एक अभियान बने भारतीय जल दर्शन

20 Mar 2016
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22 मार्च, 2016 -विश्व जल दिवस पर विशेष



यो वै भूमा तत्सुखं नाल्पे सुखमस्ति भूमेव सुखम।
भूमा त्वेव विजिज्ञासित्वयः।।


विश्व जल दिवसहम जगत के प्राणी जो कुछ भी करते हैं, उसका उद्देश्य सुख है। किन्तु हम यदि जानते ही न हों कि सुख क्या है, तो भला सुख हासिल कैसे हो सकता है? यह ठीक वैसी ही बात है कि हम प्रकृति को जाने बगैर, प्रकृति के कोप से बचने की बात करें; जल और उसके प्रति कर्तव्य को जाने बगैर, जल दिवस मनायें। संयुक्त राष्ट्र संघ ने नारा दिया है: ‘लोगों के लिये जल: लोगों के द्वारा जल’। उसने 2016 से 2018 तक के लिये विश्व जल दिवस की वार्षिक विषय वस्तु भी तय कर दी हैं: वर्ष 2016 - ‘जल और कर्तव्य’; वर्ष 2017 - ‘अवजल’ अर्थात मैला पानी; वर्ष 2018 - ‘जल के लिये प्रकृति आधारित उपाय’। अब यदि हम इन विषय-वस्तुओं पर अपने कर्तव्य का निर्वाह करना चाहते हैं, तो हमें प्रकृति, जल, अवजल और अपने कर्तव्य को जानना चाहिए कि नहीं?

क्या जल बिन सम्भव जलवायु मंथन?


याद कीजिए, दिसम्बर 2016 - जलवायु परिवर्तन को लेकर 195 देश पेरिस में जुटे। विचारणीय तथ्य है कि वहाँ सभी ने वायुमंडल में नुकसानदेह गैसों के उत्सर्जन और अवशोषण पर तो चर्चा की, किन्तु जल को भूल गये; भूल गये कि जल और वायु के मेल-मिलाप से ही जलवायु बनती है। क्या जल की चिन्ता किये बगैर, जलवायु निर्धारण के सभी कारणों और कारकों पर समग्र चिन्ता और चिन्तन सम्भव है? भारतीय पौराणिक ग्रंथ कभी नहीं भूले कि जल में भी ऊर्जा तत्व मौजूद होता है। उनमें उल्लेख है कि जल में मौजूद यह ऊर्जा तत्व भी पृथ्वी के तापमान को प्रभावित करने की क्षमता रखता है, किन्तु पेरिस सम्मेलन जल के इस गुण को याद नहीं रख सका। अतः वहाँ इस पर कोई संजीदा चर्चा नहीं हुई कि तापमान वृद्धि को रोकने के लिये, हम कौन-कौन से सकारात्मक कदम उठा सकते हैं। इसे हम अपनी जल साक्षरता मानें या निरक्षरता?

पोंगा नहीं, पुरातन


हम भले ही ठीक से न जानते हों कि प्रकृति क्या है, किन्तु प्रकृति हमेशा जानती है कि कब और कहाँ वर्षा हो? कब शीत, ग्रीष्म अथवा शरद का आगमन हो? किस प्रवाह का कहाँ से उद्गम हो और कहाँ मिलन? यदि हम जानते होते, तो नदियों को जोड़ने की जिद्द नहीं ठानते और न ही कृत्रिम वर्षा कराने का दंभ दिखाते।

सभी जीव गर्भ धारण करते हैं, किन्तु क्या मेघ भी गर्भ धारण करते हैं? हाँ, मेघ भी गर्भ धारण करते हैं। मेघों को भी गर्भपात होता है। हाइड्रोलाॅजी (जलविज्ञान) के पाठ्यक्रम में क्या यह हमें पढ़ाया जाता है? वराह मिहिर रचित बृहत संहिता पढ़ने वालों को यह पढ़ाया जाता है। बृहत संहिता ने गर्भ और गर्भपात..दोनों की पुष्टि के लक्षण बताये। गर्भधारण के 195 दिन बाद वर्षा के रूप में संतानोत्पत्ति और उसका रूप-स्वरूप बताया। मेघ ही नहीं, वायु धारण करने की भी विशेष तिथियाँ, लक्षण व परिणाम होते हैं। पुराने को पोंगा समझकर, यदि मैं पौराणिक ग्रंथों को हाथ न लगाता, तो स्वयं को पानी पत्रकार कहने का घमण्ड करने वाले मेरे जैसा व्यक्ति भी इस मामले में निरक्षर ही रहता।

