धरती बचाने की एक और पहल

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जलवायु परिवर्तन को रोकने में वृक्षों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए आईपीसीसी ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने में वृक्षारोपण और वन प्रबंधन को सशक्त हथियार करार दिया। इसमें उष्ण कटिबंधीय देशों का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि यहां एक पेड़ हर साल औसतन 50 किलो कार्बन डाइऑक्साइड अपने भीतर समेट लेता है जबकि ठंडे प्रदेशों में यह महज 13 किलो ही है। फिर वृक्षारोपण की अधिकांश संभावनाएं विकासशील देशों में ही हैं क्योंकि हाल के वर्षों में सर्वाधिक वन विनाश यहीं हुआ है।

हाल के वर्षों में देखने में आया है कि दशकों में दस्तक देने वाली आपदाएं अब हर दूसरे-तीसरे साल अपने को दुहरा रही हैं। यदि इन आपदाओं की जड़ तलाशी जाए तो वह धरती के लगातार गर्म होने में मिलेंगी। ग़ौरतलब है कि पिछले 132 वर्षों में रिकॉर्ड किए गए 13 सबसे गर्म वर्षों में 11 साल वर्ष 2000 के बाद के रहे हैं। इसमें एक बड़ी भूमिका वनों के विनाश की रही है। आज की तारीख में हर साल 1.3 करोड़ एकड़ वन क्षेत्र काटे, जलाए जा रहे हैं। यह वन विनाश अधिकांशत: विकासशील देशों में हो रहा है। यहां न सिर्फ जलावन और औद्योगिक गतिविधियों के लिए बल्कि नई कृषि भूमि के विस्तार के लिए भी बड़े पैमाने पर वनों को काटा जा रहा है। इन वनों के विनाश से हर साल 2.2 अरब टन कार्बन वातावरण में निर्मुक्त हो रही है। अच्छी खबर यह है कि ठंडे प्रदेशों में रोपे गए वन 70 करोड़ टन कार्बन सोख रहे हैं। इसके बावजूद हर साल 1.5 अरब टन कार्बन वातावरण में पहुंच रही है। यह कार्बन जीवाश्म ईंधन जलाने से पैदा होने वाली ग्रीनहाउस गैसों का एक चौथाई है। ऐसे में धरती की सेहत के लिए पृथ्वी पर बचे हुए 10 अरब एकड़ वनों की रक्षा के साथ-साथ नष्ट हुए वनों की जगह वृक्षारोपण अति आवश्यक है।

जहां तक वनों की रक्षा की बात है तो इस लक्ष्य को लकड़ी की मांग में कटौती कर पूरा किया जा सकता है। औद्योगिक देशों में लकड़ी की मुख्य मांग कागज़ बनाने के लिए होती है। यदि ये देश कागज़ के इस्तेमाल में कमी लाएं और उसे अधिकाधिक पुनर्चक्रित करें तो वनों की रक्षा होगी। लेकिन कागज़ उत्पादक देशों में इसके पुनर्चक्रण की दर में भारी अंतर मौजूद है।

दक्षिण कोरिया 91 फीसदी कागज़ पुनर्चक्रित कर पहले स्थान पर है। यदि सभी देश दक्षिण कोरिया की भांति कागज़ पुनर्चक्रित करने लगें तो कागज़ की वैश्विक मांग में एक तिहाई की कमी आ जाएगी। इस दिशा में भारत ने भी एक सशक्त पहल की है। रेलवे रिजर्वेशन टिकटों को मोबाइल पर मान्यता देने से हर रोज सैकड़ों पेड़ कटने से बच रहे हैं। इसी से प्रेरणा लेते हुए केंद्र सरकार अपने विभिन्न मंत्रालयों को कागज़विहीन करने की दिशा में आगे बढ़ रही है। इसकी शुरूआत संसदीय प्रश्नों से हो रही है। ग़ौरतलब है कि लोकसभा के 545 और राज्यसभा के 250 सदस्यों को नियमित रूप से प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए सवाल-जवाबों की मुद्रित प्रतियाँ दी जाती हैं।

