धरती को संवारने की श्रद्धा

आज से पच्चीस साल पहले बहुत-से ओरण जो उस समय के लोकप्रिय माने गये, 'बीस सूत्री कार्यक्रम' के कारण नष्ट हो गये। किसी भी राज्य में इस समृद्ध वन क्षेत्र की गिनती वन विभाग की भूमि के अंतर्गत नहीं की जा सकी थी। बहुत हुआ तो इन्हें राजस्व का एक ऐसा हिस्सा, जिसे जिले के अधिकारी गांव से बिना पूछे हुए किसी भी काम में झोंक सकते हैं, दो कौड़ी के वोट के लिये बांट सकते हैं।

‘ओरण’ शब्द का अर्थ नितांत सरल है, लेकिन विराट भी। सरल ही विराट होता है। ओ-ऋण अर्थात् उऋण। ओरण ऐसे वनों का नाम है जो अपने इष्ट देवताओं तथा अपने पूर्वजों को समर्पित होते हैं। इन वनों के भीतर और बाहर श्रद्धा का संविधान सदैव रहता है। जिसमें कोई भी इन वनों से लकड़ी नहीं काटेगा, न ही किसी प्रकार का आर्थिक लाभ लेगा। वन में विचरने वाले प्रत्येक जीव को संरक्षण मिलेगा यानी कोई इनकी हत्या नहीं करेगा। इन वनों में सदैव किसी न किसी देवता का स्थान यानी 'थान' होता है।

राजस्थान में यदि कोई ‘औरिण' कहता है तो उसका अर्थ होता है 'यह ऋण' यानी ऋण के बोध की अभिव्यक्ति। यह वन हमारे पारंपरिक सामाजिक जीवन-पद्धति की वह अभिव्यक्ति है जो पृथ्वी को हरा-भरा बनाये रखने को, अपने जीवन का विनम्र दायित्व मानते हैं।

'ओरण' की भव्य परंपरा राजस्थान की दूसरी भव्य परंपराओं में से एक है। इन वनों में हर प्रकार के पेड़-पौधों के अलावा भिन्न-भिन्न प्रकार की वनस्पतियां भी रोपी जाती हैं और इनमें बाहरी दखल सर्वथा वर्जित रहता है। इन वनों में भीतर से गुजरने वाली कोई सड़क निर्मित नहीं की जाती। पगडंडियां भी ऐसी ही मिलेंगी जिन पर से गुजरा हुआ प्रत्येक पग अहिंसा के अपने पूर्ण अर्थ लिये होता है। इन वनों में सूखा गोबर, सूखी लकड़ियां, झाडियां बटोरने की अनुमति हमेशा रहती है। ऐसे ही संविधान को कंठ में धर कर लोग इन वनों के भीतर सिर्फ इनकी देखभाल के लिये विचरने आते हैं। दूसरे अर्थों में लोग इनके भीतर अपने तथा धरती के संबंध को गहराने आते हैं। इन वनों में जगह-जगह पीने के पानी के बूंदे टंगे रहते है। गांव के लोग इन्हें कभी खाली नहीं होने देते। इन वनों में चिड़िया को चुग्गा तथा चींटियों को तिल-चावल डालने की सनातन परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी पवित्र ज्योति की तरह हर हाथ में थमाई जाती है।चींटियों तथा चींटों को जमीन में सदैव बने रहने की परंपरा को ‘चींटी नगर सींचना' कहते थे यानी हमारा समाज इन जीवों की सभ्यता से भी वाकिफ था। इनके रख-रखाव के लिये भी सदैव तत्पर रहता है।

'ओरण' में वन्य प्राणियों के लिये भी पत्थर या दूसरे प्रकार की खेलियां बनवाई जाती हैं। इनमें समय-समय पर पानी भरा जाता है। ज्यादातर ओरणों में वर्षा का पानी एकत्रित करने के लिये, तालाब, नाले तथा तलाइयां भी बनाई जाती हैं। बरसात से पहले लोग इनको प्रति वर्ष गहरा करते रहते हैं।

प्राकृतिक वन संपदा की सहज रखवाली की यह एक सुंदर परंपरा है। ओरणों ने न केवल लोक आस्थाओं को सींचा बल्कि उन्हें बचाये रखने के भी प्रयास किये हैं। ओरणों का आज तक बचे रहना इस बात का साक्ष्य है कि लोग अब तक वनों के प्रति, धरती के प्रति, जीव-जंतुओं के प्रति, इन सबके संरक्षण के प्रति अपने देवी-देवताओं की तरह ही आस्थावान हैं।

