गाँधी-मार्ग का अभिभावक

8 Mar 2017
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अनुपम मिश्र
अनुपम मिश्र

रचनात्मक संस्थाओं के सम्पर्क में अस्सी के दशक से हूँ। मेरे लिये अच्छी बात यह रही कि इस दौरान जो भी सम्पर्क बना या जो भी काम किया वह वैसा ही काम था जिसे हम गाँधीवादी दृष्टि से देखते हैं। हालांकि गाँधीवाद शब्द इस्तेमाल करना खुद मुझे अच्छा नहीं लग रहा क्योंकि यह कभी राष्ट्रपिता को भी पसन्द नहीं आया था।

खैर! यह तो रही बातों को थोड़ी गहराई से समझने की बात। अपनी बात को आगे बढ़ाऊँ तो मेरे जीवन में जो सबसे बड़ी शख्सियत आये जिनके साथ मिलकर काम करने का अवसर मिला- वे थे प्रेमभाई। प्रेमभाई के साथ ही पहली बार दिल्ली आया। और इस तरह कह सकते हैं कि दिल्ली में अनुपम भाई से मुझे प्रेमभाई ने ही मिलाया।

अनुपम भाई पहली ही भेंट में मन पर गहरी छाप छोड़ गए। साहित्य की बहुत ज्यादा समझ नहीं पर यह समझता था कि अनुपम भाई जो लिखते हैं वह वाकई हर लिहाज से अनुपम ही होता है। सोचता था इनके साथ मिलकर कभी काम करने का मौका मिले तो जैसे एक पिपासु छात्र को श्रेष्ठ शिक्षक मिल जाएगा।

आखिरकार यह तमन्ना पूरी तो हुई लेकिन तकरीबन एक दशक के इन्तजार के बाद। मुझे याद है कि गाँधी-मार्ग में मैं जब आया तो वे इस पत्रिका के कार्यकारी सम्पादक थे। उन्होंने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के प्रकाशन की व्यस्तता के कारण सम्पादन का काम छोड़ दिया था। मुझे लगा ईश्वर ने एक बड़ा अवसर तो दिया लेकिन कुछ कमी रह गई।

एक दिन बहुत उदास होकर उनके पास पहुँचा और कहा कि अब ‘गाँधी-मार्ग’ का सम्पादन कैसे होगा। उन्होंने अपनी विनम्र और स्मित मुस्कान के साथ कहा, ‘मैं प्रतिष्ठान छोड़कर नहीं जा रहा हूँ भाई। सम्पादन की जिम्मेवारी छोड़ी है, गाँधी-मार्ग नहीं छोड़ा है। वैसे भी गाँधी-मार्ग हम सबके चलने के लिए है, न कि बैठकर कोई इसकी चाकरी करे, जैसे सरकारी राजमार्गों और पुल-पुलियों पर नाका बिठाकर टोल वसूलने वाले करते हैं। नए सम्पादक आएँगे वे और अच्छे से गाँधी-मार्ग निकालेंगे। मैं तो मदद में रहूँगा ही।’ थोड़े दिन ऐसा ही चला। पर बाद में बुरा यह हुआ कि कुछ वजहों से गाँधी-मार्ग का प्रकाशन बन्द हो गया।

सितम्बर 2006 में गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की संचालन समिति ने एक बार फिर उन्हें गाँधी-मार्ग की सम्पूर्ण जिम्मेवारी सौंपते हुए प्रकाशित करने का आग्रह किया उन्होंने दो दिन का समय माँगा। इन दो दिनों में उनसे कई दौर की बात हुई। उन्होंने गाँधी-मार्ग के प्रकाशन के आर्थिक सामाजिक सरोकार से मुझे अवगत कराया। प्रकाशन के हर छोटे-छोटे पहलू बताए। कहा कि वर्तनी का ध्यान पहले कदम से होना चाहिए। मुझे उन्होंने पत्रिका को होने वाली तरह-तरह की समस्या से भी अवगत कराया।

दिसम्बर 2016 में अनुपम मिश्र द्वारा अन्तिम बार सम्पादित गाँधी मार्ग पत्रिकामेरे लिये यह सारा अनुभव बोधिवृक्ष के नीचे बैठकर सुनने और समझने का था। वे जो कह रहे थे वह तो गम्भीरता से मन में बैठ ही रहा था कहने और सिखाने का उनका तरीका कायल करता जा रहा था। इसी दौरान उनकी कही एक बात जो उनके न रहने पर सबसे ज्यादा याद आ रही है- वह है भाषा को लेकर उनकी हिदायत। उन्होंने कहा, ‘मनोज, यह भाषा का गाँधी-मार्ग है।’

