एक वनस्पतिशास्त्री का मनन-चिंतन

प्रोफेसर एच वाय मोहन राम
प्रोफेसर एच वाय मोहन राम ने कई क्षेत्रों में प्रतिभा हासिल की है। उनका जन्म 1930 में हुआ। 1953 से 1995 तक उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में वनस्पतिशास्त्र पढ़ाया और वनस्पति विज्ञान के अलग-अलग क्षेत्रों में 35 पीएचडी के छात्रों को गाइड किया। उन्होंने भारतीय विज्ञान को समृद्ध बनाया - शिक्षक, संपादक, पाठ्यपुस्तक लेखक, शैक्षणिक फिल्में बनाकर विज्ञान के लोकप्रियकरण, प्रतिभाओं को बढ़ाने वाले, चिंतक और योजनाकार की हैसियत से। शैक्षणिक संस्थायें, विद्वान समितियां और अनुदान संस्थायें उनके महत्वपूर्ण योगदान से लाभांवित हुयीं। वो भारत की चारों महत्वपूर्ण विज्ञान अकादमियों के सदस्य हैं। वो वनस्पतिशास्त्र और प्राणिशास्त्र सर्वे की शीर्ष सलाहकार समितियों और मैन एंड बायोस्फीयर प्रोग्राम (1990-1996) के चेयरमैन रहे हैं। प्रोफेसर मोहन राम कई प्रतिष्ठित पुरुस्कारों से सम्मानित हैं। आजकल वो दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यावरण (जीवशास्त्र) विभाग में इंसा (इंडियन नेशनल साइंस एकैडमी) के ज्येष्ठ वैज्ञानिक हैं।

मैं मैसूर के सुंदर शहर में जन्मा। घर में संगीत, पुस्तकों के साथ-साथ कई और बच्चे भी थे। हम आने करोटी (गजशाला) घूमने जाते जहां हमें बहुत मजा आता। गजशाला में अलग-अलग आयु के चालीस से भी अधिक हाथियों को ट्रेनिंग दी जाती थी। पौधें में मेरी रुचि मेरी मां ने जगायी। उन्हें खुद बागबानी का बहुत शौक था। स्कूल में हमारे जीवविज्ञान के शिक्षक श्री आर एक चक्रवर्ती ने हमसे मेढकों के अंडे और टैडपोल इकट्ठे करवाये और अंडे से मेंढक के अद्भुत रूपांतरण से हमें परिचित कराया। बिलिरंगा पहाडि़यों पर मैं कुछ समय अपने चाचा के साथ रहा। यह वन्यजीवन का मेरा पहला अनुभव था। मैंने हाथियों के झुंड को एक खेत को रौंदते देखा। वहां हाथियों को भगाने के लिये छोटे बच्चे पेड़ों पर बैठकर फटे बांसों को हिलाकर तेज आवाज पैदा कर रहे थे।

मैसूर के कालेज में मेरी भेंट डॉ एम ए राऊ और श्री बी एन एन राव से हुई। दोनों ही बेहद प्रतिभाशाली फील्ड-वनस्पतिशास्त्री थे। पौधें को खोजते हुये वे दूर-दूर तक साइकिल यात्रायें करते। पौधों के आकार और वर्गीकरण का उन्हें गहरा ज्ञान था। जो सबसे महत्वपूर्ण सबक मैंने उनसे सीखा वो था - सरसरी निगाह और बारीक अवलोकन के बीच का अंतर। मैंने उनसे बहुत से पौधें के लैटिन नाम, वर्गीकरण और उनके उपयोगों के बारे में भी सीखा।

