ध्वनि प्रदूषण विकट परिदृश्य एवं समाधान

22 Oct 2015
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आज हमारे दैनिक जीवन में शोर एवं ध्वनि प्रदूषण की मात्रा में निरन्तर वृद्धि हो रही है जो हमारी कार्यक्षमता एवं स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डाल रही है। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को शान्त, अनुकूल एवं सुखद वातावरण में जीने का अधिकार है। लेखक का कहना है कि ध्वनि प्रदूषण की भयावह स्थिति की रोकथाम सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा को अंगीकृत करके अधिक प्रभावी तरीके से की जा सकती है।

आज हमारे जीवन का हर क्षण तीव्र या असहनीय शोध या ध्वनि के भयावह दंश से व्यथित है। हमारे दिनचर्या के क्रम में एक समय जो ध्वनि हमें प्रिय लगती है, किसी अन्य समय वही ध्वनि हमें कष्टप्रद व कर्णकटु लगती है तथा कष्ट पहुँचाती है। अतः अमारी गतिविधियों के हर क्षण में यह स्थिति प्रदूषित ध्वनि या शोर की मानी जा सकती है।

यह महसूस किया गया कि मनुष्य के कान एक निश्चित गति एवं कम्पन्न की ध्वनि ही सुन सकते हैं। हमारे दिन-प्रतिदिन के वातावरण में शोर या ध्वनि का डी.बी. स्तर कुछ इस प्रकार पाया जाता है: धीरे या गुपचुप बातचीत पर 10 से 20 डी.बी., आम घरों में शोर से 20 से 40 डी.बी., सामान्य बातचीत पर 30 से 60 डी.बी., कार्यालयों व प्रतिष्ठानों में 60 से 75 डी.बी., रेलवे स्टेशनों एवं आम चौराहों पर 80 से 130 डी.बी., तथा सड़क यातायात, गाड़ियों के हॉर्न एवं चिल्ल-पों से औसतन 140 डी.बी.। अतः अपने दैनिक जीवन की सामान्य समयावधि में एक व्यक्ति अधिकतम 20 से 40 डी.बी. पर एकाग्रता एवं सुविधापूर्वक कार्य कर सकता है।

हमारे दैनिक जीवन में तीव्र शोर व ध्वनि प्रदूषण के लिए अनेक कारण उत्तरदायी हैं। परिवार और समाज में लोगों द्वारा तेज आवाज में बातें करना, चिल्लाकर पुकारना, मन की मौखिक अभिव्यक्ति को चिल्लाकर प्रस्तुत करना, घरेलू उपकरण, साज-सामान को जोर से उठाना-रखना, रेडियो, टी.वी. टेप रिकार्डर, व मनोरंजन के विविध उपकरणों को तीव्र आवाज से बजाना, विवाह समारोहों, धार्मिक आयोजनों, कीर्तन व भजन-मंडली द्वारा तीव्र लाउडस्पीकरों का प्रयोग व उनसे उत्पन्न तीव्र शोर इनमें शामिल है। आज व्यावसायिक प्रतिष्ठानों एवं औद्योगिक इकाइयों में और इनके आस-पास संयन्त्र, मशीनी उपकरण व अन्य साज-सामान के उपयोग से उत्पन्न ध्वनि की प्रबलता व शोर विकट स्थितियाँ उत्पन्न कर रहा है। इसी प्रकार व्यावसायिक प्रतिष्ठानों द्वारा संचालित विज्ञापन माध्यमों, प्रचार व प्रसार कार्यक्रमों, विक्रय संवर्द्धन तकनीकों एवं परिवहन माध्यमों से उत्पन्न शोर हमारे जीवन को कष्टमय बना रहा है। ध्वनि प्रदूषण के कुछ राजनैतिक कारण भी हैं, जैसे नुक्कड़ सभाएँ, भाषण, रैलियाँ, नारेबाजी व चुनाव प्रसार आदि। ऐसे विकारयुक्त प्रदूषण में गली-मोहल्लों एवं चौराहों पर कुत्ते-बिल्लियों, एवं गधों के चिल्लाने से उत्पन्न आवाजें भी अनायास विकट रूप ले लेती हैं। कभी-कभी लड़ाई-दंगों एवं आन्दोलनों के कारण भी ध्वनि प्रदूषण की भयावह स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अतः समाज के विभिन्न क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण के उत्तरदायी कारण ही उसे और प्रोत्साहित करने में सहायक होते हैं।

