गन्दे पानी के इस्तेमाल से जा रही नवजात शिशुओं की जान


कई विकासशील देशों ने स्वच्छता और साफ सफाई को लेकर जागरुकता अभियान चलाने में बहुत सारा पैसा खासतौर से पिछले दो दशकों में खर्च किया है। लेकिन इसका कोई खास असर बीमारी से हो रही मृत्यु पर पड़ता नहीं दिखा। डायरिया से आज भी औसतन 2200 बच्चों की मृत्यु प्रतिदिन हो रही है। यह मलेरिया और एड्स की वजह से मरने वाले कुल मरीजों की संख्या से भी अधिक बड़ी संख्या है। दुनिया में विकासशील देशों के अन्दर डायरिया (दस्त) एक आम बीमारी है। जिसकी चपेट में सबसे अधिक नवजात शिशु आते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रत्येक वर्ष दुनिया भर में पाँच वर्ष से कम उम्र के नवजात आठ लाख बच्चे डायरिया की वजह से मौत के मुँह में चले जाते हैं। मरने वाले बच्चों में अधिकांश विकासशील देशों से होते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार नवजात शिशुओं की मृत्यु की वजह लगभग 90 फीसदी मामलों में गन्दे पानी का इस्तेमाल, अस्वच्छता और साफ सफाई की कमी है। डायरिया को लेकर द यूनाइटेड नेशन्स चिल्ड्रेन्स इमरजेन्सी फंड की राय भी कुछ ऐसी ही है।

कई विकासशील देशों ने स्वच्छता और साफ सफाई को लेकर जागरुकता अभियान चलाने में बहुत सारा पैसा खासतौर से पिछले दो दशकों में खर्च किया है। लेकिन इसका कोई खास असर बीमारी से हो रही मृत्यु पर पड़ता नहीं दिखा। डायरिया से आज भी औसतन 2200 बच्चों की मृत्यु प्रतिदिन हो रही है। यह मलेरिया और एड्स की वजह से मरने वाले कुल मरीजों की संख्या से भी अधिक बड़ी संख्या है।

एक से पाँच साल तक की उम्र के शिशुओं की होने वाली मृत्यु में 17 प्रतिशत शिशुओं की मृत्यु की वजह डायरिया है। 7,60,000 पाँच साल से कम उम्र के बच्चे प्रतिवर्ष डायरिया की भेंट चढ़ जाते हैं। भारत में आधिकारिक स्रोतों के अनुसार 01 से 04 साल तक की उम्र में जिन बच्चों की मृत्यु हो जाती है, उनमें 24 प्रतिशत नवजात शिशुओं की मृत्यु की वजह डायरिया है और इसी प्रकार 05 से 14 वर्ष तक के 17 प्रतिशत बच्चे डायरिया की वजह से मौत के शिकार होते है।

डायरिया की वजह से सबसे अधिक नवजात शिशुओं की मृत्यु 06 माह से लेकर 12 माह के बीच हुई है। जिन परिवारों में नवजात शिशु हो उनके लिये यह छह महीने अधिक संवेदनशील हैं और इन महीनों में सबसे अधिक सतर्कता बरतने की जरूरत है।

यह तो हम जानते हैं कि मानव मल खुला ना छोड़कर और अपने आस-पास स्वच्छता का ख्याल रख कर डायरिया के संक्रमण से बच सकते हैं। कई बार स्वच्छता का ख्याल न रख पाने की वजह से और कई बार मक्खी, पौधे, मछली, दूसरे जानवारों, मिट्टी और पानी के माध्यम से भी बीमारी घर के अन्दर दाखिल हो जाती है। इसलिये बीमारी से बचने के लिये हमें कुछ अतिरिक्त सावधानी बरतनी चाहिए। मसलन टॉयलेट के इस्तेमाल के बाद हाथ की सफाई करना हमारी आदत में शामिल होना चाहिए। घर जिसमें हम रहते हैं, उसकी नियमित सफाई जरूरी है। जहाँ हम काम करते हैं और हमारी रसोई भी साफ-सुथरी होनी चाहिए। पैर खाली नहीं होना चाहिए, उसमें जूता या चप्पल होना चाहिए।

