गाँवों के लिए पेयजल

8 Feb 2015
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भारत में जल आपूर्ति की मात्रा और गुणवत्ता बेहतर करने की माँग बढ़ रही है। संशोधित कार्यक्रम में इस बात की जरूरत महसूस की गई है कि उपलब्ध साधनों के जरिए सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। इस कार्यक्रम में परम्परागत और गैर-पम्परागत दोनों प्रकार के स्रोतों के अधिकाधिक प्रयोग की बात कही गई है। इस बात के उपाय भी शामिल किए गए हैं कि जिस सतही जल का इस्तेमाल पीने के लिए किया जाए, उसे मानव और पशु मल से प्रदूषित होने से बचाया जाए। अब ज्यादा ग्रामवासियों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध है। पहले जहाँ यह सुविधा जनसंख्या के 65 प्रतिशत लोगों को मिल रही थी, वहीं 2001 तक देश की 90 प्रतिशत आबादी को यह सुविधा मिलने लगी। भारत सरकार इसके लिए हर साल लगभग 45 अरब रुपए ख़र्च करती है। इन आँकड़ों को देखने से जाहिर होगा कि जल्दी ही भारत के लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की समस्या हल हो जाएगी। लेकिन आँकड़ों से पूरी बात सामने नहींं आती।

ग्रामीण भारत के लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में गम्भीरता के साथ पहला कदम 1972-73 में त्वरित ग्रामीण जल आपूर्ति कार्यक्रम के रूप में उठाया गया। इस कार्यक्रम को मिशन का दर्जा प्रदान किया गया और इसके लिए पेयजल पर प्रौद्योगिकी मिशन का गठन किया गया, जिसे 1991-92 अ में राजीव गाँधी राष्ट्रीय पेयजल मिशन नाम दिया गया।

पेयजल आपूर्ति को भारत निर्माण के 6 में से एक घटक के रूप में शामिल किया गया है। जैसाकि ऊपर कहा गया है, इन योजनाओं के परिणामस्वरूप देश के काफी बड़े ग्रामीण इलाकों को सुरक्षित पेय जल की सुविधा मिली। लेकिन जहाँ इससे लाभान्वित होने वाले इलाकों की संख्या बढ़ गई, वहीं अध्ययनों से जाहिर हुआ कि पेय जल उपलब्ध कराने का काम, खासतौर से ग्रामीण इलाकों में समस्याओं से मुक्त नहींं है। अनेक बस्तियाँ इस कार्यक्रम से लाभान्वित मानी जाती हैं, लेकिन बाद में उन्हें आंशिक रूप से लाभान्वित या अलाभान्वित वर्ग में रख दिया जाता है।

इससे स्पष्ट होता है कि इस उद्देश्य से चलाई जा रही विभिन्न योजनाएँ कारगर नहींं हैं। उनके जरिए आपूर्ति किया जाने वाला पानी पर्याप्त नहींं है, आपूर्ति अनियमित है और पानी की गुणवत्ता उन सुरक्षित मानकों पर खरी नहींं उतरती जिन्हें केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड ने तय किया है। इन योजनाओं के अन्तर्गत पानी आपूर्ति की जो मूल सुविधाएँ सृजित की गईं, बाद में पाया गया कि उन्हें ठीक ढंग से अनुरक्षित नहींं किया जा रहा है और उनसे पूरालाभ नहींं उठाया जा रहा है, जिसके कारण लोगों को बड़े पैमाने पर असुविधा का सामना करना पड़ता है। विश्व बैंक के अध्ययन के अनुसार इन योजनाओं के अन्तर्गत हर आवास पर औसतन 81 रुपए महीने का भार पड़ रहा है।

इसी अध्ययन से यह भी स्पष्ट हुआ कि बर्बादी और अकुशलता के चलते पाइप के जरिए पेयजल उपलब्ध कराने की योजनाओं में प्रति किलोलीटर ख़र्च भी बहुत ज्यादा हो रहा है। इसके अलावा, मूल सुविधाओं के अनुरक्षण और मरम्मत पर भी लोगों को भारी ख़र्च उठाना पड़ रहा है। लोगों को अपने घरों में पानी इकट्ठा करके रखने और साफ करने पर भी ख़र्च करना पड़ रहा है। उन्हें अनेक स्रोतों से पानी प्राप्त करने की व्यवस्था करने को मजबूर होना पड़ता है।

इस काम में उनका जितना समय और परिश्रम लगता है, वह काफी ज्यादा है और अपेक्षाकृत उत्पादकता कम है। इसके परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों का विकास कम हुआ। स्पष्ट है कि इन योजनाओं के जरिए क्षेत्र विशेष में पेयजल की सुविधा के प्रति जागरुकता बढ़ी। लेकिन उनके जरिए आपूर्ति किए जाने वाले पेयजल की न तो गुणवत्ता बनाए रखी जा सकी, और न ही आपूर्ति की मात्रा ही। इस प्रकार से ये योजनाएँ लाभार्थियों के जीवन पर वांछित प्रभाव डालने में विफल रहीं।