स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद 1951 में मैंने आगरा के बी आर कालेज में एमएससी में दाखिला लिया। यह वैसे तो एक सामान्य कालेज था परंतु यहां के शिक्षक बहुत श्रेष्ठ, दयालु और अपने विषय में रुचि रखने वाले थे। एक साफ, हरे-भरे शहर से एक गंदे, धूल भरे, आधे रेगिस्तानी, खारे पानी वाले शहर में आना मुझे काफी दुश्वार लगा। मैं अक्सर सोचता - ताजमहल, मैसूर में क्यों नहीं बना! आगरा में मुझे पहली बार सैल्वाडोरा, टैमैरिक्स, स्वाईदा, सैल्सोला और कैपैरिसिस प्रजातियों के पेड़-पौधे देखने का अवसर मिला। ये पेड़ समय के साथ यहां के सूखे, गर्मी, और नमकीन मिट्टी के आदी हो गये थे। यहां प्रोफेसर बहादुर सिंह ने शोधक्रिया से मेरा परिचय कराया। उन्होंने मुझे शोध में सैद्धांतिक कड़ाई का महत्व भी समझाया।

आगरा में मुझे बताया गया कि साईकस रेवोल्यूटा के जो पौधे (20 करोड़ वर्ष पहले यही वनस्पति सबसे अधिक मात्रा में पायी जाती थी) ताजमहल के बगीचे में लगे हैं वो सभी मादा हैं और नर पौधे के अभाव में उनमें बीज नहीं पैदा हो सके हैं। मुझसे मैसूर से एक नर पौध लाने को कहा गया। मैंने मैसूर महल के बगीचे से कैसे करके एक पौध चुराया और फिर उसे कई बोरियों की तहों से ढंका। उसमें तेज बदबू आ रही थी इसलिये रात के समय जब मैं सोया हुआ था तो ट्रेन के सहयात्रियों ने उस बोरे को डिब्बे से बाहर फेंक दिया। शायद इसी कारण ताजमहल परिसर में साइकैड के पौधे बूढे़ होकर भी कुंवारे हैं! एक बार यमुना के तट पर वनस्पतियां इकट्ठा करते समय मैं बलुआ दलदल में फंस गया। अगर मेरे प्रोफेसर ने तत्काल अपनी धोती खोलकर उसे मेरे चारों ओर लपेटकर मुझे जल्दी से नहीं खींचा होता तो शायद मैं आज इस लेख को लिखने के लिये जिंदा नहीं बचता!

एमएससी की पढ़ाई समाप्त करने के बाद मैं खुशनसीब था कि मुझे तुरंत दिल्ली विश्वविद्यालय में वनस्पतिशास्त्र के लेक्चरर की नौकरी के लिये चुन लिया गया। वहां मैं प्रोफेसर पी माहेश्वरी के प्रभाव में आया जोकि अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के वनस्पतिभ्रूण वैज्ञानिक थे। विश्व भर के छात्र उनकी लिखी पुस्तकें पढ़ते थे। माहेश्वरी एक संपूर्ण वनस्पतिशास्त्री थे - इस विषय की प्रत्येक शाखा में उनकी रुचि थी। वो आत्मसंयमी, बेहद मेहनती और व्यवस्थितवैज्ञानिक थे और उन्होंने दिल्ली में वनस्पनिशास्त्र का बहुत ही समृद्ध विभाग स्थापित किया था। माहेश्वरी हमेशा उपयोग, तरीके, समयबद्धता, सफाई और वैज्ञानिक शोध् की शुद्धता पर जोर देते थे। उनको देखकर ही मैंने वनस्पतिशास्त्र को एक पेशे के रूप में अपनाने का निर्णय लिया। मैंने उन्हीं की देखरेख में अपनी डाक्ट्रेट की। इसके अलावा मैंने उनसे तीन महत्वपूर्ण बातें सीखीं: सीखने की सीख, काम करने की सीख और जिंदगी जीने की सीख।

