ध्वनि-प्रदूषण

शोर के कारण हृदय, पाचन-तंत्र तथा तंत्रिका-तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है। अधिक शोर में रहने वाले व्यक्ति में रक्तचाप का बढ़ना, हृदयगति तेज होना और दिल का दौरा पड़ने की संभावना बनी रहती है। पाचन-तंत्र के गड़बड़ा जाने से अल्सर हो जाता है। ‘इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ द्वारा किए गए अध्ययन का एक उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि “बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों यथा वस्त्र, औजार, वाहन, खाद्य, तेल मिल तथा रासायनिक खाद-इन सभी उद्योगों में ध्वनि स्तर स्वीकृत सीमा से ऊपर होता है।

मनुष्य या जीव-जंतु जब भी कोई काम करता है या किसी भी प्रकार की कोई अभिव्यक्ति करता है तो उससे वायुमंडल पर दबाव पड़ता है और वायु तरंगें उत्पन्न हो जाती हैं, इन्हें ही ध्वनि कहते हैं। ऐसा ही प्राकृतिक रूप से किसी वस्तु के गिरने, सरकने से, चाहे बादल की गड़गड़ाहट से, ऊंचे से गिरते पानी की ध्वनि से, वायु वेग से उत्पन्न होने वाली आंधी या तूफान से होने के कारण भी हो सकता है। मनुष्य द्वारा बनाए गए उपकरण भी जब काम करते हैं तो वे सभी आवाज करते हैं।

ध्वनि कम या अधिक हो सकती है। इसे ध्वनि की ‘तीव्रता’ कहते हैं। किसी वस्तु से उत्पन्न आवाज, जब कानों की सहन-सीमा से अधिक हो जाती है तो वह अप्रिय लगने लगती है, इसे ही शोर कहते हैं। अन्य शब्दों में, ‘वह अवांछित आवाज जिससे कानों मं दर्द व कष्ट हो, ध्वनि प्रदूषण कहलाता है।’ जो ध्वनि हमारी श्रवण शक्ति से परे अर्थात् असहनीय होती है, उसे ध्वनि प्रदूषक की श्रेणी में रखते हैं। अन्य प्रदूषकों के समान ध्वनि प्रदूषण भी औद्योगिक उन्नति एवं भौतिक सभ्यता का फल है। अनेक प्रकार के वाहन जैसे-मोटरकार, बस, जेट विमान, ट्रैक्टर, रेलवे इंजन, टेलीविजन, डी.जे., मोबाइल, रेडियो आदि ध्वनि प्रदूषण फैलाने में सहायक होते हैं।

ध्वनि-प्रदूषण से उत्पन्न होने वाली समस्याएं


ध्वनि-प्रदूषण से शारीरिक, मानसिक व जंतु-वनस्पति संबंधी समस्याएं उत्पन्न होती हैं-

(अ) शारीरिक समस्याएं- ध्वनि प्रदूषण के कारण कई प्रकार की समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं, जिनके कारण बहुत कष्ट उठाना पड़ता है। ध्वनि प्रदूषण के कारण कान का पर्दा फट जाता है या फटने का भय बना रहता है।

इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार की शारीरिक समस्याएं भी हो जाती हैं। शोर के कारण हृदय, पाचन-तंत्र तथा तंत्रिका-तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है। अधिक शोर में रहने वाले व्यक्ति में रक्तचाप का बढ़ना, हृदयगति तेज होना और दिल का दौरा पड़ने की संभावना बनी रहती है। पाचन-तंत्र के गड़बड़ा जाने से अल्सर हो जाता है। ‘इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च’ द्वारा किए गए अध्ययन का एक उल्लेख है, जिसमें कहा गया है कि “बड़े औद्योगिक प्रतिष्ठानों यथा वस्त्र, औजार, वाहन, खाद्य, तेल मिल तथा रासायनिक खाद-इन सभी उद्योगों में ध्वनि स्तर स्वीकृत सीमा से ऊपर होता है। इनके कर्मचारी यदि श्रवण संबंधी किसी प्रकार के रक्षा उपाय नहीं अपनाते तो श्रवण सामर्थ्य में क्षीणता आने लगती है।” ध्वनि प्रदूषण से कानों के साथ-साथ आंखों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। आंखों की पुतली का आकार छोटा हो जाता है। रंग पहचानने की क्षमता में कमी आ जाती है। शरीर की बाहरी त्वचा में रोग-प्रतिरोधक क्षमता कम होने तथा बारीक चर्म परत उतरने की आशंका भी बनी रहती हैं।