यूनिसेफ से डायरिया से बचाव के लिये ‘वाश’ का मंत्र दिया। वाश बना है, वाटर, सेनिटेशन और हाइजीन से। यह बात अब स्पष्ट है कि अस्वच्छ पानी और साफ-सफाई की कमी डायरिया की मुख्य वजह है। लेकिन इन कमियों का प्रभाव रोगी और रोग पर क्या पड़ता है, इस विषय पर अभी अध्ययन हो रहा है।

पानी और सफाई किसी भी देश के टिकाऊ विकास के लिये जरूरी है। इस बात को संयुक्त राष्ट्र ने सितम्बर 2015 में अपने 17 सस्टनेबल डेवलपमेंट गोल में शामिल करके अधिक स्पष्टता प्रदान की। 17 टिकाऊ विकास के लक्ष्यों में छठा लक्ष्य पानी और स्वच्छता को संयुक्त राष्ट्र 2030 तक हर एक व्यक्ति तक पहुँचाने की वकालत करता है।

यह लक्ष्य आज की तारीख में भारत के लिये भी पा लेना एक बड़ी चुनौती है। इसके बावजूद की भारत में प्रधानमंत्री के आग्रह पर स्वच्छता का अभियान देश में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के नाम से जोर-शोर से आन्दोलन की तरह चलाया जा रहा है। 2014 विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनिसेफ के आँकड़े बताते हैं कि भारत उन 45 देशों के समूह में शामिल है, जहाँ स्वच्छता आधी आबादी की पहुँच में भी नहीं है। प्रतिशत में आँकड़ा पचास फीसदी से भी कम का है। जिसकी वजह से देश की बड़ी आबादी गन्दगी के बीच जीने को विवश है।

डायरिया में ओरल रिहाइड्रेशन सॉल्यूशन (ओआरएस) देने की शुरुआत भारत में हुई। धीरे-धीरे इसे पूरी दुनिया में स्वीकार किया गया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार यह रोग धीरे-धीरे नियंत्रित हो रहा है। जहाँ विकासशील देशों में प्रति हजार नवजात शिशुओं में 13.6 शिशुओं की मृत्यु 1982 तक हो जाती थी, 1992 में वह घटकर 5.6 हो गया और 2000 में वह 4.9 रह गया।

भारत सरकार भी डायरिया के रोग को लेकर गम्भीर है। इसलिये सरकार ने डायरिया से बचाव का विशेष कार्यक्रम बनाया है। जिसके अन्तर्गत साबुन से हाथ की अच्छी तरह सफाई का प्रचार किया जा रहा है, सप्लाई की पानी की मात्रा और गुणवत्ता में सुधार, सामुदायिक स्तर पर साफ सफाई को प्रोत्साहन, डायरिया से बचाव के साधन जन साधारण तक सहजता से उपलब्ध कराने का प्रयास, आँकड़े बताते हैं कि भारत में ओआरएस का प्रयोग बढ़ा है, इस सम्बन्ध में समाज को और अधिक जागरूक होने की जरूरत है।

एक शोध पत्र में बताया गया है कि ग्रामीण बिहार में सिर्फ 3.5 प्रतिशत स्वास्थ्य कर्मचारी डायरिया के इलाज के लिये ओआरएस इस्तेमाल करने की सलाह परिवारों को दे रहे हैं। इस तरह के अध्ययनों के बाद प्रशिक्षित स्वास्थ्य कर्मियों की आवश्यकता को भी महसूस किया गया है, जो सामुदायिक स्तर पर समाज को डायरिया के सम्बन्ध में जागरूक कर पाये।

अब जरूरत इस बात की भी है कि सरकार डायरिया से जुड़े पुराने आँकड़ों के आधार पर डायरिया उन्मूलन के लिये प्राथमिकता तय करे और योजना बनाए। नई योजना बनाते हुए जरूरी है कि पुरानी योजनाओं का मूल्यांकन किया जाये।

डायरिया से लड़ते हुए भारत को तीन दशक से अधिक समय निकल चुका है। भारत अब भी इस बीमारी पर जीत हासिल नहीं कर पाया है। आने वाले समय में इस बीमारी से योजनाबद्ध तरीके से लड़ने के लिये हमें तैयार होना होगा।

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