1963 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने हमारे विभाग की पदोन्नित की और वो सेंटर ऑफ एडवांस्ड स्टीज के नाम से जाना जाने लगा। प्रोफेसर माहेश्वरी को फेलो ऑफ द रायल सोसायटी का सदस्य चुना गया। हमें इससे बहुत खुशी और गर्व की अनुभूति हुई। यहां एक ऐसा वनस्पतिशास्त्री था जो कभी भी अपने देश से बाहर नहीं गया और जिसने हम सब में आत्मविश्वास जगाया कि कड़ी मेहनत और लगन से देश में रह कर भी विश्व-स्तरीय शोध् करना संभव है।

वनस्पतिशास्त्र पढ़ाते समय मुझे सबसे ज्यादा मजा छात्रों को फील्ड में वनस्पतियां दिखाने ले जाने में आता था। इसके दौरान लंबी यात्रायें, खेल, गाना, साथ-साथ खाना और बस मजा ही मजा होता। इसमें कृत्रिम बंधन टूट जाते और छात्र, मित्र बन जाते। आज जब भी मैं अपने पुराने छात्रों को मिलता हूं (उनमें से बहुत से भारत और विदेशों के विश्वविद्यालयों में ऊंची पदवियों पर आसीन हैं) तो उन सभी को वही दिन याद आते हैं जब वनस्पतिशास्त्र का मतलब था जंगलों में घूमना, बड़े पेड़ों को देखना, नये पौधें को खोजना और असाधारण प्राकृतिक घटनाओं का अवलोकन करना और इस सब का आनंद लेना। आजकल वनस्पतिशास्त्र की पढ़ाई मंहगी प्रयोगशालाओं में सिमट गयी है। यहां अब न्यूक्लिक एसिड का निचोड़ निकाला जाता है और आणविक समता और अंतरों को जानने के लिये क्षार की जोडि़यों के क्रमों को मिलाया जाता है।

इन यात्राओं के दौरान मुझे सैकड़ों अनुभव हुये। एक बार मेट्टूपल्याम और ऊटी स्टेशनों के बीच में छोटी ट्रेन अपनी पटरी से ही उतर गयी जिससे लोगों में दहशत फैल गयी। एक बार मैं मसूरी में एक पहाड़ी से 15 मीटर नीचे फिसला परंतु भाग्यवश एक पेड़ की दो शाखों के बीच में आकर ठहर गया। मुझे नीले रंग की जैकिट पहनने का शौक है - शायद इसी कारण रात के समय ट्रेन यात्रा करते समय लोग मुझे टिकट कलैक्टर समझ बैठते और सीट के लिये मुझे रिश्वत तक देने को तैयार हो जाते!

एक बेहद काबिल वैज्ञानिक जिनका प्रभाव मुझ पर पड़ा वो थे प्रोफेसर एफ सी स्टीवर्ड। उनके साथ मुझे और मेरी पत्नी को फुल्ब्राइट फैलोस की हैसियत से कौर्नेल विश्वविद्यालय में (1958-60) काम करने का अवसर मिला। उन्होंने मेरे सोच को व्यापक बनाया और पौधें में व्यवस्था और एकीकरण की मेरी समझ को गहरा किया। 50 साल से भी ऊपर के अपने वनस्पतिशास्त्र के पेशे में मुझे ऐसे बहुत से प्रसिद्ध वैज्ञानिकों और लोगों से मिलने का मौका मिला है जिन्होंने जीवविज्ञान और संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किये हैं।

बहुमुखी प्रतिभा, शोध् के प्रति समर्पण, उर्जा, वृहत रुचियों और सृजनशीलता के लिये स्वर्गीय प्रोफेसर बी जी एल स्वामी (1916-81) का नाम सर्वोपरी होगा। वो पूरे विश्व में पौधें के ढांचों और भ्रूणविज्ञान पर किये अपने शोध् के लिये प्रख्यात थे। स्वामी एक प्रेरक शिक्षक, चिंतक, कला इतिहासकार, पुरालेखशास्त्री, चित्रकार और इसके अलावा कन्नड के अभूतपूर्व लेखक थे।