योजनाओं की अकुशलता के चलते ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि इन योजनाओं पर जितना पैसा ख़र्च किया गया, उसके अनुपात में उनसे लाभ नहींं प्राप्त हो सका। पेयजल आपूर्ति योजनाओं की अगर सावधानी से समीक्षा करें तो जाहिर होगा कि उनके डिजाइन बनाने और कार्यान्वयन में गम्भीर खामियाँ थीं। भारत की अधिकांश जल आपूर्ति योजनाओं का प्रमुख उद्देश्य आपूर्ति करना होता है और इसके लिए सरकारी योजनाएँ इस तरह से तैयार की जाती हैं कि उनमें स्थानीय समुदायों की काफी भागीदारी नहींं हो पाती।

सिद्धांत रूप में देखा जाए तो ऐसी योजनाएँ क्षेत्र नियोजन के लाभ तो दे पाती हैं और इनके कारण संसाधनों के इष्टतम आवण्टन में सहायता मिलती है, लेकिन जमीनी स्तर पर आपूर्ति आधारित योजनाएँ बहुत कारगर नहींं हो सकीं। पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में माँग आधारित दृष्टिकोण पर जोर दिया जाता रहा है। उदाहरण के लिए स्वजलधारा योजना को लें, जिसके अन्तर्गत ग्रामीण जल एवं स्वच्छता समिति और पंचायती राज निकायों को प्रमुख भूमिका रहती है। योजनाओं की योजना और डिजाइन बनाते समय ही इन निकायों से सलाह नहींं ली जाती, बल्कि लागत में साझीदारी तन्त्र के जरिए भी वे इनके साथ जुड़े होते हैं और मूल सुविधाओं के प्रबन्धन में उनकी भागीदारी होती है।

इस दृष्टिकोण के जरिए पंचायती राज निकायों और स्थानीय समुदायों की जवाबदेही सुनिश्चित होती है और इसके बेहतर नतीजे सामने आते हैं। हाल ही में विश्व बैंक ने एक अध्ययन प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है भारत में ग्रामीण जल आपूर्ति योजनाओं की प्रभावशीलता। इस अध्ययन में परम्परागत रूप से आपूर्ति आधारित योजनाओं का विश्लेषण किया गया है और हाल की विकेन्द्रीकृत माँग आधारित और समुदाय के नेतृत्व वाली योजनाओं का भी अध्ययन किया गया है।

इस अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि आपूर्ति आधारित योजनाएँ संस्थागत लागत के मामले में बहुत महँगी (लगभग 24 प्रतिशत) पड़ती हैं और इनमें कर्मचारियों के वेतन और अन्य फुटकर ख़र्चों का अनुपात ज्यादा रहता है। यही नहींं, इन योजनाओं में उपलब्ध निधियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा संचालन और अनुरक्षण ख़र्चों में जाता है।

इसके बाद जल आपूर्ति सम्बन्धी मूल सुविधा निर्माण के लिए थोड़ी ही रकम बच पाती है। इनकी तुलना में समुदाय की देख-रेख में चल रहे कार्यक्रमों में संस्थागत लागत काफी कम यानी लगभग 11 प्रतिशत बैठती है। इसके साथ ही, उम्मीद की जाती है कि पूँजी लागत और संचालन एवं अनुरक्षण ख़र्च का 10 प्रतिशत हिस्सा समुदायों से मिलेगा। जब भी लाभार्थियों को संचालन एवं अनुरक्षण लागत के बढ़ते ख़र्च को बरदास्त करना पड़ता है तो सरकारी निधियों का इस्तेमाल अधिक कारगर होता है।

पाइप के जरिए आपूर्ति किए जाने की योजनाओं के मामले में देखा गया है कि वित्तीय निरन्तरता का आधार माने जाने वाले लागत वसूली तन्त्र का कामकाज माँग आधारित योजनाओं में 71 प्रतिशत होता है, जबकि आपूर्ति आधारित योजनाओं में यह ख़र्च 46 प्रतिशत बैठता है। यही नहींं, प्रति किलोलीटर जल आपूर्ति के मामले में आपूर्ति आधारित योजनाएँ महँगी पड़ती हैं। अगर हम विश्वसनीयता और पर्याप्तता की नजर से देखें, तो माँग आधारित योजनाओं का कामकाज आपूर्ति आधारित योजनाओं की अपेक्षा बेहतर नजर आता है।

