गंधमार्दन : सत्याग्रह की ताजी गंध

वन और खनिज संपदाओं से परिपूर्ण उड़ीसा राज्य के तीन जिले संबलपुर, बलांगीर और कालाहांडी के केंद्र में गंधमार्दन पर्वत श्रृंखला फैली हुई है। इस पर्वत श्रृंखला के एक तरफ संबलपुर जिले के पदमपुर का अकाल पीड़ित इलाका है और दूसरी तरफ सैंकड़ो वर्ग किलोमीटरों में कालाहांडी का भयानक अकालग्रस्त इलाका फैला है। पदमपुर की हालत फिर भी थोड़ी बहुत अच्छी ही है लेकिन कालाहांडी इलाके के अकालजनित दारिद्र्य का वर्णन करना संभव नहीं।

इन्हीं दोनों अनावृष्टिग्रस्त इलाकों के मध्य भाग में गंधमार्दन पर्वतमाला का विस्तार है। पर्वत से छोटी-बड़ी चिरस्रोता नदियां बहती हैं। इस पर्वतमाला का अधिकांश भाग उम्दा किस्म के बाक्साइट का है। भूशास्त्रियों की राय में बाक्साइट का यह भंडार एशिया का सबसे बड़ा भंडार माना गया है।

वन संपदा और झरने यहां के पचास हजार वनवासियों का जीवनाश्रय हैं, जीविकोपार्जन का एकमात्र आधार है। आसपास के अकालग्रस्त क्षेत्रों की तुलना में यहां के निवासी जीविकोपार्जन के लिए भी कहीं बाहर नहीं जाते। अब इस बाक्साइट पर भारत की अल्युमिनियम कंपनी की लोलुप दृष्टि पड़ी है। कंपनी ने उड़ीसा सरकार के साथ समझौता किया है।

खनन कार्य अभी आरंभ नहीं हुआ है, केवल उसकी तैयारी चल रही हैं। परिवहन व्यवस्था के लिए सड़कें, रेल मार्ग तथा वायुमार्ग का निर्माण भी अभी प्राथमिक अवस्था में ही है। पर सिर्फ इतने से ही दुर्लभ वनौषधि से परिपूर्ण सघन अरण्य का जिस प्रकार ध्वंस हो रहा है, और इन कामों से निकला मलबा जिस गति से झरनों को पाट रहा है, उसे देखकर भविष्य का भयानक चित्र समझ में आ जाता है।

पदमपुर के नृसिंहनाथ सर्वोदय मंडल और अन्य नागरिकों ने इस खनन का शुरू से ही विरोध किया था। बैठकें हुई, प्रस्ताव आदि पास हुए। सरकार को भविष्य के खतरों से अवगत कराया गया लेकिन कोई असर नहीं हुआ।

आरंभ में खनन के कारण व्यापक बर्बादी का अंदाजा लोगों को नहीं था। लेकिन जब काम शुरू हुआ तो आगे का खतरा साफ दिखने लगा। लोग कंपनी के विरुद्ध होते गए।

विरोध को जन-आंदोलन का रूप देने का श्रेय संबलपुर विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञानी तथा राष्ट्रीय सेवा योजना के संगठक, आर्तबंधु मिश्र को जाता है। उन्हीं के प्रयत्नों से गंधमार्दन इलाके के नृसिंहनाथ पर्यटन स्थल में विश्वविद्यालय की राष्ट्रीय सेवा योजना की तरफ से एक शिविर का आयोजन किया गया। इसमें अन्य राज्यों के विश्वविद्यालयों के छात्र और अध्यापकों को भी आमंत्रित किया गया। इस दिन की अवधि के इस कैंप में आये हुए लोग आसपास के गांवों में गये। लोगों ने अपनी चिंता उनके सामने व्यक्त की। गांवों से लौटकर छात्र-छात्राओं ने अपना अनुभव कैंप में सुनाया। फिर आगे के काम की योजना भी वहीं प्रस्तुत की गई।

पर्यावरण सुरक्षा के लिए जनता को संगठित करने के लिए श्री प्रसन्न साहू, श्री निरंजन और श्री आशुतोष अपना सारा समय देने के लिए तैयार हो गए। श्री किशन पटनायक की प्रेरणा से समता-संगठन के सदस्यों ने भी इस संगठन में मदद दी। ये लोग एक साल तक गंधमार्दन इलाके के गांवों में घूमे। इस तरह बनी गंधमार्दन सुरक्षा युवा परिषद।

प्रारंभ में सड़के व रेल मार्ग के निर्माण को रोकने के लिए सत्याग्रह किया गया, धरने गिए गए। अपने-अपने क्षेत्र में कंपनी के इस रास्ता निर्माण कार्य को रोकने के लिए पुरुष, महिलाएं और बच्चे बारी-बारी से आकर सत्याग्रह करने लगे। फिर स्थानीय श्रमिकों ने भी पूरा सहयोग किया। तब कंपनी सुदूर छत्तीसगढ़ इलाके से श्रमिकों को ज्यादा मजदूरी पर ले आई। पर सत्याग्रही उन्हें भी समझाकर, मनाकर वापस कर देने में सफल हुए।

