गंगा ने संभाला है हमारे पुरखों को...

2 Nov 2010
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दुनियाभर में नदियों के साथ मनुष्य का एक भावनात्मक रिश्ता रहा है, लेकिन भारत में आदमी का जो रिश्ता नदियों- खासकर गंगा, यमुना, नर्मदा, गोदावरी आदि प्रमुख नदियों के साथ रहा है, उसकी शायद ही किसी दूसरी सभ्यता में मिसाल देखने को मिले। इनमें भी गंगा के साथ भारत के लोगों का रिश्ता जितना भावनात्मक है, उससे कहीं ज्यादा आध्यात्मिक है।

भारतीय मनुष्य ने गंगा को देवी के पद पर प्रतिष्ठित किया है। हिन्दू धर्मशास्त्रों और मिथकों में इस जीवनदायिनी नदी का आदरपूर्वक उल्लेख मिलता है। संत कवियों ने गंगा की स्तुति गाई है तो आधुनिक कवियों, चित्रकारों, फिल्मकारों और संगीतकारों ने भी गंगा के घाटों पर जीवन की छटा और छवियों की रचनात्मक पड़ताल की है। इस महान नदी में जरूर कुछ ऐसा है, जो आकर्षित करता है।

आखिर गंगा के अलावा संसार में ऐसी दूसरी नदी कौन-सी है, जिसके किनारे लाखों लोग कुंभ स्नान के लिए स्वतः एकसाथ जुटते हैं और धैर्यपूर्वक अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हैं- एक मोक्षदायिनी डुबकी के लिए।

हम भारतीयों का बहुत-सा कार्य-व्यापार सिर्फ आस्था से चलता है। गंगा में डुबकी लगाना है तो बस लगाना है। कोई तर्क हमें रोक नहीं पाता। नहीं तो आप बताइए कि हिमालय से और भी नदियाँ निकलती हैं। वे भी उतनी ही पवित्र या प्रदूषित होती हैं, मगर गंगा-स्नान करके ही हम तथाकथित मोक्ष या आनंद या चैन क्यों पाना चाहते हैं?

हमारे देश में और भी नदियाँ हैं लेकिन हमारी सरकारें सिर्फ गंगा को ही प्रदूषणमुक्त बनाने के अभियानों पर ही सबसे ज्यादा जोर क्यों देती हैं? औद्योगिक सभ्यता जैसे संसार की अनेक नदियों को चट कर गई है, वैसे ही उसने गंगा को भी बुरी तरह आहत किया है, लेकिन हमारे यहाँ सिर्फ गंगा शुद्धिकरण पर ही इतना ज्यादा जोर क्यों है? इसका उत्तर इसके अलावा और क्या हो सकता है कि गंगा जमीन पर ही नहीं, हमारे मनोलोक में- हमारे अवचेतन में- भी बहती है।

अनेक विद्वानों ने लिखा है कि गंगा और हिमालय कैसे पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे आधुनिक और धर्मनिरपेक्ष नेता को भी भावुक बना देते थे। कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी गंगा की।

हम उत्तर भारतीयों के जीवन में तो गंगा बेहद शामिल है। अमिताभ बच्चन जैसे महानायक भी अपनी पहचान 'छोरा गंगा किनारे वाला' बताकर गर्व ही महसूस करते हैं। क्यों उन्होंने नहीं कहा 'छोरा अरब सागर किनारे वाला'? कहते हैं जो लोग मॉरीशस, फिजी और सूरीनाम में मजदूरी करने के लिए ले जाए गए थे, वे अपने साथ रामायण और गंगा जल ले गए थे।

हिमालय पर तमाम तरह की वनस्पतियों और औषधियों के बीच से बहकर आता गंगा का पानी, जो कभी सड़ता नहीं और जिसका हिंदू सांस्कृतिक अनुष्ठानों में खुलकर प्रयोग होता था, अब न तो आचमन करने लायक है और न ही स्नान करने लायक।