मेरी राय में किसी भी वैज्ञानिक ने बायोडायवर्सटी, आकृति-विज्ञान, वर्गीकरण, पौधें के प्रचार पर स्वामी जैसा नहीं लिखा होगा। और यह सब उन्होंने कन्नड़ में एक बहुत सुंदर और पठनीय शैली में लिखा है।

उनकी पुस्तक हसूरू होन्नू (हरा सोना) पश्चिमी घाट पर उनकी छात्रों के साथ यात्राओं पर आधरित है। इसमें वो आपका परिचय कई बेहद रोचक पौधें से, उनके रूप और विशेषताओं, प्रयोगों, किंवदंतियों, संरक्षण स्थिति कन्नड और तमिल साहित्य में उनके स्थान से कराते हैं।

उन्होंने विनोदी तरीके से कहानी सुनाने की शैली का उपयोग किया है। स्वामी ने कन्नड में विज्ञान के लोकप्रियकरण में एक नयी पहल शुरू की। उन्हें 1978 में साहित्य अकादमी का पुरुस्कार मिला जो कि किसी भी भारतीय वैज्ञानिक के लिये एक रिकार्ड है।

मेरा हीरो कौन है? जिस वनस्पतिशास्त्री का मैं सबसे बड़ा प्रशंसक हूं वो हैं रूसी वनस्पतियों के प्रसिद्ध खोजी, आनुवंशिक वैज्ञानिक और जीव-भूगोलशास्त्री निकोलाई इवानोविच वैवीलोव। उन्होंने पौधें के संकलन के लिये पुराने रूस और 50 अन्य देशों में यात्रायें कीं (1920-30)। उन्होंने अनाज, दालों, आलुओं आदि के बीजों के 50,000 नमूने इकट्ठे किये। उगाये हुये पौधें के उत्पत्ति केंद्रों (प्राथमिक विविधता के केंद्र) के वही पहले प्रणेता थे। आजकल हम जीन-बैंक्स की बात सुन रहे हैं वो उन्हीं की दृष्टि का फल हैं।

यह बड़े दुख की बात है कि उस समय लायसेंको के बहुत अधिक राजनैतिक प्रभाव और किसी भी वैज्ञानिक विरोध् की असहनशीलता के कारण वैविलोव को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर जासूसी का और कृषि की उपज को हानि पहुंचाने का इल्जाम लगाया गया। उन्हें घोर अपमान सहना पड़ा और उनकी मृत्यु सारातोव जेल में हुई। द्वितीय महायुद्ध के दौरान लेनिनग्राद की 900 दिन लंबी घेराबंदी में जो वैज्ञानिक वैवालोव के गेहूं संकलन की चैकीदारी कर रहा था वो भूख से तड़प कर मर गया लेकिन उसने उन नमूनों को नहीं खाया।

मैं अपनी वनस्पतिशास्त्री पत्नी मानसी का भी सदा ऋणी रहूंगा। उनकी पौधों से संबंधित कभी न पूरी होने वाली उत्सुकता, तेज दिमाग और गहरा प्रेम मुझे हमेशा सीखने के लिये प्रेरित करता रहा। वो घर में दुर्लभ पौधें को उगातीं और फिर खुले दिल से उन्हें बांटतीं। गुरुपत्नी की हैसियत से मेरे छात्रों पर उनकी सदा कृपादृष्टि रहती। हम दोनों देश और विदेश में अनेकों वनस्पति अध्ययन की यात्राओं पर साथ-साथ गये। वो हमेशा मेरे विचारों में रहती हैं। जब मैं किसी को नये पौधें, नयी जगहों और नये मित्रों को बताना चाहता हूं उस समय मुझे उनकी बहुत याद आती है।