जनवरी 86 में श्री सुंदरलाल बहुगुणा पांच दिन तक गंधमार्दन के इलाके के गांवों में घूमे। आंदोलन में तेजी आ गई।

कंपनी की गाड़ियों को काम के लिए बाहर निकलने नहीं दिया गया। कंपनी के कार्यालय के सामने प्रतिदिन धरना दिया जाने लगा। लोगों में इतना उत्साह था कि वे सूर्योदय के पहले ही सत्याग्रह की जगह पर एकत्र हो जाते थे। गोद में बच्चे लिए महिलाएं कड़कड़ाती ठंढ में भी सत्याग्रह के लिए खड़ी रहतीं।

कंपनी ने पुलिस की सहायता ली। कई बार सत्याग्रह करने वालों को गिरफ्तार कर छोड़ देने के बाद फिर गिरफ्तार कर लिया- इसमें 73 सत्याग्रहियों में 40 महिलाएं थीं। जेल की तंग कोठरियों में दो दिन खड़े-खड़े बिताने के बाद उन्हें अदालत में पेश किया गया। ‘राजद्रोह अपराध न करने की शर्त मानते हुए जमानत पर 71 लोगों को छोड़ दिया गया। लेकिन इस सत्याग्रह का नेतृत्व करने वाले 68 साल के वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्रामी और सर्वोदयी श्री अलेख पात्र और श्री रायधर लोहार ने इस शर्त को मानने से इन्कार किया। जमानत आदेश का विरोध करते हुए उन्होने सेशन कोर्ट में अपील की। ढाई महीने के बाद उन्हें सम्मान के साथ रिहाई का आदेश मिला। लोगों का साहस और बढ़ा। आंदोलन व्यापक होता गया।

नागरिकों द्वारा की गई एक अपील पर हाई कोर्ट से स्टे आर्डर भी मिल गया पर कंपनी ने अपना काम बंद नहीं किया। ट्रकों में भर-भरकर बाक्साइट नीचे लाया जाने लगा और कंपनी के कोवा (म.प्र.) स्थित कारखाने में भेजने की तैयारी की जाने लगी। सत्याग्रहियों ने गाडियों को रोकना शुरू कर दिया। यह बाक्साइट कंपनी की गाड़ी से नहीं, बाहर के ठेकेदारों की गाड़ियों से लाया जाता था। ठेकेदारों को भी समझाया गया। उन्होंने भी कंपनी के लिए काम करना बंद कर दिया। तब से भारत अल्युमिनियम कंपनी का सारा काम ठप्प पड़ा है। अब तो आंदोलनकारियों की अनुमति के बिना वन विभाग की गाड़ी भी ऊपर नहीं जा सकती।

नवंबर 1986 में केंद्र सरकार की तरफ से डॉ नाग चौधरी समिति ने नृसिंहनाथ आकर निरीक्षण किया तथा युवा परिषद के सदस्यों और नागरिकों के साथ बातचीत की।

समिति की राय किस तरफ होगी और उसे पर्यावरण मंत्रालय मानेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता। लेकिन अपने वनों की रक्षा के लिए लोग जान देने के लिए तैयार हैं। चिलचिलाती धूप में, मूसलाधार वर्षा या ठिठुरती ठंड की आधी रात-कंपनी के विरोध में पुरुष और महिलाएं ही नहीं, बच्चों तक उत्साह से निकल जाते हैं। गांव का हर युवक युवा परिषद का सदस्य है। पुलिस की धमकियां या लाठी की भय, जेल जाने का डर, कुछ भी इन लोगों को पीछे हटा नहीं सकता। दो साल से आंदोलन चल रहा है मगर लोगों के उत्साह में कोई कमी नहीं आई।

ये तो रही आंदोलन की बातें। अब कुछ उपलब्धियां भी देखें: गांवों में जो आपसी कलह थी, वह इस आंदोलन के कारण समाप्त हुई है। लोग अब झगड़े गांव में निपटा लेते हैं। छुआछूत का भी इस इलाके में बड़ा प्रभाव था। अब सत्याग्रह की जगहों में सवर्ण-असवर्ण, ब्राह्मण-हरिजन एक ही रसोई में खाते हैं। ये उपलब्धियां एक स्वस्थ-समाज के पुनर्गठन का संकेत देती हैं।

इस बीच गंधमार्दन को लेकर दिल्ली में पर्यावरण मंत्रालय और खनन विभाग भी एक-दूसरे से भिड़ गए हैं। बताया जाता है कि नाग चौधरी समिति कुछ सावधानियों के साथ खनन के पक्ष में है, पर पर्यावरण मंत्रालय इस रिपोर्ट को निष्पक्ष नहीं मान रहा है। मंत्रालय ने रिपोर्ट पर बड़ी तीखी टिप्पणियां लिखी हैं और यहां तक कहा है कि लगता है कि इस समिति ने पर्यावरण के मुद्दों की जांच पड़ताल के बदले कंपनी के सलाहकार की तरह काम किया है। लेकिन खनन विभाग इस रिपोर्ट को लेकर बहुत उत्साहित है। टिहरी और नर्मदा बांधों के खिलाफ राय रखने वाला पर्यावरण मंत्रालय उन योजननाओं को रुकवा नहीं सका। अब एक बार फिर पर्यावरण मंत्रालय कसौटी पर है।

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