गाँव होंगे स्मार्टनेस की असली कुंजी

बेंगलुरु उन शहरों में है जहाँ अच्छे तरीके से ग्रामीण इलाकों का शहरीकरण किया गया और शहर को विस्तार मिला। वहाँ बनी इलेक्ट्रॉनिक सिटी गाँवों की जमीनों के सटीक उपयोग का ही नतीजा थी। इस शहर में अब विस्तार की ज्यादा सम्भावनाएँ बेशक नहीं दिखती हों तब भी अनुमान है कि इसका मौजूदा 99 वर्ग किलोमीटर का एरिया और बढ़कर 696 वर्ग किलोमीटर तक पहुँच जाएगा। इन आँकड़ों से समझा जा सकता है कि स्मार्ट सिटी को किस कदर गाँवों की जरूरत पड़ने वाली है।

भारत गाँवों में रहता है। हालाँकि वर्ष 2011 के जनसंख्या के आँकड़े बताते हैं कि बहुत तेजी से गाँवों के लोग शहर में आ रहे हैं। माना जाता है कि हर एक मिनट पर गाँव के 30 लोग शहर की ओर पलायन कर जाते हैं। शहरों का विकास हो रहा है। शहरों की सीमाएँ बढ़ रही हैं। उनकी सरहदों को छू रहे गाँव शहर का हिस्सा बन रहे हैं। फिलहाल देश की 34 फीसदी आबादी शहरों में रहती है। वर्ष 2041 तक ये आँकड़ा बढ़कर 50 फीसदी तक पहुँचने का अनुमान है। ऐसे में भविष्य में बनने वाले स्मार्ट शहरों पर दोहरी जिम्मेदारी होगी कि किस तरह वो भविष्य की बढ़ी आबादी के लिए तैयार है और कैसे आस-पास के गाँवों को शहरीकरण क लिए सुनियोजित ढँग से समायोजित कर पाते हैं।

भारत जैसे देश में शहरीकरण की रफ्तार यूरोप और चीन जैसे देशों की तुलना में धीमी रही है। चीन का शंघाई शहर वर्ष 1949 में महज 636.18 वर्ग किलोमीटर में फैला था और आबादी के लिहाज से देश का सबसे बड़ा शहर था। अब ये महानगर 6340.5 वर्ग किलोमीटर में फैल चुका है। इसमें 20 नगर और 10 उपनगरीय इलाके हैं। भारतीय शहरों का फैलाव वर्ष 1991 के बाद तब बढ़ता हुआ लगा जब यहाँ आर्थिक परिदृश्य बदलने लगा। ये समय की जरूरत थी। नई आर्थिक नीतियों का तकाजा भी। नए ग्रामीण-शहरी इलाकों का उदय होने लगा। शहरों में जमीनें महँगी और जगह कम थी। लिहाजा विकास के लिए 90 के दशक में शहर की सीमाओं से सटे इलाकों में औद्योगिक से लेकर व्यावसायिक गतिविधियाँ संचालित करने के अवसर देखे जाने लगे। इस दौड़ में बहुत से शहरी म्युनिसिपल निकायों खुद से सटे गाँवों का शहरीकरण कर उनका बेहतर नियोजन किया। कुछ इस चुनौती के सामने लड़खड़ा गए। अब एक नया चरण सामने आने जा रहा है। ये देश में स्मार्ट सिटी का दौर होगा। अब समय का तकाजा ये होगा कि स्मार्ट शहर अपनी सीमाओं से जुड़े गाँवों को खुद से जोड़कर एक इकाई के तौर पर कितने स्मार्ट हो पाते हैं। स्मार्ट शहर की नई अवधारणा पर कितने खरे उतरते हैं।