खासतौर पर हम जैसे लोगों को यह हमेशा याद रखना होगा। हिंसा भाषा की भी होती है। भाषा भ्रष्ट भी होती है। दुर्भाग्य से पूरी हिन्दी पत्रकारिता ने जैसे भाषा का अनुशासन ही छोड़ दिया है। हमारे लिये जरूरी है कि हम सुन्दर, संवेदनशील और अहिंसक भाषाशैली को अपनाएँ। खुद गाँधीजी ने ऐसा किया। ‘गाँधी-मार्ग’ की भाषा ऐसी होनी चाहिए जिसमें न तो बेवजह का जोश दिखे और न ही नाहक का रोष। उनकी कही बातें तब जितनी नहीं समझी उससे ज्यादा तब-तब समझी जब वे ‘आज भी खरे हैं तालाब’ या ‘राजस्थान की रजत बूँदें’ के लेखन को लेकर अपना अनुभव साझा करते। वैसे मेरे लिये यहाँ यह साफ कर देना जरूरी है कि वे न तो आत्ममुग्ध इंसान थे और न ही उनके पूरे व्यक्तित्व में कोई ऊपर से ओढ़ी हुई बौद्धिकता। लिहाजा ये सारी बातें वे आत्मीयता से कह जाते और मेरे जैसा अकिंचन धन्य हो जाता।

एक बार फिर लौटता हूँ ‘गाँधी-मार्ग’ के पुनर्प्रकाशन पर। पत्रिका को लेकर जो कुछ भी उन्होंने बताया-समझाया, मैंने उन्हें गौर से सुना और उन्हें भरपूर सहयोग का भरोसा दिया। इस तरह दान में मिले एक छोटे से कम्प्यूटर पर कम्पोजिंग के साथ ‘गाँधी-मार्ग’ का काम फिर शुरू हुआ। उसके बाद गाँधी-मार्ग को लेकर उनका और मेरा साथ पूरे एक दशक तक चला। ईश्वर चाहता तो यह अक्षर सानिध्य और दीर्घायु होता पर हम सबके अनुपमभाई हमारे बीच नहीं रहे। ‘गांधी-मार्ग’ आज भी निकल रहा है। पर सोचा नहीं था कि कभी ऐसा भी होगा जब यह पत्रिका उनकी स्मृति में निकलेगा और यह काम भी किसी और के ही नहीं बल्कि मेरी जवाबदेही में शामिल होगा।

जो लोग भी बीते एक दशक में गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान आये होंगे और मेरे व अनुपमजी के सम्बन्ध को थोड़ा भी जानते होंगे, वे समझ सकते हैं कि यह काम मेरे लिये भावनात्मक रूप से कितनी बड़ी चुनौती है। आज जब उनकी स्मृति में निकल रहे पत्रिका के लेखों के संग्रह और सम्पादन का कार्य कर रहा हूँ तो तमाम ऐसे लोगों के अनुभवों के बीच से गुजर रहा हूँ जिन्हें कभी अनुपम भाई से मिलते-बतियाते देखता-सुनता था।

जीवन में कुछ भी निश्चित नहीं यह तो तय है लेकिन साथ में यह भी तय है कि कम-से-कम मेरे जैसे व्यक्ति के जीवन में अब कोई दूसरा अनुपम तो शायद ही आये। अनुपम भाई थे ही ऐसे कि उनकी जगह कोई नहीं ले सकता। अलबत्ता यह जरूर है कि उनसे मेरे जैसे न जाने कितने लोग न सिर्फ लिखना पढ़ना बल्कि अहिंसक-विचार की पूरी बारहखड़ी आज भी सीख रहे हैं।

कई भाषाओं में छपी आज भी खरे हैं तालाब पुस्तक का संग्रहदो दिसम्बर 2016 को गाँधी-मार्ग का नवम्बर-दिसम्बर अंक का अन्तिम लेख सम्पादित करके मुझे देते हुए उन्होंने कहा कि तुम जानते हो कि मैंने मृत्यु से मित्रता कर ली है। इसलिये यह मित्र किसी क्षण मुझे अपने पास बुला सकता है। मैं इस पल हूँ अगले पल नहीं हूँ। तुम सब लोग कैंसर से लड़कर बाहर आने की बात कर रहे हो। मैं तो इससे मित्रता कर ली है। यदि सम्भव हो तो यह अन्तिम अंक जल्द-से-जल्द पूरा कर छपवा कर मुझे दिखा दो।

