गंगा मुक्ति: अनशन और आश्वासन से आगे

31 Mar 2012
0 mins read

समस्या नदी के आर्थिक उपयोग से नहीं होती, समस्या तब होती है, जब उसका अंधाधुंध दोहन होता है, इतना कि नदी कई जगह नाले के समान दिखने लगती है। गंगा पर काम करने वाले बताते हैं कि गंगा का करीब 90 फीसदी पानी निकाल लिया जाता है। इससे उसकी आंतरिक पारिस्थितिकी तबाह हो चुकी है। दिक्कत यह है कि दूसरे प्राकृतिक संसाधनों की तरह ही हमने नदियों के अतिशय दोहन को एक ऐसा रास्ता मान लिया है, जिसका कोई विकल्प नहीं हो।

सरकार के हस्तक्षेप से स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद (जीडी अग्रवाल) का आमरण अनशन और जल-त्याग तो समाप्त हो गया, लेकिन गंगा को लेकर खड़ी समस्या अब भी अपनी जगह कायम है। अतीत के अनुभवों को देखते हुए यह विश्वास मुश्किल ही है कि सरकार गंगा मुक्ति का काम तुरंत आरंभ कर देगी। इस मांग को लेकर इधर स्वामी सानंद ने अपने सत्याग्रह को आंशिक विराम दिया और उधर वाराणसी में दूसरे संन्यासी ने अन्न त्याग कर दिया है। गंगा सत्याग्रह की ये दो घटनाएं तो सुर्खियों में आईं, लेकिन गंगोत्री से गंगा सागर तक गंगा को बचाने के नाम पर छोटे-बड़े असंख्य रचनात्मक, बौद्धिक, आध्यात्मिक संघर्ष व अभियान चल रहे हैं।

इनकी गिनती मुश्किल है। इनकी ओर ध्यान तभी जाता है, जब या तो किसी के प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं या कोई दुर्घटना घट जाती है... या संघर्ष में किसी प्रकार की हिंसा होती है। हरिद्वार में संत निगमानंद का नाम हमने तब जाना, जब उन्होंने गंगा खनन के विरुद्ध अन्न-जल त्यागकर अपना अंत कर लिया। आखिर गंगा मुक्ति के लिए अभियान चलाने वालों की मांगें क्या हैं? कुल मिलाकर चार मांगें है, जो इन सबमें शामिल दिखती हैं। एक, बांध बनाकर गंगा की धारा को बाधित न किया जाए। दो, धारा की निर्मलता बनी रहे। यानी शहरों के मल, कचरे, औद्योगिक अवशिष्ट आदि नदी में प्रवाहित न किए जाएं। तीन, अति खुदाई आदि के जरिये उसका स्वरूप न बिगाड़ा जाए।

यानी पेटी से पत्थर आदि की खुदाई का कारोबार रुके। चार, गंगा में जल की जरूरी मात्र बनी रहे, यानी अत्यधिक जल दोहन की नीतियों का अंत हो। इन चारों मांगों में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे उन्हें गलत कहा जा सके। ये मांगें पर्यावरण की उस चेतना के भी अनुकूल हैं, जिन पर पूरी दुनिया अब एकमत होती जा रही है। गंगा ही नहीं, देश की लगभग सभी नदियां सदियों से सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक भूमिका निभाती रही हैं। इनका अपने किनारे बसने वालों की आजीविका में बड़ा योगदान रहा है। समस्या नदी के आर्थिक उपयोग से नहीं होती, समस्या तब होती है, जब उसका अंधाधुंध दोहन होता है, इतना कि नदी कई जगह नाले के समान दिखने लगती है।

गंगा पर काम करने वाले बताते हैं कि गंगा का करीब 90 फीसदी पानी निकाल लिया जाता है। इससे उसकी आंतरिक पारिस्थितिकी तबाह हो चुकी है। दिक्कत यह है कि दूसरे प्राकृतिक संसाधनों की तरह ही हमने नदियों के अतिशय दोहन को एक ऐसा रास्ता मान लिया है, जिसका कोई विकल्प नहीं हो। बिजली की आवश्यकता देखते हुए बांधों को रोकने का जोखिम क्या कोई सरकार उठा सकती है? दरअसल, गंगा की मुक्ति का मामला विकास, पर्यावरण और शासन की पूरी सोच बदलने का है, जिसकी ओर अभी न कोई ध्यान दे रहा, न कोई बदलाव का संकल्प ले रहा है।

Posted by
Get the latest news on water, straight to your inbox
Subscribe Now
Continue reading