इसके अलावा मीडिया में बांटने के लिए औसतन 500 प्रतियाँ तैयार की जाती हैं। संसद सत्र के प्रश्न काल के दौरान पूछे गए हरेक सवाल पर गृह मंत्रालय का जवाब करीब 113 पृष्ठों का होता है। इस प्रकार एक प्रश्न पर कुल मिलाकर 5600 पृष्ठों की खपत होती है। रिकार्ड के मुताबिक गृह मंत्रालय को नियमित तौर पर भेजे गए प्रश्नों की संख्या सबसे अधिक (821) होती है, इसके बाद वित्त मंत्रालय (665) का स्थान है। यदि अकेले गृह मंत्रालय के सवाल-जवाब तैयार करने में खर्च होने वाले कागज़ की खपत को देखें तो कुल 45,97,600 पृष्ठ खर्च होते हैं। यही हाल अन्य मंत्रालयों के सवाल-जवाब का होता है। इसीलिए संसद अब प्रश्न काल की प्रक्रिया को कागज़ रहित बनाने की तैयारी कर रही है। राज्यसभा में इसकी शुरूआत 1 मार्च 2013 से कर दी गई है और लोकसभा में इसे लागू करने की तैयारी जोरों पर है। कागज़ बचाने के अलावा कई देशों में कुदरती आपदाएं भी लोगों को वृक्षारोपण के लिए मजबूर कर रही हैं। उदाहरण के लिए वन विनाश के चलते भीषण बाढ़ व समुद्री तूफान झेलने वाले चीन, थाईलैंड व फिलीपींस में लोग पेड़ लगाने के प्रति जागरूक हो रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन को रोकने में वृक्षों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए आईपीसीसी ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने में वृक्षारोपण और वन प्रबंधन को सशक्त हथियार करार दिया। इसमें उष्ण कटिबंधीय देशों का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि यहां एक पेड़ हर साल औसतन 50 किलो कार्बन डाइऑक्साइड अपने भीतर समेट लेता है जबकि ठंडे प्रदेशों में यह महज 13 किलो ही है। फिर वृक्षारोपण की अधिकांश संभावनाएं विकासशील देशों में ही हैं क्योंकि हाल के वर्षों में सर्वाधिक वन विनाश यहीं हुआ है। यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो कार्बन उत्सर्जन कम करने के उपायों में वन विनाश रोकना एवं वृक्षारोपण सबसे कम खर्चीला काम है। लेकिन यह कार्य बड़े पैमाने पर तभी संभव है जब विकसित देश विकासशील देशों को भरपूर मदद दें। इसके अलावा वृक्षारोपण की मॉनिटरिंग के लिए तंत्र बनाना जरूरी है।

इस दिशा में कई सराहनीय प्रयास हुए हैं। उदाहरण के लिए कीनिया की वंगारी मथाई ने 3 करोड़ से अधिक पेड़ लगाए जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। इसी से प्रेरणा लेकर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने 'बिलियन ट्री कैम्पेन' शुरू किया। दक्षिण कोरिया के प्रयास भी अनुकरणीय हैं। ग़ौरतलब है कि 5 दशक पूर्व जब कोरिया युद्ध खत्म हुआ था, तब इस पर्वतीय देश की अधिकांश पहाड़ियां वृक्षविहीन हो गईं थीं। 1960 में वहां राष्ट्रीय वनीकरण अभियान चलाया गया। उसी का परिणाम है कि आज दक्षिण कोरिया के 65 फीसदी भूमि वनों से आच्छादित हैं। भारतीय संदर्भ में देखें तो यहां चिपको व एप्पिजको जैसे सामाजिक आंदोलन बडे जोर-शोर से शुरू हुए थे लेकिन सरकारी समर्थन न मिलने से वे इतिहास के पन्नों में दफन हो चुके हैं।

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