इन्हीं के जरिए वे सांस्कृतिक रूप से भारत के साथ जुड़े रहे। उनकी आज की पीढ़ी इन दोनों चीजों के अलावा भारतीय फिल्मों और संगीत के जरिए भारत से जुड़ती है, लेकिन यदि भारत की मिट्टी और जल ने हमें रचा और गढ़ा है तो यकीन मानिए कि गंगा जल की भी उसमें अपनी भूमिका है।

उसने एक अलग तरह से हमारे मनोलोक को रचा है- हमारे सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक मनोलोक को। यही वह अद्भुत मनोलोक है, जिसके बारे में संत कवि रैदास ने कहा है-'मन चंगा तो कठौती में गंगा।'

ये सब बातें आज याद आ रही हैं तो इसलिए कि हम भी गंगा के आसपास ही रहे हैं और 2 नवंबर को गंगा-स्नान का पर्व है। बचपन में गंगा-स्नान के पर्व का इंतजार रहता था। हमारे कस्बे से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर तीन ऐसी जगहें थीं, जहाँ हम बस, ट्रेन, बैलगाड़ी या साइकल से गंगा-स्नान करने जाते थे। बारिश में गंगा का पानी गंदला हो जाता था, लेकिन यदि हम बच्चों के मुँह से 'गंदला' शब्द गंगा के लिए निकल जाता था तो बड़े-बूढ़े नाराज हो जाते थे और कहते थे :'ना! गंगा मैया के लिए ऐसा नहीं कहते।'

कार्तिक में गंगा का पानी धूप में चमकता था। शीतल और उज्ज्वल। कार्तिक पूर्णिमा को यह स्नान आता था। शायद हमारे पूर्वजों ने बारिश के बाद फिर से साफ और स्वच्छ हुई गंगा में स्नान के लिए कार्तिक पूर्णिमा को चुना हो। कई बार हम लोग एक या दो दिन के लिए वहीं गंगा के कच्चे घाट पर तंबू डालकर या पटेरा-बोरिया का डेरा डालकर रुक जाते। ऐसी एक जगह थी बालावाली।

गंगा के किनारे मेला जुड़ता। छोटे-मोटे खिलौने और चाट-पकौड़ी, जलेबी और मिठाई की दुकानें। खूब भीड़भाड़ रहती। शाम को डेरों में लालटेनें और दुकानों पर पेट्रोमेक्स जलते। लोगों के शोर में नदी का शोर सुनाई नहीं पड़ता, लेकिन सुबह मुँह अँधेरे अगर उठ जाते तो लगता जैसे नदी पुकार रही है।

शुरुआत में पानी ठंडा लगता, लेकिन फिर तो नदी से बाहर निकलने को मन न करता। इस पर्व ने हमारे निर्धन मित्रों के खाते में भी कोई दूसरा कस्बा रेल द्वारा देख आने की उपलब्धि दर्ज करा दी।

एक बार ग्याहरवीं की हमारी कक्षा में टीचर ने सभी छात्रों से बारी-बारी से पूछा- बताओ तुमने अब तक कौन-कौन से शहर देखे हैं और उनमें सबसे अच्छा शहर तुम्हें कौन-सा लगा है। सब बच्चों ने अपने देखे शहरों के नाम गिनाए। अंत में मेरे एक मित्र का नंबर आया।

उसने कहा : बालावाली। टीचर ने आश्चर्य से कहा : बालावाली? उसने कहा : हाँ मैंने आज तक सिर्फ बालावाली ही देखा है और वहाँ मैं गंगा स्नान करने गया था।

“मुक्तिबोध ने कहीं लिखा है कि आदमी जब पढ़-लिख जाता है तो सुसंस्कृत दिखने के चक्कर में मानवीय ऊष्मा से हीन होने लगता है। आज भी हरिद्वार में किसी भी दिन आप हर की पोड़ी और अन्य घाटों पर हजारों आदमियों को स्नान करते देख सकते हैं”

