गम्भीर जलसंकट की ओर बढ़ता मध्य प्रदेश

14 Jun 2015
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हर साल गर्मी का मौसम आते-आते शहर के भूजल की स्थिति गम्भीर हो जाती है, कभी शहर के लिये पेयजल का प्रमुख स्रोत रहा बड़ा तालाब दिनोंदिन अपने प्राकृतिक स्वरूप को खोता जा रहा है, उसका क्षेत्रफल 45 वर्ग कि.मी. से घटकर अब 31 वर्ग कि.मी. ही रह गया है, अब हालत यह हो गये हैं कि नर्मदा नदी से पाइप लाइन के सहारे भोपाल में जल प्रदाय किया जा रहा है, लेकिन नर्मदा भी शहर का प्यास नहीं बुझा पा रही है। मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल को झीलों का शहर भी कहा जाता है, वर्षों से यहाँ के तालाब नगरवासियों के लिये पेयजल का प्रमुख स्रोत रहे हैं लेकिन पिछले करीब एक दशक से देश के अन्य शहरों की तरह भोपाल भी गम्भीर जल संकट से जूझ रहा है, तेजी से गिरते भूजल स्तर वाले शहर भोपाल को केन्द्रिय भूजल प्राधिकरण ने अतिरिक्त भूजल दोहन के क्षेत्र में शामिल किया है, यहाँ जितना पानी हर साल जमीन में पहुँचता है उसे निकालने के साथ भूगर्भ में मौजूद 37 प्रतिशत अतिरिक्त पानी भी निकाल लिया जाता है।

हर साल गर्मी का मौसम आते-आते शहर के भूजल की स्थिति गम्भीर हो जाती है, कभी शहर के लिये पेयजल का प्रमुख स्रोत रहा बड़ा तालाब दिनोंदिन अपने प्राकृतिक स्वरूप को खोता जा रहा है, उसका क्षेत्रफल 45 वर्ग कि.मी. से घटकर अब 31 वर्ग कि.मी. ही रह गया है, अब हालत यह हो गये हैं कि नर्मदा नदी से पाइप लाइन के सहारे भोपाल में जल प्रदाय किया जा रहा है, लेकिन नर्मदा भी शहर का प्यास नहीं बुझा पा रही है।

शहर के कोलार क्षेत्र में पूरे साल ही पानी की किल्लत रहती है, लोगों को निजी टैंकर संचालकों से महंगा पानी खरीदने के लिये मजबूर होना पड़ता है, एक टैंकर के 250 से 500 रुपए तक वसूले जाते हैं, इसी तरह से पुराने शहर के कई इलाकों में भी हर साल गर्मी आते ही जल संकट का गहराना आम हो गया है।

अगर पूरे मध्य प्रदेश की बात की जाये तो एक तिहाई आबादी को रोज पानी नहीं मिल पा रहा है, खुद प्रशासन का मानना है कि प्रदेश के 360 नगर निकायों में से 189 में प्रतिदिन पानी सप्लाई नहीं हो पा रही है, ग्रामीण क्षेत्रों की हालत तो और बदतर है, पहाड़ी इलाकों में भी बड़ी संख्या में आदिवासी समुदाय दूषित पानी पीने को मजबूर हैं।

उन्हें तो यह दूषित पानी भी मीलों चल कर लाना पड़ रहा है। नदी नालों में पानी सूख जाने के कारण पालतू पशुओं का प्यास बुझाना बहुत मुश्किल साबित हो रहा है। इस गम्भीर संकट के वजह से गर्मियों में कई क्षेत्रों में लोगों को हर वर्ष पलायन करने को मजबूर होना पड़ता हैं।

मध्य प्रदेश सरकार के प्रदेशव्यापी जलाभिषेक अभियान के तहत सभी 50 जिलों की लगभग 130 ऐसी नदियों और नालों को चिन्हांकित किया गया है जो अब सूख चुकी हैं। इन्दौर-मालवा, जबलपुर और ग्वालियर और बुन्देलखण्ड जैसे क्षेत्रों की स्थिति दिनों दिन भयावह होती जा रही है।

लोक स्वास्थ्य यान्त्रिकी विभाग के एक सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ है कि बीते एक साल में मालवा-निमाड़ अंचल में भूमिगत जलस्तर में औसत 0.18 से 10 फीट तक की गिरावट दर्ज की हुई है, सबसे बुरी हालत इन्दौर, धार, बड़वानी, झाबुआ, देवास, मन्दसौर और रतलाम की है। 30 मार्च 2014 तक इन्दौर में औसत जलस्तर 29.50 फीट था, जो अब 38.35 तक नीचे उतर गया है। इसी तरह धार में 26.20 से बढ़कर 30.27, बड़वानी 28.03 से बढ़कर 28.95, झाबुआ में 22.33 से 26.40, देवास में 33 से 38, मन्दसौर में 33. 50 से 35 तथा रतलाम में औसत जलस्तर 33 से 43 फीट तक नीचे उतर गया है।