भयावह स्थिति


इन कारणों की समीक्षा करते हुए यह अनुभूति होती है कि इसने हमारे जीवन की सभी क्रियाओं, उपक्रियाओं तथा जीवन से सम्बन्धित प्रत्यक्ष व परोक्ष पहलुओं में विकट स्थितियों को पनपा रखा है। आज हमारी दिनचर्या के सभी क्षेत्र, जैसे घर, गली-मोहल्ला, फुटपाथ, कॉलोनी, स्कूल, कॉलेज, बैंक, अस्पताल, व्यावसायिक प्रतिष्ठान, औद्योगिक उपक्रम, तकनीकी अनुसंधान केन्द्र, कार्यालय, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, सिनेमा हॉल, यातायात केन्द्र, दुकान, खेल-कूद का मैदान, सब्जीमंडी, क्लब व श्मशान-स्थल ध्वनि प्रदूषण की भयावह स्थिति एवं विकारयुक्त वातावरण झेल रहे हैं। हमारे सामाजिक जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले धार्मिक स्थलों पर ध्वनि-प्रसारण यन्त्रों के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। रात भर लाउडस्पीकरों पर भजन, कीर्तिन, व्याख्यान एवं प्रवचन चलते रहते हैं। साथ ही व्यावसायिक विज्ञापन, प्रचार व प्रसार कार्यक्रम, आदि भी तीव्र ध्वनि प्रसारण द्वारा किया जाते हैं। मोहल्ले एवं क्षेत्र के सामान्य जनों की रुचि एवं सुख-सुविधाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता। इससे जन-जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार एक निर्धारित समय व स्थान में यदि 75 डी.बी. आवृत्ति की आवाज लगातार छह घंटे सुनाई दे तो व्यक्ति के कान सुनने लायक नहीं रह सकते। यदि शोर की तीव्रता 70 से 90 डी.बी. की है तो मनुष्य की श्रवण शक्ति 20 प्रतिशत रह जाएगी। शोर के 80 से 100 डी.बी. स्तर के होने पर व्यक्तियों का बहरा होना स्वाभाविक है। यदि शोर लगभग 120 डी.बी. से 160 डी.बी. के स्तर का है तो कान के पर्दे फट भी सकते हैं एवं कान व श्रवण-शक्ति सम्बन्धी अनेक रोग उत्पन्न हो सकते हैं।

पिछले एक दशक में यह अनुभव किया गया कि तीव्र ध्वनि प्रदूषण से कुल कार्यशील जनसंख्या की कार्यक्षमता अनुमानतः औद्योगिक क्षेत्रों में 20 से 38 प्रतिशत, वाणिज्यिक क्षेत्रों में 15 से 28 प्रतिशत, एवं समाज के अन्य कार्यकारी क्षेत्रों में 10 से 18 प्रतिशत तक गिर जाती है। ध्वनि प्रदूषण से प्रभावित मानव शरीर अनेक रोगों, विकारों, चिन्ताओं एवं दृष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त हो जाता है। अत्यधिक शोरगुल या ध्वनि प्रदूषण से क्षमता ह्रास, श्रवण शक्ति ह्रास, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग, अनिद्रा, थकान आदि अनेक व्याधियाँ एवं रोग उत्पन्न हो जाते हैं। ध्वनि प्रदूषण की तीव्रता से उत्पन्न मानसिक तनाव व चिड़चिड़ापन अनेक रोगों का कारण बन जाता है। शहरी क्षेत्रों में प्रायः उच्च रक्तचाप, सांस की बीमारियों के लिए मानसिक तनाव का 8 से 12 प्रतिशत एवं ग्रामीण क्षेत्रों में 4 से 6 प्रतिशत योगदान पाया जाता है।

यह अनुभव किया गया है कि यूरोपीय देशों के अनेक औद्योगिक क्षेत्रों में रहने वाला हर तीन में से एक व्यक्ति तीव्र शोर के प्रदूषण से उत्पन्न विकारों से पीड़ित है और वहाँ लगभग 15 से 25 प्रतिशत जनसंख्या की श्रवणशक्ति कमजोर हो गई है। भारत में भी अनेक महानगरों में अनेक बीमारियों एवं दुष्प्रवृत्तियों के बढ़ने की प्रबल सम्भावना है। इनमें कलकत्ता, मुम्बई, चेन्नई, दिल्ली, कानपुर आदि सर्वाधिक शोर वाले महानगर हैं जहाँ दिन और रात के शोर का स्तर अधिकतम 120 डी.बी. तक पहुँच जाया करता है। एक अनुमान के अनुसार यदि प्रदूषण की विकट स्थिति इसी प्रकार रही या बढ़ी तो कुछ और महानगरों के लगभग 15 प्रतिशत निवासियों की आगामी 15 से 20 वर्ष के भीतर श्रवणशक्ति कम होने या उनके बहरे होने की प्रबल सम्भावना है।