बहुत से लोगों के लिये वन्यजीवन (वाइल्डलाइफ) का मतलब शेर, चीते, हाथी, दरियाई घोड़ा, गैंडा, गौड़ और वनमानुष होते हैं। परंतु जीवविज्ञान में, कोई भी ऐसा जीव जिसे आप पालतू न बना सकें - चाहें वो कोई पौध हो, प्राणी हो या सूक्ष्मजीव हो, वो वाइल्डलाइफ है। जनता का ध्यान आकर्षित करने में शायद एक खरपत के पौधे की अपेक्षा किसी चीते, शेर या रंगबिरंगी तितली का पोस्टर अधिक सफल होगा। परंतु वनस्पतिशास्त्रियों की निगाहों में बड़े सितारे हैं - सागुआरो कैक्टस, लेडी स्लिपर आर्किड, पिचर प्लांट और अजीब दिखने वाला वेलविटसिया (नामिब के रेगिस्तान में यह पौध ओस की बूंदों से पानी सोखकर जिंदा रहता है) या फिर एक नहीं, एक-साथ दो-दो नारियल। इनके बारे में पढ़ने से तो केवल रुचि का विस्तार होता है परंतु इन्हें इनके ही प्राकृतिक परिवेषों में खोजना जीवन का एक अनूठा अनुभव होता है। आपने भीमकाय कमल (विक्टोरिया एमेजोनिका) के चित्र को किसी उष्णकटिबंधी (ट्रौपिकल) बगीचे में उगते अवश्य देखा होगा। इसकी जड़े पानी में होती हैं (यह पानी का सबसे बड़ा पौध है) और इसकी विशाल पत्तियों (2 मीटर व्यास की) के किनार थाली जैसे मुड़े होते हैं। पत्ती ने निचले भाग पर नुकीले कांटें होते हैं और इसकी मोटी नसें मध्य से निकलकर कई बार अठखेलियां करती हुई किनार तक पहुंचती हैं। इसकी वयस्क पत्तियां एक पंद्रह साल के बच्चे का भार संभाल सकती हैं!

68 वर्ष की आयु में भी मैं तब बहुत उत्साहित हुआ जब मुझे 1998 में ब्राजील के पास मानुआस में एमेजोन नदी पर इस विशाल कमल को उसके प्राकृतिक परिवेश में देख पाया। मैंने नौका चालक से पत्तों के पास जाने का आग्रह किया जिससे कि मैं उन्हें छू सकूं। उनके फूलों का रंग सफेद और व्यास 20 सेंटीमीटर के करीब होता है। वो शाम को ही खिलते हैं। इस समय फूलों का तापमान, आसपास की हवा से 100 डिग्री सेंटीग्रेड से भी अधिक हो जाता है और उनमें से फलों की तेज सुगंध् आती है। तब बहुत सारे राजवंशी भृंग (बीटिल) फूलों की ओर आकर्षित होते हैं। ये बीटिल फूलों के ऊतकों (टिश्यू) पर लगे ढेर सारे मांड को खाती हैं।

सूर्यास्त के बाद फूलों की पंखुडि़या बंद हो जाती हैं और अगले दिन तक के लिये उनमें ये सारे भूखे कीड़े कैद हो जाते हैं। फिर इन पंखुडि़यां का रंग गुलाबी हो जाता है, वो शाम के समय खुलती हैं और तब बीटिल्स परागकणों के साथ बाहर निकलते हैं। ये बीटिल्स उसके बाद सफेद फूलों में आ जाती हैं और इस प्रकार उनका परागण होता है। मैंने इस विशाल पौधे के बिल्कुल पास ही पानी के सबसे छोटे पौधे वौल्फिया ब्राजीलनिस को तैरते हुये भी देखा।

एमेजोन नदी के तट पर 8-10 मीटर ऊंचे पेड़ों का पानी में डूबना (कापोक, चिरोसिया आदि) एक और अचरज में डालने वाली बात थी। मुझे बताया गया कि ये पेड़ 5-6 महीने तक वार्षिक बाढ़ के प्रकोप को सह लेते हैं।