जल संरचनाओं के लगातार कम होते जाने और इनके संरक्षण के अभाव में पानी लगातार हर साल नीचे और नीचे जा रहा है। लेकिन शायद राज्य सरकार के पास इस संकट से उबरने के लिये कोई ठोस और टिकाऊ योजना नहीं है, इसलिये उसे इसका उपाय निजीकरण में नजर आ रहा है, इसी सोच के अनुरूप प्रदेश के खण्डवा शहर की जल प्रबन्धन व्यवस्था को निजी कम्पनी को सौंपने की कोशिश की गई थी, जिसके तहत नगर निगम खण्डवा व मध्य प्रदेश सरकार ने एक निजी कम्पनी से 23 वर्ष की अवधि का समझौता होना था।

इस समझौते के तहत खण्डवा शहर सभी सार्वजनिक जल स्रोत निजी हाथ में चले जाते, अमीर या गरीब सभी को पानी खरीदना होता। इसका भारी विरोध हुआ और मामला उच्च न्यायालय तक पहुँच गया, हाल ही में माननीय उच्च न्यायालय की एक खण्डपीठ ने राज्य सरकार और नगर निगम खण्डवा को निर्देश दिया है कि खण्डवा शहर की वर्तमान जल प्रबन्धन प्रणाली में किसी भी तरह की छेड़छाड़ ना करे और आगामी आदेश तक यथा-स्थिति को बरकरार रखा जाए।

इसी तरह की कोशिश भोपाल और इन्दौर में भी की जा रही है जहाँ मध्य प्रदेश सरकार ने जल वितरण व्यवस्था को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है, जाहिर है जल वितरण यह मॉडल “बिना किसी भेद-भाव के” शुल्क और मुनाफ़ा आधारित है, कम्पनियों का असली लक्ष्य जलसंकट दूर करना नहीं मुनाफ़ा कूटना होगा, सरकार को भी हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 में जीने के अधिकार के तहत जनता को पीने का पानी मुहैया कराने के अपने जवाबदेही से बचने का रास्ता तलाशने में आसानी होगी, इन सबका ख़ामियाज़ा जनता को भुगतना पड़ेगा।

जलसंकट और पर्यावरण का गहरा सम्बन्ध है, लेकिन प्रदेश सरकार को शायद इसकी कोई चिन्ता नहीं है, इसकी एक बानगी हाल ही में मध्य प्रदेश विधानसभा परिसर में सदन के सदस्यों के लिये नए विश्राम घर बनाने के लिये 1600 पेड़ों की कटाई के फैसले में देखने को मिलता है।

भोपाल खुशनुमा और हरियाली मौसम के लिये मशहूर रहा है लेकिन अब यह बीते कल की बात हो चुकी है, भोपाल की पुरानी तासीर खत्म हो चुकी है, शायद पेड़ों और हरियाली को विकास के रास्ते का अवरोध मान लिया गया है तभी तो विगत कुछ दशकों के दौरान शहर में लगातार पेड़ काटे गये हैं, हाल ही में गुजरे पूर्व आईएएस अफसर एमएन बुच जिन्हें नए भोपाल का शिल्पकार भी कहा जाता है, भोपाल में इस बदलाव और शहर के अनियन्त्रित विकास से बहुत निराश थे, वे मानते थे कि झील और तालाब लोगों के जीवन को बनाए रखने के लिये बहुत जरूरी हैं।

इस संकट से उबरने के उपाय पानी के निजीकरण और पेड़ों को विकास का अवरोध मानने में नहीं है, बल्कि जरूरत इस बात की है कि वाटर हार्वेस्टिंग पद्धति के द्वारा बारिश के पानी को ज़मीन के अन्दर पहुँचाया जाए, युद्ध स्तर पर नदियों, झीलों और कुँओं व बावड़ियों को पुर्नजीवित करने का काम किया जाए, लोगों और सरकारों की सोच में बदलाव लाया जाए जिससे वे पेड़ों और हरियाली को अवरोध नहीं साथी मानना सीख सकें, लेकिन प्रदेश का प्रशासन इस समस्या को लेकर कितना गम्भीर है उसका अन्दाजा टीकमगढ़ जिले के एसडीएम के हालिया बयान से लगाया जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा है कि ग्रामीणों को जलसंकट से बचने के लिये तीन-तीन शादियाँ करनी चाहिए, एक पत्नी बच्चों को जन्म देने के लिये और बाकी दो पत्नियाँ पानी लाने के काम आएँगे।

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