समाधान


समाज में प्रत्येक व्यक्ति को शांत, अनुकूल एवं सुख-सुविधापूर्ण वातावरण में जीने का अधिकार है। अतएव इस हेतु शारीरिक एवं मानसिक परिवेश के अनुरूप आरामदायक वातावरण अपेक्षित है ध्वनि प्रदूषण की भयावह स्थितियों की रोकथाम के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व की अवधारणा को अंगीकृत किया जा सकता है। मूलतः यदि मानव जीवन के नियामक क्षणों को संवारना है व जीवन के अस्तित्व को बचाना है तो समाज के हर व्यक्ति, वर्ग व समुदाय का यह दायित्व बनता है कि वह ध्वनि की अनावश्यक तीव्रता को सन्तुलित करने का पूर्ण प्रयास करे। इस हेतु समाज के विभिन्न क्षेत्रों व स्रोतों को आधार बनाकर निम्न उपाय किए जा सकते हैं:

पारिवारिक व सामाजिक जीवन: ध्वनि प्रदूषण से सम्बद्ध अभी हाल ही में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय की व्याख्या के अनुसार कोई भी सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा यह नहीं कहती कि कोई आयोजन, अनुष्ठान एवं ईश्वर की प्रार्थना अन्य व्यक्तियों की शांति भंग करके की जाए या ऐसे समारोहों में लाउडस्पीकरों, एंप्लीफायरों या ढोल-नगाड़ों का प्रयोग किया जाए। यदि किसी सम्प्रदाय में ऐसी परिपाटी है भी, तो उसका प्रयोग इस प्रकार किया जाना चाहिए कि अन्य व्यक्तियों के अधिकारों का हनन न हो। इस सम्बन्ध में कुछ अन्य उपाय निम्न हैं:

1. घरों में तेज बोलने, चिल्लाकर आवाज देने व तेज आवाज में गाना गाने की आदत पर स्वविवेक से नियन्त्रण।

2. बड़े मकानों के विभिन्न कमरों में अपने स्वजनों को बुलाने या बात करने के बजाय आवाज देने के, यदि हम स्वयं जाकर धीमी आवाज में बात करें तो इससे परस्पर आत्मीयता बढ़ेगी एवं शारीरिक श्रम भी होगा, जो लाभप्रद ही है।

3. घरों में, विशेषकर रसाईघर व स्नानघर में प्रयुक्त उपकरणों, मशीनों एवं साज-सामानों आदि के रख-रखाव, संचालन एवं टिकाऊपन पर तकनीकी प्रमापों के अनुरूप पूर्ण देखभाल करते रहना चाहिए। इससे न केवल ध्वनि की प्रबलता को सीमित किया जा सकता है वरन दुर्घटनाओं पर भी नियन्त्रण सम्भव है। मनोरंजन के उपकरणों को भी ध्वनि की सहनीय क्षमता के अनुरूप संचालित कर उनकी आवाज को सीमित या नियन्त्रित किया जा सकता है।

4. समाज में विवाह समारोहों, धार्मिक अनुष्ठानों, मिलन व आशीर्वाद समारोहों, उत्सवों, त्यौहारों, मेलों एवं अन्य आयोजनों पर तेज शोर-गुल उपकरणों के खर्चों व इनके दुष्परिणामों पर सामाजिक लागत की अवधारणाओं के अनुरूप विचार किया जाना आवश्यक है। इनकी ध्वनि की प्रबलता समयानुकूल एवं परिस्थिति-अनुकूल की जा सकती है।

5. सार्वजनिक स्थानों यथा चौराहा, बाजार, रेस्तरां, फुटकर दुकान, बस-स्टैंड, रेलवे-स्टेशन, पार्क, सिनेमा-घर व मंदिर में होने वाले शोर को सीमित करने में प्रशासन से कहीं अधिक हम नागरिकों का व्यापक एवं सकारात्मक योगदान होना चाहिए।

6. शिक्षण संस्थाओं के पाठ्यक्रमों में ध्वनि प्रदूषण के कारणों, प्रभावों एवं उपचारों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।

7. प्रत्येक मोहल्ले एवं कॉलोनी में नागरिक समितियाँ गठित की जानी चाहिए तथा अनावश्यक शोर पर नियन्त्रण के लिए आम सहमति बनाई जानी चाहिए।