इस सन्दर्भ में विश्वसनीयता और पर्याप्तता का मतलब है आपूर्ति का नियमित होना और इन योजनाओं के द्वारा पानी की घरेलू जरूरत पूरी करना। माँग आधारित योजनाओं के स्पष्ट लाभों के बावजूद निधियों के प्रवाह के मामले में अब भी आपूर्ति आधारित योजनाओं की बेहतर स्थिति है। आपूर्ति आधारित कार्यक्रमों को 85 प्रतिशत से ज्यादा निधियाँ आवंटित की जा चुकी हैं।

लेकिन माँग आधारित दृष्टिकोण में भी कई तरह की सीमाएँ हैं। ऐसी अधिकांश योजनाएँ किफायत का लाभ नहींं उठा पातीं, क्योंकि उनका आकार छोटा होता है। कुछ मामलों में स्थानीय रूप से उपलब्ध जलस्रोतों की क्षमता कम होती है और वे आवासों की जरूरतें खासतौर से गर्मी के महीनों में पूरी करने में नाकाम हो जाते हैं।

पाइप के जरिए आपूर्ति किए जाने की योजनाओं के मामले में देखा गया है कि वित्तीय निरन्तरता का आधार माने जाने वाले लागत वसूली तन्त्र का कामकाज माँग आधारित योजनाओं में 71 प्रतिशत होता है, जबकि आपूर्ति आधारित योजनाओं में यह ख़र्च 46 प्रतिशत बैठता है। यही नहींं, प्रति किलोलीटर जल आपूर्ति के मामले में आपूर्ति आधारित योजनाएँ महँगी पड़ती हैं। अगर हम विश्वसनीयता और पर्याप्तता की नजर से देखें, तो माँग आधारित योजनाओं का कामकाज आपूर्ति आधारित योजनाओं की अपेक्षा बेहतर नजर आता है। उक्त बातों के अलावा उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और कई अन्य राज्यों में कुछ और समस्याएँ देखने को मिली हैं। अगर इन योजनाओं से लाभ उठाने वालों की संख्या लक्ष्य के मुकाबले कम होती है, तो इनकी प्रतिव्यक्ति मूल सुविधा लागत बढ़ जाती है। इसके कारण योजना की वित्तीय सम्भाव्यता पर बोझ पड़ता है। साथ ही, अनेक ऐसे मामले भी देखे गए हैं, जब किसी एक स्कीम के पूरक के रूप में कई और योजनाएँ चलानी पड़ती हैं, क्योंकि मूल योजना प्रभावी ढंग से काम नहींं कर रही होती हैं।

इस प्रकार से एक ही क्षेत्र में कई योजनाएँ शुरू करने से कुल मिलाकर इलाके को मिलने वाली सेवा की लागत बढ़ जाती है और सरकार को उन पर अधिक ख़र्च करना पड़ता है। माँग आधारित दृष्टिकोण के साथ कार्यान्वित की जाने वाली योजनाओं में प्रमुख चुनौती उसे सही ढंग से लागू करने में आती है। इन मामलों में पंचायती राज निकायों और अन्य स्थानीय संस्थाओं को ही जिम्मेदारी सौंप देना काफी नहींं है।

अक्सर राज्य और गैर-सरकारी संगठनों को स्थानीय समुदायों की क्षमता निर्माण के मामले में सुविधा प्रदाता की भूमिका निभानी पड़ती है ताकि वे निधियों का प्रबन्ध कर सकें और सभी कार्य पूरे करें। परियोजना कार्यान्वयन के सभी चरणों में समुदाय की भागीदारी मजबूत करने के लिए प्रतिनिधि समितियाँ गठित करनी पड़ती हैं। इन सभी चरणों में नियोजन, डिजाइनिंग, निर्माण और अनुरक्षण शामिल हैं।

अच्छी ख़बर यह है कि राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम की रूपरेखा में संशोधन किया जा रहा है । उम्मीद है कि इन संशोधनों के जरिए इन मुद्दों पर ध्यान दिया जाएगा। राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम का उद्देश्य ग्रामवासियों को पर्याप्त मात्रा में सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराना है जो उनकी खाना बनाने और अन्य बुनियादी घरेलू जरूरतें अबाध रूप से पूरी कर सकें। संशोधित कार्यक्रम का पूरा जोर प्रतिव्यक्ति उपलब्धता का सिर्फ लक्ष्य पूरा करना ही नहींं, बल्कि आवास स्तर पर पेयजल सुरक्षा का स्तर प्राप्त करना है।

यह सकारात्मक कदम है क्योंकि बाद वाला उद्देश्य पूरा कर लेने का लक्ष्य आवश्यक रूप से यह नहींं है कि किसी बस्ती के सारे लोगों को सुरक्षित पेयजल मिलने की गारण्टी हो गई। इस कार्यक्रम में नयी नीतियाँ बनाई गई हैं,जिनका उद्देश्य सामुदायिक दृष्टिकोण को प्रोत्साहित करना है। इसके लिए राज्यों के प्रबन्धन तन्त्र के विकेन्द्रीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा।