चिडि़याघरों और बाग-बगीचों में ही अक्सर हमें ‘नान-वाइल्ड’ प्रजातियां देखने को मिलती हैं। कुछ ऐसी प्रजातियां हैं जो अब अपने प्रकृतियों परिवेशों से लुप्त हो गयी हैं और केवल संरक्षित स्थानों पर ही जिंदा बची हैं। मैं आपको श्रीलंका में कैंडी के पास स्थित पेरेडिनिया वनस्पति उद्यान की अपनी रोंमाचक यात्रा के बारे में कुछ बताना चाहूंगा।

इस बगीचे में वैसे तो कुछ बहुत ही आकर्षक पौधे हैं परंतु इसमें सबसे बहुमूल्य हैं दो कतारें जिनमें दो-दो नारियलों वाले पेड़ लगे हैं। डबल-नारियल (लोडोइसिया माल्डिविका या एल सेचिल्लैरिकम) एक बहुत ही रोचक पाम है। इन 30 मीटर ऊंचे पेड़ों की पंखेनुमा पत्तियां होती हैं और वे 300 वर्ष तक जीवित रहते हैं। अपने प्राकृतिक रूप में ये पेड़ सेयचिल्लीज (भारतीय महासागर में ग्रेनाइट की पहाडि़यों पर स्थित द्वीप समूह) में पाये जाते हैं। ये पेड़ लगभग लुप्त प्रजातियों की श्रेणी में हैं इसलिये कानून द्वारा इनको संरक्षण मिला है। नर और मादा पेड़ अलग-अलग होते हैं। मादा पेड़ों के फल हरे रंग के बड़े हृदय जैसे होते हैं। उनका भार 15-20 किलो होता है और उन्हें पकने में 5-8 साल लग जाते हैं। त्वचा के नीचे रेशों की एक दरी होती है जो एक भूरे हड्डियों का एक कवच होता है जो आकार में नितंबों जैसा दिखता है। इस कवच के अंदर दो खंडों वाला बीज होता है - जो वनस्पति जगत का सबसे बड़ा (50 सेमी) और सबसे भारी बीज होता है। मरे बीज अक्सर तैरते हुये भारत के समुद्री तटों पर आ जाते। लोग इन्हें उत्सुकता से इकट्ठा करते। इन्हीं कवचों को भारत में साधु अपने कमंडल के लिये उपयोग करते हैं।

फ्रेंच जलसेना के कप्तान लजारे पिकौल्ट वो पहले गोरे इंसान थे जिन्होंने 1977 में, पहली बार डबल-नारियल के पेड़ को खोजा।

मैंने सामान्य वनस्पतिशास्त्र, वर्गीकरण, भ्रूणविज्ञान, शरीरविज्ञान, संरचना-विकास, टिश्यू कल्चर और पौधें के उपयोग और संसाधन संबंधी इकोनामिक-बाटनी पढ़ायी है। शोध् की मैंने कोई एक निश्चित दिशा नहीं चुनी है। मैंने समय के फैशन को नकारा और हमेशा अपनी रुचि के अनुसार काम किया। हमारी प्रयोगशाला से 250 से भी अधिक शोधपत्र प्रकाशित हुये हैं। ये उन 35 शोध् छात्रों की साधना का फल था जो मेरे साथ काम कर रहे थे।

मेरी मां ने 1940 के शुरुआत में, मैसूर में बच्चों के लिये एक क्लब बनाया था जिसका नाम था मक्कला कूटा। उनका मुख्य उद्देश्य बच्चों को स्वतंत्रता आंदोलन, गरीबी, अशिक्षा, लिंगों के बीच की गैरबराबरी से अवगत कराना था। साथ-साथ जनमानस को जगाने, लिखने, नाटक, बोलने और गाने की कुशलतायें विकसित करना था। उन्हें लगता था कि स्कूल व्यक्तित्व के इन पक्षों को नजरंदाज करते हैं।