हमारे तमाम बड़े शहरों के फैलाव में पिछले कुछ दशकों में बड़ा बदलाव आया है। मुंबई जैसे शहर के आसपास बसाए गए नवी मुंबई, ठाणे और वसई जैसे नए उपनगरों के बाद वहाँ ज्यादा फैलाव और शहरीकरण की गुंजाइश नहीं रह गई है। कुछ ऐसा ही हाल पुणे जैसे शहर का भी है। पुणे ने पिछले कुछ दशकों में करीब दो दर्जन गाँवों में खुद में समाहित किया लेकिन आज शहर में मिलाए गए इन ग्रामीण-शहरी इलाकों की अपनी मूलभूत समस्याएँ हैं। नए इलाके न तो ढँग से शहरी हो पाए और न ही अब ग्रामीण हैं। वहाँ शहर की सुविधाएँ नहीं पहुँच पाई हैं। बेशक प्रस्तावित पुणे स्मार्ट सिटी में 34 नए गाँवों को मिलाए जाने की योजना को शहर की नगरपालिका से हरी झंडी मिल चुकी है लेकिन सवाल वही है कि आगे आने वाले समय में ये शहर नए गाँवों का सुनियोजित शहरीकरण कैसे कर सकेगा। आप अगर पुणे के फैलाव को देखेंगे तो शायद हैरान रह जाएँगे। वर्ष 1857 में उनका एरिया 7.74 वर्ग किलोमीटर फैला था और 2013 में ये क्षेत्रफल बढ़कर 243.8 वर्ग किलोमीटर तक जा पहुँचा।

स्मार्ट सिटी का मतलब होता है कि वहाँ के निवासियों को सतत बिजली, पानी की आपूर्ति के साथ साॅलिड वेस्ट मैनेजमेंट, बेहतर परिवहन प्रणाली, स्वास्थ्य सेवाएँ, नागरिक प्रशासन और बेहतर टाउन प्लानिंग। परिप्रेक्ष्य में स्मार्ट सिटी का मतलब ये भी है कि वो शहर जो अपने निवासियों की जरूरतों और सुविधाओं के बारे में सोचे और उन कसौटियों पर खरा उतरे। वह अपनी व्यवस्थित संरचना के साथ वित्तीय तौर पर संतुलित और स्मार्ट हो। इसलिए देश में हाल में बने कुछ नए शहरों को स्मार्ट सिटी में तब्दील करने की अवधारणा इसलिए नाकाम हो गई, क्योंकि वो स्व वित्तीय पोषण के पैमाने पर खरे नहीं उतर सके। पुणे के सामने चुनौती ये है कि अतीत में उसने जिन गाँवों को शहर में मिलाया, वहाँ तक नियोजन को अमली जामा नहीं पहनाया जा पाया। मूलभूत सुविधाओं की भी दरकार बनी हुई है। हैदराबाद में तस्वीर अलग है। ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम की 36 गाँवों को मिलाने की योजना थी लेकिन न केवल नगर निगम के सदस्यों में ही इस पर सहमति बन पाई और न ही ग्राम पंचायत इसके लिए बहुत इच्छुक हैं। वो अपनी अलग पहचान बनाए रखना चाहते हैं। कोल्हापुर इसलिए स्मार्ट सिटी की दौड़ में चूक गया क्योंकि वहाँ का नगर निगम अपनी सीमाओं का विस्तार नहीं कर सका। किसी भी स्मार्ट सिटी के लिए आस-पास के ग्रामीण इलाके इसलिए जरूरी हैं क्योंकि बगैर पर्याप्त जगह के अनुमानित जनसंख्या वृद्धि और विकास की चुनौती से नहीं निपटा जा सकता।

हालाँकि स्मार्ट सिटी के लिए पहले 20 शहरों की घोषणा अगले साल होने वाली है लेकिन स्मार्ट सिटी के चुनौतीपूर्ण पहलुओं के मद्देनजर दिल्ली देश के उन चुनिंदा शहरों में है, जहाँ स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के लिए सारे आदर्श तत्व मौजूद लगते हैं। उन्हें कुछ प्रयासों से अगले दो तीन वर्षों में ही सम्भव भी किया जा सकता है। दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) अभी से अपनी ओर से दिल्ली को स्मार्ट सिटी बनाने की योजना को अमलीजामा पहनाने में जुट गया है। उसके अनुसार महानगर में अगले तीन वर्षों में चार सब-स्मार्ट सिटी आकार ले सकती है। हालाँकि योजना यहाँ पाँच सब स्मार्ट सिटी बनाने की है। महानगर को उसी लिहाज से पाँच जोन में बाँटा गया है।