ध्वनि प्रदूषण (विनियम और नियन्त्रण) नियम 2000 के अन्तर्गत यह व्यवस्था दी गई है कि आवासीय क्षेत्रों में दिन के समय (प्रातः 6 से रात्रि 10 बजे तक) ध्वनि की औसत सीमा 55 डी.बी. होनी चाहिए। शांत क्षेत्रों (अस्पताल, शैक्षिक संस्थाओं एवं न्यायलय) के 100 मीटर के भीतर यह स्तर औसत 50 डी.बी. का होना चाहिए।

परिवहन प्रदूषण: वर्तमान में शहरी व अन्य क्षेत्रों में ध्वनि प्रदूषण के लिए परिवहन के साधन सर्वाधिक गतिमान सिद्ध हुए हैं। सभी प्रकार के वाहनों के निर्माणकर्ताओं एवं समाज के सभी वर्गों द्वारा इन वाहनों के निर्माण, रख-रखाव, मरम्मत व संचालक क्रियाओं के अन्तर्गत ध्वनिशमन यन्त्रों, विशेषतः हॉर्न के अधिकतम डी.बी. स्तर को तय करके इसकी तकनीकी उपयोगिता सुनिश्चित की जानी आवश्यक है। शहरों, घनी आबादी व अन्य संवेदनशील क्षेत्रों के भीतर ट्रकों, बसों व अन्य भारी वाहनों के आवागमन पर रोक लगाई जानी चाहिए। इन क्षेत्रों में चलने वाले वाहनों में रेडियो एवं टेपरिकार्डर का औसत डी.बी. स्तर निर्धारित करना आवश्यक है। वाहनों से उत्पन्न ध्वनि स्तर की सक्षम अधिकारी द्वारा सामयिक जाँच एवं प्रदूषण उत्पन्न करने वालों के लिए कठोरतम दंड का प्रावधान अत्यन्त आवश्यक है। एक विकल्प के रूप में वाहनों के चलन को सीमित करने के लिए इनके पंजीकरण, लाइसेंस व कर-भुगतान की प्रक्रिया का सख्ती से पालन करने के प्रावधान बनाए जाने चाहिए।

औद्योगिक एवं व्यापारिक क्षेत्र: औद्योगिक एवं व्यावसायिक इकाइयों की स्थापना व संयन्त्रों की ले-आउट प्रक्रिया में प्रदूषण-निवारक तत्वों पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए।

- आबादी वाले क्षेत्रों में कारखानों में सायरन बजाना बंद कर दिया जाए एवं कुछ क्षेत्रों में इसकी प्रबलता को सीमित किया जाए।

- यन्त्रों एवं संयन्त्रों के रख-रखाव की समुचित एवं प्रभावपूर्ण व्यवस्था करके ध्वनि-शमन यन्त्रों का उपयोग किया जाना चाहिए।

- कारखानों में कार्यरत श्रमिकों व कर्मचारियों को घरों पर तीव्र शोर से बचना चाहिए व उन्हें कानों के प्लग उपलब्ध कराए जाने चाहिए।

- औद्योगिक इकाइयों एवं औद्योगिक बस्तियों को आवासीय बस्तियों से निर्धारित दूरी पर स्थापित किया जाए।

- औद्योगिक बस्तियों के निकट वृक्षारोपण, पर्यावरण संरक्षण व प्रदूषण नियन्त्रण के साधन अपनाए जाए।

- वायु प्रदूषण, निवारण व नियन्त्रण अधिनियम (ध्वनि, प्रदूषण नियन्त्रण के प्रावधानों सहित) तथा शोर व कोलाहल अधिनियम के प्रावधानों का कठोरता से पालन किया जाना चाहिए।

अधिनियमों की व्यवस्था के अनुसार औद्योगिक एवं वाणिज्यिक क्षेत्रों में ध्वनि विस्तार सीमा का दिन के समय औसत 70 डी.बी. व रात्रि में 60 डी.बी. स्तर माना गया है। इस प्रकार प्रकृतिप्रदत्त वातावरण को सुगम बनाए रखने एवं मानवीय जीवन की संवेदनाओं को चरितार्थ करने के लिए ध्वनि प्रदूषण पर कठोरतम नियन्त्रण आवश्यक है।

इसके लिए बचाव उपाय इतने आवश्यक नहीं हैं। आवश्यकता है मूलभूत रूप में ध्वनि प्रदूषण के लक्षणों व कारणों को समाप्त करने की। निश्चय ही ध्वनि प्रदूषण पर समुचित नियन्त्रण से मानव जाति का अस्तित्व संरक्षित रह सकेगा।

(लेखक भीलवाड़ा, राजस्थान के पी.एस.बी. राजकीय महाविद्यालय व्यावसायिक प्रशासन विभाग में प्रवक्ता हैं।)

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