लेकिन आज हमारा शिक्षित समाज जीवन की इन बुनियादी बातों को भूलने लगा है। शहरों से पढ़-लिख कर गये लोग अपने गांव के ओरण को उस श्रद्धा और पवित्रता से नहीं देखते जैसे उनके पुरखे देखते थे। थोड़ी-सी पढ़ाई पढ़ जाने वाले ये लोग इसे पुराना कह का ठुकरा रहे हैं।ये लोग बेशक पुराना ढांचा ठुकरा रहे हैं, लेकिन बिना किसी नये विकल्प के पुराने को दुत्कारने वाले नीतिकारों के पास आने वाली कुछ पीढ़ियों को टिकाने का भी कोई स्थायी विकल्प नहीं।

अंग्रेजों ने जाने-अनजाने इन सब व्यवस्थित ढ़ांचे को तोड़ना शुरू किया था, बदले में उन्होंने जो भी ढांचा खड़ा किया वह सिर्फ अपनी जरूरत के लिये। समाज की जरूरत, सबकी आवश्यकता, सबके दुख-सुख से उनका कोई संबंध नहीं था। आजादी के बाद तो इन पर विचार होना चाहिये था। लेकिन परतंत्रता का दुर्भाग्य स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा। इस ओर किसी ने भी ध्यान नहीं दिया। सरकार, सामाजिक, धार्मिक संस्थाएं सब मिलकर फुगड़ी खेलती रहीं। सभी संगठन अंग्रेजों की भारी-भरकम, खर्चीली, अव्यावहारिक विरासत को ढोने में ही लगे रहे। यदि कुछ सुधार टाइप किया भी गया तो वह भी उसी ढांचे के अनुरूप।

उदाहरण के लिये वन नीति के विरुद्ध जब कुछ आवाज उठने लगी तो सामाजिक वानिकी नामक विचित्र शब्द के झंडे तले एक बड़ी योजना देश के सामने पेश की गई। देश के सभी राज्यों के वन-विभागों ने इसे अपने ढंग से, कुछ हद तक स्वतंत्र रूप से, कुछ हद तक सामाजिक संस्थाओं की मदद से लागू किंया था। संयुक्त राष्ट्र संघ से लेकर विदेशी अनुदान व सहायता जुटाने वाली लगभग सभी संस्थाओं ने तब इसे अपना प्रमुख मुद्दा बनाया था। लेकिन इतना कनस्तर पिटने के बाद आज इसका नाम लेने वाला कोई नहीं।

सामाजिक वानिकी का ऊंचा लहराता हुआ झंडा कब फट गया, कब नीचे उतार लिया गया, इसकी तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। किसी ने इस पर कहने लायक कोई ठीक अध्ययन भी नहीं किया। सामाजिक वानिकी का हरा- भरा माना गया दौर एक दशक के भीतर ही सूख गया।

फिर नया दौर आया परती भूमि के विकास का। सारे देश में कहां-कहां, किस-किस राज्य में कितनी परती भूमि फैली है इसका बहुत व्यवस्थित हिसाब निकाला गया और उसके सुधार व विकास की एक बड़ी महत्वाकांक्षी योजना बनाई गई। इस काम के लिये एक अलग विभाग भी पहली बार बनाया गया। उपग्रहों से चित्र खींचे गये और देशभर के सामने इस समस्या को इस वायदे के साथ रखा गया कि हम इसे बहुत जल्दी सुलझा लेंगे।

इस योजना में भी सरकार के स्वतंत्र विभाग के अलावा बड़े पैमाने पर स्वयंसेवी संगठनों, संस्थाओ, जनांदोलनों ने भाग लिया था। पंचायतों समेत अनेक संगठनों ने भी इसमें भागीदारी की थी। लेकिन इस महत्वाकांक्षी योजना का हश्र भी दुर्भाग्य से वही हुआ, जो सामाजिकवानिकी का हुआ था। पूर्व के अनुभवों की तरह इसमें भी प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये बर्बाद करने के बाद पता चला कि यह योजना बंद की जा रही है। धीरे-धीरे इसे देखने वाला स्वतंत्र विभाग भी किसी मंत्रालय में विलीन कर दिया गया।

लेकिन वनों से संबंधित प्रश्न कटे वनों की तरह ज्यों का त्यों पड़ा रहा। नया अक्षम ढांचा उसे सुलझाने में सफल नहीं हो पा रहा था।

