ड्रैगन जैसा न हो भारत का विकास

26 Sep 2014
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तिब्बत में परमाणु कचरा
निवेशक हमेशा मुनाफे के लिए ही निवेश करता है, वह चाहे अमेरिका हो या चीन। वैसे ही इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि निवेशकों में होड़ तभी होती है, जब निवेश करना सुरक्षित हो और पर्याप्त मुनाफे की गारंटी। संभवतः इस दृष्टि से दुनिया आज भारत केे सबसे मुफीद देशों में से एक है। निर्णय लेने और उसे लागू कराने में सक्षम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की छवि, निस्संदेह निवेशकों को आकर्षित करने में सक्षम है। यह होड़ इसीलिए मची हुई है। हम चूंकि निवेश के भूखे राष्ट्र हैं इसलिए इस होड़ को लेकर हम अंदर-बाहर तक गदगद होते रहते हैं। हमारे प्रधानमंत्री हमारी इस भूख के इंतजाम करने में सफल भी दिखाई दे रहे हैं।

द्विपक्षीय शर्तों पर सहमति बनें


हम खुश हों कि अगले पांच साल में 100 अरब डॉलर के चीनी निवेश से सुविधा संपन्न रेलवे स्टेशन, रेलवे ट्रैक के विस्तार, तीव्र गति रेलगाड़ियों और अधिक औद्योगिक पार्क की हमारी भूख मिटेगी। कैलाश मानसरोवर के लिए नाथुला दर्रे से एक और रास्ता खुलेगा। इससे उत्तराखंड के मुख्यमंत्री नाराज हो रहे हैं।

हो सकता है कि सिक्क्मि के मुख्यमंत्री खुश हों। किंतु इस खुशी में हम यह कभी न भूलें कि जिस तरह जरूरत से ज्यादा किया गया भोजन जहर है, ठीक इसी तरह किसी भी संज्ञा या सर्वनाम का जरूरत से ज्यादा किया गया दोहन भी एक दिन जहर ही साबित होता है। चीन अपनी धरती पर यही कर रहा है। भारत अपने यहां यह न होने दे। चीन निवेश करे, किंतु द्विपक्षीय सहमत शर्तों पर। अभी-अभी गंगा जलमार्ग हेतु भारतीय अंतदेर्शीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा जारी विज्ञापन में कहा गया है कि परामर्शदाताओं का चयन, रोजगार आदि विश्व बैंक उधारदाताओं के निर्देशों के अनुसार होगा। यह न हो।

लाभ के साथ, शुभ जरूरी


यह भी न हो कि निवेशकों की शर्त पर चलते-चलते भारत की सरकार भी निवेशक जैसी हो जाए। परियोजनाओं में वह भी सिर्फ लाभ ही देखे और सभी का शुभ भूल जाए। भारतीय परंपरा में व्यापारी, लाभ के साथ शुभ का गठजोड़ बनाकर व्यापार करता रहा है। ‘शुभ लाभ’ का यह गठजोड़ सरकार कभी न टूटने दें। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि चूंकि मुझे भारत भी अब उसी वैश्विक होड़ में शामिल होता दिखाई दे रहा है, जिसमें चीन और अमेरिका हैं। याद कीजिए, राहुल गांधी जी ने चुनाव के वक्त कहा था कि यदि हम पूरी शक्ति से काम में लग जाएं, तो अगले कुछ सालों में चीन को पीछे छोड़ देंगे और नरेन्द्र मोदी ने चीन की बराबरी करने की इच्छा जाहिर की है।

अलग देश फिर एक मॉडल क्यों


भारत के दो शीर्ष दलों के दो शीर्ष नेताओं के साथ-साथ वर्तमान सरकार को भी एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि भारतीय विकास का भावी मॉडल चाहे जो हो, वह चीन सरीखा तो कतई नहीं हो सकता। चीनी अर्थव्यवस्था का मॉडल घटिया चीनी सामान की तरह है जिसका उत्पादन, उत्पादनकर्ता, उपलब्धता और बिक्री बहुत है, किंतु टिकाऊपन की गारंटी न के बराबर। चीन आर्थिक विकास की आंधी में बहता एक ऐसा राष्ट्र बन गया है, जिसे दूसरे के पैसे और सीमा पर कब्जे की चिंता है अपनी तथा दूसरे की जिंदगी व सेहत की चिंता कतई नहीं। यह मैं नहीं कह रहा खुद चीन के कारनामें कह रहे हैं।

समग्र विकास की अनदेखी गलत


यह सच है कि चीन ने अपनी आबादी को बोझ समझने की बजाय एक संसाधन मानकर बाजार के लिए उसका उपयोग करना सीख लिया है। यह बुरा नहीं है। ऐसा करके भारत भी आर्थिक विकास सूचकांक पर और आगे दिख सकता है। किंतु समग्र विकास के तमाम अन्य मानकों की अनदेखी करके यह करना खतरनाक होगा। त्रासदियों के आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक दौड़ में आगे दिखता चीन प्राकृतिक समृद्धि, सेहत और सामाजिक मुस्कान के सूचकांक में काफी पिछड़ गया है। उपलब्ध रिपोर्ट बताती हैं कि चीनी सामाजिक परिवेश में तनाव गहराता जा रहा है।