विकेन्द्रीकृत दृष्टिकोण के अनुसार पंचायती राज निकाय और स्थानीय समुदाय जल आपूर्ति योजनाओं के प्रबन्धन, संचालन और अनुरक्षण की जिम्मेदारी सम्भालेंगे।

इस कार्यक्रम में एक ही जलस्रोत पर निर्भर रहने के स्थान पर भूजल, सतही जल और वर्षा जल संग्रहण सहित अनेक जलस्रोतों को विकसित करने की जरूरत पर जोर दिया जा रहा है। इस पानी को इस्तेमाल करके पाइप लाइनों के जरिए लोगों को उपलब्ध कराया जाएगा।

भारत में जल आपूर्ति की मात्रा और गुणवत्ता बेहतर करने की माँग बढ़ रही है। संशोधित कार्यक्रम में इस बात की जरूरत महसूस की गई है कि उपलब्ध साधनों के जरिए सुरक्षा सुनिश्चित की जाए। इस कार्यक्रम में परम्परागत और गैर-पम्परागत दोनों प्रकार के स्रोतों के अधिकाधिक प्रयोग की बात कही गई है। इस बात के उपाय भी शामिल किए गए हैं कि जिस सतही जल का इस्तेमाल पीने के लिए किया जाए, उसे मानव और पशु मल से प्रदूषित होने से बचाया जाए।

वर्तमान व्यवस्था के अन्तर्गत जब एक ही तरह की जिम्मेदारी और भूमिका कई व्यक्ति या संस्थाएँ निभाने लगती हैं तो पारदर्शिता और जवाबदेही कम हो जाती है। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए विनियामकों, सम्पत्ति स्वामियों, नीति-निर्धारकों, सेवा प्रदाताओं तथा वित्त व्यवस्था करने वालों सहित सभी भागीदारों की भूमिका स्पष्ट रूप से परिभाषित होनी चाहिए।

लाभार्थियों को मूल्य चुकाने वाले ग्राहकों के रूप में बदलना पड़ेगा और उनमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता और इच्छा जागृत करनी होगी। इससे एक पारदर्शी और उत्तरदायी संरचना स्थापित करने में सहायता मिलेगी।

अब जबकि अधिकांश राज्यों में भूजल स्तर घटने लगा है, फसलों की सिंचाई के लिए भूजल के दोहन पर बहस महत्वपूर्ण हो गई है। अनुमान लगाया गया है कि लगभग 80 प्रतिशत ताजा पानी सिंचाई के काम में इस्तेमाल होता है। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि इसमें से 60 प्रतिशत पानी खेती के वर्तमान अकुशल तरीकों के कारण बर्बाद हो जाता है। संशोधित कार्यक्रम में इस समस्या पर ध्यान देते हुए इसे एक जटिल मुद्दा माना गया है और उन उपायों की चर्चा की गई है जिनके जरिए जल आपूर्ति सुविधाओं के क्षरण को रोका जा सकता है।

सामुदायिक रूप से भूजल की माॅनीटरिंग, सिंचाई के लिए पानी के इस्तेमाल की योजना तैयार करना और खेती के उन्नत तरीके अपनाना, इस व्यवस्था को बेहतर ढंग से बनाए रखने के उपायों के रूप में पहचाने गए हैं। हाल के वर्षों में गाँवों में पेयजल आपूर्ति के काम में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ी है। इस दिशा में प्रमुख मुद्दा दिन-प्रतिदिन के संचालन में कुशलता लाना है। अतः सेवा और प्रबन्धन संविदाओं पर खासतौर से जोर दिया जाना चाहिए। विनियमों और मूल्य निर्धारण में सुधार लाने के लिए राज्यों को अच्छी गुणवत्ता वाले जल शोधन संयन्त्र लगाना चाहिए और लोगों को वाजिब दरों पर अच्छी गुणवत्ता का पानी उपलब्ध कराना चाहिए।

इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि जल आपूर्ति योजनाओं का मूल्याँकन करते समय सिर्फ परियोजनाएँ स्वीकृत करने, निधियाँ जारी करने और निर्माण की प्रगति की दर पर ही निर्भर नहींं रहना चाहिए बल्कि इन योजनाओं के कामकाज की सफलता सेवाओं की गुणवत्ता और लाभार्थियों के रहन-सहन पर पड़े उनके प्रभाव के आधार पर आँका जाना चाहिए। इन उपायों के जरिए ग्रामीण जल आपूर्ति व्यवस्था की खामियों को कारगर ढंग से दूर किया जा सकेगा।

लेखक योजना आयोग के कार्यक्रम मूल्याँकन संगठन विभाग से सम्बद्ध हैं।
ई-मेलः anantsankalp@gmail.com

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