(ब) मानसिक समस्याएं- ध्वनि प्रदूषण से शारीरिक समस्या के साथ-साथ मानसिक समस्या भी उत्पन्न हो जाती है। शोर-गुल सामाजिक तनाव, लड़ाई-झगड़े मानसिक अस्थिरता, कुंठा, पालगपन आदि दोषों का कारण माना जाता है। शोर के कारण मनुष्य समय से पहले ही वृद्ध लगने लगता है और अनेक बीमारियों से ग्रसित हो जाता है। गर्भ में पल रहे शिशु पर भी तीव्र ध्वनि का बुरा असर पड़ता है। इसी कारण बड़े-बड़े और व्यस्त हवाई अड्डों के निकट रहने वाले लोगों के बच्चे प्रायः कई शारीरिक व मानसिक बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।

(स) जंतुओं व वनस्पतियों की समस्याएं – ध्वनि प्रदूषण केवल मनुष्य के लिए समस्या उत्पन्न नहीं करता, वरन् जंतुओं व वनस्पतियों के लिए भी समस्या उत्पन्न करता है। ध्वनि प्रदूषण के कारण पशु-पक्षी अपना आवास छोड़कर अन्य स्थानों पर चले जाते हैं। तीव्र ध्वनि व शोर से पेड़-पौधों के शारीरिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है।

(द) अन्य समस्याएं- तीव्र ध्वनि तरंगों के कारण भवनों की छतें हिल जाती हैं। इसके अलावा खनन विस्फोटों, युद्ध में विस्फोटों से चट्टानें तक खिसक जाती हैं, जिसके कारण भूस्खलन हो जाता है।

समाधान


शोर का निश्चित निवारण एक अत्यंत जटिल समस्या है, क्योंकि इसके निवारण में हमें आधुनिक प्रगति के फलस्वरूप प्राप्त सुख-सुविधाओं के साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि नियंत्रण की प्रक्रिया से औद्योगिक उपलब्धि भी प्रवाहित न हो। इस प्रकार शोर का समूल निवारण तो असंभव है, परंतु कुछ कारगर उपाय अपनाकर इस पर नियंत्रण अवश्य किया जा सकता है-

1. शोर के स्रोतों पर नियंत्रण-जिन वाहनों व उपकरणों से शोर बढ़ता है, उन्हें इस प्रकार डिजाइन किया जाना चाहिए कि कम शोर उत्पन्न हो, जैसे-वायुयान, मोटर साइकिल, ट्रक औद्योगिक मशीनों को शोर-नियंत्रक कवच से ढक देना चाहिए और हमेशा उद्योगों को आबादी से दूर ही लगाना चाहिए।

2. शोर फैलने से रोकना – कमरों, कारखानों की दीवारों में ध्वनि अवशोषक पदार्थों का उपयोग करके शोर को फैलने से रोका जा सकता है। जो व्यक्ति अधिक शोर वाले स्थानों में काम करते हों, उन्हें कानों के लिए ‘ईयर प्लग्स’ की सुविधा दी जानी चाहिए। ऐसी अवस्था भी शोर के प्रभाव को कम कर सकती है।

3. व्यवस्थाओं में अपेक्षित परिवर्तन- शोर का हानिकारक प्रभाव वहां के रहने वाले लोगों पर अवश्य पड़ता है, किंतु हम सभी लोग मिलकर प्रयास करें तो ध्वनि प्रदूषण के असर को कम कर सकते हैं, जैसे –

(क) अपने घरों में रेडियो, टी.वी. टेप या अन्य मनोरंजन के साधनों को धीमी आवाज में बजाएं। सामूहिक कार्यक्रम, पूजा-पाठ शादी जैसे कार्यक्रमों में ऊंची आवाज में लाउडस्पीकर, डी.जे. का उपयोग न करें। स्वयं घर में धीमा बोलें और अपने बच्चों को भी धीमा बोलने के लिए कहें।

(ख) ट्रकों व अन्य भारी वाहनों के यथासंभव आबादी वाले भागों से निकलने पर रोक लगानी चाहिए। दुपहिया, स्वचालित वाहन एवं अन्य कारों, बसों आदि के साइलेंसरों की नियमित जांच हो, जिससे तेज आवाज से बचा जा सके।

(ग) अस्पताल, विद्यालय, अधिक आबादी वाले क्षेत्रों के ‘साइलेंस जोन’ बना दिया जाए। इस प्रकार सब मिलकर ध्वनि प्रदूषण को कम कर सकते हैं।

4. ध्वनि प्रदूषण के बारे में लोगों को शिक्षित करना- शोर सभी के लिए कितना हानिकारक है, इसका ज्ञान जन-जन को होना चाहिए। पर्यावरण-शिक्षा पर जोर देना चाहिए। समाचार-पत्रों, टी.वी., सिनेमा के माध्यम से शोर के संबंध में समझाया जाना चाहिए और शोर-प्रदूषण से उत्पन्न होने वाले दुष्परिणामों से अवगत भी करना चाहिए।