इन गतिविधियों का मेरे कार्यकारी जीवन पर भी गहरा असर हुआ। इसीलिये मैंने कभी भी बच्चों के साथ मुलाकात के किसी भी निमंत्रण को नहीं ठुकराया। मुझे इस बात का संतोष है कि मैं चिल्ड्रंस बुक ट्रस्ट के न्यासी (ट्रस्टी) और नेशनल साइंस सेंटर के चेयरमैन (6 वर्ष) और सेंटर फॉर इंनवायरनमेंट इडयूकेशन की नियंत्रक सभा के सदस्य की हैसियत से बच्चों के लिये कुछ कर पाया।

एक और कठिन किंतु संतोषजनक काम था 11वीं और 12वीं कक्षाओं के लिये जीवविज्ञान की किताबें लिखना। इसके लिये एनसीईआरटी ने एक समिति बनायी थी और मैं उसका चेयरमैन था। इन पुस्तकों को लिखने वाले लेखकों की टीम का उद्देश्य बच्चों में जांच-पड़ताल, सृजनता, निष्पक्षता, प्रश्न पूछने का साहस, कलात्मकता और पर्यावरण के प्रति संवेदना की प्रवृत्ति पैदा करना था।

जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो मुझे लगता है कि यह एक बहुत ही कठिन काम था। यह बीड़ा मैंने प्रोफेसर सी एन आर राव - जो इस देश के सबसे सम्मानित रसायन वैज्ञानिक हैं के कहने पर उठाया था। इस कार्यक्रम में मुझे ऐसे स्कूली शिक्षकों, शिक्षाविदों और विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों के साथ काम करने का मौका मिला जो ईमानदार, कुशल, आलोचनात्मक और सहयोगी थे। इस श्रृंखला में चार पुस्तकें तैयार की गयीं जिनमें रंगीन चित्रों के साथ-साथ रोचक जानकारी को बक्सों में दिया गया था। इन पुस्तकों का आज भी व्यापक उपयोग हो रहा है। क्योंकि एक दशक बीत चुका है इसलिये इनको अब सुधारने की आवश्यकता है।

मेरी भारतीय शास्त्रीय संगीत और फोटोग्राफी में गहरी रुचि है। जंगल, तर इलाकों (वेटलैंडस), कृषि क्षेत्रों, बंजर जमीनों, दुर्लभ और आर्थिक रूप से उपयोगी पौधें, सब्जियों और फलों के बाजार, मेरी फोटोग्राफी के प्रिय विषय रहे हैं। जिन बाजारों ने मुझे सबसे मुग्ध् किया है और जिनके मैंने फोटोग्राफ्स लिये हैं वो हैं बैंकाक, बेलेम (जिसे ब्राजील में मेरकाडो वेर-ओ-पीसो के नाम से जाना जाता है और यहां एैमेजान का सारा माल बिकता है), लाईडिन (हौलेंड), पैरिस, इंफाल (मनीपुर), शिलांग (मेघालय), गैंगटौक (सिक्किम) और हां, मैसूर में। मैं अपने विशाल स्लाइड्स के संकलन को लेक्चरों, लेखों, पुस्तकों और शैक्षणिक फिल्मों के उपयोग में लाता हूं।

क्या आज के युग में वनस्पतिशास्त्र और जीवविज्ञान जैसे विषयों के लिये कुछ स्थान बचा है? आज यह बहुत बड़ी विडंबना है कि जब विश्वस्तर पर जैवीय-विविधता, संरक्षण की चिंतायें बढ़ रहीं हैं तब भारत में ऐसे विशेषज्ञों की कमी हो जो इस कार्य का मूल्यांकन कर सकें और व्यापक प्रजातियों के रोल को समझा सकें।