हमारे नीति निर्धारकों को सोचना चाहिये यह सभी जाने बगैर, जल और वायु की नीति बनाना भला क्या वाकई उपयोगी हो सकता है? इसी अज्ञानता के कारण, हमारी वर्तमान जलनीति और शुद्धिकरण के ताजा प्रयास, जल और वायु से ज्यादा, बाजार को मदद करने वाले साबित हो रहे हैं। निस्संदेह, इसका एक कारण, जानते-बूझते हुए भी अनुचित करना हो सकता है। यह भी एक तरह का अज्ञान ही है। इससे उबरने के लिये हमारे नेता, अफसर, संत, समाज..सभी को एक बार भारत के परम्परागत ज्ञानतंत्र से शिक्षित-प्रशिक्षित होने की जरूरत है।

भारतीय ज्ञानतंत्र में मौजूद प्रकृति ज्ञान


गौर कीजिए कि भारतीय ज्ञानतंत्र ने हमें हमेशा बताया कि प्रकृति के अपने नियम हैं। प्रकृति, समय-काल-परिस्थिति अनुसार स्वयं को नियंत्रित करती है। रचना और विध्वंस, दोनो ही प्रकृति की नियंत्रण प्रणाली के हिस्से हैं। भारतीय ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि जल सहित पृथ्वी, बार-बार प्रकट होती तथा छिपती रहती है। सृष्टि के समय प्रकट होकर, जल के ऊपर रहना और प्रलयकाल में जल के नीचे छिप जाना; यही नियम है। यह उसी की सीख है कि जलवायु परिवर्तन के वर्तमान कालखण्ड को भी हमें प्रकृति द्वारा मानवी गतिविधियों के नियमन के तौर पर ही लेना चाहिये। गौर कीजिये:

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षेये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।


अर्थात “हे कौन्तेय, कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और कल्पों के आदि में मैं उन्हें फिर रचता हूँ।’’ श्रीमद्भागवत बाँचने वाले और सुनने वाले हम, क्या कभी रचना और विध्वंस के इस प्राकृतिक नियम पर विचार कर अपने कर्म का निर्धारण करते हैं? अगला नियम देखिए: “प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए, जितना आवश्यकता हो। यदि मनुष्य इसका ध्यान रखना छोड़ देगा, तो प्रकृति का भण्डार ही समाप्त हो जायेगा।’’ प्रकृति से लेन-देन में संतुलन ही, जल और वायु दोनों के साथ संयम और संतुलन को बनाये रखने का बुनियादी सूत्र है। सोचिए, यदि दुनिया के देशों ने धर्मात्मा युधिष्ठिर के कहे इस कथन को ही ध्यान से पढ़ और व्यवहार में गढ़ लिया होता, तो क्या पेरिस समझौते की जरूरत पड़ती?

आज भी जहाँ-जहाँ समाज ने मान लिया है कि ये स्रोत भले ही सरकार के हों, लेकिन इनका उपयोग तो हम ही करेंगे, वहाँ-वहाँ चित्र बदल गया है; वहाँ-वहाँ समाज पानी के संकट से उबर गया है। जहाँ-जहाँ, जिसने जवाबदारी संभाल ली, जल संसाधनों पर नैतिक हकदारी उसे स्वतः हासिल हो गई। जो काम समाज स्वयं कर सकता है, राज को उसकी जिम्मेदारी समाज पर छोड़ खुद सहयोगी भूमिका में आना होगा। जवाबदारी निभाने और हकदारी पाने के मार्ग की बाधायें दूर करनी होंगी। जल दिवस मनाने का औचित्य भी तभी है और महत्त्व भी तभी। क्या हम करेंगे ??