5 ध्वनि प्रदूषण और कानून- किसी भी समस्या का समाधान कानून द्वारा ही किया जाता है। ठीक उसी प्रकार ध्वनि प्रदूषण की रोकने के लिए भी कानून बनाए जाने की आवश्यकता है। इंग्लैंड में शोर रोकथाम अधिनियम, 1960 बना है, जिसमें रात 9 बजे से प्रातः 8 बजे तक ध्वनि विस्तारक यंत्रों पर रोक है। अमेरिका में ध्वनि प्रदूषण की रोकथाम के लिए शोर नियंत्रण अधिनियम, 1972 बनाया गया है। जापान में मूल कानून में प्रदूषण नियंत्रण के संदर्भ में पर्यावरणीय जागृति व नियंत्रण हेतु प्रावधान है। लेकिन भारत में शोर नियंत्रण के लिए अलग से कोई केंद्रीय कानून नहीं है। अभी हाल ही में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 में ऐसी व्यवस्था रखी गई है, जिसमें किसी भी प्रकार के प्रदूषण के संदर्भ में नियम बनाए जा सकते हैं और उन पर विधिसंगत कठोरता से पालन किया जा सकता है। इस अधिनियम के तहत इसके सेक्शन 15 में नियमों का पालन न करने पर कड़ी सजा प्रस्तावित है। कानून की अवहेलना करने वाले दोषी व्यक्ति को 5 वर्ष तक सजा या एक लाख रुपए तक का आर्थिक दंड या दोनों दी जा सकती हैं। पहली सजा के बाद भी यदि प्रदूषण जारी रहता है तो दोषी व्यक्ति को और आर्थिक दंड दिया जा सकता है, जो पांच हजार रुपए प्रतिदिन तक हो सकता है। यदि प्रदूषण एक वर्ष तक की अवधि से आगे भी चलता है तो दोषी को 7 वर्ष तक की कैद सजा दी जा सकती है। इस अधिनियम के तहत ध्वनि प्रदूषण के संदर्भ में नियम बनाकर उन्हें संसद में पारित करवाने की अत्यंत आवश्यकता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ध्वनि प्रदूषण दो कारणों से होता है- प्राकृतिक एवं मानवीय।

प्राकृतिक कारणों के अंतर्गत बादलों की गड़गड़ाहट, बिजली की कड़क, तूफानी हवाएं, भूकंप तथा ज्वालामुखी के विस्फोट से उत्पन्न ध्वनि तथा वन्य जीवों की आवाजें शामिल हैं। प्राकृतिक कारणों से उत्पन्न शोर क्षणिक तथा यदा-कदा होने वाला होता है अतः इसका प्रभाव कुछ क्षण के लिए ही होता है।

किंतु मानवीय कारणों से जो ध्वनि प्रदूषण होता है, उनमें परिवहन के साधनों में रेलगाड़ी, हवाई जहाज, मोटर प्रदूषण के मुख्य कारण हैं। मानवीय कारणों से जो ध्वनि प्रदूषण होता है, वह हम सब के लिए हानिकारक है। पूर्व नोबल पुरस्कार विजेता रॉबर्ट क्रांच के अनुसार, “एक दिन ऐसा आएगा, जब मनुष्य को स्वास्थ्य के सबसे बड़े शत्रु के रूप में शोर से संघर्ष करना पड़ेगा।” यदि ध्वनि-प्रदूषण इसी प्रकार अपनी वर्तमान दर से बढ़ता रहा तो आने वाले समय में यह संपूर्ण मानव-जाति के लिए खतरनाक हो सकता है।

जीवन के संतुलित विकास के लिए बाहरी वातावरण का स्तर भी संतुलित होना चाहिए। हम सबको मिलकर प्रयास करना होगा कि ध्वनि प्रदूषण की समस्याओं से हम सभी छुटकारा पा सकें।

संदर्भ


पर्यावरण अध्ययन, डॉ. विमल कानूनगो व एन.बी. सिंह, प्रथम संस्करण, 2007, पृ.46
युग निर्माण योजना, सं.द्वारका प्रसाद चैतन्य, संस्करण, 2007 पृ-14
पर्यावरण अध्ययन, डॉ. जे.पी. शर्मा. पृ. 98
द्रष्टव-अपना पर्यावरण, डॉ. एम.के. गोचल, पृ.233
सी-3, शोध छात्राशासकीय इंजीनियरिंग महाविद्यालय परिसर कोनी, बिलासपुर (छ.ग.)
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