतों कुओं, बावड़ियों और तालाबों में गाद होने की बात करता है, जबकि हकीकत में गाद तो उन्हीं के माथे पर है। सदानीरा रहने वाली बावड़ी-कुओं को नलकूपों और कचरे ने खत्म कर दिया तो तालाबों को कंक्रीट का जंगल निगल गया।

एक तरफ प्यास से बेहाल होकर अपने घर-गांव छोड़ते लोगों की हकीकत है तो दूसरी ओर पानी का अकूत भंडार। अगर जलसंकट ग्रस्त इलाकों के सभी तालाबों को मौजूदा हालात में भी बचा लिया जाए तो वहां के हर खेत को तर सिंचाई, हर कंठ को पानी और हजारों हाथों को रोजगार मिल सकता है। एक बार मरम्मत होने के बाद तालाबों के रखरखाव का काम समाज को सौंपा जाए, इसमें महिलाओं के स्वयं सहायता समूह, मछली पालन सहकारी समितियां, पंचायत, गांव की जल-बिरादरी को शामिल किया जाना जरूरी है।
 

 

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading