ग्लोबल वार्मिंग : खतरे में धरती (Global Warming : Earth In Danger)


मानव की विवेकहीनता के कारण तीन से पाँच अरब वर्ष पुरानी पृथ्वी को अब खतरा पैदा हो गया है। लोगों को आगाह करने के लिये हर वर्ष 22 अप्रैल को संपूर्ण विश्व में पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। पिछले कई वर्षों से यह रस्म पूरी की जा रही है किन्तु पृथ्वी पर मँडराता यह खतरा जस का तस बना हुआ है। कारण बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारा समाज एवं आम आदमी ही नहीं विभिन्न देशों की सरकारें भी इस समस्या के प्रति बिल्कुल गंभीर नहीं हैं। कथनी और करनी में फर्क के चलते हमारी पृथ्वी तेजी से अंधेरे की ओर बढ़ रही है। पृथ्वी को संकट से बचाने के लिये विकसित देश पर्यावरण संरक्षण की बढ़-चढ़कर बातें करते हैं किन्तु उस पर अमल करने की बात पर टालमटोल करने लग जाते हैं। बढ़ते तापमान एवं जलवायु की बिगड़ती स्थिति से अब कोई भी देश अछूता नहीं रह गया है। जेनेवा स्थित 185 देशों के समूह विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने यूरोप, अमेरिका और एशिया के कुछ हिस्सों पर गहन विश्लेषण के बाद यह चेतावनी दी कि हमारे पास अब जरा भी मोहलत नहीं है।

पृथ्वी को लगातार बढ़ते तापमान एवं बिगड़ते वायुमंडलीय प्रभाव को बचाना है तो त्वरित एवं सख्त कदम उठाने होंगे। डब्ल्यू.एम.ओ. के मुताबिक सभी प्राकृतिक आपदाओं (बढ़ता तापमान, भारी वर्षा और भयंकर सूखा) के चलते ग्लोबल वार्मिंग ने पिछले 100 वर्षों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। उत्तरी गोलार्द्ध से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार अनुमान लगाये जा रहे हैं कि पिछले 1000 वर्षों में किसी भी शताब्दी के मुकाबले 20वीं शताब्दी में तापमान ज्यादा तेजी से बढ़ा है। पृथ्वी का तापमान आखिर निरन्तर क्यों बढ़ रहा है?

धरती गरमाने के लिये ग्रीन हाउस गैसें उत्तरदायी हैं। इन गैसों में कार्बन डाइआक्साईड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी.), नाईट्रिक ऑक्साइड व मीथेन प्रमुख हैं। सूर्य की किरणें जब पृथ्वी पर पहुँचती हैं तो अधिकांश किरणें धरती स्वयं सोख लेती है और शेष किरणों को ग्रीन हाउस गैस सतह से कुछ ऊँचाई पर बन्दी बना लेती हैं। जिससे पृथ्वी का तापमान बढ़ जाता है। वायुमंडल में लगभग 15 से 25 किलोमीटर की दूरी पर समताप मंडल में इन गैसों के अणु ओजोन से ऑक्सीजन के परमाणु छीन लेते हैं और ओजोन परत में छेद कर देते हैं जिससे सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणें लोगों को झुलसाने लगती हैं। विश्व स्तर पर सुनिश्चित किया जा चुका है कि सी.एफ.सी. से निकलने वाला क्लोरीन का एक परमाणु शृंखला अभिक्रिया के परिणामस्वरूप ओजोन के 10000 परमाणुओं को नष्ट कर देता है।

विकसित औद्योगिक देश अपने ऐश्वर्य के लिये ग्रीन हाउस गैसों में 80 प्रतिशत बढ़ोत्तरी करते हैं जबकि विकासशील देश अभी भी अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये कड़ा संघर्ष कर रहे हैं। हमारे देश में प्रतिवर्ष लगभग 0.4 किग्रा. प्रतिव्यक्ति के हिसाब से सी.एफ.सी. का इस्तेमाल हो रहा है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अपनी जीवनशैली के चलते अकेला अमेरिका (जहाँ विश्व की मात्र 4 प्रतिशत जनसंख्या रहती है) 25 प्रतिशत ग्लोबल वार्मिंग के लिये जिम्मेदार है। एक अमेरिकी एक भारतीय से 18 गुना ज्यादा वायु को प्रदूषित करता है।

स्रोत बताते हैं कि संपूर्ण विश्व में सी.एफ.सी. का 43 प्रतिशत हिस्सा अकेले यूरोप में इस्तेमाल होता है। (तालिका-1) जबकि दक्षिण एशिया के तमाम देश मिलकर वर्ष भर में केवल 6 प्रतिशत सी.एफ.सी. का ही इस्तेमाल करते हैं। वायुमंडल में सी.एफ.सी. की मात्रा बढ़ाने में किसी देश की साझेदारी कम या अधिक हो सकती है किन्तु इससे होने वाले दुष्प्रभावों का खामियाजा सभी को समान रूप से भुगतना होता है। इससे भयावह बात और क्या हो सकता है कि सी.एफ.सी. से जितना प्रदूषण विश्व में एक वर्ष में होता है, उसके प्रभाव को नष्ट करे में 46 से 58 वर्ष लग जाते हैं।

 

तालिका - 1


विभिन्न देशों द्वारा सी.एफ.सी. गैसों का उत्सर्जन

देश

सी.एफ.सी. गैसों का उत्सर्जन (अरब मीट्रिक टन कार्बन में)

संयुक्त राज्य अमेरिका

350.0

ब्राजील

16.0

चीन

32.0

भारत

0.7

जापान

100.0

 

वायुमण्डलीय तापमान में बढ़ रहे असंतुलन का खामियाजा मनुष्य ही नहीं पेड़-पौधे और पशु-पक्षी भी भुगत रहे हैं। पशुओं और पेड़-पौधेां की 11000 प्रजातियाँ या तो समाप्त हो चुकी हैं या समाप्त होने के कगार पर पहुँच गयी हैं। प्रतिवर्ष ग्लोबल वार्मिंग में 15 मिलियन हेक्टेयर वन क्षेत्र नष्ट हो जाता है। ‘द फ़्यूचर ऑफ लाइव’ नामक अपनी पुस्तक में हार्वर्ड भूवैज्ञानिक एडवर्ड ओ. विल्सन ने चिंता जताई है कि यदि हमने अपना रहन-सहन नहीं बदला तो इस शताब्दी के अंत तक पचास प्रतिशत प्रजातियाँ समाप्त हो जायेंगी।

‘वर्ल्ड वॉच इंस्टीट्यूट’ की एक रिपोर्ट के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ने से समुद्र का जलस्तर धीरे-धीरे ऊँचा उठ रहा है। पिछले 50 वर्षों में अंटार्कटिक प्रायद्वीप का 8000 वर्ग किलोमीटर का बर्फ का क्षेत्रफल पिघलकर पानी बन चुका है। पिछले 100 वर्षों के दौरान समुद्र का जलस्तर लगभग 18 सेंटीमीटर ऊँचा उठा है। इस समय यह स्तर प्रतिवर्ष 0.1 से 0.3 सेंटीमीटर के हिसाब से बढ़ रहा है। समुद्र जलस्तर यदि इसी रफ्तार से बढ़ता रहा तो अगले 100 वर्षों में दुनिया के 50 प्रतिशत समुद्रतटीय क्षेत्र डूब जायेंगे।

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के एक सर्वेक्षण के अनुसार अगर ग्लोबल वार्मिंग इसी तरह बढ़ता रहा तो भारत में बर्फ पिघलने के कारण गोवा के आस-पास समुद्र का जलस्तर 46 से 58 सेमी, तक बढ़ जाएगा। परिणामस्वरूप गोवा और आंध्रप्रदेश के समुद्र के किनारे के 5 से 10 प्रतिशत क्षेत्र डूब जायेंगे।

समस्त विश्व में वर्ष 1998 को सबसे गर्म एवं वर्ष 2000 को द्वितीय गर्म वर्ष आंका गया है। पश्चिमी अमेरिका की वर्ष 2002 की आग पछले 50 वर्षों में किसी भी वनक्षेत्र में लगी आग से ज्यादा भयंकर थी। बढ़ते तापमान के चलते सात मिलियन एकड़ का वन क्षेत्र आग में झुलस गया।

आज हमारी धरती तापयुग के जिस मुहाने पर खड़ी है, उस विभीषिका का अनुमान काफी पहले से ही किया जाने लगा था। इस तरह की आशंका सर्वप्रथम बीसवीं सदी के प्रारंभ में आर्हीनियस एवं थामस सी. चेम्बरलीन नामक दो वैज्ञानिकों ने की थी। किन्तु दुर्भाग्यवशी इसका अध्ययन 1958 से ही शुरू हो पाया। तब से कार्बन डाइऑक्साइड की सघनत का विधिवत रिकॉर्ड रखा जाने लगा। भूमंडल के गरमाने के ठोस सबूत 1988 से मिलने शुरू हुए। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस स्टीज के जेम्स ई.हेन्सन ने 1960 से लेकर 20वीं सदी के अन्त तक के आंकड़ों से निष्कर्ष निकाला है कि इस बीच धरती का औसत तापमान 0.5 से 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।

 

तालिका-2


कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करने वाले प्रमुख देश

देश

कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन (टन में)

संयुक्त राज्य अमेरिका

5228.52

चीन

3006.77

रूस

1547.89

जापान

1150.94

जर्मनी

884.41

भारत

803.00

ब्रिटेन

564.84

कनाडा

470.80

यूक्रेन

430.62

इटली

423.82

फ्रांस

362.02

दक्षिण कोरिया

353.10

 

 
ये तमाम आंकड़े किसी अनजानी दुनिया के नहीं, बल्कि इसी जगत के हैं जहाँ हम रहते हैं, सांस लेते हैं और खुशहाली के सपने बुनते हैं। अब तो योजनायें बनाने की परंपरा भी इतिहास बनाने लगी हैं। इस बाबत ‘मांट्रियल प्रोटोकाल’ और ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ की योजनायें भी बनायी गयीं। मांट्रियल प्रोटोकॉल में सी.एफ.सी. आदि ओजोन परत को नुकसान पहुँचाने वाली गैसों को प्रतिबन्धित करने की बात की गयी थी जबकि क्योटो प्रोटोकॉल में N2O तथा अन्य ज्वलनशील गैसों को प्रतिबन्धित करना तय हुआ था जो ओजोन परत को नष्ट करती हैं। विकसित देशों को सी.एफ.सी. का उपयोग 1998 तक पूर्णतः समाप्त करने की योजना थी जबकि भारत सहित अन्य विकासशील राष्ट्रों को अत्याधुनिक तकनीकों का विकास न होने के कारण 2010 तक की मोहलत दी गयी। किन्तु अमेरिका का क्योटो सन्धि से अलग रहना विश्वव्यापी चिन्ता और आक्रोश का विषय है। दुनिया भर में आतंकवाद का खात्मा करने का बीड़ा उठाने वाला अमेरिका, दुनियाभर का सुख समृद्धि का लुभावना आश्वासन (झूठा ही सही) देने वाला अमेरिका पृथ्वी को बचाने की मुहिम में पीछे हट रहा है।

संयुक्त राष्ट्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कोफी अन्नान के शब्दों में कहें तो पृथ्वी हमारा घर है, इसे हमें ही सुरक्षित रखना है। वास्तव में हम न तो ब्रह्माण्ड को ग्लास हाउस में संरक्षित कर सकते हैं और न ही उसका विनाश कर सकते हैं। कम से कम संतुलन कायम कर ही सकते हैं।

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