चीन के लांझू शहर को आपूर्ति किया जा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पड़ी। आपूर्ति जल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को अपनी गर्दन पकड़ लेने के लिए दिया गया न्योता है। अमेरिका की गैलप नाम अग्रणी सर्वे एजेंसी के मुताबिक, दुनिया के खुशहाल देशों की सूची में भारत, चीन से 19 पायदान ऊपर है। भारत के 19 फीसदी लोग अपने रोजमर्रा के काम और तरक्की से खुश हैं, तो चीन में मात्र नौ प्रतिशत। जनवरी, 2013 से अगस्त, 2013 के आठ महीनों में करीब 50 दिन ऐसे आए, जब चीन के किसी-न-किसी हिस्से में कुदरत का कहर बरपा। औसतन एक महीने में छह दिन! बाढ़, बर्फबारी, भयानक लू, जंगल की आग, भूकंप, खदान धसान और टायफून आदि के रूप में आई कुदरती प्रतिक्रिया के ये संदेशे कतई ऐसे नहीं हैं कि इन्हें नजरअंदाज किया जा सके। खासतौर पर तब, जब उत्तराखंड और कश्मीर के जलजले के रूप में ये संदेशे अब भारत में भी आने लगे हैं।

यह कमाना है या गंवाना?


सिर्फ छह जनवरी, 2013 की ही तारीख को लें तो चीन में व्यापक बर्फबारी से सात लाख, 70 हजार लोगों के प्रभावित होने का आंकड़ा है। प्रदूषण की वजह से चीन की 33 लाख हेक्टेयर भूमि खेती लायक ही नहीं बची। ऐसी भूमि में उत्पादित फसल को जहरीला करार दिया गया है। तिब्बत को वह ‘क्रिटिकल जोन’ बनाने में लगा ही हुआ है। खबर है कि अपने परमाणु कचरे के लिए वह तिब्बत को ‘डंप एरिया’ के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है।

तिब्बत में मूल स्रोत वाली नदियों में बहकर आने वाले परमाणु कचरा उत्तर पूर्व भारत को बीमार ही करेगा। ऐसे नजारे संयुक्त राष्ट्र देशों के भी हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष-2013 में प्राकृतिक आपदा की वजह से दुनिया ने 192 बिलियन डॉलर खो दिए। आपदा का यह कहर वर्ष 2014 में भी जारी है। विकसित कहे जाने वाले कई देश स्वयं को बचाने के लिए ज्यादा कचरा फेंकने वाले उद्योगों को दूसरे ऐसे देशों में ले जा रहे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है। क्या ये किसी अर्थव्यवस्था के ऐसा होने का संकेत हैं कि उससे प्रेरित हुआ जा सके? ऐसी मलिन अर्थव्यवस्था में तब्दील हो जाने की बेसब्री उचित है? क्या भारत को इससे बचना नहीं चाहिए?

जहरीला पानी: कैंसर को न्योता


गौरतलब है कि जिस चीनी विकास की दुहाई देते हम नहीं थक रहे, उसी चीन के बीजिंग, शंघाई और ग्वांगझो जैसे नामी शहरों के बाशिंदे प्रदूषण की वजह से गंभीर बीमारियों के बड़े पैमाने पर शिकार बन रहे हैं। चीन के गांसू प्रांत के लांझू शहर पर औद्योगीकरण इस कदर हावी है कि लांझू चीन के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार हो गया है। बीते 11 अप्रैल की ही घटना है। लांझू शहर को आपूर्ति कियाजा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पड़ी।


तिब्बत में परमाणु कचरातिब्बत में परमाणु कचराआपूर्ति जल में बेंजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को अपनी गर्दन पकड़ लेने के लिए दिया गया न्योता है। प्रशासन ने आपूर्ति रोक जरूर दी, लेकिन इससे आपूर्ति के लिए जिम्मेदार ‘विओलिया वाटर’ नामक ब्रितानी कंपनी की जिम्मेदारी पर सवालिया निशान छोटा नहीं हो जाता। भारत के लिए इस पक्ष पर गौर करना बेहद जरूरी है। गौरतलब है कि यह वही विओलिया वाटर है, जिसकी भारतीय संस्करण बनी ’विओलिया इंडिया’ नागपुर नगर निगम और दिल्ली जल बोर्ड के साथ हुए करार के साथ ही विवादों के घेरे में है।

विओलिया वाटर का कलंक हम धो रहे हैं


यदि चीन जैसे सख्त कानून वाले देश में ‘विओलिया वाटर’ जानलेवा पानी की आपूर्ति करके भी कायम है और इससे ‘पीपीपी’ मॉडल में भ्रष्टाचार की पूरी संभावना की मौजूदगी का सत्य स्थापित होता ही है। बावजूद इसके यदि भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में उक्त तीन पी के साथ लोंगों को जोड़कर चार पी यानी ‘पीपीपीपी’ की बात कही गई थी, तो अच्छी तरह समझ लीजिए ‘मनरेगा’ की तरह ‘पीपीपीपी’ भी आखिरी लाइन में खड़े व्यक्ति को बेईमान बनाने वाला साबित होगा। अतः कम से कम बुनियादी ढांचागत क्षेत्र के विकास व बुनियादी जरूरतों की पूर्ति वाले सेवा क्षेत्र में यह मॉडल नहीं अपनाना चाहिए।

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