बालावाली में तब एक शीशे के सामान की फैक्टरी थी या फिर रेलवे स्टेशन से काफी दूर गंगा बहती थी, जहाँ रेत के टीलों के बीच से रास्ता बनाया जाता था लेकिन उस साधारण-सी जगह में गंगा स्नान का अनुभव बहुत असाधारण होता था। ऐसा भी हुआ है कि कभी हमारा कोई जान पहचानवाला आदमी नहाते हुए गंगा में डूब गया हो, लेकिन इसके बावजूद गंगा-स्नान में हमारी दिलचस्पी कम नहीं हुई।

लेकिन पिछले करीब दस वर्षों से मैंने कभी गंगा में स्नान करने का साहस नहीं किया। मुक्तिबोध ने कहीं लिखा है कि आदमी जब पढ़-लिख जाता है तो सुसंस्कृत दिखने के चक्कर में मानवीय ऊष्मा से हीन होने लगता है। आज भी हरिद्वार में किसी भी दिन आप हर की पोड़ी और अन्य घाटों पर हजारों आदमियों को स्नान करते देख सकते हैं, लेकिन इन दस वर्षों में हरिद्वार में गंगा तट पर ठहरकर भी मैंने गंगा में नहाने की कोशिश नहीं की।

मीडिया हमें बताता है कि गंगा के किनारे बसे तमाम शहरों का औद्योगिक कचरा और मलमूत्र गंगा में बहाया जाता है। हिमालय पर तमाम तरह की वनस्पतियों और औषधियों के बीच से बहकर आता गंगा का पानी, जो कभी सड़ता नहीं और जिसका हिंदू सांस्कृतिक अनुष्ठानों में खुलकर प्रयोग होता था, अब न तो आचमन करने लायक है और न ही स्नान करने लायक।

“गंगा को बचाना सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं है कि उसके साथ आस्था जुड़ी है, बल्कि इसलिए भी कि वह आज भी हमारी संस्कृति, जीवन का अभिन्न भाग है। वह जैव विविधता की वाहिका है और वनों और वन्य जीवों को ऊर्जा देने वाली है”।

जैसे दिल्ली में यमुना एक मरी हुई नदी है, वैसे ही गंगा में नहाना अब निरापद नहीं रहा। मैंने गंगा में शहर के गंदे नालों को गिरते हुए देखा है। इसलिए अब इस बात पर यकीन नहीं होता कि गंगा में गिरकर नाला भी अपने को गंगा में ही रूपांतरित कर लेता है।

गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए करीब ढाई दशक पहले गंगा एक्शन प्लान बना था, जिस पर 916 करोड़ रुपए खर्च कर गंगा को 2020 तक प्रदूषणमुक्त बनाने की बात है। गंगा सचमुच आज दयनीय हो गई है। कई जगह उसका पाट कम चौड़ा रह गया है और उसकी गहराई भी कहते हैं, कम हुई है।

गंगा को बचाना सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं है कि उसके साथ आस्था जुड़ी है, बल्कि इसलिए भी कि वह आज भी हमारी संस्कृति, जीवन का अभिन्न भाग है। वह जैव विविधता की वाहिका है और वनों और वन्य जीवों को ऊर्जा देने वाली है।

वह समूचे उत्तर भारत की मिट्टी को सोना बनाती है। वह निश्चय ही इतनी साफ-स्वच्छ तो होना ही चाहिए कि उसमें नहाते हुए किसी को भी कोई डर-चिंता नहीं हो, क्योंकि उसमें नहाए बगैर हम भारतीयों का काम नहीं चलता। गंगा साफ रहेगी तो हमारा पर्यावरण भी साफ रहेगा और वे नदियाँ भी जो गंगा में गिरती हैं।

लेकिन उसे साफ रखने का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि गंगा शताब्दियों से हमारे पुरखों की राख और हड्डियों को संभाले हुए है। गंगा का स्पर्श अनजाने में अपने पूर्वजों का स्पर्श भी है।
 
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