गाद प्रबन्धन से निकलेगी समाधान की राह

29 Aug 2016
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हिमालय से निकली नदियों में पानी के साथ गाद आने की समस्या नई नहीं है। बिहार, बंगाल और असम सदियों से इसे झेलते रहे हैं। इन राज्यों में गाद को व्यवस्थित करने की प्रकृति सम्मत व्यवस्था विकसित हुई थी। उस व्यवस्था के टूट जाने से यह समस्या विकराल हो गई है।

बिहार में नेपाल की ओर से आई नदियों में काफी मात्रा में गाद आती है। इस मामले में कोशी सबसे बदनाम नदी है। हिमालय के ऊँचे शिखरों से आई यह नदी बिहार में प्रवेश करने के थोड़ा ही पहले पहाड़ से मैदान में उतरती है। प्रवाह गति अचानक कम हो जाती है जिससे नदी सिल्ट छोड़ती है।

बैराज और तटबन्ध बनने के बाद वह गाद कुछ तो नदी के पेट में जमता है और कुछ प्रवाह के साथ बहते हुए गंगा में समाहित होती है। कोशी के गंगा में समाहित होने के तुरन्त बाद फरक्का आता है जहाँ बैराज की वजह से प्रवाह बाधित होती है और पानी तटों की ओर फैलता है। गाद तल में बैठता जाता है। इससे फरक्का के ऊपर गंगा उथली होती गई है।

इस उथलेपन का असर फरक्का के निकट के तटवर्ती इलाके पर होता है। चूँकी गंगा के दाहिने राजमहल की पहाडियाँ हैं, इसलिये नदी बाएँ तट पर तेजी से कटाव करती है। गंगा का बायाँ तटबन्ध हर साल कटाव का शिकार होता है। तटबन्ध थोड़ा पीछे हटकर बना दिया जाता है।

इस तरह गंगा तट के अनेक गाँव कटाव का शिकार होकर विलुप्त हो गए हैं। लेकिन कटाव और जल जमाव का यह प्रकोप मालदा जिले तक सीमित नहीं रहता। बैराज और उसके ऊपर जमा गाद की वजह से गंगा की धारा का उल्टा प्रवाह भी होता है। जिसका असर बिहार के कई जिलों में साफ दिखता है।

जब नदियों पर तटबन्ध नहीं बने थे तो बाढ़ का पानी पूरे इलाके में फैलता था। दो चार दस दिनों में बाढ़ का पानी उतरता तो खेतों में सिल्ट या गाद की महीन परत बिछी होती थी। वह गाद उर्वरता के गुणों से भरपूर होता था। पूरे इलाके में फैल जाने से समस्या नहीं बनता था, बल्कि खेतों की उर्वरता को बढ़ाने वाला अवयव साबित होता था।

इस सन्दर्भ में अंग्रेज इंजीनियर विलकॉक्स का नाम अक्सर लिया जाता है। उसने वर्धमान जिले में अध्ययन किया था। उनका कहना है कि प्राचीन काल में लोग नदियों की बाढ़ को अपने खेतों में ले जाने का इन्तजाम भी करते थे। गंगा में पटना नहर या बक्सर, मुंगेर आदि जगहों पर बाढ़ का पानी खेत में ले जाने की व्यवस्था के अवशेष दिख जाते हैं। लेकिन विभिन्न नदियों के तटबन्धों और बैराज से घिर जाने के बाद यह व्यवस्था टूट गई।

अब यह गाद तटबन्धों के भीतर नदी के पेट में जमा होता है जिससे नदी उथली होती जाती है। तटबन्धों के टूटने से बाढ़ आती है तो खेतों में मोटे बालू की परत बिछ जाती है। खेतों की उर्वरता समाप्त हो जाती है। जैसा कोशी के कुसहा त्रासदी में हुआ। गनीमत है कि गंगा ने अभी तक फुलाहार या मातला जैसी छोटी नदियों का प्रवाह मार्ग नहीं अपनाया है। वैसी स्थिति में कैसी तबाही आएगी, इसकी कल्पना भर की जा सकती है।

 

 

जब नदियों पर तटबन्ध नहीं बने थे तो बाढ़ का पानी पूरे इलाके में फैलता था। दो चार दस दिनों में बाढ़ का पानी उतरता तो खेतों में सिल्ट या गाद की महीन परत बिछी होती थी। वह गाद उर्वरता के गुणों से भरपूर होता था। पूरे इलाके में फैल जाने से समस्या नहीं बनता था, बल्कि खेतों की उर्वरता को बढ़ाने वाला अवयव साबित होता था। इस सन्दर्भ में अंग्रेज इंजीनियर विलकॉक्स का नाम अक्सर लिया जाता है। उसने वर्धमान जिले में अध्ययन किया था। उनका कहना है कि प्राचीन काल में लोग नदियों की बाढ़ को अपने खेतों में ले जाने का इन्तजाम भी करते थे।

कुसहा में कोशी बैराज का रक्षात्मक तटबन्ध नदी के पेट में जमा गाद की वजह से 18 अगस्त 2008 को टूट गया था। उस दिन नदी में सामान्य से कम प्रवाह था। तटबन्ध की देखरेख में कोताही हुई थी लेकिन असली कारण नदी तल में जमा गाद था, इसमें कोई शक नहीं।

गंगा की वतर्मान बदहाली के लिये फरक्का बैराज को सीधे तौर जिम्मेवार ठहराते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक तीन पेज का पत्र सौंपा है। फरक्का बैराज की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुए उन्होंने कहा है कि इससे लाभ के बजाय नुकसान अधिक है।

मुख्यमंत्री ने कहा है कि राष्ट्रीय गंगा बेसिन प्राधिकरण की पहली बैठक में 2009 में ही उन्होंने गंगा नदी के तल में भारी मात्रा में गाद जमा होने का मामला उठाया था। बाद में अन्तरराज्यीय परिषद और पूर्वी क्षेत्रीय परिषद की बैठक में भी यह मामला उठाते हुए राष्ट्रीय गाद प्रबन्धन नीति बनाने की माँग की।

इस पहल पर तत्कालीन जल संसाधन मंत्री ने मई 2012 में चौसा से फरक्का तक गंगा का हवाई सर्वेक्षण किया। फिर सेंट्रल वाटर एंड पावर रिसर्च स्टेशन द्वारा समस्या का अध्ययन कर समाधान सूझान की बात की गई। लेकिन अभी तक कुछ हुआ नहीं है। हालांकि गाद को निपटाने के बारे में कोशी क्षेत्र में एक प्रयोग चल रहा है।

वह प्रयोग कुसहा त्रासदी के बाद खेतों में एकत्र गाद से बर्तन, टाइल्स आदि बनाने के बारे में है। लेकिन क्या इस तरह का प्रयोग गंगा में भी नहीं किया जा सकता? नदी के गाद से निपटने की एक व्यवस्था मिट्टी के बर्तन बनाना भी था। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कुम्हार आमतौर पर नदियों की मिट्टी का उपयोग ही करते थे। आज भी कोलकाता और बनारस आदि जगहों पर इसे देखा जा सकता है। पर बिहार में कुम्हारी का कारोबार करीब-करीब समाप्त हो गया है।
 

 

 

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