दिल्ली के गाँवों का इस शहर में मिलते जाने का इतिहास भी कम रोचक नहीं है। ये महानगर कुछ इस तरह बसा है कि इसके अंदर और बाहर दोनों ओर गाँव बसे हुए हैं। समय के साथ कुछ गाँवों का नियोजन इस तरह से शहर में किया गया कि आज वो राजधानी का सुनियोजित हिस्सा हैं। वर्ष 1908 में जब दिल्ली के भूमि राजस्व विभाग ने शहर और गाँवों की हदबंदी की थी तब दिल्ली में 362 गाँव थे। उन्हें लाल डोरा भी कहा जाता था। इन्हें लाल डोरा कहे जाने की भी कहानी है, चूँकि विभाग ने हदबंदी की माप जोख के लिए लाल डोरे का इस्तेमाल किया था लिहाजा इसे लाल डोरा कहा जाने लगा। वर्ष 1957 में दिल्ली नगर निगम बनने के बाद अब तक करीब 135 गाँव शहरी क्षेत्र का हिस्सा बन चुके हैं। उन्हें शहर की प्लानिंग की दृष्टि से विनियमित करने की कोशिश की गई है। करीब 227 गाँवों में करीब 89 गाँव डीडीए के प्रस्तावित स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने वाले हैं। अपवाद हो सकते हैं लेकिन दिल्ली को देखकर लगता है कि यहाँ काफी हद तक गाँवों को नियोजित करने की कोशिश की गई है। बेशक विसंगतियाँ हैं, समस्याएँ भी आ रही हैं।

दिल्ली में फिलहाल आबादी 1.82 करोड़ है जो अगले कुछ वर्षों में 2.3 करोड़ हो जाएगी। मौजूदा दिल्ली में ही पर्याप्त जगह निकालने के लिए डीडीए ने महानगर को पाँच जोन में बाँटा है। इनमें मौजूदा कालोनियों, इलाकों के साथ गाँवों और बाहरी इलाकों को भी जोनों में शामिल किया गया है। दिल्ली विकास प्राधिकरण को उम्मीद है कि उसकी नई भूमि संचयन या भूमि एकत्रीकरण नीति से 20 हजार से 25 हजार हेक्टेयर तक जमीन हासिल हो सकेगी, जिसके जरिए वो शहर की तस्वीर बदलने की योजना को साकार कर पाएगा। इसके तहत इच्छुक किसान और भूमि स्वामी अपनी जमीन विकास शुल्क के साथ डीडीए को दे सकेंगे। डीडीए इन्हें विकास के लिए स्टेट डेवलपर्स को देगा। विकसित किए जाने के बाद इसका 60 फीसदी तक हिस्सा उसके मालिक को वापस दे दिया जाएगा। बाकी विकसित एरिया डीडीए को मिलेगा।

एक बार डीडीए द्वारा विकास हो जाने के बाद ये सम्पत्ति न केवल नियमित हो जाएगी बल्कि इसकी कीमत में काफी बड़ा इजाफा होगा। ये भूमि स्वामी के ऊपर होगा कि वो विकसित सम्पत्ति का उपयोग किस तरह करता है, वो इसे बेच भी सकता है या फिर मास्टर प्लान में दी गई योजना के अनुसार इसका उपयोग भी कर सकेगा। हालाँकि इस योजना को लेकर किन्तु परन्तु वाली स्थिति है, सवाल पूछे जा रहे हैं कि कोई भूमि स्वामी अपनी जमीन का विकास शुल्क क्यों देगा, उससे उसे क्या फायदा मिलेगा। डीडीए मानता है कि एक बार इस पर आधिकारिक संस्था द्वारा विकसित किए जाने की मुहर लगने के बाद इस जमीन के दामों में जबरदस्त उछाल आएगा। खरीदार इसे मुँहमाँगी कीमत पर लेना चाहेंगे। वहीं डीडीए को ये फायदा होगा कि वो इन जमीनों को हासिल करने के बाद वांछित तरीके से शहर में स्मार्ट सिटी की योजनाओं, नियोजन और सुविधाओं पर अमल कर सकेगा। हालाँकि ये योजना अभी एकदम शुरुआती चरण में है। अगर ऐसा हो गया तो देश की राजधानी अन्य शहरों के लिए मिसाल और माॅडल बन सकेगी।