हम यज्ञ करते हैं, किन्तु क्या इस मंतव्य से परिचित हैं कि यज्ञ मात्र अग्निहोत्रकपरक कर्मकाण्ड न होकर सृष्टा के अनुशासन में भावना, विचार, पदार्थ और क्रिया के संयोग से उत्पन्न होने वाला एक पुरुषार्थ क्रम है? वेदवाणी है कि पहला यज्ञ, ब्रह्म के संकल्प से उत्पन्न सृष्टि का उद्भव है; दूसरा यज्ञ, उत्पन्न सूक्ष्म तत्व के अनुशासन का विशेष पालन करते सृष्टि चक्र को सतत प्रवाहमान बनाये रखना है। तीसरा यज्ञ, प्रकृति प्रवाहों को आत्मसात करते हुये उत्पन्न ऊर्जा से स्वधर्म मे रत रहना और प्रकृतिगत यज्ञीय प्रवाहों को अस्त-व्यस्त न होने देना है। चौथा यज्ञ, वह वैज्ञानिक प्रक्रिया है, जिसके अन्तर्गत मनुष्य, प्रकृति के पोषक प्रवाहों को पुष्टि प्रदान करने का प्रयास करता है। क्या हम ऐसा करते हैं? यदि करते, तो क्या गंगा जैसे पोषक प्रवाह को पुष्टि देने की बजाय, मल, कचरा और बंधन देते? कदापि नहीं।

फिर भी गैर अनुशासित हम


बाँधों, बैराजों में ठहरे पानी से हानिकारक गैसों की उत्पत्ति होती है; फिर भी हम बाँध-बैराज की पूरी ऋंखला ही बना रहे हैं; नदियों को सुरंगों में डाल रहे हैं। ‘नमामि गंगे’ परियोजना एक ओर तो गंगा किनारे की आबादी के बीच जनजागरण के लिये कई मंत्रालयों को जोड़कर ज्ञान व व्यवहार बढ़ाने की अच्छी कवायद करती दिखाई दे रही है, तो दूसरी ओर यह अज्ञान कि गंगा के गले में बाँधों का फंदा डालने का काम रोकने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही! स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद द्वारा याद दिलाने के बावजूद वह भूल रही है कि गंगाजल के अमरत्व का कारण सिर्फ बैक्टिरियोफाॅज नहीं, उसकी अनोखी गाद भी है। इसी कमजोर याददाश्त के कारण, शासन अकेले गंगा की मूल धाराओं पर 54 जलविद्युत प्रस्तावों को आगे बढ़ाकर गाद को जलाश्यों में कैद करने की योजना बना चुका है। मंथन करके विष और अमृत को अलग-अलग रखने की कथा बहुत पुरानी है। हमने इसे पढ़ा बहुत; प्रवचनों में सुना और सुनाया भी बहुत, किन्तु अपने खुद के मल और कचरे को अमृत जैसे नदी जल में बहाने पर कभी मलाल नहीं किया। क्या यह किसी राज या समाज के ज्ञानी और अनुशासित होने के लक्षण हैं?

समझना-समझाना जरूरी


प्रकृति में इतने ग्रह हैं। सभी अपनी कक्षा में चलते हैं। सभी अपना गंतव्य खोजते हैं। कोई दूसरे की कक्षा में जाकर दूसरे को रोकने की कोशिश नहीं करता। सामान्यतया, कोई ग्रह नियम नहीं तोड़ता। ग्रह जानता है कि वह जब भी नियम तोड़ेगा, सर्वनाश होगा। अतः वह अपवाद स्वरूप ही ऐसा करता है, किन्तु हम तो नित ही नियम तोड़ते हैं और चाहते हैं कि सर्वनाश न हो; यह कैसे हो सकता है?

सर्वनाश से बचना है, तो अब हमें समझना चाहिए कि जलोपयोग में अनुशासन और जल संचयन कितने जरूरी हैं? धर्मात्मा युधिष्ठिर के इस कथन में यह सीख स्वतः निहित है कि बहती नदी मिले या पानी का सागर, उसमें से प्यास भर पानी लो, पर उस पर अपना अधिकार न जताओ। ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ की नूतन शब्दावली तो अभी पिछले तीस सालों में आई, विदुर ने अपने इस कथन में वर्षा जल संचयन का महत्त्व कितना पहले बताया था - “यदि वर्षा हो और धरती उसके मोती समेटने के लिये अपना आंचल न फैलाये, तो वर्षा का महत्त्व नहीं।’’ इस उपलब्ध ज्ञान के बावजूद यदि हम भारतीय, जल संचयन की जगह अर्थ संचयन को अपनी प्राथमिकता बना रहे हैं, तो इसके लिये कोई ज्ञानी हमें किसी कुपढ़ की श्रेणी में रख दे, तो हम क्यों एतराज करें?