रियो डी जेनेरियो के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर करने के बाद भी हमारे यहां टैक्सोनोमी (वर्गीकरण का विज्ञान) को नजरंदाज किया जा रहा है। बहुत सारे बैक्टीरिया, फफूंद, नेमाटोड्स, कीटों और पौधें की पहचान और अध्ययन अभी भी बाकी है। हमें इस प्रकार के प्रशिक्षित लोग चाहिये जो जैवीय-विविधता को संख्यात्मक रूप दे सकें और उस आधर पर प्रजातियों के संरक्षण की स्थिति निश्चित कर सकें। इससे भी अधिक जरूरी है कि हम उन्हें अध्ययन, विश्लेषण, भंडारण और पुनः प्राप्ति के नये तरीकों से लैस कर सकें। पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन के लिये पौधें और प्राणियों के विश्वसनीय/संख्यात्मक आंकड़ें उपलब्ध् होना अनिवार्य हैं।

हमारी पृथ्वी एक छोटा ग्रह है और उसके संसाधन बहुत ही सीमित हैं। करोड़ों साल के विकास के दौरान इसमें अद्भुत जीवों की विविधता पनपी है जो एक-दूसरे को अनेकों तरीकों से प्रभावित करते हैं और पृथ्वी पर जीवन को कायम रखते हैं। इंसानों की होशियारी से ही प्रजातियां चुनी गयी हैं और पालतू बनायी गयी हैं। इंसानी जरूरतों को पूरा करने के लिये सूक्ष्मजीवों, पौधों और जानवरों की पैदावार बढ़ी है।

परंतु अधिक उत्पादन, अधिक उपभोग और उच्चस्तरीय जीवनयापन के लिये प्रौद्योगिकी द्वारा भौतिक चीजों की होड़ के कारण अंधाधुंध जंगल कटे हैं और जंगली इलाके नष्ट हुये हैं। इसके साथ-साथ जंगलों में रहने वाले समूह और आदिवासी भी तबाह हुये हैं। जंगलों के कटने से जमीन की ऊपरी मिट्टी कट कर नदियों में बाढ़ लाती है और इससे प्रजातियां अधिक तेजी से लुप्त होती हैं। यह जरूरी है कि हम पर्यावरण और आर्थिक दोनों स्तरों पर सुरक्षा सुनिश्चित करें।

हम यह समझें कि पृथ्वी और उसके मूल तत्व किस प्रकार काम करते हैं। हमें पर्यावरण को बचाने के साथ-साथ आर्थिक प्रगति भी करनी चाहिये। इसके लिये हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ-साथ प्राकृतिक और सामाजिक विज्ञान के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान को उपयोग करना चाहिये। संरक्षण का काम करने के लिये सभी सचेतन नागरिकों को जीवविज्ञान को समझना होगा। निर्णय लेने के लिये लोगों की प्राथमिक आवश्यकताओं को समझना जरूरी है। साथ में जरूरतमंद समूह, सक्रिय भागीदारी में एक दूसरे का सहयोग करें, लड़ें नहीं। गांधीजी का दर्शन कि हमें अपनी जरूरतों पर अंकुश लगाकर उन्हें न्यूनतम करना चाहिये आज जितना प्रासंगिक है उनका पहले कभी नहीं था। उस पर अमल करने के लिये हमें अपने व्यवहार में बुनियादी बदल लानी होगी।

एक वनस्पतिशास्त्री की हैसियत से मैंने क्या विवेक अर्जित किया? काश कि मैं एक पेड़ होताः गहरी जड़ों से एक जगह पर स्थित, मेरी टहनियों और पत्तों की विशाल छतरी लगातार सोखती, निर्माण और पुर्ननिर्माण करती, बिना किसी डर या आलोचना की चिंता किये। मैं परिवर्तनों का अभ्यस्त होता और हमेशा लोगों को सिर्फ अपना सब कुछ देता।

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