मैंने यथासम्भव जल्द-से-जल्द गाँधी-मार्ग फाइनल कर 17 दिसम्बर 2016 को रात्रि 9 बजे पत्रिका लेकर एम्स में उनसे मिलने पहुँचा। मंजू भाभी ने उन्हें जगाया और कहा- मनोज जी आये हैं, ‘गाँधी-मार्ग’ छपकर आ गया है। वे तब गहरी पीड़ा में थे पर‘गाँधी-मार्ग’ की बात सुनकर एक तरह से पूरी चेतना में आ गए। हाथ में पत्रिका लेकर आगे-पीछे देखा और बोल पड़े- बहुत अच्छा। बधाई! कल आओ इस पर बात करेंगे। इतना कहकर वे फिर सो गए। उसके बाद वे जगे नहीं।

19 दिसम्बर को 5.40 सुबह हम सबको सन्तप्त छोड़कर चले गए। अपने मित्र के पास। बाद में विजय प्रताप जी ने बताया कि अनुपमजी अपने आखिरी वक्त में एक तरह से सब कुछ डिलीट करते जा रहे थे। ऐसे में उनकी स्मृति में मेरे जैसे आदमी का शेष रहना और कुछ नहीं ईश्वर का ही अनुपम प्रसाद है।

मैं गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में ही रहता हूँ जहाँ हर दिन राजघाट स्थित गाँधी स्मारक निधि के अपने आवास से अनुपमजी कभी पैदल तो कभी डीटीसी के बस से आते थे। दस साल तक उनका प्रतिष्ठान आना ऐसा ही था जैसे यह हमारी दिनचर्या का हिस्सा हो। पता नहीं वह दिन कभी आएगा भी कि नहीं जब अनुपम भाई को न देखकर भी उन्हें अपने संग न पाऊँ।

प्रतिष्ठान के साथ उनका लम्बा जुड़ाव था ही ऐसा कि यहाँ काम करने वाले सबके वे हमेशा प्रिय बने रहे। यहां तक कि बहुत ना-ना करने के बाद जब वे कुछ समय के लिये यहाँ कार्यकारी सचिव और बाद में सचिव पद की जवाबदेही सम्भाली तो न उन्होंने अपने बैठने की व्यवस्था बदली और न ही सहयोगियों के साथ सलूक। पता नहीं कैसे वे अपने व्यस्त दिनचर्या में भी हर एक के हर छोटी-बड़ी समस्या में स्नेह से सहयोग करते थे। सबका ध्यान रखते।

एक जीवन कैसे व्यवहार से लेकर अक्षर तक प्रेरक और अनुपम बनता है, अनुपम भाई इसके मिसाल थे। कभी कोई बात लिखते या बोलते हुए उनकी नसीहत जैसे मार्ग दिखाती है कि मर्म की जगह बेवजह का शब्दाडंबर क्यों? बात कहनी है तो सरलता से कहो, लेखन और कथन में इतना बनावटीपन क्यों? यह भी कि गाँधी का नाम लेने से न तो कोई बात बड़ी होती है और न ही कोई व्यक्ति। जीवन तो वैसे ही लोगों का अनुपम होगा, जो अनुपम भाई की तरह पानीदार होंगे।

पानी पर लिखने-बोलने वाला, पानी के संकट को लेकर सतर्क करने वाला वह शख्स आज भले हमारे बीच न हो पर हम सबको जैसे समझा रहा हो कि सीखना है तो मुझसे क्या, पानी से सीखो। सीखो उन पुरखों से जिन्होंने पानी के साथ कभी मनमानी नहीं की। भाषा भी तो रोड़े या पत्थर की तरह नहीं बल्कि पानी की तरह होनी चाहिए। पर पानीदार भाषा का झाँसा कोई दे भी सकता है इसलिये ज्यादा जरूरी है कि भाषा ही नहीं भाषी का जीवन भी पानी जैसा हो।

अनुपम भाई ने पानी पर बहुत लिखा, पर वह पानी के साथ धुलेगा नहीं बल्कि रचना और समाज से जुड़े लोगों को बार-बार यह याद दिलाएगा कि अगर कबीर के साथ उसका बेदाग चादर था तो हमारे समय को यह आगे बढ़कर कहना होगा कि हमारे साथ पानी है, पानी जैसी वाणी है और इन सबसे ज्यादा पानी का वह समन्वयी गुण है जो मेल कराता है, खल और खेल नहीं। यही तो वह गाँधी-मार्ग है जिस पर सालों अँगुली पकड़कर मुझ जैसे न जाने कितने मनोज को उन्होंने चलना सिखाया।

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