बॉयस्कोप के अगले चित्र की तरह फिर एक और योजना हमारे सामने आई। इसका नाम ‘संयुक्त वन प्रबंध' है। इसमें वन विभाग और समाज मिलकर काम करेंगे। पिछली योजनाएं डुबोने वाले यानी संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व बैंक और अन्य अनुदान देने वाली संस्थाएं इसमें फिर शामिल हैं। यानी स्थायित्व का प्रश्न-चिह्न सूखे पत्ते की तरह फिर इधर-से-उधर उड़ रहा है।

लेकिन अगर हम 'ओरण' की सनातन परंपरा पर नजर डालेंगे तो 'ओरण' की व्यापकता, व्यावहारिकता जरूर समझ में आयेगी। देश के इस कोने से उस कोने तक सचमुच कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक वनों के प्रबंध के बारे में हमारे समाज ने कुछ व्यवस्थित निर्णय लिये थे। इसमें इतने बड़े देश के लिये कोई बड़ी योजना बनाते समय जो सावधानियां बरतनी चाहिये, वे सब बरती गई थीं।

पहली सावधानी तो यही थी कि कदम-कदम पर परिस्थिति बदलती है। इसलिये देश में इस कोने से उस कोने तक 'ओरण' की परंपरा एक सुंदर, मजबूत धागे में अलग-अलग पिरोये गये फूलों की माला की तरह बनाई गई थी, लेकिन सब जगह एक ही माला के बावजूद रंग और सुगंध अपने-अपने ढंग की थी। कहीं यह 'देवराई' है तो कहीं 'सरना''सरना' शब्द वन देवी की शरण से बना है। कहीं इसे 'रैखन' तो कहीं 'रखतबनी' भी कहा गया। सबका भाव यही था कि 'ओरण' वन को संभाल कर रखना है।

ओरण को प्राय: उस क्षेत्र में व्याप्त किसी देवी या देवता को समर्पित किया जाता रहा है। ऐसे ओरणों में पूरी श्रद्धा के साथ वन संरक्षण किया जा सकता था, फिर साथ ही आज जिसे अंग्रेजी में बायोडायवर्सिटी कहा जाता है, उसका भी पूरा विस्तार सुरक्षित रखा जाता था। इनमें सर्वोत्तम प्रजाति के पेड़ रोपे जाते है। इसलिये आज भी 'ओरण' में जो प्रजातियां सुरक्षित हैं वे देशभर के वन विभागों में नहीं मिलेंगी।

लेकिन आज हमारी नीतियां इतने महत्वपूर्ण ढांचे को तोड़ती जा रही हैं। हमने 'ओरण' की उपेक्षा कर उसकी प्रतिष्ठा हर ली है। उसकी देख-रेख करने वाली व्यवस्था को तोड़ दिया है। इन्हीं नीतियों के चलते किसी भी विचारधारा की सरकार आई हो, कितना भी सहृदय अधिकारी रहा हो, कितना भी कुशल नेतृत्व रहा हो, वह ओरणों की तरफ ध्यान नहीं दे पाया। आज से पच्चीस साल पहले बहुत-से ओरण जो उस समय के लोकप्रिय माने गये, 'बीस सूत्री कार्यक्रम' के कारण नष्ट हो गये। किसी भी राज्य में इस समृद्ध वन क्षेत्र की गिनती वन विभाग की भूमि के अंतर्गत नहीं की जा सकी थी। बहुत हुआ तो इन्हें राजस्व का एक ऐसा हिस्सा, जिसे जिले के अधिकारी गांव से बिना पूछे हुए किसी भी काम में झोंक सकते हैं, दो कौड़ी के वोट के लिये बांट सकते हैं।

सौभाग्य से पिछले कुछ समय से लोगों का ध्यान फिर से ओरण की तरफ जाने लगा है। लोग इस स्वयं सिद्ध और समय सिद्ध परंपरा का महत्व फिर से समझने लगे हैं।

नि:संदेह यह प्रारंभ ही है, लेकिन शुभ लक्षण भी है। अभी हम सबको इसे समझने की दिशा में एक लम्बा रास्ता तय करना है। हमने बहुत-सी आधुनिक मानी गईं नई पद्धतियों को अपना कर देख लिया है, दुर्भाग्य से वह हमारा माथा और कंधे दोनों झुका रही हैं। इसलिये आज फिर से अपनी सनातन परंपराओं की ओर देखने का अवसर आ गया है। 'ओरण' पर फिर से लौटने का समय आ गया है, सूखे, अकाल और बयाबान की तरफ बढ़ते देश को फिर से हरियाली की चादर ओढ़ाने का अवसर आ गया है।

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