पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने इस मिशन में लगे साथियों के बड़े समूहों के बीच और निजी चर्चाओं में साफ तौर पर यह कहना शुरू कर दिया था कि गंगा के प्रति मेरी आस्था मेरी वैज्ञानिकता की मोहताज नहीं है।

अनेक लोगों को उनकी यह जिद कई बार घोर अव्यावहारिक लगती थी, लेकिन गंगा के साथ हो रहे खिलवाड़ को जिस पीड़ा और गहरी वैज्ञानिक समझ से अग्रवाल साहब महसूस कर रहे थे, उसने उनकी तर्कशील जिद को लगातार मजबूती दी थी। यह कोरी भावुक जिद कतई नहीं थी।
गंगा के प्रति अपनी तथ्य-पुष्टि आस्था के दम पर सरकारों से लोहा लेने वाले स्वामी सानंद उर्फ डॉ. जी.डी. अग्रवाल की भगीरथ जिद सरकारी व्यवस्था से इस तरह से टकराती रही है कि उनके न रहने के बाद भी उसकी गूँज लम्बे समय तक बनी रहेगी। गंगा की अविरलता को लेकर उनकी सटीक और अनुभवी वैज्ञानिक समझ गंगा के प्रति उनकी आस्था को मजबूत करने का ही कारण बनी, व्यावहारिकता के तकाजों की सरकारी रुदाली से कभी-भी समझौता किये बिना।
पिछले कुछ वर्षों से उन्होंने इस मिशन में लगे साथियों के बड़े समूहों के बीच और निजी चर्चाओं में साफ तौर पर यह कहना शुरू कर दिया था कि गंगा के प्रति मेरी आस्था मेरी वैज्ञानिकता की मोहताज नहीं हैं। मुझे कोई तर्कों के आधार पर इसकी अविरलता की गारंटी नहीं चाहिए।
करोड़ों हिन्दुस्तानियों की तरह मैं भी माँ की तरह इसे जानता और जीता हूँ। इस विशाल देश की इतनी बड़ी आबादी की इस आस्था को सरकार से सम्मान चाहिए। गंगा को अपनी पापमोचनी-शुद्धिदायिनी क्षमता की आधारभूत गुणवत्ता को बनाए रखने की गारंटी और इसकी अविरलता की छलरहित परिभाषा चाहिए।
वैज्ञानिक तरीके से अपने पेशेवराना दायित्वों को निभाने के अनेक दशकों के अपने कड़वे-मीठे अनुभवों से उन्होंने अपने सामाजिक सरोकारों को धार दी थी। इसीलिए उनमें एक बेहद पैनी और व्यावहारिक तल्खी थी, जो कई बार उनके साथ काम करने वालों को सहमा देती थी, आकुल कर देती थी। लेकिन न्यूनतम असफलता की सम्भावना वाले विकल्प उनके पास हमेशा होते थे, इसीलिये वह देश के बड़े-से-बड़े पर्यावरणविद और वर्ष 2000 में बनी हमारी एक चोटी-सी स्वैच्छिक संस्था की कम अक्ल टोली के मार्गदर्शक बने रह सकते थे। उनका बड़प्पन यह था कि उन्हें ये दोनों वर्ग के लोग एक से प्रिय थे- वह दोनों वर्गों के बेहद जरूरी मार्गदर्शक थे ही।
देश के अनेक अन्तरराष्ट्रीय स्तर के पर्यावरणविदों और उनकी संस्थाओं के विशेषज्ञों को सामूहिक चर्चा के दौरान अग्रवाल साहब के सामने निरुत्तर होते इस लेखक ने देखा है। इसलिये जब हमारी अल्प अनुभवी टोली की वह छिलाई करते थे, तो सहने की ताकत बनी रह पाती थी। बाद में समाधान के विकल्प तो मिलते ही थे।
मेरा उनसे संवाद का रिश्ता यों तो चित्रकूट में 1995 से ही बनने लगा था, लेकिन उनके साथ सहज आत्मीय संवाद की स्थिति वर्ष 2000 के बाद से बननी शुरू हुई, जब मध्य प्रदेश के अनूपपुर जिले में हमारी स्वैच्छिक संस्था सहजीवन के जल संग्रहण के प्रोजेक्ट के मार्गदर्शन के लिये और फिर बाद में शहडोल में खाद्य प्रसंस्करण के प्रोजेक्ट के कामकाज को तराशने के लिये उनका प्रत्यक्ष मार्गदर्शन मिलना शुरू हुआ। उम्र के आठवें दशक में चल रहे अग्रवाल साहब की ऊर्जा का स्तर हम सबसे बेहतर हुआ करता था। उनका निरभिमानी और कबीरी स्नेह विलक्षण ऊर्जा से हम युवाओं को भर-भर देता था।
चित्रकूट में उनको साइकिल पर चलते देखकर भी मन में उनकी इस सन्तई किफायत की वैसी समझ नहीं बन पाई थी, जैसी शहडोल के कामकाज के दौरान बनी। गम्भीर चर्चाओं के बीच में भी सहजीवन के कार्यकर्ता परिवारों के बच्चों तक के साथ उनकी पारिवारिक दादा-बाबा वाली चुहल और मजाक के पीछे से झाँकती उनकी प्रखर सोद्देश्यता की गहराई तब समझ में आनी शुरू हुई।
समाज की बेहतरी के लिये अनथक काम करने की उनमें अद्भुत ऊर्जा थी। लेकिन जब वह हमारे प्रोजेक्टों और योजनाओं में पसरी भावुक किन्तु अव्यावहारिक और गैर-टिकाऊ रणनीतियों की परतें उधेड़ते थे, तो दुश्मन से निर्मम जान पड़ते थे। लेकिन खूबी यही थी कि ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने केवल तीखी समीक्षा भर की- हमेशा समाधान की राह भी बताई।
अग्रवाल साहब सरीखे अडिग और मुखर आस्था वाले वैज्ञानिक जो अपनी हिन्दू आस्था को सगर्व कहने में हिचकते नहीं थे, बिरले होते हैं, होंगे। अपने जीवनकाल में उन्होंने कितनी संस्थाओं और कितने लोगों की आर्थिक और तकनीकी मदद की और कार्रवाई, इसकी गिनती किसी के पास नहीं होगी। कितने आस्थावान दिलों को उन्होंने व्यावहारिक सोद्देश्यता की राह पर हाथ पकड़कर बढ़ा दिया, इसकी भी गिनती मुश्किल होगी।
उनके लिये कह सकते हैं- मैं मरुँगा सुखी क्योंकि मैंने जीवन की धज्जियाँ उड़ाई हैं। उनके मरने की गूँज देर तक, ढेर लोगों में सनसनाहट पैदा करती रहेगी।