कहना न होगा कि यह विरोधाभासी परिदृश्य स्वयंमेव प्रमाण है कि भारत का पानी, पानी के अज्ञान अथवा जानबूझकर किए जा रहे कुप्रबंधन का शिकार है। भारतीय अतीत का ज्ञानतंत्र इतना समृद्ध कि हम गर्व करें और भारतीय राज-समाज का वर्तमान व्यवहार ऐसा कि समग्रता की कमी हर पल महसूस हो! हम क्या करें?

जल और कर्तव्य


पानी के प्रति अपना दायित्व निभाने के लिये मेरी राय में हमें तीन कार्य तत्काल करने की जरूरत है:

पहला कार्य - भारतीय प्रकृति दर्शन और जलदर्शन को सामने रखकर शासन, प्रशासन, संगठन व समाज के बीच समझ, कर्तव्य व व्यवहार सुनिश्चित करना। एक संजीदा और ज़मीनी कार्ययोजना बनाकर यह किया जा सकता है।

दूसरा कार्य - जलोपयोग में संयम यानी अनुशासन सुनिश्चित करना। समाज की राय से क्षेत्रवार भूजल निकासी की सीमा का निर्धारण व पालना तंत्र पर विचार करना चाहिए।

तीसरा कार्य - जल प्रदूषण, जल का अति दोहन, ओर जल संरचनाओं पर अतिक्रमण रोकना। यह समझाइश, संकल्प और सख्ती के बगैर सम्भव नहीं है। किन्तु एक ओर गंगा में प्रदूषण रोकने के लिये सैनिक कार्यबल की तैनाती और दूसरी ओर इतना समय बीत जाने के बावजूद सर्वोच्च न्यायालय को प्रदूषक उद्योगों की सूची तक न सौंप पाने का विरोधाभासी चित्र से स्पष्ट होती नीयत के होते यह सम्भव नहीं होगा। गंगाग्राम, जलग्राम, जलमित्र और जलनारी..हमारी जलमंत्री सुश्री उमाजी, गंगा प्रदूषण मुक्ति के नित नये नारे गढ़ती रहें और वन एवम पर्यावरण मंत्रालय तथा परिवहन मंत्रालय नदी जल के अति दोहन की योजना बनाता रहे; इस विचित्र तालमेल से भी तीनों कर्तव्यों की पूर्ति सम्भव नहीं।

तय करें भूमिका


संयुक्त राष्ट्र संघ की विषय-वस्तु के मुताबिक, यदि इस वर्ष हमें जल के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह करना है, तो राज, संत और समाज को एक-दूसरे की ओर ताकना छोड़ना होगा। धर्मसत्ता को सोचना होगा कि अमृत और विष के मंथन में धर्मक्षेत्र ने कभी क्या भूमिका निभाई थी। साहूकारों और अन्य समाज को सोचना होगा कि हमारे समाज ने अपनी आय के दो टके का 10 फीसदी कुँआ-बावड़ी-जोहड़ आदि धर्मादे में लगाने वाले सेठ-साहूकारों एक समय तक महाजन यानी ‘महान जन’ क्यों कहा। ग्रामसभा, पंचायत व मोहल्ला समितियों आदि प्राथमिक लोकप्रतिनिधि सभाओं को सोचना होगा कि विषः, नरिष्ठा, सभा, समिति, खांप, पंचायत आदि के नाम वाले संगठित ग्राम समुदायिक ग्राम्य संस्थानों ने जलप्रबंधन को अपनी जिम्मेदारी मानकर क्यों और कैसे निर्वाह किया? देखना होगा कि आज भी जहाँ-जहाँ समाज ने मान लिया है कि ये स्रोत भले ही सरकार के हों, लेकिन इनका उपयोग तो हम ही करेंगे, वहाँ-वहाँ चित्र बदल गया है; वहाँ-वहाँ समाज पानी के संकट से उबर गया है। जहाँ-जहाँ, जिसने जवाबदारी संभाल ली, जल संसाधनों पर नैतिक हकदारी उसे स्वतः हासिल हो गई। जो काम समाज स्वयं कर सकता है, राज को उसकी जिम्मेदारी समाज पर छोड़ खुद सहयोगी भूमिका में आना होगा। जवाबदारी निभाने और हकदारी पाने के मार्ग की बाधायें दूर करनी होंगी। जल दिवस मनाने का औचित्य भी तभी है और महत्त्व भी तभी। क्या हम करेंगे ??

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