इसी तरह कोलकाता को लेकर माना जा रहा है कि अगले दस वर्षों में वहाँ शहरी फैलाव की दर सबसे ज्यादा होने वाली है। इसके लिए पश्चिम बंगाल में याजनाएँ बनने लगी हैं। आस-पास के गाँवों को शहर में मिलाने की बातें हो रही हैं। फिलहाल कोलकाता का फैलाव 158 वर्ग किलोमीटर में है और वर्ष 2025 तक इसका फैलाव 1851 वर्ग किलोमीटर होने की उम्मीद है। यानी 901 फीसदी बढ़ोत्तरी। बेंगलुरु उन शहरों में है जहाँ अच्छे तरीके से ग्रामीण इलाकों का शहरीकरण किया गया और शहर को विस्तार मिला। वहाँ बनी इलेक्ट्रॉनिक सिटी गाँवों की जमीनों के सटीक उपयोग का ही नतीजा थी। इस शहर में अब विस्तार की ज्यादा सम्भावनाएँ बेशक नहीं दिखती हों तब भी अनुमान है कि इसका मौजूदा 99 वर्ग किलोमीटर का एरिया और बढ़कर 696 वर्ग किलोमीटर तक पहुँच जाएगा। इन आँकड़ों से समझा जा सकता है कि स्मार्ट सिटी को किस कदर गाँवों की जरूरत पड़ने वाली है।अहमदाबाद, कोच्चि, कोयम्बटूर, कोटा, रेवाड़ी कुछ ऐसे शहर हैं, जहाँ पिछले दो दशकों में बहुत तेजी से औद्योगिकीकरण हुआ तो आबादी भी बढ़ी। ऐसे में शहरी निकायों पर नियोजन पर भी उतना दबाव बढ़ा। भारतीय शहर पहले ही आबादी और अनियन्त्रित विकास से लबालब हो रहे हैं। दिल्ली से सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के इलाकों को ही देख लीजिए। जब तीन दशक पहले एनसीआर इलाके में नए शहरों की नींव पड़ रही थी, तब उन्हें उस समय के लिहाज से स्मार्ट सिटी की अवधारणा से ही तैयार किया गया था। अगर नोएडा, गुड़गाँव, फरीदाबाद जैसे इलाके नहीं होते तो दिल्ली का न जाने क्या हाल होता। लेकिन एनसीआर के उस जमाने के ये स्मार्ट शहर भी फैलाव की जरूरत महसूस कर रहे हैं।

वर्ष 1981 में जब गुड़गाँव को स्मार्टसिटी बनाने की योजना शुरू हुई तब यहाँ की आबादी महज एक लाख थी और 2011 में ये 15 लाख से ऊपर पहुँच चुकी थी। जैसे-जैसे यहाँ आबादी और सुविधाओं का दबाव बढ़ रहा है, आस-पास के गाँवों को भी इसमें समेटा जा रहा है। कुछ ऐसी ही स्थिति नोएडा की है। पिछले दो दशकों में यहाँ आबादी बीस गुना बढ़ चुकी है। ग्रेटर नोएडा अपेक्षाकृत नया है। उसका फैलाव 50 वर्ग किलोमीटर का है लेकिन अगले दस वर्षों में इसमें 140 फीसदी विस्तार होने की उम्मीद है। इसके लिए अभी से ये शहर आस-पास के ग्रामीण इलाकों तक अपनी शहरीकरण योजनाएँ बनाने में जुट गया है।हालाँकि इन स्मार्ट सिटी के बनने और आकार लेने के साथ ही एक बड़ा सवाल ये भी होगा कि जितने बड़े पैमाने पर तमाम राज्यों से सैकड़ों-हजारों लोग दिल्ली और एनसीआर में पहुँचते हैं, उसका बोझ ये स्मार्टसिटी भी कब तक बर्दाश्त कर पाएँगी और आने वाले वर्षों के लिए क्या वो उसके लिए तैयार हैं या हमें स्मार्टसिटी तैयार करने के साथ नए प्रवासियों को लेकर भी कुछ नियम तय करने होंगे।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लगभग ढाई दशक से बहुविध विषयों पर लेखन कर रहे हैं। प्रकाशित पुस्तकें: 1857 से लेकर 1947 वे 90 साल, मर्लिन मुलरो-स्वप्न परी, क्रिकेट के चर्चित विवाद आदि। संप्रति एक राष्ट्रीय दैनिक से जुड़े हैं। ईमेल: sanjayratan@gmail.com

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